Saturday, August 30, 2008

मुझे क्या मिलेगा?

हमारे एक सहकर्मी थे। निहायत ही भले और सुसंस्कृत। कभी किसी ने ऊंची आवाज़ में बोलते नहीं सुना। प्रबंधक थे, कार्यालय की सारी खरीद-फरोख्त उनके द्वारा ही होती थी। कभी भी बेईमानी नहीं की। न ही किसी विक्रेता से भेदभाव किया। सबसे बराबर का कमीशन ही लेते थे। कम-ज़्यादा का सवाल ही नहीं। जब होली के मौके पर सबके लिए उपयुक्त शीर्षक चुने गए तो उनका शीर्षक भी उनकी महानता के अनुरूप ही था:

इस ब्रांच में मेरी मर्जी के बगैर कोई पत्ता नहीं हिलेगा,
कुछ खरीदने से पहले यह बताओ कि मन्नै के मिलेगा।

अफ़सोस की बात यह है कि "मन्नै के मिलेगा" की यह सोच सार्वभौमिक सी होती जा रही है। हर बात में हम "मुझे क्या मिलेगा" से ही चलायमान होते हैं। आरक्षण इसका ज्वलंत उदाहरण है। मेरी जाति को मिलता है तो अच्छा है, मुझे नहीं मिलता तो अन्याय है।

मेरी पत्नी खाना अच्छा बना लेती हैं। जब भी कोई नया (भारतीय) व्यक्ति हमारे घर पहली बार खाता है, उसका पहला सवाल यही होता है, "आप अपना रेस्तराँ क्यों नहीं खोल लेते?"

"क्यों भाई?"

"पैसा बहुत मिलेगा!"

घर खरीदने निकले तो एजेंट बताता कि हमें वह घर खरीदने चाहिए जिनमें लकडी जलाने वाले असली फायरप्लेस हों। सुरक्षा की दृष्टि से मैं आग से खेलने के विचार से बहुत प्रभावित नहीं था। यह जानकर एजेंट ने बताया, "बेचने में आसानी होती है। "

बेचना महत्वपूर्ण नहीं है, ऐसा मैं नहीं कहता, मगर आम मध्यम वर्ग के लिए घर खरीदने का पहला उद्देश्य उसमें रहना है - न कि बेचना। मगर हमारी सोच यही है। कार खरीदें या स्कूटर, उसकी विशेषताओं या उपयोगिता से पहले रीसेल वैल्यू का विचार आता है।

Thursday, August 28, 2008

सब तेरा है

पिछली बार एक संजीदा कविता ब्लॉग पर रखी तो मित्रों ने ऐसी चकल्लस की कि कविता की गंभीरता किसी चुटकुले में बदल गयी। मगर एक बात तो साफ़ हुई - वह यह कि मेरे मित्रों का दिल बहुत बड़ा है और वे हमेशा हौसला-अफजाई करने को तय्यार रहते हैं। उन्हीं मित्रों के सम्मान में एक रचना और - नई भी है और आशा से भरी भी, ताकि आपको कोई शिकायत न रहे।

जिधर देखूँ फिजाँ में रंग मुझको दिखता तेरा है
अंधेरी रात में किस चांदनी ने मुझको घेरा है।

हैं गहरी झील सी आँखें कहीं मैं डूब न जाऊं
तेरी चितवन है या डाला मदन ने अपना डेरा है।

लगे हैं हर तरफ़ दर्पण न जाने कितने रूपों में
तू ही तू है किसी में भी न दिखता मुखड़ा मेरा है।
 
बड़ा मासूम दिखता है ये नादाँ प्यारा सा चेहरा,
चुराकर ले गया यह दिल अरे पक्का लुटेरा है।

तू आँखें बंद करले तो अमावस रात है काली
हसीं मुस्कान में तेरी गुलाबी इक सवेरा है।


Wednesday, August 27, 2008

तुम्हारे बिना

.
जब हम
चल रहे थे
साथ साथ
एकाकीपन की
कल्पना भी
कर जाती थी
उदास
आज
मैं निस्संग़
तय कर चुका हूँ
असीम दूरियाँ
स्वयं
जलता हुआ सा
एक कृत्रिम
विश्वास लिये
मैं मृतप्राय सा
जीवन का
एहसास लिये
चलता जा रहा हूँ
तुम्हारे बिना।
.

Monday, August 25, 2008

कह के या कर के?

मुग़ल बादशाह की फौज के लिए भर्ती चल रही थी। वैसे तो काम सेनाध्यक्षों और मित्र राजाओं की देखरेख में चल रहा था मगर बीच-बीच में बादशाह ख़ुद भी आकर देख-परख जाते थे। एक सहयोगी राजा साहब की सिफारिश के साथ आए दो सूरमा भर्ती से पहले बादशाह से आमने-सामने बात करना चाहते थे।

मुलाक़ात तय हुई तो पता लगा कि दोनों वीर बादशाह की नौकरी तो करेंगे मगर कुछ सम्माननीय शर्तों के साथ। एक शर्त यह भी थी कि उनकी तनख्वाह उनकी मर्जी से ही तय हो। और उनकी मर्जी उस समय के हिसाब से काफी ज्यादा थी। रकम सुनकर बादशाह को कुछ आश्चर्य हुआ। उसने इतने अधिक पैसे लेने का कारण जानना चाहा।

"हुज़ूर, कह कर बताएं या कर के दिखाएँ," उनमें से एक वीर ने पूछा।

"कहने से करना भला," बादशाह ने सोचा, "हाथ कंगन को आरसी क्या, पढ़े लिखे को फारसी क्या"

"करके ही देख लेते हैं - दूध का दूध, पानी का पानी हो जायेगा। "

फ़िर क्या था, बादशाह की सहमति होते ही दोनों वीरों ने अपनी-अपनी तलवार निकाली। जब तक बादशाह को कुछ समझ आता दोनों ने एक झटके में एक दूसरे का सर उड़ा दिया।

खेल खतम,पैसा हजम ...

Sunday, August 24, 2008

क्या होगा? - काव्य

मेरे ख़त सबको पढ़ाने से भला क्या होगा?
दिल को अब और जलाने से भला क्या होगा?

आज महफ़िल में तेरी इतने जवाँ चेहरे हैं
इस बदशक्ल पुराने से भला क्या होगा?

जिनके हाथों ने पहाड़ों से गलाया दरया
उनका कमज़ोर ज़माने से भला क्या होगा?

जिनके आंगन में बहा करता है अमृत दिन-रात
उनको कुछ और पिलाने से भला क्या होगा?

राहे बर्बादी को तो खुद ही चुना था मैंने
उसपे अब अश्क बहाने से भला क्या होगा

चाक तन्हाई करे है मेरे दिल को जब भी
उसी नाशुक्र को लाने से भला क्या होगा

दुनियादारी में तो वह अब भी हमसे आगे है
उसको कुछ और सिखाने से भला क्या होगा?

(अनुराग शर्मा)

Saturday, August 23, 2008

ह्त्या की राजनीति

कल तक जिस गाँव में शमशान सा सन्नाटा छाया हुआ था आज वहाँ कुम्भ मेले जैसी गहमागहमी है। लोगों का हुजूम समुद्र की लहरों जैसा उछल रहा है। क्यों न हो, बर्बर समाज पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव बर्बर प्रताप जो अपने लाव लश्कर के साथ आए हुए हैं।

उनकी शान का क्या वर्णन करूँ। अलग ही है। खानदानी रईस हैं। 50 गाँवों की ज़मींदारी थी। राजा साहब कहलाते थे। मगर गरीब जनता की सेवा का चस्का ऐसा लगा कि आज अगर कोई राजा कह दे तो शायद उसकी जुबान ही खिंचवा दें। उनका काम करने का तरीका भी आम नेताओं से बिल्कुल अलग है। भाषण तो देते ही हैं, गरीब जनता के ऊपर कविताएँ भी लिखते हैं और चित्रकारी भी करते हैं। गरीबों से इतना अपनापन मानते हैं कि सिर्फ़ भेड़ का सेवन करते हैं। उनकी नज़र में गाय-भैंस तो अमीरों के चोंचले हैं। लोग तो उनकी तारीफ़ में यहाँ तक कहते हैं कि अगर कोई कलाकार गाय का चित्र भी बना दे तो वे उसे तुंरत साम्प्रदायिक करार कर देंगे।

राजसी परिवार का कोई दंभ नहीं तभी तो महल के ऐशो-आराम छोड़कर आम सांसदों की तरह नई दिल्ली के सरकारी बंगले में रहते हैं। सुप्रीम कोर्ट के शहरी जजों का बस चले तो गरीबों के इस मसीहा को पिछले पाँच सालों से उस बंगले का किराया व बिल आदि न देने के इल्जाम में बेघर ही कर दें। मगर राजा साहब जानते हैं कि इस देश की बेघर, भूखी, नंगी और अनपढ़ जनता सब देखती और समझती है। वह अपने राजा साहब के साथ ऐसा अन्याय हरगिज़ न होने देगी।

-=xXx=-
बर्बर प्रताप जी का हैलिकोप्टर अभी अभी नत्थू के खेत में उतरा है। वह बेचारा दूर एक कोने में सहमा सा खडा काले कपडों वाले बंदूकधारियों के दस्ते को देख रहा है। कल रात इसी दस्ते की निगरानी में पुलिसवालों ने उसके खेत की सारी अरहर काट डाली थी ताकि राजा साहब का हेलिकॉप्टर आराम से उतर सके। वह बेचारा सोच रहा है कि अगर उसकी पहुँच राजा साहब के किसी कारिंदे तक होती तो शायद महाजन क़र्ज़ अदायगी को अगली फसल तक टाल देता, वरना तो सल्फास की गोली ही उसका आख़री सहारा है।

लाउडस्पीकर की आवाज़ से उसका ध्यान भंग हुआ। राजा साहब मंच पर आ गए थे। मंच क्या पूरा किला ही लग रहा था। काले कपड़े वाले बंदूकधारी हर तरफ़ मोर्चा लेकर खड़े हुए थे। राजा साहब पिछले हफ्ते हुई काले प्रधान की ह्त्या का ज़िक्र कर रहे थे। काले हमारे गाँव का प्रधान था। अव्वल दर्जे का जालिम। गरीबों को उसके खेतों में बेगार तो करनी ही पड़ती थी, उनकी बहू बेटियाँ भी सुरक्षित नहीं थी। थाने में भी गरीबों की कोई सुनवाई न थी इसलिये लोग खून का घूँट पीकर रह जाते थे। मगर जब उसहैत की 10 साल की बेटी के साथ पैशाचिक कृत्य की ख़बर मिली तो सारा गाँव ही गुस्से से भर गया। सभी पागल हुए घूम रहे थे मगर किसी की भी इतनी हिम्मत न थी कि थाने में जाकर रपट भी लिखाए। सबको पता था कि जो भी जायेगा थानेदार उसी को मार-कूट कर अन्दर कर देगा। सुबह पता लगा कि उसी रात काले प्रधान का काम तमाम हो गया। गाँव के मर्द तो यह ख़बर मिलते ही भाग खड़े हुए, पुलिस का कहर टूटा औरतों और बच्चों पर। कई बच्चे तो अभी भी हल्दी-चूना लपेटे खाट पर पड़े हैं।


राजा साहब पुलिस के निकम्मेपन का ज़िक्र कर रहे थे। उन्होंने कहा कि गरीब लोग अपनी जान हथेली पर लिए हुए घूम रहे हैं। वे बोले कि पूरे प्रदेश में गुंडों- माफियाओं का राज हो गया है तथा कानून व्यवस्था छिन्न-भिन्न हो गई है। काले प्रधान जैसे सत्पुरुषों की जान ही सुरक्षित नहीं है तो आम लोगों का तो कहना ही क्या। रोजाना ही डकैती, हत्या और बलात्कार हो रहे हैं। उन्होंने नई सरकार के कार्यकाल में कानून व्यवस्था की स्थिति ध्वस्त होने का आरोप लगाते हुए अपनी हत्या की आशंका भी जताई।

मंच से उतरने के बाद राजा साहब ने पत्रकारों से बात की और वहाँ भी अपनी ह्त्या की आशंका को दुहराया। पत्रकारों से बातचीत करते हुए उन्होंने साफ़ शब्दों में कहा कि यह सरकार कभी भी उनकी हत्या करवा सकती है। उन्होंने काले प्रधान हत्याकांड को एक राजनीतिक साजिश करार दिया। उन्होंने आरोप लगाया कि विजेता समाज पार्टी की सरकार के दौरान उनकी पार्टी कार्यकर्ताओं की सरकारी सुरक्षा वापस ली जा रही है। उनके लोगों की चुन-चुनकर हत्या हो रही है। उन्होंने कहा कि विजेता समाज पार्टी की सरकार सिर्फ शहरों पर ध्यान दे रही है और गाँवों के गरीब मजदूर महंगाई, बेरोजगारी और असुरक्षा के बीच पिस रहे हैं। इस सरकार का ग्रामीण जनता से कोई सरोकार नहीं है।


-=xXx=-
चार दिन के बाद जब राजा साहब एक निकटवर्ती गाँव में एक और छुटभय्ये नेता के दशमे में गए तो उनके काफिले पर गंभीर हमला हुआ। उनके सभी बंदूकधारियों का काम तमाम हो गया। हमलावर उनके गोली-बन्दूक भी अपने साथ ले गए। पता लगा कि राजा साहब मृतक नेता के परिवार के भरण-पोषण के लिए पार्टी फंड से कई लाख रुपये भी लाये थे। हमलावर वह सारा रोकड़ा भी अपने साथ ही ले गए। देवी माँ की असीम कृपा थी कि राजा साहब का बाल भी बाँका न हुआ।

-=xXx=-
इस बात को कई महीने गुज़र गए हैं। नेताओं पर बढ़ते हमलों का कारण पता करने के लिए जांच समिति भी बैठ चुकी है। पुलिस आज भी गाँव-गाँव जाकर लोगों को डरा-धमका रही है मगर आज तक किसी को यह पता नहीं चला कि ये सारी घटनाएँ राजा साहब के कारकुनों ने विजेता समाज पार्टी की सरकार के ऊपर राजनैतिक लाभ लेने के लिये कराई थीं।
-=xXx=-

Thursday, August 21, 2008

क्यों सताती हो?

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मुस्कुराती हो
इठलाती हो
इतराती हो
रूठ जाती हो
फिर याद आती हो
यही चक्र दुविधा का
फिर फिर चलाती हो
कभी कहो भी
इतना क्यों सताती हो?


Tuesday, August 19, 2008

हमारे भारत में

कई बरस पहले की बात है, दफ्तर में इंजिनियर की एक खाली जगह के लिए इन्टरव्यू चल रहे थे। एक भारतीय नौजवान भी आया। नाम से ही पता लग गया कि उत्तर भारतीय है। उत्तर भारत में स्थित एक सर्वोच्च श्रेणी के प्रतिष्ठान् से पढा हुआ था। सो ज़हीन ही होगा।

उस दिन शहर में बारिश हो रही थी। कहते हैं कि पिट्सबर्ग में सूरज पूरे साल में सिर्फ़ १०० दिन ही निकलता है। शायद उन रोशन दिनों में से अधिकाँश में हम छुट्टी बिताने भारत में होते हैं। हमने तो यही देखा कि जब बादल नहीं होते हैं तो बर्फ गिर रही होती है। श्रीमती जी खांसने लगी हैं, लगता है थोड़ी ज्यादा ही फैंक दी हमने। लेकिन इतना तो सच है कि यहाँ बंगलोर जितनी बारिश तो हो ही जाती है।

अपना परिचय देते हुए अपने देश के उज्जवल भविष्य से हाथ मिलाने में हमें गर्व का अनुभव हुआ। हालांकि, भविष्य की बेरुखी से यह साफ़ ज़ाहिर था कि गोरों के बीच में एक भारतीय को पाकर उन्हें कुछ निराशा ही हुई थी। उन्होंने मुझे अपना नाम बताया, "ऐन-किट ***।" मुझे समझ नहीं आया कि मुझ जैसे ठेठ देसी के सामने अंकित कहने में क्या बुराई थी।

इस संक्षिप्त परिचय के बाद अपना गीला सूट झाड़ते हुए वह टीम के गोरे सदस्यों की तरफ़ मुखातिब होकर अंग्रेजी में बोले, "क्या पिट्सबर्ग में कभी भी बरसात हो जाती है? हमारे इंडिया में तो बरसात का एक मौसम होता है, ये नहीं कि जब चाहा बरस गए।"

मैं चुपचाप खड़ा हुआ सोच रहा था कि पिट्सबर्ग में कितनी भी बरसात हो जाए वह सर्वाधिक वर्षा का विश्व रिकार्ड बनाने वाले भारतीय स्थान "चेरापूंजी" का मुकाबला नहीं कर सकता है। क्या हमारे पढ़े लिखे नौजवानों के "इंडिया" को कानपुर या दिल्ली तक सीमित रहना चाहिए?

Saturday, August 16, 2008

भाई बहन का त्यौहार?

यज्ञोपवीतं परमं पवित्रं प्रजापतेर्यत् सहजं पुरस्तात।
आज रक्षाबंधन जैसा महत्वपूर्ण त्यौहार भाई बहन के रिश्ते तक सिमटकर रह गया है। सच ही है, वर्षों की गुलामी ने हमें दूसरों के मामलों से कन्नी काटना सिखाया है। अनेक आक्रमणों के बाद जब हमारी व्यवस्था का पतन हो गया तो देश-धर्म और संस्कृति की रक्षा जैसी चीज़ें प्रचलन से बाहर (आउट ऑफ फैशन) हो गयीं। तथाकथित वीरों की जिम्मेदारियाँ भी सिकुड़कर बहुत से बहुत अपनी बहन की रक्षा तक ही सीमित रह गयीं। कोई आश्चर्य नहीं कि बहुत से अंचलों में वीर शब्द का अर्थ भी सिमटकर भाई तक ही सीमित रह गया। इन बोलियों में वीरा या वीर जी आज भाई का ही पर्याय है।

संध्यावंदन (1931) से साभार  
प्राचीन काल में श्रावण पूर्णिमा के दिन यज्ञोपवीत बदलने की परम्परा थी। विशेषकर दक्षिण भारत में, आज भी बहुत से मंदिरों में सामूहिक रूप से इस परम्परा का पालन होता है। इसी दिन ब्राह्मण अपने धर्म-परायण राजा को रक्षा बांधकर विजयी होने का आशीर्वाद देते थे और राजा ब्राह्मणों को धर्म की रक्षा का वचन देता था।

बचपन में मैंने देखा था कि हमारे समुदाय में शासक के नाम की राखी कृष्ण भगवान् को बांधी जाती थी। राम जाने किस राजा के समय से यह परम्परा शुरू हुई परन्तु कभी तो ऐसा हुआ जब यथार्थ शासक को धार्मिक रूप से अमान्य कर के सिर्फ़ श्री कृष्ण को ही धर्म पालक राजा के रूप में स्वीकार किया गया। शायद किसी आतताई मुग़ल शासक के समय में या ब्रिटिश शासन में ऐसा हुआ होगा।

भविष्य पुराण के अनुसार पहली बार इन्द्र की पत्नी शची ने देवासुर संग्राम में विजय के उद्देश्य से अपने पति को रक्षा बंधन बांधा था जिसके कारण देव अजेय बने रहे थे। एक वर्ष बाद उसकी काट के लिए असुरों के विद्वान् गुरु शुक्राचार्य ने भक्त प्रहलाद के पौत्र असुरराज बलि को दाहिने हाथ में रक्षा बांधी थी। पुरोहित आज भी रक्षा या कलावा/मौली आदि बांधते समय इसी घटना को याद करते हुए निम्न मन्त्र पढ़ते है:

येन बद्धो बली राजा दानवेन्द्रो महाबलः तेन त्वामभिबध्नामि रक्षे मा चल मा चल

बाकी बातें बाद में क्योंकि कुछ ही देर में मुझे एक स्थानीय रक्षा बंधन समारोह में राखी बंधाने के लिए निकलना है।

Thursday, August 14, 2008

आजादी की बधाई (मुक्त या मुफ्त)

आज का दिन हम सब के लिए गौरव का दिन है। आज के दिन ही शहीदों का खून रंग लाया था और हमारा देश वर्षों की परतंत्रता से मुक्त हुआ था। इस शुभ दिन पर आप सब को बधाई।

बहुत पहले कहीं पढ़ा था कि देश की आजादी के बाद जब तत्कालीन सेनाध्यक्ष जनरल करियप्पा ने पहली बार स्वतंत्र भारत की सेना को संबोधित किया तब उन्होंने एक बड़ी सभा के सामने पहली बार हिन्दी में बोला।

आज़ादी के अवसर पर दिए जाने वाले भाषण में हमारे स्वतंत्र देश की सेना की नयी भूमिका का ज़िक्र करते हुए उन्होंने यह संदेश देना चाहा कि अब हम स्वतंत्र हैं। कहा जाता है कि अपने पहले हिन्दी भाषण में उन्होंने कहा, "आज हम सब मुफ्त हो गए हैं, मैं भी मुफ्त हूँ और आप भी मुफ्त हैं।"

स्पष्ट है कि उन्होंने अनजाने में ही अंग्रेजी के फ्री (free) का अर्थ मुक्त, आज़ाद या स्वतंत्र करने के बजाय मुफ्त कर दिया था।

Tuesday, August 12, 2008

मैं एक भारतीय

शाम छः बजे के करीब कुछ दोस्तों के साथ नेहरू प्लेस में दफ्तर के बाहर खड़ा चाय पकौड़ोोंोकक का आनंद ले रहा था कि एक सज्जन पास आकर मुझसे कुछ बात करने लगे। मुझे तो समझ नहीं आया मगर जब कमलाकन्नन ने उनकी बात समझ कर उनसे बात करना शुरू किया तो लगा कि तमिलभाषी ही होंगे। कुछ देर बात करने के बाद मेरी तरफ़ मुखातिब होकर अंग्रेजी में क्षमा मांगते हुए चले गए। कमला कन्नन ने बाद में बताया कि न सिर्फ़ वे मुझे तमिल समझ रहे थे बल्कि उनका पूरा विश्वास था कि मैं कोयम्बत्तूर में उनके मोहल्ले में ही रह चुका हूँ।

बात आयी गयी हो गयी लेकिन मुझे कुछ और मिलती-जुलती घटनाओं की याद दिला गयी। बैंगलूरू में मुझे देखते ही कुछ ज्यादा ही गोरे-चिट्टे लोगों के समूह में से एक बहुत खुशमिजाज़ बुजुर्ग लगभग दौड़ते हुए से मेरे पास आए और हाथ मिलाकर कुछ कहा जो मेरी समझ में नहीं आया। कई वर्षों से कर्णाटक जाना होता था मगर कभी कन्नड़ भाषा सीखने की कोशिश भी नहीं की, संयोग भी नहीं बना। मुझे शर्मिंदगी के साथ उन महाशय से कहना पडा कि मैं उनकी भाषा नहीं समझता हूँ। तब उन्होंने निराश भाव से अंग्रेजी में पूछा कि क्या मैं कश्मीरी नहीं हूँ। और मैंने सच बताकर उनका दिल सचमुच ही तोड़ दिया।

बरेली में मेरे सहपाठियों की शिकायत थी कि मेरी भाषा आम न होकर काफी संस्कृतनिष्ठ है जबकि जम्मू में हमारे सिख पड़ोसी मेरी साफ़ उर्दू जुबान की तारीफ़ करते नहीं थकते थे। लेकिन भाषा के इस विरोधाभास के बावजूद इन दोनों ही जगहों पर लोगों ने हमेशा मुझे स्थानीय ही माना।

लगभग चार महीने के लिए लुधियाना में भी रहा। होटल के एक नेपाली कर्मचारी ने यूँ ही बातों में पूछा कि मैं कहाँ का रहने वाला हूँ तो मैंने भी उस पर ही सवाल फैंक दिया, "अंदाज़ लगाओ।" उसके जवाब ने मुझे आश्चर्यचकित नहीं किया, "मुझे तो आप अपने नेपाल के ही लगते हैं।"

धीरे-धीरे मुझे पता लग गया कि मेरे साधारण से व्यक्तित्व को आसपास के माहौल में मिल जाने में आसानी होती है। इसलिए जब मुम्बई में एक लंबे-चौडे व्यक्ति ने एक अनजान भाषा में कुछ कहा तो मैं समझ गया कि यह भी मुझे अपने ही गाँव का समझ रहा है। मैंने अंग्रेजी में उसके प्रदेश का नाम पूछा तो उसने कहा कि वह तो मुझे अरबी समझा था मैं तो हिन्दी निकला।

यहाँ पिट्सबर्ग में लिफ्ट का इंतज़ार कर रहा था तो दो महिलाएँ आपस में बात करती हुई आयीं। वेशभूषा से मुसलमान लग रही थीं और उर्दू में बात कर रही थीं। उनमें से एक ने मुझसे पंजाबी उच्चारण की उर्दू में पूछा कि मैं कहाँ से हूँ। मैं कुछ कह पाता, इसके पहले ही दूसरी चहकी, "अपने पाकिस्तान से हैं, और कहाँ से होंगे?"

मेरे मुँह से बेसाख्ता निकला, "मैं एक भारतीय।"

पुनश्च: मैंने हाल ही में जब यह कहानी अपने गुजराती मित्र को सुनाई तो वे मुझे दूसरे पैराग्राफ पर ही रोककर अनवरत हँसने लगे, "अरे, तुम्हें कश्मीरी कौन समझेगा? तुम तो पक्के गुजराती लगते हो।"

अनजाने लोग

(अनुराग शर्मा)



मेरे घर में मैं नहीं हूँ
बैठे हैं अनजाने लोग

मैं हूँ इक गुमनाम यहाँ
पर ये हैं जाने-माने लोग

दुख में परिजन साथ नहीं हैं
सब हैं बिन पहचाने लोग

झूठी हमदर्दी के बहाने
आए दिल को जलाने लोग

उसका जिक्र किये जाते हैं
मेरे दिल की न जाने लोग।
 

Monday, August 11, 2008

ट्रांसलिटरेशन का कमाल

ट्रांसलिटरेशन में देखो क्या से क्या हो गया
दो शब्द लिखने चले, सिल सिला हो गया।

कुछ का कुछ ही लिखा गया दोस्तों
एक वाक्य लिखा वाकया हो गया।

पोस्ट लिखकर बेसब्र हुआ टिप्पणी को
रात भर जगा और दफ्तर में सो गया।

(अनुराग शर्मा)
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सम्बंधित कड़ियाँ
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गूगल इंडिक ट्रांसलिटरेशन

Saturday, August 9, 2008

भविष्य अब भूत हुआ

भविष्य अगर भूत हो जाय तो उसे क्या कहेंगे - विज्ञान कथा (साइंस फिक्शन)? शायद! मेरी नज़र में उसे कहेंगे - पुराना भविष्य या भविष्य पुराण। भविष्य पुराण की गिनती प्रमुख १८ पुराणों में होती है। अरब लेखक अल बरूनी की किताब-उल-हिंद में इस पुराण का ज़िक्र भी अठारह पुराणों की सूची में है।

भविष्य पुराण की एक खूबी है जो उसे अन्य समकक्ष साहित्य से अलग करती है। यह पुराण भविष्य में लिखा गया है। अर्थात, इसमें उन घटनाओं का वर्णन है जो कि भविष्य में होनी हैं। खुशकिस्मती से हम भविष्य में इतना आगे चले आए हैं कि इसमें वर्णित बहुत सा भविष्य अब भूत हो चुका है।

भारत में भविष्य में अवतीर्ण होने वाले विभिन्न आचार्यों व गुरुओं यथा शंकराचार्य, नानक, सूरदास आदि का ज़िक्र तो है ही, भारत से बाहर ईसा मसीह, हजरत मुहम्मद से लेकर तैमूर लंग तक का विवरण इस ग्रन्थ में मिलता है।

इस पुराण के अधिष्ठाता देव भगवान् सूर्य हैं। श्रावण मास में नाग-पंचमी के व्रत की कथा एवं रक्षा-बंधन की महिमा इस पुराण से ही आयी है। कुछ लोग सोचते हैं कि प्राचीन भारतीय ग्रंथों में सिर्फ़ परलोक की बातें हैं। इससे ज्यादा हास्यास्पद बात शायद ही कोई हो। इस पुराण में जगह जगह जनोपयोग के लिए कुँए, तालाब आदि खुदवाने का आग्रह है। वृक्षारोपण और उद्यान बनाने पर जितना ज़ोर इस ग्रन्थ में है उतना किसी आधुनिक पुस्तक में मिलना कठिन है।

पुत्र-जन्म के लिए हर तरह के टोटके करने वाले तथाकथित धार्मिक लोगों को तो इस ग्रन्थ से ज़रूर ही कुछ सीखना चाहिए। यहाँ कहा गया है कि वृक्षारोपण, पुत्र को जन्म देने से कहीं बड़ा है क्योंकि एक नालायक पुत्र (आपके जीवनकाल में ही) कितने ही नरक दिखा सकता है जबकि आपका रोपा हुआ एक-एक पौधा (आपके दुनिया छोड़ने की बाद भी) दूसरों के काम आता रहता है।

अब आप कौन सा पौधा लगाते हैं इसका चयन तो आपको स्वयं ही करना पडेगा। संत कबीर के शब्दों में:
करता था सो क्यों किया, अब कर क्यों पछिताय ।
बोया पेड़ बबूल का, आम कहाँ से खाय ॥

और हाँ, पेड़ लगाने के बहाने गली पर कब्ज़ा न करें तो अच्छा है।

Thursday, August 7, 2008

गड़बड़झाला

कोई जकड़ा ही रहता है,
कोई सब छोड़ जाता है।

कोई कुछ न समझता है,
कोई सबको समझाता है।

कोई करुणा का सागर है,
कोई हर पल सताता है।

कोई हर रोज़ मरता है,
शहादत कोई पाता है।

कोई तो प्यार करता है,
कोई करके जताता है।

कोई बस भूल जाता है,
कोई बस याद आता है।

मैं ऐसा हूँ या वैसा हूँ,
समझ मुझको न आता है।

फरिश्ता कोई कहता था,
कोई जालिम बताता है।

(अनुराग शर्मा)

Wednesday, August 6, 2008

आपके मुँह में घी-शक्कर

पुष्पे गन्धं तिले तैलं काष्ठेऽग्निं पयसि घृतम्।
इक्षौ गुडं तथा देहे पश्यात्मानं विवेकतः।।
भारत की ख्याति तो आज भी कम नहीं है मगर पश्चिमी सभ्यता के उत्थान से पहले की बात ही कुछ और थी। सारी दुनिया से छात्र और विद्वान् भारत आते थे ताकि कुछ नया सीखने को मिले। नालंदा और तक्षशिला जैसे विश्वविद्यालयों की ख्याति दूर-दूर तक थी। ऐसा नहीं कि विदेशी यहाँ सिर्फ़ शिक्षा की खोज में ही आते थे। हमलावर यहाँ सोने और हीरे के लालच में आते थे। ज्ञातव्य है कि दक्षिण अफ्रीका व ब्राजील में हीरे मिलने से पहले हीरे सिर्फ़ भारत में ही ज्ञात थे और अठारहवीं शती तक शेष विश्व को हीरे के उद्गम के बारे में ठीक-ठीक ज्ञान नहीं था। व्यापारी आते थे मसालों और धन के लिए और धर्मांध जुनूनी हमलावरों के आने का उद्देश्य धन के अलावा हमारी कला एवं संस्कृति का नाश भी था।

बहुत से लेखक भी भारत में आए। कुछ हमलावरों के साथ आए तो कुछ अपनी ज्ञान पिपासा को शांत करने के लिए और कुछ अन्य भारतीय संस्कृति एवं धर्म का ज्ञान पाने के लिए। ग्रीक विद्वान् मेगास्थनीज़ भी एक ऐसा ही लेखक था। उसकी पुस्तक "इंडिका" में उस समय के रहस्यमय भारत का वर्णन है। बहुत सी बातें तो साफ़ ही कल्पना और अतिशयोक्ति लगती हैं मगर बहुत सी बातों से पता लगता है कि उस समय का भारत अन्य समकालीन सभ्यताओं से कहीं आगे था।

मेगास्थनीज़ ने लिखा है कि भारतीय लोग मधुमक्खियों के बिना ही डंडों पर शहद उगाते हैं। स्पष्ट है कि यहाँ पर लेखक गन्ने की बात कर रहा है। चूंकि उसके उन्नत देश को मीठे के लिए शहद से बेहतर किसी पदार्थ का ज्ञान नहीं था, शक्कर को शहद समझने में कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए। कहते हैं कि यह शक्कर सिकंदर के सैनिकों के साथ ही भारत से बाहर गयी।

हिन्दी/फारसी/उर्दू का शक्कर बना है संस्कृत के मूल शब्द शर्करा से। मराठी का साखर और अन्य भारतीय भाषाओं के मिलते-जुलते शब्दों का मूल भी समान ही है। इरान से आगे पहुँचकर हमारी मिठास अरब में सुक्कर और यूरोप में सक्कैरम हो गयी। इस प्रकार अंग्रेजी के शब्द शुगर व सैकरीन दोनों ही संस्कृत शर्करा से जन्मे।
हमसे पंगे मत लेना मेरे यार ... मीठे से निबटा देंगे संसार ...
आज जिस शक्कर से सारी दुनिया त्रस्त है, उसकी जड़ में हम भारतीय हैं - हमारी खाण्ड  कब कैंडी बनकर दुनिया भर के बच्चों की पसंद बन गई, पता ही न चला। बनाई हुई शर्करा के टुकडों को खण्ड (टुकड़े - pieces) कहा जाता था जिससे खांड और अन्य सम्बंधित शब्द जैसे खंडसाल आदि बने हैं। फारसी में पहुँचते-पहुँचते खण्ड बदल गया कन्द में और यूरोप तक जाते-जाते यह कैंडी में तब्दील हो गया।
वैसे शर्करा या गन्ने की बात आए तो अपने गिरमिटिया बंधुओं को याद करना भी बनता है जिनकी वजह से साखर संसार को सुलभ हो सकी। हाँ गन्ने के रस के आनंद से वंचित ही रहे विदेशी।
गन्ने के खेत आज भी मॉरिशस की पहचान हैं।
अब एक सवाल: खाण्ड और शक्कर तक तो ठीक है - गुड़, मिश्री और चीनी के बारे में क्या?

सावन

निर्मल शीतल निश्छल पावन
घटा बादल जल और सावन

झरर झरर झर झरता जाता
प्यासी पृथ्वी की प्यास बुझाता

होती सुखमय निर्जल धरती
प्यासे प्राणीजन की पीड़ा हरती

भूरे मटमैले घावों पर
हरियाले मरहम का लेपन

धूल तपन सब दूर हो गई
आया मदमाता सावन।

Saturday, August 2, 2008

बुद्धिमता के साइड अफेक्ट्स

अगर आपके मित्र आपको ताना देते हैं कि जब सारी दुनिया उत्तर की तरफ़ दौड़ रही हो तो आप दक्षिण दिशा में गमन कर रहे होते हैं तो दुखी न हों। मतलब डटे रहें, हटें नहीं। दरअसल आपका यह दुर्गुण आपके अधिक बुद्धिमान होने का साइड अफेक्ट हो सकता है।

बुद्धिमता के ऊपर दुनिया भर में अलग अलग तरह के प्रयोग होते रहे हैं। जब प्रयोग होते हैं तो उनसे तरह तरह के निष्कर्ष भी निकलते हैं। हम उन्हें पसंद करें या न करें इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है। ऐसे ही एक प्रयोग ने दर्शाया कि अधिक बुद्धिमान लोग सामान्य लोगों से १५ वर्ष तक अधिक जीते हैं। इटली के कालाब्रिया विश्वविद्यालय में पाँच सौ लोगों पर हुए इस अनुसंधान के अनुसार ऐसा बुद्धिमानी के लिए जिम्मेदार एक जीन 'एसएसएडीएच (SSADH) के कारण होता है। जिन लोगों में यह जीन अधिक सक्रिय नहीं होता, उनके 85 साल की उम्र के बाद जीने की संभावना कम होती है। जिन लोगों में यह जीन सक्रिय होता है, उनके 100 वर्ष की आयु तक जीने की संभावना रहती है। कुछ समझ आया कि हमारे पूर्वज शतायु क्यों होते थे?

शोधकर्ता रिचर्ड लिन द्वारा ब्रिटेन में हुए एक अध्ययन ने यह निष्कर्ष निकाला कि अधिक बुद्धिमान व्यक्तियों के नास्तिक होने की संभावना आम लोगों से अधिक होती है। लिन का मानना है कि बुद्धिमानी नास्तिकता की ओर ले जाती है। विभिन्न धर्मों और बाबाओं के आधुनिक स्वरुप और आडम्बर को देखकर तो मुझे अक्सर ही यह विचार आता है कि यदि किसी बाबा या पीर के ये भक्त आस्तिक हैं तो आडम्बर से दूर रहने वाले सच्चे भक्त तो शायद आज नास्तिक ही कहलायेंगे।

गोली मारिये इस आस्तिक-नास्तिक की बहस को - अभी एक और रोचक अध्ययन भी हुआ है। तीस वर्षों तक ८००० से अधिक लोगों पर चले एक ब्रिटिश अध्ययन से अधिक बुद्धिमानों के एक और लक्षण का पता चला है। इस अध्ययन से पता लगा कि १० वर्ष की आयु में जिन ब्रिटिश बच्चों का आई क्यू (IQ) सबसे अधिक था वे ३० वर्ष की आयु तक पहुँचने तक शाकाहारी हो गए थे। यह अध्ययन डॉक्टर कैथरीन गेल द्वारा किया गया था और १०-वर्षीय बच्चों का सबसे पहला दल सन १९७० का था जो २००० में तीस वर्षीय थे।

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सम्बन्धित कडियाँ
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* ब्रिटिश मेडिकल जर्नल में विस्तृत रिपोर्ट
* SSAHD Deficiency
* आप कितने बुद्धिमान हैं? (निरामिष)