Sunday, September 28, 2008

एक शाम बेटी के नाम

शाम का धुंधलका छा रहा था। हम लोग डैक पर बैठकर खाना खा रहे थे। बेटी अपने स्कूल के किस्से सुना रही थी। वह इन किस्सों को डी एंड डी टाक्स (डैड एंड डाटर टाक्स = पिता-पुत्री वार्ता) कहती है। आजकल हमारी पिता-पुत्री वार्ता पहले से काफी कम होती है। पिछले साल तक मैं सुबह दफ्तर जाने से पहले उसे कार से स्कूल छोड़ता था और लंच में जाकर उसे स्कूल से ले आता था। तब हमारी वार्ता खूब होती थी। वह अपने किस्से सुनाती थी और मेरे किस्से सुनने का आग्रह करती थी। यही वह समय होता था जब मुझे उसकी नयी कवितायें सुनने को मिलती थीं। उसने अपनी अंग्रेजी कहानी "मेरे जीवन का एक दिन" भी ऐसी ही एक वार्ता के दौरान सुनाई थी। जब से मेरा दफ्तर दूर चला गया है मैं रोज़ सुबह बस लेकर ऑफिस जाता हूँ। वह भी बस से स्कूल जाती है। हमारी वार्ता की आवृत्ति काफी कम हो गयी है। या कहें कि पहले रोज़ सुबह शाम होने वाली वार्ता सिर्फ़ सप्ताहांत की शामों तक ही सीमित रह गयी है।

उसने अपने क्लास के एक लड़के के बारे में बताया जो सब बच्चों के पेन-पेन्सिल आदि ले लेता है। जब उसने बताया कि एक दिन उस लड़के ने बेटी का कैलकुलेटर भी ले लिया तो मैंने पूछा, "बेटा, कहीं ऐसा तो नहीं कि उसके पास यह सब ज़रूरी समान खरीदने के लिए पैसे न हों?" बेटी ने नकारते हुए कहा कि उस लड़के के कपड़े तो बेशकीमती होते हैं।

आजकल अमेरिका की आर्थिक स्थिति काफी डावांडोल है। बैंक डूब रहे हैं, नौकरियाँ छूट रही हैं। भोजन, आवागमन, बिजली, गैस आदि सभी की कीमतें बढ़ती जा रही हैं. अक्सर ऐसी खबरें पढने में आती हैं जब इस बुरी आर्थिक स्थिति के कारण लोग बेकार या बेघर हो गए। कल तक मर्सिडीज़ चलाने वाले आज पेट्रोल-पम्प पर काम करते हुए भी नज़र आ सकते हैं। बच्ची तो बाहर की दुनिया की सच्चाई से बेखबर है। मेरे दिमाग में आया कि उस लड़के का परिवार कहीं ऐसी किसी स्थिति से न गुज़र रहा हो। मैंने बेटी को समझाने की कोशिश की और बात पूरी होने से पहले ही पाया कि वह कुछ असहज थी। मैंने पूछना चाहा, "आप ठीक तो हो बेटा?" मगर उसने पहले ही रूआंसी आवाज़ में पूछा, "आप ठीक तो हैं न पापा?"

"हाँ बेटा! मुझे क्या हुआ?" मैंने आश्चर्य से पूछा।

"मेरा मतलब है... आपका जॉब..." उसने किसी तरह से अटकते हुए कहा। बात पूरी करने से पहले ही उसकी आंखों से आंसू टप-टप बहने लगे। मैंने उसे गले से लगा लिया। उसकी मनोदशा जानकर मुझे बहुत दुःख हुआ। मैंने समझाने की भरपूर कोशिश की और कहा कि अगर मेरे साथ कभी ऐसा होता तो मैं उसे अपनी बेटी से, अपने परिवार से कभी छुपाता नहीं। मेरे इस वाक्य से उसकी भोली मुस्कान वापस आ गयी। यह जानकर खुशी हुई कि उसे अभी भी अपने पिता के सच बोलने पर पूरा भरोसा है।


Friday, September 26, 2008

पतझड़



निष्ठुर ठंडी काली रातें
रिसते घाव रुलाती रातें।

फूल पात सब बीती बातें
सूने दिन और रीती रातें।

मुरझाया कुम्हलाया तन-मन
उजड़ी सेज कंटीली रातें।

मिलन बिछोहा सब झूठा था
सत्य भयानक हैैं ये रातें।

फटी पुरानी यादें लाकर
पैबन्दों को बिछाती रातें।

सूखे पत्ते सूनी शाखें
पतझड़ में सताती रातें।।


(रेखाचित्र: अनुराग शर्मा)

Tuesday, September 23, 2008

गरजपाल की चिट्ठी [गतांक से आगे]

[अब तक की कथा पढने के लिए कृपया यहाँ क्लिक करें]

समय बीतता गया। अहसान अली और शीशपाल का जोश भी काफी हद तक ठंडा पड़ गया। हाँ, गरजपाल बिल्कुल भी नहीं बदले। न तो उन्होंने किसी सहकर्मी से दोस्ती की और न ही चिट्ठी लिखने का राज़ किसी से बांटा। ज़्यादातर लोग गरजपाल के बिना ही खाना खाने के आदी हो गए। इसी बीच सुनने में आया कि गरजपाल का तबादला उनके गाँव के नज़दीक के दफ्तर में हो गया है। किसी को कोई ख़ास फर्क नहीं पड़ा। पड़ता भी कैसे? गरजपाल की कभी किसी से नज़दीकी ही नहीं रही। पता ही न चला कब उनके जाने का दिन भी आ गया। दफ्तर में सभी जाने वालों के लिए एक अनौपचारिक सा विदाई समारोह करने का रिवाज़ था। सो तैयारियां हुईं। उपहार भी लाये गए और भाषण भी लिखे गए। नत्थूलाल एंड कंपनी तो कभी भी साथ बैठकर खाना न खाने की वजह से गरजपाल को विदाई पार्टी देने के पक्ष में ही नहीं थे। मगर हमारे प्रबंधक महोदय जी अड़ गए कि पार्टी नहीं होगी और उपहार नहीं आयेंगे तो "मन्नै के मिलेगा?"

आखिरकार प्रबंधक महोदय की बात ही चली। विदाई समारोह भी हुआ और उसमें गरजपाल किसी शर्माती दुल्हन की तरह ही शरीक हुए। काफी भाषण और झूठी तारीफें झेलनी पड़ीं। जहां कुछ लोगों ने उनकी शान में कसीदे पढ़े, वहीं कुछेक ने दबी जुबान से उनके खाना साथ में न खाने की आदत पर शिकवा भी किया। ज़्यादातर लोगों ने दबी-ढँकी आवाज़ में गरजपाल की चिट्ठी का ज़िक्र भी कर डाला। इधर किसी की जुबान पर चिट्ठी का नाम आता और उधर गरजपाल जी का चेहरा सुर्ख हो जाता। एहसान अली ने एक "लिखे जो ख़त तुझे" गाया तो सखाराम ने खतो-किताबत पर मुम्बईया अंदाज़ में एक टूटा-फूटा शेर पढा। समारोह की शोभा तो गयाराम जी बने जिन्होंने एक पंजाबी गीत गाया जिसका हिन्दी अनुवाद कुछ इस तरह होता:


मीठे प्रिय परदेस चले
दूजा मीत बनाना नहीं
याद हमारी जब भी आए
ख़त लिखते शर्माना नहीं
चिट्ठी लिखें, डाक में डालें
गैर के हाथ थमाना नहीं
जीते रहे तो फिर मिलेंगे
मरे तो दिल से भुलाना नहीं।

तुर्रा यह कि हर भाषण, शेर, ग़ज़ल या गीत में गरजपाल की चिट्ठी ज़रूर छिपी बैठी थी। मानो यह गरजपाल की विदाई न होकर उनकी चिट्ठियों का मर्सिया पढा जा रहा हो। सबके बाद में गरजपाल जी ने भी दो शब्द कहे। आश्चर्य हुआ जब उन्होंने हमें बहुत अच्छा मित्र बताया और आशा प्रकट की कि उनकी मैत्री हमसे यूँ ही बनी रहेगी। अंत में प्रबंधक महोदय ने उन्हें सारे कर्मचारियों की ओर से (अपना कमीशन काटकर) एक बेशकीमती पेन, कुछ खूबसूरत पत्र पैड और बहुत से रंग-बिरंगे लिफाफे उपहार में दिए। यूँ समझिये कि पूरा डाकखाना ही दे दिया सिवाय एक डाकिये और डाक टिकटों के।

अगले दिन के लंच में कोई मज़ा ही न था। शीशपाल तो दफ्तर ही न आया था। एहसान अली को बड़ा अफ़सोस था कि गरजपाल की जासूसी में कुछ बड़ी कमी रह ही गयी। वरना तो इतने दिनों में वासंती की असलियत खुल ही जाती। दो-चार दिनों में सब कुछ सामान्य होने लगा। गरजपाल तो हमारे दिमाग से लगभग उतर ही चुके थे कि दफ्तर की डाक में कई रंग-बिरंगे लिफाफे दिखाई पड़े। एहसान अली की आँखे मारे खुशी के उल्लू की तरह गोल हो गयीं। वे चिट्ठियों को उठा पाते उससे पहले ही शीशपाल ने उन्हें लपक लिया। हमें लगा कि अब तो गरजपाल की चिट्ठी का भेद खुला ही समझो। मगर ऐसा हुआ नहीं। लिफाफों पर लिखी इबारत को पढा तो पता लगा कि दफ्तर के हर आदमी के नाम से एक-एक चिट्ठी थी। भेजने वाले कोई और नहीं गरजपाल जी ही थे। उन्होंने हमारी दोस्ती का धन्यवाद भेजा था और लिखा था कि नयी जगह बहुत बोर है और वे हम सब के साथ को बहुत मिस करते हैं। वह दिन और आज का दिन, हर रोज़ गरजपाल की एक न एक चिट्ठी किसी न किसी कर्मचारी के नाम एक रंगीन लिफाफे में आयी हुई होती है। शायद लंच का आधा घंटा वह खाना खाने के बजाय हमारे लिए पत्र-लेखन में ही बिताते हैं।

Saturday, September 20, 2008

गरजपाल की चिट्ठी

दफ्तर के सारे कर्मचारी मेज़ के गिर्द इकट्ठे होकर खाना खा रहे थे और इधर-उधर के किस्से सुना रहे थे। रोज़ का ही नियम था। दिन का यह आधा घंटा ही सबको अपने लिए मिल पाता था। सब अपना-अपना खाना एक दूसरे के साथ बांटकर ही खाते थे। अगर आपको इस दफ्तर के किसी भी कर्मचारी से मिलना हो तो यह सबसे उपयुक्त समय था। पूरे स्टाफ को आप यहाँ पायेंगे सिवाय एक गरजपाल के। गरजपाल जी इस समय अपनी सीट पर बैठकर चिट्ठियाँ लिख रहे होते हैं। सारी मेज़ पर तरह-तरह के रंग-बिरंगे छोटे-बड़े लिफाफे फैले रहते थे। लंच शुरू होने के बाद कुछ देर वे चौकन्नी निगाहों से इधर-उधर देखते थे। जब उन्हें इत्मीनान हो जाता था कि सब ने खाना शुरू कर दिया है तो उनका पत्र-लेखन शुरू हो जाता था। जब तक हम लोग खाना खाकर वापस अपनी जगहों पर आते, गरजपाल जी अपनी चिट्ठियों को एक थैले में रखकर नज़दीकी डाकघर जा चुके होते थे।

शुरू में तो मैंने उन्हें हमारे सामूहिक लंच में लाने की असफल कोशिश की थी। ज़ल्दी ही मुझे समझ आ गया कि गरजपाल जी एकांत के यह तीस मिनट अपनी खतो-किताबत में ही इस्तेमाल करना पसंद करते हैं। वे निपट अकेले थे। अधेड़ थे मगर शादी नहीं हुई थी। न बीवी न बच्चा। माँ-बाप भी भगवान् को प्यारे हो चुके थे। आगे नाथ न पीछे पगहा। पिछले साल ही दिल्ली से तबादला होकर यहाँ आए थे। प्रकृति से एकाकी व्यक्तित्व था, दफ्तर में किसी से भी आना-जाना न था। सिर्फ़ मतलब की ही बात करते थे। मुझ जैसे जूनियर से तो वह भी नहीं करते थे।

पूरे दफ्तर में उनके पत्र-व्यवहार की चर्चा होती थी। लोग उनसे घुमा फिराकर पूछते रहते थे। एकाध लोग लुक-छिपकर पढने की कोशिश भी करते थे मगर सफल न हुए। ऐसी अफवाह थी कि बड़े बाबू एहसान अली ने तो चपरासी शीशपाल को बाकायदा पैसे देकर निगरानी के काम पर लगा रखा है। मगर गरजपाल जी आसानी से काबू में आने वाले नहीं थे। लोग अपना हर व्यक्तिगत काम दफ्तर के चपरासियों से कराते थे मगर मजाल है जो गरजपाल जी ने कभी अपनी एक भी चिट्ठी डाक में डालने का काम किसी चपरासी को सौंपा हो।

शीशपाल ने बहुत बार अपना लंच जल्दी से पूरा करके उनका हाथ बँटाने की कोशिश की मगर गरजपाल जी की चिट्ठी उसके हाथ कभी आयी। उसकी सबसे बड़ी सफलता यह पता लगाने में थी कि यह चिट्ठियाँ दिल्ली जाती हैं। सबने अपने-अपने अनुमान लगाए। किसी को लगता था कि उनके परिवार के कुछ रिश्तेदार शायद अभी भी काल से बचे रह गए थे। मगर यह कयास जल्दी ही खारिज हो गया क्योंकि किसी बूढे ताऊ या काकी के लिए रंग-बिरंगे लिफाफों की कोई ज़रूरत न थी। काफी सोच विचार के बाद बात यहाँ आकर ठहरी के ज़रूर दिल्ली में उनका कोई चक्कर होगा।

कहानियाँ इससे आगे भी बढीं। कुछ कल्पनाशील लोगों ने उनकी इस अनदेखी अनजानी महिला मित्र के लिए एक नाम भी गढ़ लिया - वासंती। वासंती के नाम की चिट्ठी जाती तो रोज़ थी मगर किसी ने कभी वासंती की कोई चिट्ठी आते ने देखी। शीशपाल आने वाली डाक का मुआयना बड़ी मुस्तैदी से करता था। जिस दिन वह छुट्टी पर होता, एहसान अली वासंती की चिट्ठी ढूँढने की जिम्मेदारी ख़ुद ले लेते। कहने की ज़रूरत नहीं कि उनका काम कभी बना नहीं। वासंती की चिट्ठी किसी को कभी नहीं मिली। हाँ, कभी-कभार गरजपाल जी के पुराने दफ्तर के किसी सहकर्मी का पोस्ट-कार्ड ज़रूर आ जाता था।

[क्रमशः - अगली कड़ी पढने के लिए कृपया यहाँ क्लिक करें]

Tuesday, September 16, 2008

मीठी बँगला भाषा

अभी हिन्दी ब्लॉग-जगत में पहचान बताने-छुपाने पर जो आरोप-प्रत्यारोप चले उससे मुझे बंगाली दा-दा मोशाय याद आ गए। जैसे बंगला में जी होते हैं वैसे ही दा भी होते हैं। जैसे रंजन दा, बर्मन दा वगैरह। पिछले दिनों इस दा पर काफी हलचल रही। किन्हीं रक्षण दा और किन्हीं भूतमारकर दा में भी कुछ विवाद हो गया। एक ने दूसरे मर्द होने का खिताब दे दिया जिसका उन्होंने ज़ोरदार विरोध किया। अब इस नए ज़माने की कौन कहे? हमारे ज़माने में तो उलटा आरोप लगने पर लोग नाराज़ होते थे। अलबत्ता, आप भी यहीं हैं और हम भी यहीं हैं। कभी समय मिलेगा तो जाकर दा-दा लोगों से मिलेंगे। क्या पता कौन से दा राशोगुल्ला हाज़िर कर दें।

जितनी मीठी बंगाली मिठाई, उतनी ही मीठी बँगला भाषा। बँगला काव्य की मधुरता को तो कोई सानी नहीं। कोई आश्चर्य की बात नहीं कि साहित्य का नोबल पुरस्कार पाने वाले भारत के अकेले कवीन्द्र रबिन्द्रनाथ ठाकुर बंगलाभाषी ही थे। कवीन्द्र के साथ तो एक और अनूठा सम्मान जुदा हुआ है। वे विश्व के ऐसे अकेले कवि हैं जिनकी रचनाओं को दो देशों का राष्ट्रीय गान बनने का सम्मान प्राप्त हुआ है।

गज़ब की भाषा है और गज़ब के लोग। मिठास तो है ही दूसरों के प्रति आदर भी घोल-घोलकर भरा है। हर किसी को जी कहकर पुकारते हैं। बनर्जी, चटर्जी, मुखर्जी आदि। महाराष्ट्र हो या पंजाब, बाहर से आने वाले गरीब मजदूर को बहुत ज्यादा इज्ज़त नहीं मिलती। मगर जब पाकिस्तानी तानाशाह बांग्लादेश में तीस लाख इंसानों का क़त्ल कर रहे थे तब जो लाखों लोग वहाँ से जान बचाकर भागे उन्हें भी हमारे बंगाल के भले भद्रजनों ने आदर से रिफ्यूजी कहा। जी लगाना नहीं भूले।

चलें मूल बात पर वापस आते हैं। अगर यह दा-दा लोग बाबू मोशाय न होकर रामपुर के दादा निकले तो? तब तो निकल लेने में ही भलाई है। रामपुरी से तो अच्छे-अच्छे डरते हैं।

Monday, September 15, 2008

नहीं होता - एक कविता


बात तो आपकी सही है यह
थोड़ा करने से सब नहीं होता

फिर भी इतना तो मैं कहूंगा ही
कुछ न करने से कुछ नहीं होता

इक खुमारी सी छाई रहती है
उन पर कुछ भी असर नहीं होता

लोग दिन में नशे में रहते हैं
मैं तो रातों को भी नहीं सोता

खून मेरा भी खूब खौला था
अपना सब क्रोध पी गया लेकिन

कुछ न कहने से कुछ न बदला था
कुछ भी कहता तो झगड़ा ही होता

सच ही कहता था दिल बुलंद रखो
डरना तो मौत से भी बदतर है

दम लगाते तो जीतते शायद
लेखा किस्मत का सच नहीं होता।
(अनुराग शर्मा)

Friday, September 12, 2008

दूर के इतिहासकार

अरे भाई, इसमें इतना आश्चर्यचकित होने की क्या बात है? जब दूर के रिश्तेदार हो सकते हैं, दूर की नमस्ते हो सकती है, दूर के ढोल सुहावने हो सकते हैं तो फ़िर दूर के इतिहासकार क्यों नहीं हो सकते भला?

साहित्य नया हो सकता है, विज्ञान भी नया हो सकता है। दरअसल, कोई भी विषय नया हो सकता है मगर इतिहास के साथ यह त्रासदी है कि इतिहास नया नहीं हो सकता। इतिहास की इसी कमी को सुधारने के लिए आपकी सेवा में हाज़िर हुए हैं "दूर के इतिहासकार"। यह एकदम खालिस नया आइटम है। पहले नहीं होते थे।

पुराने ज़माने में अगर कोई इतिहासकार दूर का इतिहास लिखना चाहता भी था तो उसे पानी के जहाज़ की तलहटी में ठण्ड में ठिठुरते हुए तीन महीने की बासी रसद पर गुज़ारा करते हुए दूर देश जाना पड़ता था। सो वे सभी निकट की इतिहासकारी करने में ही भलाई समझते थे।

अब, आज के ज़माने की बात ही और है। कंप्यूटर, इन्टरनेट, विकिपीडिया, सभी कुछ तो मौजूद है आपकी मेज़ पर। कंप्युटर ऑन किया, कुछ अंग्रेजी में पढा, कुछ अनुवाद किया, कुछ विवाद किया - लो जी तैयार हो गया "दूर का इतिहास"। फ़िर भी पन्ना खाली रह गया तो थोड़ा समाजवाद-साम्यवाद भी कर लिया। समाजवाद मिलाने से इतिहास ज़्यादा कागजी हो जाता है, बिल्कुल कागजी बादाम की तरह। वरना इतिहास और पुराण में कोई ख़ास अंतर नहीं रह जाता है।

जहाँ एक कार्टून बनाना तक किसी मासूम की हत्या का कारण बन जाता हो वहाँ दूर का इतिहास लिखने का एक बड़ा फायदा यह भी है कि जान बची रहती है. बुजुर्गो ने कहा भी है -
जान है तो दुकान है,
वरना सब वीरान है.
नहीं समझ आया? अगर आसानी से समझ आ जाए तो सभी लोग नेतागिरी छोड़कर इतिहासकार ही न बन जाएँ? चलिए मैं समझाता हूँ, माना आप आसपास का इतिहास लिख रहे हैं और आपने लिख दिया कि पाकिस्तान एक अप्राकृतिक रूप से काट कर बनाया हुआ राष्ट्र है तो क्या हो सकता है? हो सकता है कि आप ऐके ४७ के निशाने पर आ जाएँ। दूर का इतिहासकार अपनी जान खतरे में नहीं डालता। वह पास की बात ही नहीं करता। वह तो ईरान-तूरान सब पार करके लिखेगा कि इस्राइल नाम की झील अप्राकृतिक है। अच्छा जी! इस्रायल एक झील नहीं समुद्र है? इतिहासकार मैं हूँ कि आप? यही तो समस्या है हम लोगों की कि किसी भी बात में एकमत नहीं होते हैं। अरे आज आप राजी-खुशी से मेरी बात मान लीजिये, कल तो मैं बयानबाजी, त्यागपत्र, धरना, पिकेटिंग, सम्मान-वापसी  कर के ख़ुद ही मनवा लूँगा।

देखिये आपके टोकने से हम ख़ास मुद्दे से भटक गए। मैं यह कह रहा था कि अपने आसपास की बात लिखने में जान का ख़तरा है इसलिए "दूर के इतिहासकार" दूर-दराज़ की, मतलब-बेमतलब की बात लिखते हैं। कभी-कभी दूर-दराज़ की बात में भी ख़तरा हो सकता है अगर वह आज की बात है। इसलिए हर दूर का इतिहासकार न सिर्फ़ किलोमीटर में दूर की बात लिखता है बल्कि घंटे और मिनट में भी दूर की बात ही लिखता है।

दूर के इतिहासकार होने के कई फायदे और भी हैं। जैसे कि आपकी गिनती बुद्धिजीविओं में होने लगती है. आप हर बात पर भाषण दे सकते है। चमकते रहें तो हो सकता है पत्रकार बन जाएँ। और अगर न बन सके तो कलाकार बन सकते हैं। और अगर वहाँ भी फिसड्डी रह गए तो असरदार बन जाईये। असरदार यानी कि बिना पोर्टफोलियो का वह नेता जिसकी छत्रछाया में सारे मंत्री पलते है।

तो फ़िर कब से शुरू कर रहे हैं अपना नया करियर?

Wednesday, September 10, 2008

ब्रिटिश जेल का प्रयोग

Disclaimer[नोट] : इस लेख का उद्देश्य पोषक आहार के मानव मन और प्रवृत्ति पर प्रभाव की संक्षिप्त समीक्षा करना है। लेख में वर्णित अध्ययन अपराध घटाने के उद्देश्य से इंग्लॅण्ड की जेलों में किए गए थे। आशा है आप अन्यथा न लेंगे।

सन २००२ में इंग्लॅण्ड में सज़ा भुगत रहे २३० अपराधियों पर एक अनोखा प्रयोग किया गया। प्रशासन ने उनके भोजन को पौष्टिक बनाने के प्रयास किए। ऐलेस्बरी युवा अपराधी संस्थान (Aylesbury young offenders' institution, Buckinghamshire ) में कैद १८ से २१ वर्ष की आयु के इन अपराधियों को भोजन में नियमित रूप से आवश्यक विटामिन व खनिज की गोलियाँ दी जाने लगीं। भोजन और अपराध का वैज्ञानिक सम्बन्ध ढूँढने के उद्देश्य से किए गए अपनी तरह के पहले इस प्रयोग में अपराधियों में से कुछ को झूठी गोलियाँ भी दी गयीं। प्रयोगों से पता लगा कि पौष्टिक भोजन पाने वाले कैदियों की अपराधी मनोवृत्ति में सुधार आया और जेल के अन्दर हिंसक घटनाओं में काफी कमी आयी। अध्ययन के प्रमुख कर्ता-धर्ता श्री बर्नार्ड गेश्च (Bernard Gesch) का कहना है कि देश के नौनिहालों को गोभी, गाज़र और ताज़ी सब्जियाँ खिलाने से अपराधों की संख्या में भारी कमी लाई जा सकती है। इस अध्ययन में अपराधों में ३७% कमी अंकित की गयी थी।

हौलैंड व अमेरिका की जेलों में हुए समान प्रकृति के अध्ययनों से भी मिलते-जुलते नतीजे ही सामने आए। फल-सब्जी-विटामिन की गोली आदि दिए जाने पर अपराधियों की मनोवृत्ति सहज होने लगी और उनकी खुराक में हॉट-डॉग व मुर्गा वापस लाने पर हिंसा ने दुबारा छलाँग लगाई। अधिक मीठे व मैदा का प्रयोग भी हानिप्रद ही था। खनिज और अम्लीय-वसा की आपूर्ति ने कैदियों की सोच को काफी सुधारा।

सन २००५ में आठ से १७ साल तक के अमेरिकन बच्चों के मनोविज्ञान के बारे में किए गए अध्ययनों से भी लगभग यही बात सामने आयी। वहाँ भी खनिज व अम्लीय-वसा की कमी और मीठे व मैदा की अधिकता को हानिप्रद पाया गया। इस अध्ययन में एक चौंकाने वाली बात सामने आयी और वह थी कि बहुत से बच्चों के व्यवहार में विकार का कारण यह था कि उन्हें उच्च श्रेणी का प्रोटीन नहीं मिल पाता था। इन बच्चों के परिवार जन इस भ्रम में थे कि उनके द्वारा खाए जाने वाले मांस से उन्हें पर्याप्त प्रोटीन मिल रहा है। जबकि सच्चाई यह थी कि यह बच्चे सोया, चावल, स्पिरुलिना आदि शाकाहारी स्रोतों में पाये जाने वाले उच्च श्रेणी के प्रोटीन से वंचित थे। उच्च श्रेणी के शाकाहारी प्रोटीन की कमी के अलावा जस्ते की कमी भी अपराध की ओर प्रवृत्त होने का एक कारण समझी गयी।

सन्दर्भ: http://www.naturalnews.com/006194.html
सन्दर्भ: http://www.telegraph.co.uk/news/1398340/Cabbages-make-prisoners-go-straight.html

Tuesday, September 9, 2008

शाकाहार और हत्या

शाकाहार तो प्राकृतिक नहीं हो सकता - भाग ४
[दृश्य १ से ७ एवं उनकी व्याख्या के लिए कृपया इस लेख की पिछली कड़ियाँ भाग , भाग २ एवं भाग 3 पढ़ें]

प्राचीन भारत में गौमांस भक्षण के समर्थन में एक प्रमुख तर्क "हठ योग प्रदीपिका" में से दिया जाता है। गुरु गोरखनाथ के शिष्य स्वामी स्वात्माराम द्वारा पंद्रहवीं शती में लिखा हुआ यह ग्रन्थ संस्कृति, इतिहास या भोजन के बारे में नहीं है इतना तो इसके नाम से ही पता लग जाता है। पहली बात तो यह कि पंद्रहवीं शताब्दी में लिखे ग्रन्थ से प्राचीन भारत की स्थिति, संस्कृति या विचारधारा को नहीं सिद्ध किया जा सकता है। तो भी आईये हम "हठ योग प्रदीपिका" पर नज़र डालकर देखें कि सत्य क्या है। निम्न श्लोक को उधृत कर के लोगों से कहा जाता है कि गौमांस सामान्य था - विशेषकर योगी व ब्राह्मणों में। योग-मुद्राओं से सम्बंधित अध्याय तीन के श्लोक 47 से:

गोमांसं भक्ष्हयेन्नित्यं पिबेदमर-वारुणीम
कुलीनं तमहं मन्ये छेतरे कुल-घातकाः

इस श्लोक का अर्थ करते हुए ऐसा कहा जाता है की कुलीन लोग गौमांस व सोमरस का नित्य सेवन करते हैं और न करने वाले तो कुल-घातक हैं। गौमांस-भक्षण की ऐसी अफवाहें फैलाने वाले कभी भी इस श्लोक के अगले श्लोक का ज़िक्र नहीं करते जिसमें इस तथाकथित गौमांस की प्रकृति का खुलासा किया गया है:

गो-शब्देनोदिता जिह्वा तत्प्रवेशो हि तालुनि
गो-मांस-भक्ष्हणं तत्तु महा-पातक-नाशनम (अध्याय 3 - श्लोक 48)

गो अर्थात जिह्वा को ऊपर ले जाकर और फिर पीछे की ओर मोड़कर तालू में लगाकर महापाप भी नष्ट हो जाते हैं। यहाँ पर गो जिह्वा है और गोमांस एक मुद्रा हैऔर अमर जल जिह्वा का रस है। आश्चर्य होता है कि लोग भारतीय ग्रंथों में हर तरफ भरे हुए अहिंसा, दया और मानवता के सिद्धांतों को छोड़ ग्रंथों में मुश्किल से एकाध जगह आए प्रतीकात्मक वाक्यों के अर्थ का अनर्थ कर के उसका दुरूपयोग अपने कुतर्कों के लिए करते हैं.

लिए बहुत समय दे दिया जिह्वा-चर्चा को, आइये अब एक नज़र डालते हैं पिछली बार के शाकाहार सम्बन्धी शब्दों के अर्थ पर। "शस्य" के शाब्दिक अर्थ के बारे में पूछे गए प्रश्न का अब तक केवल एक ही उत्तर आया है। जैसा कि मैंने पहले कहा था, इस एक शब्द के अन्दर भारतीय शाकाहार के सिद्धांत का आधा हिस्सा छिपा है। आजकल पौधों के लिए रूढ़ हुआ संस्कृत के शब्द शस्य का मूल है शस जिसका अर्थ है काटना या हत्या करना। हथियारों के लिए प्रयुक्त होने वाला शब्द शस्त्र भी "शस" से ही निकला है। वनस्पति का काटने से क्या सम्बन्ध हो सकता है, यह शस्य के अर्थ से स्पष्ट है। शस्य वह है जिसकी हत्या की जा सकती है अर्थात, वनस्पति मे से जिनको हम भोजन के लिए काट सकते हैं वे शस्य हैं। इस शब्द से वनस्पति मे जीवन का आभास भी मिलता है और प्राणी-हिंसा की मनादी भी। कहा जाता है कि शस्य शब्द ने ही जगदीश चंद्र बासु को वनस्पति में जीवन की उपस्थिति सिद्ध करने को प्रेरित किया था।

मांस शब्द के कई अर्थ हो सकते हैं - मुझे ज़्यादा नहीं पता मगर मनु स्मृति के अनुसार एक अर्थ:
मांस: = मम + स: = मुझे + यह = यह मुझे वही करेगा जो मैं इसे कर रहा हूँ = मैंने इसे खाया तो यह मुझे खायेगा।

यह अर्थ कर्म-फल के सिद्धांत के भी बिल्कुल अनुकूल बैठता है। संत कबीर के शब्दों में इसी बात को निम्न दोहे में प्रकट किया गया है:

कहता हूँ कहि जात हूँ, कहा जो मान हमार।
जाका गला तुम काटि हो, सो फिर काटि तुम्हार।।

तो भइया अब आप जो चाहे सो खाओ, हमें तो बख्शो इस जंजाल से। हाँ, अब यह मत कहना कि हमने आपको आगाह नहीं किया था।

चलते चलते एक सवाल: अस्त्र और शस्त्र में क्या अन्तर है?

Disclaimer[नोट] : इस लेख का उद्देश्य किसी पर आक्षेप किए बिना शाकाहार से सम्बंधित विषयों की संक्षिप्त समीक्षा करना है। मैं स्वयं शुद्ध शाकाहारी हूँ और प्राणी-प्रेम और अहिंसा का प्रबल पक्षधर हूँ। दरअसल शाकाहार पर अपने विचार रखने से पहले मैं अपने जीवन में से कुछ ऐसे मुठभेडों से आपको अवगत कराना चाहता था जिसकी वजह से मुझे इस लेख की ज़रूरत महसूस हुई। आशा है आप अन्यथा न लेंगे।

Sunday, September 7, 2008

शाकाहार का अर्थ - शस्य या मांस

Disclaimer[नोट] : इस लेख का उद्देश्य किसी पर आक्षेप किए बिना शाकाहार से सम्बंधित विषयों की संक्षिप्त समीक्षा करना है। मैं स्वयं शुद्ध शाकाहारी हूँ और प्राणी-प्रेम और अहिंसा का प्रबल पक्षधर हूँ। आशा है आप अन्यथा न लेंगे।

शाकाहार तो प्राकृतिक नहीं हो सकता - भाग ३
[दृश्य १ से ७ एवं उनकी व्याख्या के लिए कृपया इस लेख की पिछली कड़ियाँ भाग एवं भाग २ पढ़ें]

"शस्य" के शाब्दिक अर्थ के बारे में पूछे गए प्रश्न का केवल एक ही उत्तर आया है जगत-ताऊ श्री पी सी रामपुरिया की तरफ़ से। अगर मैं कहूं कि इस एक शब्द के अन्दर भारतीय शाकाहार के सिद्धांत का आधा हिस्सा छिपा है तो आप क्या कहेंगे? (बाकी का आधा सिद्धांत मांस शब्द में छिपा है)

बुद्धिमता के साइड अफेक्ट्स में हम पढ़ चुके हैं कि पश्चिमी देशों में भी बुद्धिमान लोग अक्सर शाकाहारी हो जाते हैं। हम भारतीय तो बुद्धिमानी की इस परम्परा को हजारों पीढियों से निभा रहे हैं - कृपया अपने-अपने ज्ञान चक्षु खोलिए और शस्य का अर्थ ढूँढने की कोशिश कीजिये।

पिछले दो अंकों में हमने शाकाहार के विरोध में सामान्यतः दिए जाने वाले तर्कों और उनकी सतही प्रकृति को देखा। इसी बीच आप लोगों की ज्ञानवर्धक टिप्पणियां पढने को मिलीं। ब्लॉग लिखने में मुझे इसीलिये मज़ा आ रहा है क्योंकि इसमें ज़्यादा कुछ उधार नहीं रहता - इधर आपने लिखा और उधर किसी टिप्पणी ने आपकी भूल सुधार दी - धन्यवाद!

रामपुरिया जी ने याद दिलाया कि खानपान का सम्बन्ध देश-काल से है। मैं उनकी बात से अधिकांशतः सहमत हूँ। भारत में बहुत से लोग सिर्फ़ इसीलिये शाकाहारी हैं क्योंकि हमारे पूर्वजों ने शाकाहार को एक जीवन-दर्शन देने के महान कार्य पर हजारों वर्षों तक काम किया है। लेकिन हमें यह याद रखना चाहिए कि लेओनार्दो दा विन्ची जैसे लोग तेरहवीं शताब्दी के यूरोप में भी शाकाहारी थे। उनके बाद के यूरोपीय शाकाहारी लोगों में जॉर्ज बर्नार्ड शौ का नाम उल्लेखनीय है। अपने समय और माहौल से ऊपर उठकर भी अच्छे विचारों को अपनाना महापुरुषों की ऐसी खूबी है जो उन्हें आम लोगों से अलग करती है। लेकिन इससे हम भारतीयों के शाकाहार का मूल्य कम नहीं होता।

डॉक्टर अनुराग आर्य ने भारतेंदु जी को उद्धृत करते हुए बताया कि मांसाहारी लोग भी कहीं अधिक चरित्रवान हो सकते हैं। मुझे इसमें कोई शंका नहीं है। सच्चाई यह है कि मैं अनगिनत चरित्रवान मांसाहारियों को जानता हूँ और उनके खान-पान की वजह से उनमें मेरी श्रद्धा में कोई कमी नहीं आयी है। रामपुरिया जी द्वारा याद दिलाये गए श्री रामकृष्ण परमहंस के मत्स्य-भक्षण को इसी श्रेणी में गिना जा सकता है। मुझे पूरा विश्वास है कि इन चरित्रवान लोगों में से कोई भी शाकाहार-विरोधी कुतर्कों में अपना जीत नहीं ढूंढेगा। मैंने ऐसे कुछ लोगों को मांसाहार का पूर्ण परित्याग करते हुए भी देखा है। चरित्रवान व्यक्ति अगर चेन-स्मोकर भी होता है तो भी डंके की चोट पर कहता है कि धूम्रपान बुरी बात है और थोड़ी भी आत्मशक्ति बढ़ने पर उसे ख़ुद भी छोड़ देता है।

ज्ञानदत्त पाण्डेय जी ने इस बात पर संशय व्यक्त किया कि कुछ नए लोग - विशेषकर तर्क द्वारा - शाकाहारी बनेंगे। बिल्कुल सही बात है। हमारे जीवन में आमूलचूल परिवर्तन हमारी अपनी समझ से ही आता है - तर्क या तो विद्वानों के लिए होते हैं या फिर तानाशाहों के लिए - उनसे असलियत नहीं बदलती है। फिर भी अमेरिका जैसे देशों में शाकाहार की प्रवृत्ति बहुत तेज़ी से बढ़ रही है। हाँ उसका रूप हमारे यहाँ से अलग है। तीन वर्षों में यहाँ भोजन में खुम्भी का प्रयोग दोगुना हो गया। मांसाहार के दुष्प्रभावों की जानकारी भी काफी तेज़ी से बढ़ रही है।

जितेन्द्र भगत जी की बात भी ठीक है। शाकाहार से करुणा उत्पन्न नहीं होती है। परन्तु इसका उलटा तो सत्य है। करुणा से शाकाहार का रास्ता आसान हो जाता है। हिन्दी में कहावत है, "घर का जोगी जोगडा, आन गाँव का सिद्ध" हम भारतीय लोग शाकाहार के महत्त्व को इसलिए नहीं समझ पाते हैं क्योंकि यह हमें सहज ही उपलब्ध है। ज़रा विन्ची और बर्नार्ड शो जैसे लोगों के देश-काल में जाकर देखिये और आप जान पायेंगे कि करुणा कैसे अनगिनत कठिनाइयों के बावजूद शाकाहार की तरफ़ प्रवृत्त करती है। दूसरी बात यह कि मांस को गंदा समझ कर न छूना बिल्कुल ही भिन्न दृष्टि है। उसका अहिंसा और दया से क्या लेना? मैं चार साल के ऐसे पशुप्रेमी भारतीय बालक को जानता हूँ जो अपने मांसाहारी माँ-बाप को चुनौती देकर कहता था कि वह बड़ा होकर सारी दुनिया के मांसाहारी लोगों और पशुओं को अपने घर बुलाकर दाल-रोटी खिलायेगा। इसी तरह आठ साल की एक अमेरिकन लडकी ने उस दिन मांस खाना छोड़ दिया जब उसने किसी त्यौहार पर अपने दादाजी की भोजन-चौकी पर एक सूअर का सर रखा हुआ देखा। बरेली में मेरा एक मुसलमान सहपाठी शाकाहारी था और केरल का एक मुसलमान सहकर्मी भी। मांसाहारी परिवारों में जन्मे इन दोनों का शाकाहार करुणा से प्रेरित था। ऋचा जी की बात लगभग यही कहती है।

कविता जी ने डॉक्टर हरिश्चंद्र की अन्ग्रेज़ी में लिखित दो पुस्तकों A Thought for Food और The Human Nature and Human Food को पढने की सलाह दी है। लगे हाथ मैं भी सृजनगाथा पर छपे एक लेख अहिंसा परमो धर्मः पढने की अनुशंसा कर देता हूँ। आपको अच्छा लगेगा इसकी गारंटी मेरी है।

चलते चलते दो सवाल: १. मांस शब्द का शाब्दिक अर्थ क्या है?
२. पौधों/वनस्पति/हरयाली के लिए प्रयुक्त होने वाले शब्द शस्य का शाब्दिक अर्थ क्या है?

[अगली कड़ी में शस्य और मांस के अर्थ एवं गौमांस की शास्त्रीय स्वीकृति के आक्षेप की चर्चा...]

[क्रमशः]



Saturday, September 6, 2008

शाकाहार - कुछ तर्क कुतर्क

Disclaimer[नोट]: मैं स्वयं शुद्ध शाकाहारी हूँ और प्राणी-प्रेम और अहिंसा का प्रबल पक्षधर हूँ। दरअसल शाकाहार पर अपने विचार रखने से पहले मैं अपने जीवन में हुई कुछ ऐसी मुठभेडों से आपको अवगत कराना चाहता था जिनकी वजह से मुझे इस लेख की ज़रूरत महसूस हुई। आशा है मित्रगण अन्यथा न लेंगे।

शाकाहार तो प्राकृतिक नहीं हो सकता - भाग २
[दृश्य १ से ५ तक के लिए कृपया इस लेख की पिछली कड़ी शाकाहार तो प्राकृतिक नहीं हो सकता! पढ़ें।]

दृश्य ६:
भारत में इस्लाम के एक आधुनिक आलिम, फाजिल और तालिब शिरीमान डॉक्टर ज़ाकिर नायक मांसाहार के विषय में अपने संचालन, सम्पादन, निर्देशन में अपने बुलाए गिने-चुने अतिथियों के साथ शाकाहार के मुद्दे पर कोरान-शरीफ की रोशनी में एक बहस कराते हैं। बहस के निष्कर्ष निकालते हुए वह कहते हैं कि भगवान् ने जहाँ भी खाने के लिए जो कुछ पैदा किया है वही खाना है। अपनी बात के समर्थन में वह एन्टआर्कटिका का उदाहरण देते हुए बताते हैं कि वहाँ पर भगवान् ने अनाज नहीं उगाया है इसलिए वहाँ पर मांस खाना ही इकलौता विकल्प है।

दृश्य ७:
मैं ट्रेन में जा रहा हूँ। एक विद्वान् अपनी बातों से सभी यात्रियों को मुग्ध कर रहे हैं। बातों में ही बात गोमांस पर पहुँच जाती है। विद्वान् सज्जन यह कहकर सबको चकित कर देते हैं कि गोमांस ब्राह्मणों का भोजन था और इसलिए ब्राहमणों का एक नाम गोखन भी है। वे बताते हैं कि उनके विद्वान् पिता ने इस बारे में एक किताब भी लिखी थी। अपनी बात के पक्ष में वे कोई भी उद्धरण नहीं दे पाते हैं सिवाय अपने पिता की किताब के।

मेरी बात:
अभी तक वर्णित दृश्यों में मैंने शाकाहार के बारे में अक्सर होने वाली बहस के बारे में कुछ आंखों देखी बात आप तक पहुँचाने की कोशिश की है। आईये देखें इन सब तर्कों-कुतर्कों में कितनी सच्चाई है। लोग पेड़ पौधों में जीवन होने की बात को अक्सर शाकाहार के विरोध में तर्क के रूप में प्रयोग करते हैं। मगर वे यह भूल जाते हैं कि भोजन के लिए प्रयोग होने वाले पशु की हत्या निश्चित है जबकि पौधों के साथ ऐसा होना ज़रूरी नहीं है।

मैं अपने टमाटर के पौधे से पिछले दिनों में बीस टमाटर ले चुका हूँ और इसके लिए मैंने उस पौधे की ह्त्या नहीं की है। पौधों से फल और सब्जी लेने की तुलना यदि पशु उपयोग से करने की ज़हमत की जाए तो भी इसे गाय का दूध पीने जैसा समझा जा सकता है। हार्ड कोर मांसाहारियों को भी इतना तो मानना ही पडेगा की गाय को एक बारगी मारकर उसका मांस खाने और रोज़ उसकी सेवा करके दूध पीने के इन दो कृत्यों में ज़मीन आसमान का अन्तर है।

अधिकाँश अनाज के पौधे गेंहूँ आदि अनाज देने से पहले ही मर चुके होते हैं। हाँ साग और कंद-मूल की बात अलग है। और अगर आपको इन कंद मूल की जान लेने का अफ़सोस है तो फ़िर प्याज, लहसुन, शलजम, आलू आदि मत खाइए और हमारे प्राचीन भारतीयों की तरह सात्विक शाकाहार करिए। मगर नहीं - आपके फलाहार को भी मांसाहार जैसा हिंसक बताने वाले प्याज खाना नहीं छोडेंगे क्योंकि उनका तर्क प्राणिमात्र के प्रति करुणा से उत्पन्न नहीं हुआ है। यह तो सिर्फ़ बहस करने के लिए की गयी कागजी खानापूरी है।

मुझे याद आया कि एक बार मेरे एक मित्र मेरे घर पर बोनसाई देखकर काफी व्यथित होकर बोले, "क्या यह पौधों पर अत्याचार नहीं है?" अब मैं क्या कहता? थोड़ी ही देर बाद उन्होंने अपने पेट ख़राब होने का किस्सा बताया और उसका दोष उन बीसिओं झींगों को दे डाला जिन्हें वे सुबह डकार चुके थे - कहाँ गया वह अत्याचार-विरोधी झंडा?

एक और बन्धु दूध में पाये जाने वाले बैक्टीरिया की जान की चिंता में डूबे हुए थे। शायद उनकी मांसाहारी खुराक पूर्णतः बैक्टीरिया-मुक्त ही होती है। दरअसल विनोबा भावे का सिर्फ़ दूध की खुराक लेना मांसाहार से तो लाख गुने हिंसा-रहित है ही, मेरी नज़र में यह किसी भी तरह के साग, कंद-मूल आदि से भी बेहतर है। यहाँ तक कि यह मेरे अपने पौधे से तोडे गए टमाटरों से भी बेहतर है क्योंकि यदि टमाटर के पौधे को किसी भी तरह की पीडा की संभावना को मान भी लिया जाए तो भी दूध में तो वह भी नहीं है। इसलिए अगली बार यदि कोई बहसी आपको पौधों पर अत्याचार का दोषी ठहराए तो आप उसे सिर्फ़ दूध पीने की सलाह दे सकते हैं। बेशक वह संतुलित पोषण न मिलने का बहाना करेगा तो उसे याद दिला दें कि विनोबा दूध के दो गिलास प्रतिदिन लेकर ३०० मील की पदयात्रा कर सकते थे, यह संतुलित और पौष्टिक आहार वाला कितने मील चलने को तैयार है?

आईये सुनते हैं शिरिमान डॉक्टर नायक जी की बहस को - अरे भैया, अगर दिमाग की भैंस को थोडा ढील देंगे तो थोड़ा आगे जाने पर जान पायेंगे कि अगर प्रभु ने अन्टार्कटिका में घास पैदा नहीं की तो वहाँ इंसान भी पैदा नहीं किया था। आपके ख़ुद के तर्क से ही पता लग जाता है कि प्रभु की मंशा क्या थी। और फिर आप मांस खाने के लिये क्या रोज़ एंटार्कटिका जाते हैं? अगर आपको जुबां का चटखारा किसी की जान से ज़्यादा प्यारा है तो उसके लिये ऐसा बेतुका कुतर्क सही नहीं हो जाता।  उसके लिये मज़हब का बहाना देना भी सही नहीं है। पशु-बलि की प्रथा पर कवि ह्रदय का कौतूहल देखिये:
अजब रस्म देखी दिन ईदे-कुर्बां
ज़बह करे जो लूटे सवाब उल्टा
मज़हब के नाम पर हिंसाचार को सही ठहराने वालों को एक बार इस्लामिक कंसर्न की वेबसाइट ज़रूर देखनी चाहिए। इसी प्रकार की एक दूसरी वेबसाइट है जीसस-वेजहमारे दूर के नज़दीकी रिश्तेदार हमसे कई बार पूछ चुके हैं कि "किस हिंदू ग्रन्थ में मांसाहार की मनाही है?" हमने उनसे यह नहीं पूछा कि किस ग्रन्थ में इसकी इजाजत है लेकिन फ़िर भी अपने कुछ अवलोकन तो आपके सामने रखना ही चाहूंगा।

योग के आठ अंग हैं। पहले अंग यम् में पाँच तत्त्व हैं जिनमें से पहला ही "अहिंसा" है। मतलब यह कि योग की आठ मंजिलों में से पहली मंजिल की पहली सीढ़ी ही अहिंसा है। जीभ के स्वाद के लिए ह्त्या करने वाले क्या अहिंसा जैसे उत्कृष्ट विषय को समझ सकते हैं? श्रीमदभगवदगीता जैसे युद्धभूमि में गाये गए ग्रन्थ में भी श्रीकृष्ण भोजन के लिए हर जगह अन्न शब्द का प्रयोग करते हैं।

अंडे के बिना मिठाई की कल्पना न कर सकने वाले केक-भक्षियों के ध्यान में यह लाना ज़रूरी है कि भारतीय संस्कृति में मिठाई का नाम ही मिष्ठान्न = मीठा अन्न है। पंचामृत, फलाहार, आदि सारे विचार अहिंसक, सात्विक भोजन की और इशारा करते हैं। हिंदू मंदिरों की बात छोड़ भी दें तो गुरुद्वारों में मिलने वाला भोजन भी परम्परा के अनुसार शाकाहारी ही होता है। संस्कृत ग्रन्थ हर प्राणी मैं जीवन और हर जीवन में प्रभु का अंश देखने की बात करते हैं। ग्रंथों में औषधि के उद्देश्य से उखाड़े जाने वाले पौधे तक से पहले क्षमा प्रार्थना और फ़िर झटके से उखाड़ने का अनुरोध है। वे लोग पशु-हत्या को जायज़ कैसे ठहरा सकते हैं?

अब रही बात प्रकृति में पायी जाने वाली हिंसा की। इस विषय पर कृपया द्विवेदी जी की टिप्पणी पर भी गौर फरमाएं। मेरे बचपन में मैंने घर में पले कुत्ते भी देखे थे और तोते भी। दोनों ही शुद्ध शाकाहारी थे। प्रकृति में अनेकों पशु-पक्षी प्राकृतिक रूप से ही शाकाहारी हैं। जो नहीं भी हैं वे भी हैं तो पशु ही। उनका हर काम पाशविक ही होता है। वे मांस खाते ज़रूर हैं मगर उसके लिए कोई भी अप्राकृतिक कार्य नहीं करते हैं। वे मांस के लिए पशु-व्यापार नहीं करते, न ही मांस को कारखानों में काटकर पैक या निर्यात करते हैं। वे उसे लोहे के चाकू से नहीं काटते और न ही रसोई में पकाते हैं। वे उसमें मसाले भी नहीं मिलाते और बचने पर फ्रिज में भी नहीं रखते हैं। अगर हम मनुष्य इतने सारे अप्राकृतिक काम कर सकते हैं तो शाकाहार क्यों नहीं? शाकाहार को अगर आप अप्राकृतिक भी कहें तो भी मैं उसे मानवीय तो कहूंगा ही।

अगर आप अपने शाकाहार के स्तर से असंतुष्ट हैं और उसे पौधे पर अत्याचार करने वाला मानते हैं तो उसे बेहतर बनाने के हजारों तरीके हैं आपके पास। मसलन, मरे हुए पौधों का अनाज एक पसंद हो सकती है। और आगे जाना चाहते हैं तो दूध पियें और सिर्फ़ पेड़ से टपके हुए फल खाएं और उसमें भी गुठली को वापस धरा में लौटा दें। नहीं कर सकते हैं तो कोई बात नहीं - शाकाहारी रहकर आपने जितनी जानें बख्शी हैं वह भी कोई छोटी बात नहीं है। दया और करुणा का एक दृष्टिकोण होता है जिसमें जीव-हत्या करने या उसे सहयोग करने का कोई स्थान नहीं है।

अगर मच्छर मारने से आपकी आत्मा को कष्ट होता है तो मच्छरदानी लगाएं। जूते में चमड़ा नहीं चाहिए तो खडाऊं के अलावा आजकल बहुत सारे मानव-निर्मित पदार्थों से बने जूते पहनने का विकल्प है आपके पास। चमड़े की पेटी का क्या उपयोग है? कपड़े के ससपेंडर लगाईये।

आप सभी के उत्साह और टिप्पणियों के लिए धन्यवाद। मुझे यह जानकर अच्छा लगा कि यहाँ दया और करुणा के समर्थकों की संख्या में कोई कमी नहीं है।

चलते चलते एक सवाल: पौधों/वनस्पति/हरयाली के लिए प्रयुक्त होने वाले शब्द शस्य का शाब्दिक अर्थ क्या है?
[क्रमशः]

Friday, September 5, 2008

शाकाहार तो प्राकृतिक नहीं हो सकता!

Disclaimer[नोट] : मैं स्वयं शुद्ध शाकाहारी हूँ और प्राणी-प्रेम और अहिंसा का प्रबल पक्षधर हूँ। दरअसल शाकाहार पर अपने विचार रखने से पहले मैं अपने जीवन में हुई कुछ ऐसी मुठभेडों से आपको अवगत कराना चाहता था जिनकी वजह से मुझे इस लेख की ज़रूरत महसूस हुई। आशा है मित्रगण अन्यथा न लेंगे।

भाई अभिषेक ओझा आजकल अमेरिका में हैं। इसके पहले भी काफी देश-विदेश घूमे हैं। एक पूरी की पूरी पोस्ट भोजन,शाकाहार, अंतरात्मा और सापेक्षतावाद पर लिखी है। सुना है आगे और भी लिखनेवाले हैं। हम कहा के हमहूँ कुछ लिखबे करें। उन्होंने आज्ञा दे दी है। जिन शंकालु भाइयों को भरोसा न हो वे हमारी पिछली पोस्ट "टीस - एक कविता" में कमेन्ट देख कर अपनी तसल्ली कर लें। ओझा जी, वह कमेन्ट हटाना मत भाई, जब तक सारे पाठक "पढ़ चुके हैं" का साक्ष्य न दे दें।

दृश्य १:
दफ्तर में छोटा सा समूह था। एक जापानी, एक बांग्लादेशी, एक इराकी एक अमेरिकन और एक भारतीय मैं। महीने में एक दिन खाना दफ्तर की तरफ़ से ही होता था। उसी खाने पर अक्सर किसी ठेकेदार, आपूर्तिकार आदि के साथ बैठक का भी समायोजन हो जाता था। इस बार एक भारतीय बन्धु आए। खाना पहले से आ चुका था। आते ही पहले वे हम सब से मिले। मुलाक़ात पुरानी थी सो औपचारिकताएँ पूरी करने के बाद सीधे खाने की तरफ़ लपके। शाकाहारी खाने की तरफ़ हिकारत से देखते हुए बोले, "यहाँ कोई शाकाहारी भी है क्या?"

दृश्य २:
एक स्थानीय होटल में पारिवारिक भोज का समय। हमारे बहुत अधिक दूर के एक काफी नज़दीकी रिश्तेदार हमारी ही मेज़ पर बैठकर मुर्गे की टांग तोड़ रहे हैं। काफी गुस्से में हैं कि उनके सामने ही एक ऐसा बेवकूफ बैठा है जो मछली-अंडा तक नहीं खाता। बड़बड़ा रहे हैं, "किस हिन्दू ग्रन्थ में लिखा है कि मांस नहीं खाना चाहिए?" उनकी पतिव्रता पत्नी भी भारतीय परम्परा को निभाते हुए अपने पति-परमेश्वर का मान रखते हुए शुरू हो गयी हैं, "आदमी को खा जाते हैं, सब तरह के अत्याचार करते रहते हैं लोग, मगर मांस नहीं खाते हैं - यह कौन सा नाटक है?"

दृश्य ३:
साप्ताहिक प्रवचन सुनकर बाहर आने के बाद पता लगता है शाह जी के पिता जी का जन्मदिन है। खाना पीना तो है ही मगर उसके पहले केक का वितरण भी होता है। हम मना करते हैं तो उपला जी आकर पूछते हैं, "केक भी नहीं खाते?

"खाते हैं मगर अंडे वाला नहीं!" अब उपला जी तो समझ ही पायेंगे हमारे दिल का हाल।

"क्यों, अंडा क्यों नहीं खाते?" उपला जी केक का दूसरा टुकडा मुँह में भरकर भोलेपन से पूछते हैं।

"हमारी मर्जी!" हम सोचते हैं कि एक ब्राह्मण परिवार में जन्मे आदमी को अगर यह सवाल पूछना पड़ रहा है तो फ़िर जवाब उसकी समझ में क्या ख़ाक आयेगा।

"नहीं मतलब स्वास्थ्य की दृष्टि से कोई नुक्स है क्या अंडे में? फायदेमंद ही है," वे बड़ी मासूमियत से हमें बहस में घसीटने की कोशिश करते हैं।

"हर आदमी हर बात फायदे नुक्सान के लिए ही करे ऐसा नहीं होता है," हमें पता है कि आज तक जिसने भी हमें बहस में घसीटा है वह कई दिन रोया है - एकाध लोग तो ताउम्र भी रोये। हम ठहरे अव्वल दर्जे के दयालु। किसी का भी दिल दुखे यह हमें कबूल नहीं। इसलिए हम उनकी बहस में पड़े बिना फ़टाफ़ट शाह जी के शाहनामे से बाहर आ जाते हें।

दृश्य ४:
भारतीय लोगों के कई झुंड खाना खाने के बाद देशसेवा की अपनी ड्यूटी पूरी करने के लिए लम्बी-लम्बी फेंक रहे हें। कोई डंडे के ज़ोर पे सारी समस्यायें हल करने वाला है तो कोई एक विशेष धर्म वालों का सफाया कर के। श्री लोचन जी विनोबा भावे से अप्रसन्न हैं क्योंकि वे सिर्फ़ दूध पीते थे.

"दूध में भी तो बैक्टीरिया होते हें," मानो उनका झींगा एकदम बैक्टीरिया-मुक्त हो।

"सब्जी, अनाज, फल, पेड़, पौधे सभी में जान होती है। कुछ भी खाओ, वह हत्या ही है," लोचन जी की बात चल रही है। हम नमस्ते कर के विदा ले लेते हें।

दृश्य ५:
श्रीवास्तव जी का गृह प्रवेश। सत्यनारायण व्रत कथा के बाद का भोज। सभी खा रहे हें। केवल भारतीय ही आमंत्रित हें। कुछ मांसाहारी हें, कुछ शाकाहारी हें और कुछ मौकापरस्त भी हें। एक शाकाहारी मित्र कहते हें कि उन्हें शाकाहार की बात समझ नहीं आती है। मित्र बहुत बुद्धिमान हें और अनुभवी भी। मुझे लगता है कि इनसे इस विषय पर बात की जा सकती है। मैं बात को उनकी समझ में न आने का कारण पूछता हूँ तो वे बताते हें, "शाकाहार अप्राकृतिक है।"

मेरी रूचि जगती है तो वे आगे बताते हें, "प्रकृति में देखिये, हर तरफ़ हिंसा है, हर प्राणी दूसरे प्राणी को मारकर खा रहा है।"

[क्रमशः]

Thursday, September 4, 2008

टीस - एक कविता

(अनुराग शर्मा)

एक टीस सी
उठती है
रात भर
नींद मुझसे
आँख मिचौली करती है
मन की अंगुलियाँ
बार-बार
खत लिखती हैं
तुम्हें
दीवानी नज़रें
हर आहट पे
दौड़ती हैं
दरवाजे की तरफ़
शायद
ये तुम होगे
फिर लगता है
नहीं
तुम तो
अपनी दुनिया मे
मगन हो
अपने ही
रंग मे रंगे
अपने
सुख दुख मे खोए
अपनों से घिरे
मेरे अस्तित्व से
बेखबर
मैं समझ नहीं पाता
कि
सिर्फ मेरे नसीब में
अकेलापन
क्यों है
अकसर
एक टीस सी
उठती है। 

आवाज़: सुनो कहानीः शिक्षक दिवस के अवसर पर प्रेमचंद की कहानी 'प्रेरणा'

आवाज़: सुनो कहानीः शिक्षक दिवस के अवसर पर प्रेमचंद की कहानी 'प्रेरणा'

आवाज़ की ओर से आपकी सेवा में प्रस्तुत है एक शिक्षक और एक छात्र के जटिल सम्बन्ध के विषय में मुंशी प्रेमचंद की मार्मिक कहानी "प्रेरणा"। इस कहानी को स्वर दिया है शोभा महेन्द्रू, शिवानी सिंह एवं अनुराग शर्मा ने।

सुनने के लिए कृपया यहाँ क्लिक करें। धन्यवाद!

सुनें और बतायें कि हम अपने इस प्रयास में कितना सफल हुए हैं।





Tuesday, September 2, 2008

लागले बोलबेन

हमारे एक परिचित कलकत्ता में रहते हैं। एक दिन वे रेल में सफर कर रहे थे। भारतीय रेल का द्वितीय श्रेणी का अनारक्षित डब्बा। ज़ाहिर है, भीड़ बहुत थी। साथ में बैठे हुए एक महाशय चौडे होकर अखबार पढ़ रहे थे। जब पन्ना पलटते तो कागज़ के कोने दोनों और बैठे लोगों की आँख के करीब तक पहुँच जाते। कुछ देर तक तो लोगों ने बर्दाश्त किया। आखिरकार एक भाई से रहा न गया। अपने थैले में से एक पत्रिका निकालकर बड़ी विनम्रता से बोले, "भाई साहब आप अखबार पढने के बजाय इस पत्रिका को पढ़ लें तो अच्छा हो, अखबार जब आँख के बिल्कुल पास आ जाता है तो असुविधा होती है।"

उन महाशय ने पहले तो आँखें तरेर कर देखा फिर वापस अपने अखबार में मुँह छिपाकर बड़ी बेरुखी से बोले, "लागले बोलबेन" (या ऐसा ही कुछ और)

सामने की सीट पर बैठे हुए पहलवान से दिखने वाले एक साहब काफी देर से महाशय के पड़ोसियों की परेशानी को देख रहे थे। वे अपनी सीट से उठे और अपनी हथेली पूरी खोलकर महाशय की आँखों और अखबार के बीच इस तरह घुमाने लगे कि वे कुछ भी पढ़ न सकें। जब महाशय ने सर उठाकर उन्हें गुस्से से घूरा तो वे तपाक से बोले, "लागले बोलबेन"

सारे सहयात्री हँस पड़े। महाशय ने अपना अखबार बंद करते हुए पड़ोसी से पत्रिका माँगी और आगे का सफर हंसी-खुशी कट गया।

Monday, September 1, 2008

तरह तरह के बिच्छू

भारतीय परम्परा के अनुसार पृथ्वी पर चौरासी लाख योनियाँ हैं। मतलब यह कि इस भरी दुनिया में किस्म किस्म के प्राणी हैं। हर प्राणी की अपनी प्रकृति है जिसके अधीन रहकर वह काम करता है। मनुष्य ही संभवतः एक ऐसा प्राणी है जो अपनी प्राकृतिक पाशविक प्रवृत्तियों से मुक्त होकर अपने विवेकानुसार काम कर सकता है। मगर अन्य प्राणी इतने खुशनसीब कहाँ? पिछले दिनों मैंने अपने दो अलग अलग मित्रों से दो अलग अलग नदियों की कहानियाँ सुनीं। इन कहानियों में अन्तर भी है और साम्य भी। दोनों कहानियों के केन्द्र में है एक बिच्छू परिवार। सोचा आपसे बाँट लूँ।

कथा १:एक साधु जब गंगा स्नान को गया तो उसने देखा कि एक बिच्छू जल में बहा जा रहा है। साधु ने उसे बचाना चाहा। साधु उसे पानी से निकालता तो बिच्छू उसे डंक मार देता और छूटकर पानी में गिर जाता। साधु ने कई बार प्रयास किया मगर बिच्छू बार-बार छूटता जाता था। साधु ने सोचा कि जब यह बिच्छू जब अपने तारणहार के प्रति भी अपनी डंक मारने की पाशविक प्रवृत्ति को नहीं छोड़ पा रहा है तो मैं इस प्राणी के प्रति अपनी दया और करुणा की मानवीय प्रवृत्ति को कैसे छोड़ दूँ। बहुत से दंश खाकर भी अंततः साधु ने उस बिच्छू को मरने से बचा लिया।

बिच्छू ने वापस अपने बिल में जाकर अपने परिवार को उस साधु की मूर्खता के बारे में बताया तो सारा बिच्छू सदन इस साधु को डसने को उत्साहित हो गया। जब साधु अपने नित्य स्नान के लिए गंगा में आता तो एक-एक करके सारा बिच्छू परिवार नदी में बहता हुआ आता। जब साधु उन्हें बचाने का प्रयास करता तो वे उसे डंक मारकर अति आनंदित होते। तीन साल तेरह महीने तक यह क्रम निरंतर चलता रहा।

एक दिन साधु को ऐसा लगा कि उसकी सात पीढियां भी ऐसा करती रहें तो भी वह सारे बिच्छू नहीं बचा सकता है इसलिए उसने उन बहते कीडों को ईश्वर की दया पर छोड़ दिया। बिच्छू परिवार के अधिकाँश सदस्य बह गए मगर उन्हें मरते दम तक उन्हें यह समझ न आया कि एक साधु कैसे इतना हृदयहीन हो सकता है।

तब से बिच्छूओं के स्कूल में पढाया जाता है कि इंसान भले ही निस्वार्थ होकर संन्यास ले लें वह कभी भी विश्वास-योग्य नहीं हो सकते हैं

कथा २:
एक बार जब नदी में बाढ़ आयी तो समूचा बिच्छू महल उसमें डूब गया। बिच्छू डूबने लगे तो उन्होंने इधर उधर नज़र दौडाई। उन्होंने देखा कि तमाम मेंढक मज़े से पानी में घूम रहे हैं। एक बुद्धिमान बिच्छू को विचार आया कि वे मेंढकों की पीठ पर बैठकर बहाव के किनारे तक जा सकते हैं। फिर क्या था बिच्छू-परिवार ने मेंढक-परिवार के पास उनकी मेंढ़कियत का हवाला देते एक संदेशा भिजवाया। मेंढ़कियत का तकाजा था इसलिए न तो नहीं कर सके मगर एक युवा मेंढक ने बिच्छूओं की दंश-प्रकृति पर शंका व्यक्त की। बिच्छूओं ने अपनी प्रकृति की सीमाओं को माना मगर वचन देते हुए कहा कि अपनी जीवन-रक्षा के लिए वे अपने डंक बाँध कर रखेंगे।

नियत समय पर हर बिच्छू एक मेंढक की पीठ पर बैठ गया और मेंढक बेडा चल पडा किनारे की ओर। कुछ ही देर में बिच्छूओं के पेट में सर-दर्द होना शुरू हो गया। काफी देर तक तो बेचारे बिच्छू कसमसाते रहे मगर आखिर मेंढकों का अत्याचार कब तक सहते। धीरे-धीरे अपने डंक के बंधनों को खोला। किनारा बहुत दूर न था, जब लगभग हर मेंढक को अपनी पीठ पर तीखा, ज़हरीला, दंश अनुभव हुआ। बुद्धिमान मेंढकों ने स्थिति को समझ लिया। डूबने से पहले मेंढकों के सरदार ने बिच्छूओं के सरगना से पूछा कि उसने ऐसा क्यों किया। अगर मेंढक सरे-राह मर गए तो बिच्छू भी जीवित किनारे तक नहीं पहुँच सकेंगे। सरगना ने कंधे उचकाते हुए कहा, "हम डसना कैसे छोड़ते, यह तो हमारी प्रकृति है।"

सारे मेंढक डूब कर मर गए और इसके साथ ही अधिकाँश बिच्छू भी। कुछ बिच्छू, जैसे तैसे किनारे तक पहुँचे। तब से बिच्छूओं के स्कूल में पढाया जाता है कि मेंढकों पर कभी भी विश्वास नहीं किया जा सकता है