Saturday, February 26, 2011

मैजस्टिक मूँछें [कहानी: अनुराग शर्मा]

नागोबा डुलाय लागला ...

बिल्कुल वही है। खाल के ऊपर रेंगता है। वही है। मैं भी तो वही हूँ। बैठा भी वहीं हूँ आज तक। तुम जबसे गयीं, निपट अकेला हूँ। वही शनिवार, वही तीसरा पहर, वही अड्डा, वही बेंच। वही आवाज़ें: तिकीट, तिकीट, तिकीट ... जवळे, शिर्वळ, सांगळी, खंडाळा ...। वही नारे: पानी घाळा1, दारू सोडा2, जय महाराष्ट्र ...। हज़ारों मील चला हूँ। फिर भी वहीं बैठा हूँ। यह कैसी उलटबांसी है? सनक गया हूँ क्या? मैं ही इक बौराना?3

"पुढ़े सरका शर्मा जी" ममता इसी बेंच पर मुझसे चिपककर बैठ गयी है। मैं सकुचाता हूँ तो शरारत से कोहनी मारकर कहती है, "शर्मा जी मुझसे इतना शर्माते क्यों हैं?"

अभी जाकर बस में बैठी है। मुझे अपलक देखकर मुस्कुरा रही है। बस चल पड़ी है। अब चेहरा नहीं दिखता। हाथ हिला रही है। वीजे की बस आ गई है। उतरा है। बिना इधर उधर देखे चला आ रहा है। केवल एक दिन रुककर कल चला जायेगा। ममता परसों वापस आ जायेगी। इन्होंने एक दूसरे को कभी देखा नहीं। पर जानते हैं। सुनते हैं मेरी बातें। चुप करूँ तो बारबार पूछते हैं। सप्ताह भर शरारत, सप्ताहांत भर टोकाटाकी। ट्वेंटी फोर सेवन, अराउंड द क्लॉक। लगातार, दिन रात।

"मूँछें कटा लो, बूर्ज्वा, ज़मीन्दार, महंत ..." हमेशा किसी न किसी बात पर टोकता है वीजे।

जाने कहाँ से तुम बीच में आ जाती हो। मंत्रमुग्ध सी कहती हो, "हमेशा ऐसी ही रखना। मैजिस्टिक लगते हो तुम।"

"सफेद हो जायेंगी तब तो कटा लूँ?"

"नहीं, तब तो और भी सुन्दर लगोगे। कटाना मत और रंगना भी मत" तुम्हारी अंग्रेज़ी भी तुम्हारे रूप जैसी निर्दोष है।

"मूँछें छोड़, अपनी बता ..." मैं वीजे के कंधे पर धौल जमाता हूँ।

"महानता नहीं है, महानता का क्षुद्र भाव है यह मूँछ ..."

"काका से सुलह हुई क्या?"

"बात मत करो बुड्ढे की। जवान लड़के के बाप को शादी की सूझी है।"

"होता है, होता है, अभी तूने दुनिया देखी कहाँ है।"

"नहीं कटाओगे? अरे, मॉडर्न दिखो। भैया ही रहोगे हमेशा?"

"तू भी भैया ही है ... माया का भैया, भैया जी। बड़ा आया भैया वाला।"

"आय ऐम घाटे, मैनेजर ऑफ दिस ब्रांच। बोले तो ... एचआर को कोई समझ भी है क्या? पहाड़ के झरनों से उठाकर आपको सीधा यहाँ सात तारों के बंजर घाट में भेज दिया। चार महीने में मेरे जैसे भुजंग हो जायेंगे।"

मेजेस्टिक मूँछें
अन्दर तक क्यों दिख जाता है मुझे? साफ दिख रहा है घाटे का डर। कहीं गाँव वालों को पता न लग जाये कि मैं यूपी से हूँ। नया अफसर एक भैया है? पंजाब हो या महाराष्ट्र, यूपी के सब भैये। ये सब तारण के अधिकारी? अभी तो मेरा पहाड़ यूपी में ही हैं। पर, कब तक यूपी में रहेगा? यूपी, उत्तराखंड, उत्तरांचल, कूर्मांचल? यहाँ आने से पहले मैं पहाड़ में रहा ज़रूर था मगर मुझे पहाड़ी कौन कहेगा? पहाड़ी लोग तो मुझे देखते ही मैदान वाला बता देंगे। मैदान, मतलब नीची ज़मीन, तराई, तलहटी, वादी। वादी ... मतलब नर्क4?

कौन हूँ मैं? भोटिया, रंग, नेवारी, गढ़वाली, कुमायूँनी, घाटी, पठान, मंगोल, कोई भी तो नहीं हूँ। पुरखे तो पहाड़ से ही थे। पर वे पहाड़ दूसरे थे - गर्वोन्नत, असीमित, अनंत। तुम्हारे शब्दों में कहूँ तो मैजेस्टिक! लोहित कुण्ड से कश्यप सागर तक, पुरखों के चिह्न आज भी मौजूद हैं। पुरखों के चिह्न? चिह्न तो सब परायी मिल्कियत हैं अब। बस, पुरखे अभी भी हमारे ही हैं। उनको कौन लेगा? सम्पत्ति की कीमत है, बनाने वाले का क्या? ब्रहमपुत्र तुम्हारी हुई, परशुराम हमारे रहे। रेणुका तीर्थ तुम्हारा, रेणु माँ हमारी। खीर तुम्हारी, भवानी हमारी। च्यवनप्राश, अमीरीप्राश, राजभोगप्राश, कोई नाम रख लो, वह सब तुम्हारा, च्यवन बाबा हमारे। आज़ादी तुम्हारी, फाँसी हमारी। अब तो ज्योतिष भी व्यवसाय हो गया है। हर चैनल पर, अखबार में, ज्योतिष की दुकान तुम्हारी, आस बंधाने का दोष हमारा। मन्दिर का धन, संचालन, नियंत्रण तुम्हारा, पूजा हमारी। दान पेटी तुम्हारी, निर्जला व्रत हमारा।

"जेहि विधि राखे राम ...." दादाजी मगन होकर मन्दिर में भजन गा रहे हैं।

हर किसी को अपना अलग घर चाहिये। पाकिस्तान, बांगलादेश, नागालैंड, गोरखालैंड, खालिस्तान, तमिलनाडु, तेलुगु देशम, तेलंगाना, विदर्भ, हरित प्रदेश। और, पुत्रोहम पृथिव्या? अपने ही घर में बेघर! लेकिन ... क्षीरभवानी को भोग कौन लगायेगा? बमियान बुद्धा को भोग कौन लगाता है मूर्ख? भगवान नहीं, तो भोग भी नहीं। मतलब नास्तिक? नहीं! नास्तिक नहीं! दैत्य नास्तिक नहीं, धर्मद्रोही होते हैं। पहले नास्तिकों का साथ लेकर धर्मात्माओं को  मारेंगे। धर्मात्माओं के मिटते ही, अब निर्बल हुए नास्तिकों को भी मिटा देंगे। निश्चिंत धर्मद्रोही फिर अपनी मूर्तियाँ लगायेंगे। मन्दिर विवादित ढांचे हो जायेंगे पर नियंत्रणवादी तानाशाहों की मूर्तियाँ अटल रहेंगी। संघे शक्ति कलयुगे। सेंट पीटर्सबर्ग एक झटके में लेनिनग्राद हो गया, वोल्गोग्राद, स्टालिनग्राद बना! क्या लेनिनग्राद फिर से कभी सेंट पीटर्सबर्ग हो सकता है5? बर्लिन की दीवार अटूट है।6 सद्दाम मामू7 अमर रहें। दानव अजेय हैं8

शिन्दे आता है, विशालकाय। "अरे आप तो ममता मैडम जैसे नाज़ुक हैं। मुम्बई में एक शर्मा दोस्त था मेरा, मुझे लगा वैसे ही होंगे, लम्बे तगड़े" वह कहता नहीं पर उसकी निराशा सुनाई दे रही है कि यह कल का मुळगा यूपी से आ गया अफसरशाही चलाने। हमेशा से यही होता है। श्रीमंत ने कन्नौज से कोटपाल बुलाया था। तब तो हम कुछ नहीं कर पाये थे लेकिन अब बदला ले रहे हैं। हड़ताल कराते हैं। नाटक भी लिखते हैं उसके खिलाफ। बेकार नहीं हैं नाटक। ये नाटक कल इतिहास बदल देंगे। लोग नाटक को इतिहास और इतिहास को कल्पना कहेंगे। वे कहेंगे कि कोटपाल ज़ालिम था। मन्दिर कभी नहीं था। राम भी नहीं थे। अयोध्या नहीं थी। बुद्ध भी नहीं थे। बमियान भी नहीं था। है कोई सबूत तुम्हारे पास? खुदाई करो, दिखाओ कुछ। बमियान के मलबे से भगवान बुद्ध का कंकाल निकालकर अदालत के सामने पेश किया जाये। दूर के इतिहासकारों ने सिद्ध कर दिया है कि बमियान में बुद्ध कभी नहीं थे, अगर कभी थे भी तो उन्हें वैदिक हिंसा से उडाया गया था - 5000 साल पहले। तालेबान सर्व-धर्म समभाव सिखाता है। उम्मत बनाता है, वसुधैव कुटुम्बकम सिखाता है। जिहादी धर्मान्धों की बारूदी सुरंगें चीनी कम्युनिस्ट धर्महंताओं से खरीदी जाती हैं। नया इतिहास लिखो। आर्य-द्रविड़ संघर्ष की कल्पना रचो। अहिंसा परमो धर्मः के सत्य में धर्म हिंसा तथैव च का झूठा पुछल्ला चिपका दो। कलम तोड़ो, बारूद और पैसे से नया इतिहास लिखो। परंतु लिखने को पैसा कहाँ से आयेगा? अपहरण करेंगे, जो मिलेगा उसका, स्त्रियों का, बच्चों का, कर्मचारियों का, पूंजीपतियों का। पूंजी का विरोध? पूंजी के अपहरण से? वाह बेटा वाह! भविष्य देख नहीं सकते, वर्तमान छू नहीं सकते, इतिहास ज़रूर लिखेंगे, ये मौकापरस्त कीड़े।

इतिहास का कीड़ा पास आ गया है। सरदारजी बोल रहे हैं, "पुच्छमित्तर छुंग"। ब्लैकबोर्ड पर लिख रहे हैं, "पुष्यमित्र शुंग"। बोलने का इतिहास अलग, लिखने का अलग, भोगने का अलग। घर की ईमानदारी अलग, दफ्तर की अलग। मन्दिर का धर्म दूसरा, दुकान का तीसरा? फिर चौथा, पाँचवाँ ...? पाँव पर किसी के रेंगने का वह चिपचिपा, लिजलिजा अहसास। पानी घाळा नारू टाळा9। घर-घर में नारू का प्रकोप है। नारू का कीड़ा, खाल में घुसकर शरीर भर में घूमता रहता है। कैसा लगता होगा? पानी उबालेंगे तो नारू नहीं आयेगा। पर जो आ गया, वह नहीं जायेगा। पर यह नारू नहीं है। अज़गर है क्या? नहीं, यह नाग है। अज़गर जैसे कसता नहीं, डसता है। नारू के जैसे खाल के अन्दर छिपता नहीं, दबंगई से ऊपर रेंगता है।

भोले-भाले, सरल लोग हैं। कभी भी कहीं भी खाने लगते हैं। कभी भी कहीं भी दाँत मांजने लगते हैं। अभी-अभी रुकी बस में बैठी बहिनी कोयले के चूरे से दाँत साफ कर खिड़की से बाहर थूक रही है। थुंको नका। थुंको नका।

एक सुन्दरी मेरे पास आकर कुछ पूछती है। थोड़ी मराठी समझने लगा हूँ पर वह मराठी नहीं बोलती है। फिर भी उसकी मांग समझ आती है। हाथ बढ़ाता हूँ, वह बोतल ले लेती है। मुँह से छुए बिना, साँस रोककर पूरी बोतल पी जाती है। तृप्त हुई। अमृत अधरों से होकर गर्दन भिगोता हृदय तक आता है। मैं सामान्य क्यों नहीं हूँ? अन्दर तक क्यों दिखता है मुझे? उसकी नज़र बचाकर वीजे मुझे आँख मारता है। अचानक गर्मी का अहसास होता है। लेकिन बोतल अब खाली है। कमाल है, पूरे बस अड्डे पर पानी का इंतज़ाम बिल्कुल नहीं है। लोग प्यासे हैं, बेचैन हैं। उनकी प्यास के लिये प्रशासन नहीं मनु ज़िम्मेदार हैं। यहाँ कैसे हो, पानी तो गंगा, यमुना, कावेरी, कहीं भी नहीं बचा है। सब नदियाँ नाला भईं! उसके लिये चाणक्य ज़िम्मेदार है। उसी ने भरा की जड़ में मट्ठा डाला था। पानी को भूल जाओ, मनु को गाली दो, चाणक्य का पुतला जलाओ। उफ़्फ़, सुई जैसा कुछ चुभा अचानक।

शिन्दे बता रहा है, "पोटनीसांचे वड़गाँव10 आज भी दूर दूर तक मशहूर है। बहुत खुशहाली थी यहाँ। गांधीवध के बाद खड़े खेत जला डाले। गांधीद्रोही, देशद्रोही कहकर उजाड़ दिया ब्राह्मणों के घरों को, तोड़ दिया खलिहानों को।"

ब्राह्मण खत्म हुए। जो बचे वे पुणे, मुम्बई, दिल्ली, लंडन चले गये। पोटनीस अब कभी भी वापस नहीं आयेंगे। उनके बनाये ताल, बांध, सब मिटा दिये गये। 1948 में पहली बार सूखा पड़ा था यहाँ। तब से अब तक सब बर्बाद हो गया है। बस्ती के बाहर उजड़े मन्दिर की दशा आज भी वही दास्ताँ बयान करती है। गाँव के नाम से पोटनीसांचे हटाने का आन्दोलन चल रहा है। नया नाम शायद ज्योतिबाफुलेग्राम होगा। मन्दिर का जलकुंड सूख चुका है। लोग प्यासे हैं। मन्दिर की जगह किसी राजनेता की मूर्ति लगेगी। पुरखों के चिह्न?

पंडितों के दरवाज़ों पर कोयले से निशान लगाये जा रहे हैं। "धर, कल यह घर खाली चाहिये।" 1989 में पहली बार काली बर्फ गिरी थी। बकवास है, बर्फ कभी काली नहीं होती। पण्डित कभी कश्मीर में नहीं रहते थे। पण्डित नेहरू को गौस अली ग़ाज़ी का रिश्तेदार बता दो। बाकी काम अपने आप हो जाएगा। वादी ... मतलब नर्क। भूखे नंगे शरीर गैस चैम्बर में लाये जा रहे हैं। क्या हिटलर कभी हारेगा? यहूदियों को उनका इसराइल वापस मिलेगा? क्या वे शांति से रह पायेंगे? इस्राइल बन भी गया तो क्या यहूदियों से भी अधिक सताये गये रोम11 और डोम12 लोगों को अपना घर मिलेगा? क्या रोम यूरोप में और डोम मध्य-पूर्व में अनंत काल तक भटकेंगे? त्रिशंकु को चैन कब मिलेगा?

कमनीय लड़की चली गयी है। कन्नड़ बोल रही थी। लेकिन, ... कन्नड़ तो मुझे अच्छी तरह आती है। ठीक तो है, तभी तो समझ सका उसकी बात। प्यास को किसी भाषा की ज़रूरत नहीं होती। दोष जल-प्रबन्धन का नहीं है। दोष जाति का है, क्षेत्र का है। दोष भाषा का है। तुम तो अंग्रेज़ी और तमिळ बोलती थीं। हिन्दी का एक शब्द भी नहीं जानती थीं। सीखी भी नहीं। हमारा संवाद फिर भी था। कैसे? संस्कृत वाक्? तमिळ संगम? मौन रागम्? मुझसे क्यों डरती थीं तुम? हम तुम्हारी भाषा, संस्कृति क्यों मिटायेंगे? हमारी तो स्वयम् की भाषा, संस्कृत, संस्कृति सब मिट गयी। अपने ही देश में बेगाने हो गए। हाशिये पर भेजकर धीरे धीरे शांत कर दिये गए। ॐ शांतिः शांतिः शांतिः! यह कोई मामूली सुई नहीं, तीक्ष्ण तीर है। पाँव पर रेंगते नाग ने मुझे डस लिया है शायद। फुफकार तो सुनाई नहीं दी। काल की लाठी बेआवाज़ होती है। क्या यह नाग मेरा काल है?

गीत चल रहा है, "यम के दूत बडे मरदूतैं, यम से पड़ा झमेला... उड़ जायगा... हंस अकेला"।13 वीजे को कुमार गंधर्व पसन्द नहीं हैं। वह मेरे कमरे में खड़ा नाक भौं सिकोड़ रहा है। उसके मूँछ नहीं है।

"हंस अकेला ... ये क्या रोन्दू गाने सुनते रहते हो?" वीजे हमेशा टोकता रहता है।

"हवा हवा, खालेद, पॉप? पाकिस्तान, अरब, अमेरिका? क्या चाहिए?"

"आजकल ग़ज़ल का चलन है" वह कैसेटों के ढेर में छिप सा गया है।

"ये लो ग़ुलाम अली, जगजीत सिंह .... सब तो हैं।"

शिन्दे अपने दोस्त शर्मा के बारे में बताते हुए तैश में आ गया है, "मुम्बई में शर्मा क्यों नहीं होगा? गुजराती, बंगाली, अन्ना, बाबा सब है वहाँ, बस मराठा माणस नहीं है। है भी तो फक्त हम्माली (शारीरिक श्रम) करता है। घाटी (पहाड़ी/मराठी) शब्द तो एक गाली है मुम्बई में।"

देश में कहीं भी चले जाओ, स्थानीय आदमी अबला ही है। सदा का सताया हुआ, सहमा हुआ, शोषित, पद-दलित। घर का जोगी जोगड़ा, ठग बाहर का सिद्ध! सताया हुआ आदमी कोई भी अपराध कर सकता है। उसे सज़ा नहीं होती, उससे वार्ता होती है। उसके लिये पैकेज बनते हैं। पैकेज से समृद्धि आती है। यह विकास का मार्ग है। विकासमार्गी, प्रगतिशील, उन्नत वर्ग की दिशा-दशा। इसीलिये आम आदमी को विद्रोह करने के लिये तैयार करते हैं ये नरभक्षी। उसे सुसाइड बॉमर बनाते हैं। भूसा तैयार है। जिस किसी के पास दियासलाई की एक तीली हो, आ के जला दे। अरे, कोई है?

इस मुल्क ने जिस शख्स को जो काम था सौंपा,
उस शख्स ने उस काम की माचिस जला के छोड़ दी14

शिन्दे चाय लेने अन्दर चला गया है। दीवार पर भीमराव आम्बेडकर की बड़ी सी तस्वीर है। मैं ध्यान से देखता हूँ। वाद-विवाद में हमेशा प्रथम आता था मैं। नर्सरी से कॉलेज तक, कभी भी लिखा हुआ भाषण नहीं पढ़ा। आम्बेडकर पर प्रतियोगिता थी। भाषण प्रतियोगिता में दस हज़ार रुपये का इनाम? पहले कभी सुना नहीं था। पहली बार स्टेशन जाकर आम्बेडकर पर एक किताब खरीदी थी। कितनी मेहनत करके भाषण की तैयारी की थी। जीवन का सबसे अच्छा भाषण उसी दिन दिया था। मुझे कोई इनाम नहीं मिला। जो जीते वे तो सांत्वना पुरस्कार के लायक भी नहीं थे। एक निर्णायक ने बाद में मुझे बाहर ले जाकर कहा, "एक शर्मा को इनाम देना तो उलटबाँसी हो जाता।" तुम्हें क्या मालूम उलटबाँसी क्या होती है? उलटबाँसी में विरोधाभास नहीं होता है। तुमने कबीर को केवल पढ़ा है। हम तो दिन रात कबीर को जीते हैं। पोथी पढ़-पढ़ जग मुआ ...।

चर्बी का चलता फिरता ढेर अपने झोले में से टॉर्च निकालकर ग़रीब किसान-मज़दूरों को आशा की किरण दिखा रहा है। मज़दूर सम्मोहित से बैठे हैं। मुझे स्पष्ट दिख रहा है कि झोले के अन्दर बंधी हुई आशा छटपटाकर चिल्लाने की कोशिश कर रही है। जब तक मैं कुछ करूँ चर्बी के ढेर ने उसका गला दबा दिया है। मैं बेंच से उठना चाहता हूँ परंतु मेरा दर्द बढ़ता जा रहा है। क्या मेरा दर्द आशा के दर्द से, मज़दूरों की मजबूरी से बड़ा है? मज़दूरों को अभी भी किरण की आशा है। मेरी चुभन और बढ़ गयी है। मुझे लगा था कि नाग अपना ज़हर मुझमें उड़ेलेगा मगर यह तो उलटा मेरा खून पीने लगा है। हवा तेज़ हो गयी है। हवा में उड़ते कूड़े में सुन्दरी की फेंकी खाली बोतल भी है। दर्द असहनीय हो गया है।

"ग़ज़लें तो अच्छी सुना करो, जैसे कि पंकज उद्हास...।"

"देखो वह है तो एक, उधर ..."

"यह उसकी सबसे बेकार ऐलबम है ... अरे कुछ नशा, शराब, मय....पीना, पिलाना ..."

"पीजिये," शिन्दे चाय लेकर आता है, मुझे चित्र देखता पाकर झेंपता हुआ कहता है, "अम्बेडकर की तस्वीर मैंने नहीं लगाई है। वह तो मकानमालिक ने पहले से ही लगाकर रखी थी। ... हम वो नहीं हैं जो आप समझ रहे हैं।"

मैं उठकर चलने का प्रयास करता हूँ मगर हिल भी नहीं पाता। बैंच और मैं एकाकार हो गये हैं। नहीं, यह असम्भव है। नाग ने मुझे जकड़ रखा है। वह मज़े से मेरा खून पी रहा है। ख़बरें आती जा रही हैं, उत्तराखंड अलग हो गया है। नन्द ऋषि की दरगाह अब चरारे-शरीफ़ कहलायेगी। परशुरामपुरी का नया नाम कुल्हाड़ा पीर है। सम्पत्ति तुम्हारी हो गयी तो क्या, पुरखे तो मेरे हैं। उनका नाम मत छीनो। वड़गाँव ले लो, दरगाह ले लो परंतु नन्द ऋषि को मत मारो, धर और पोटनीस को बेघर मत करो।

लोग प्यासे हैं। अब प्लास्टिक की बोतल में पानी है, मगर गन्दा, नाले का पानी। लेबल पर अभी भी अंग्रेज़ी में गैंजेस लिखा है। नाग मुझे छोड़ देता है। वह झूम रहा है। मानो नशे में हो। अब मैं ठीक हूँ। बेंच से उठ भी सकता हूँ शायद। मगर उठता नहीं। तुम जो पास नहीं हो। अलगाव ज़रूरी था क्या?

नाग मदमस्त होकर गा रहा है, "विलांची नागिन निगाली, नागोबा डोलाय लागला15!"

तुम गुस्से में कहती हो, "डोन्ट इम्पोज़ हिन्दी ऑन अस।"

वीजे हँसकर कहता है, "मूँछें कटा लो।"


[समाप्त]
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1 पानी घाळा = पानी उबालो (मराठी)
2 दारु सोडा = शराब छोडो (मराठी)
3 सगरी दुनिया भई सयानी, मैं ही इक बौराना ~ संत कबीर (विप्रमतीसी)
4 नर्क = नीची ज़मीन (संस्कृत)
5,6,7,8 तब का सच अब झूठ साबित हो चुका है
9 पानी घाळा नारू टाळा = पानी उबालने से नारू (हुकवर्म) से बच सकते हैं।
10 पोटनीस ब्राह्मणों का वड़गाँव
11 रोम (gypsy) = महमूद गज़नबी, मुहम्मद गौरी और तैमूर लंग के हमलों के समय भारत से विस्थापित हुई वे जनजातियाँ जो आज तक यूरोप में सताई जा रही हैं। इनकी भाषा रोमानी है।
12 डोम = रोम (gypsy) की वे शाखाएँ जो मध्य-पूर्व में गन्धार, उज़्बेकिस्तान और ईरान से लेकर फिलिस्तीन, सीरिया और तुर्की तक पाई जाती है। यह शिल्पकार लोग आज भी मौलिक मानवाधिकारों से वंचित हैं। इनकी अपनी बोलियों (डोमरी, चूड़ेवाली, मेहतर, कराची) के शब्द आज की हिन्दी जैसे ही हैं।
13 संत कबीर की एक रचना
14 पीयूष मिश्र का संवाद, गुलाल फिल्म से (इसे फिल्म की सिफारिश न समझें)
15 एक मराठी लोकगीत
[Hindi Short Fiction: Majestic Moustache]

Monday, February 21, 2011

डीसी डीसी क्या है? [इस्पात नगरी से-37]

संसद भवन
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न्यू योर्क और वाशिंग्टन डीसी के रिक्शा के बारे मै मेरी एक पिछ्ली पोस्ट पर एक मित्र का प्रश्न था, "यह डीसी क्या है?" बहुत अच्छा सवाल था, काफी लोगो के मन मे हो सकता है| मैने सोचा कि एक पोस्ट लिखकर बता दिया जाये तो बेह्तर रहेगा| वाशिंगटन डी सी (Washington DC) संयुक्त राज्य अमेरिका की राष्ट्रीय राजधानी का नाम है| यहाँ डीसी का अर्थ है डिस्ट्रिक्ट ऑफ़ कोलंबिया (DC = District of Columbia) |

वाशिंगटन डी सी की स्थापना १६ जुलाई १७९० को हुई| उन दिनों अमेरिका के लिए काव्यमय नाम "कोलंबिया" प्रचलित था इसलिए इस नए नगर का नाम "टेरिटरी ऑफ़ कोलंबिया" रखा गया था| देश के प्रथम राष्ट्रपति जोर्ज वाशिंगटन के नाम पर इस नगर का नामकरण हुआ "वाशिंगटन - डिस्ट्रिक्ट ऑफ़ कोलंबिया" या सूक्ष्म रूप में वाशिंगटन डीसी|

विश्व युद्ध स्मारक
यह नगर १७ नवम्बर १८०० को अमेरिका की राजधानी बना| इससे पहले न्यू योर्क और फिलाडेल्फिया नगरों को राष्ट्रीय राजधानी रहने का गौरव प्राप्त है|
न्यू योर्क - ४ मार्च सन १७८९ से ५ दिसंबर १७९० तक
फिलाडेल्फिया - ६ दिसंबर १७९० से १४ मई १८०० तक

पोटोमाक नदी के उत्तरी किनारे पर स्थित यह नगर वर्जिनिया और मेरीलैंड से छूता है. नयी दिल्ली और चण्डीगढ़ की तरह डीसी भी किसी राज्य का हिस्सा न होकर एक केंद्र शासित क्षेत्र के रूप में अपना स्वतंत्र अस्तित्व रखता है|

वाशिंगटन स्मारक
इस नगर का क्षेत्रफल लगभग १७७ वर्ग किलोमीटर है| स्मारकों से भरे इस नगर का पांचवां भाग उद्यान क्षेत्र है| एक मेयर के नेतृत्व में एक तेरह सदस्यीय नगर पालिका डीसी का प्रशासन संभालती है परन्तु केंद्र सरकार इस नगर पालिका के किसी भी निर्णय को पलट सकती है| संयुक्त राज्य अमेरिका की राष्ट्रीय संसद में डी सी से एक नामित सांसद के अतिरिक्त कोई चुना हुआ प्रतिनिधि नहीं होता है| १९६१ में हुए २३ वें संविधान संशोधन से पहले यहाँ के नागरिकों को राष्ट्रपति चुनाव में मतदान का अधिकार तक नहीं था|
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सभी चित्र अनुराग शर्मा द्वारा::Photos by Anurag Sharma
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सम्बन्धित कड़ियाँ
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Wednesday, February 16, 2011

वाट्सन आया [इस्पात नगरी से -36]


1964 में आरम्भ हुआ कार्यक्रम जेपर्डी (Jeopardy!) टीवी पर आने वाले सबसे पुराने सामान्य ज्ञान प्रहेलिका कार्यक्रमों में से एक है। कठिनाई से ही टीवी के सामने बैठने वाला मैं भी अपनी श्रीमती जी के कठोर अनुशासन में इस कार्यक्रम को नियमित सपरिवार देखता हूँ। ऐलेक्स ट्रेबैक की यजमानी वाले इस कार्यक्रम में तीन प्रतिस्पर्धी होते हैं जो विभिन्न श्रेणियों में पूछे गये अलग-अलग मूल्य के प्रश्नों के उत्तर देकर नकद पुरस्कार पाते हैं।

इस बार के कार्यक्रम में पिछ्ली प्रतियोगिताओं के दो महान चैम्पियन ब्रैड रटर (Brad Rutter) और कैन जेनिंग्स(Ken Jennings) को बुलाया गया था वाटसन (Watson) से मुकाबला करने। कार्यक्रम का यह प्रकरण क्रांतिकारी था क्योंकि वाटसन कोई व्यक्ति नहीं बल्कि आईबीएम द्वारा निर्मित ऐसा विशालकाय कम्प्यूटर (supercomputer) है जो मानव भाषा में पूछे गये प्रश्नों का निर्णायक उत्तर देने की क्षमता रखता है। तो क्या गूगल सर्च के बेतुके उत्तरों के दिन पूरे हो गये? आइये देखते हैं कि वाटसन ने कार्यक्रम में क्या किया?

आज जब पूछा गया कि किस भाषा की 4000 वर्ष पुरानी एक बोली "वैदिक" कहलाती है तो वाटसन ने तुरंत संस्कृत कहा। इस्पात नगरी से सम्बन्धित प्रश्न (सही उत्तर: पिट्सबर्ग) में वाटसन के सम्भावित उत्तरों में एक जमशेदपुर भी था। तीन दिन चले इस कार्यक्रम के दौरान कई रोचक तथ्य भी सामने आये। मसलन, कल के कार्यक्रम में "अमेरिकी नगरों" की श्रेणी में एक प्रश्न के उत्तर में वाटसन ने टोरंटो लिखा। सही उत्तर शिकागो था। शायद हम सभी एक स्वर में टोरंटो को "कैनाडा का नगर" कहेंगे परंतु सच्चाई यह है कि कैनाडा में केवल एक टोरंटो है जबकि सं. रा. अमेरिका में आठ नगरों का नाम टोरंटो है। उत्तर गलत था परंतु उस श्रेणी में वाटसन ने अपने अज्ञान को आंकते हुए केवल $947 का मामूली खतरा लिया था और कुल $35,734 जीतकर दोनों मानवों से आगे रहा। दोनों मानवों ने मिलाकर कुल $15,200 जीते। आश्चर्य नहीं कि वाटसन आज भी जीता और एक बडे अंतर के साथ इस प्रतियोगिता का चैम्पियन घोषित हुआ है। तीन दिन चले कार्यक्रम में तीनों विजेताओं की कुल आय क्रमशः $77,147 (वाटसन), $24,000 (केन) और $21,600 (ब्रैड) रही।

आइबीएम ने वाटसन के तीन दिन का विजेता होने के दस लाख डॉलर समेत समस्त पुरस्कार राशि को वर्डविज़न नामक स्वयंसेवी संस्था को दान देने की घोषणा की है। अन्य प्रतिस्पर्धी भी इस बार के कार्यक्रम की अपनी आय का आधा अपनी चहेती संस्थाओं को दान करेंगे।

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सम्बन्धित कड़ियाँ
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इस्पात नगरी से - पिछली कड़ियाँ
आई बी एम वाटसन का आधिकारिक पृष्ठ
जेपर्डी - आधिकारिक पृष्ठ
जेपर्डी पर अंग्रेज़ी विकीपीडिया पृष्ठ
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Monday, February 14, 2011

टोड - कहानी - अंतिम भाग

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मैं चिंटू के साथ बाहर आया तो देखा कि लॉन के एक कोने में एक बड़े से टोड के सामने तीन छोटे टोड बैठे थे। नन्हें बच्चे की कल्पनाशीलता से होठों पर मुस्कान आ गयी। सचमुच बच्चों के सामने टोड मास्टर जी बैठे थे।

टोड कहानी का भाग एक पढने के लिये यहाँ क्लिक करें
अब आगे की कहानी:

दिन बीते, एक रविवार को मैं दातागंज में था। उसी जूनियर हाई स्कूल के बाहर जहाँ की एक एक ईंट किसी पशु का नाम ले-लेकर मेरी कल्पनाशीलता पर तंज़ कस रही थी। सुनसान इमारत। बाहर मैदान में कुछ आवारा पशु घूम रहे थे। मैं स्कूल के फ़ोटो ले रहा था तभी लाठी लिये एक बूढे ने पास आकर कहा, "हमरा भी एक फोटू ले ल्यो।"

मुझे तो बैठे-बिठाये एक अलग सा फ़ोटो मिल गया था। मैंने अपने नये सब्जेक्ट को ध्यान से देखा, "अरे, तुम मूखरदीन हो क्या?"

"हाँ मालिक, आपको कैसे पता लगो?

"मैं यहाँ पढता था, आरपी रंगत जी कहाँ रहते हैं आजकल?"

"आरपी... रंगत..." वह सोचने लगा, "अच्छा बेSSS, बे तौ टोड हैंगे।"

"अबे तू भी तो मुर्गादीन था" मैंने कहना चाहा परंतु उसकी आयु के कारण शब्द मुँह से बाहर नहीं निकल सके, "हाँ, वही। कहाँ रहते हैं?"

"साहूकारे मैं, उतै जाय कै, पकड़िया के उल्ले हाथ पै" उसने हाथ के इशारे से बताया। मैने उसका फ़ोटो कैमरा के स्क्रीन पर दिखाया तो वह अप्रसन्न सा दिखा, "निरो बेकार हैगो। ऐते बुढ़ाय गये का हम? कहूँ नाय, तुमईं धल्ल्यो जाय।"

मैं तेज़ कदमों से साहूकारे की ओर बढ़ा। कभी हमारा भी एक घर था वहाँ। आज तो शायद ही कोई पहचानेगा मुझे। चौकीदार के बताये पाकड़ के पेड के सामने कुछ बच्चे क्रिकेट खेल रहे थे। "आरपी रंगत" का नाम किसी ने नहीं सुना था। जब मैने बताया कि वे जूनियर हाई स्कूल में पढाते थे तो सभी के चेहरे पर अर्थपूर्ण मुस्कान आ गयी और वे एक दूसरे से बोले, "अबे, टोड को पूछ रहे हैं ये।"

एक लड़का मुझे पास की गली में एक जर्जर घर तक ले गया। कुंडी खटकाई तो मैली धोती में एक कृषकाय वृद्ध बाहर आया। अधनंगे बदन पर वही खुरदुरी त्वचा।

"किससे मिलना है?" आवाज़ में वही चिरपरिचित स्नेह था।

"नमस्ते सर! सकल पदारथ हैं जग माही..." मैने अदा के साथ कहा।

"अहा! होइहै वही जो राम रचि राखा..." उन्होने उसी अदा के साथ जवाब दिया, "अरे अन्दर आओ बेटा। तुम तो निरे गंजे हो गये, पहचानते कैसे हम?"

लगता था जैसे उनकी सारी गृहस्थी उसी एक कमरे में समाई थी। एक कुर्सी, एक मेज़, और ढेरों किताबें। कांपते हाथों से उन्होंने खटिया के पास एक कोने में पडे बिजली के हीटर पर चाय का पानी रखा और फिर निराशा से बोले, "अभी है नहीं बिजली।"

मैं एक स्टूल पर बैठा सोच रहा था कि बात कहाँ से शुरू करूँ कि उन्होंने ही बोलना शुरू किया। पता लगा कि उनके कोई संतान नहीं थी। पत्नी कबकी घर छोडकर चली गयीं क्योंकि वे जहाँ भी जातीं आवारा और उद्दंड लडकों के झुन्ड के झुन्ड उन्हें "मिसेज़ टोड" कहकर चिढाते रहते थे।

जब तक नौकरी रही, लड़कों के व्यंग्य बाण सुने-अनसुने करके विद्यालय जाते रहे। अब तो जहाँ तक सम्भव हो घर में ही रहते हैं।

"ज़िन्दगी नरक हो गयी है मेरी" उनका विषाद अब मुझे भी घेरने लगा था।

वे अपनी बात कह रहे थे कि एक गेंद खिड़की से अन्दर आकर गिरी। शायद उन्हीं लडकों की होगी जो बाहर नुक्कड़ पर क्रिकेट खेल रहे थे। गेन्द की आमद से उनकी कथा भंग हुई। उन्होंने एक क्षण के लिये गेन्द को देखा फिर उठकर मेरी ओर आये और बोले, "तुम तो सबके चहेते छात्र थे। तुम्हें ज़रूर पता होगा। बताओ, मेरे साथ यह गन्दा मज़ाक किसने किया?"

"मेरा नाम टोड किसने रखा था?"

तभी दरवाज़ा खुला और एक 7-8 वर्षीय लड़का अन्दर आकर बोला, "हमारी गेन्द अन्दर आ गयी है टोड।"

[समाप्त]

Sunday, February 13, 2011

टोड - कहानी - भाग एक

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"देखो, देखो, वह टोड मास्टर और उसकी क्लास!" चिंटू खुशी से उछलता हुआ अन्दर आया।

मैंने उसे देखा और मुस्करा दिया। वह इतने भर से संतुष्ट न हुआ और मेरा हाथ पकड़कर बाहर खींचने लगा।

"बस ये दो पन्ने खत्म कर लूँ फिर आता हूँ" मैंने मनुहार के अन्दाज़ में कहा।

"तब तक तो क्लास डिसमिस भी हो जायेगी..." उसने हाथ छोड़े बिना अपनी मीठी वाणी में कहा।

"देख आओ न, बच्चे कॉलेज चले जायेंगे तब अकेले बैठकर तरसोगे इन पलों के लिये..." चिंटू की माँ ने रसोई में बैठे-बैठे ही तानाकशी का यह मौका झट से लपक लिया।

"अकेले रहें मेरे दुश्मन! मैं तो तुम्हें सामने बिठाकर निहारा करूंगा" मैं भी इतनी आसानी से आउट होने वाला नहीं था।

"हाँ, मैं बैठी रहूंगी और बना बनाया खाना तो आसमान से टपका करेगा शायद" उन्होंने नहले पे दहला जड़ा।

मैं चिंटू के साथ बाहर आया तो देखा कि लॉन के एक कोने में एक बडे से टोड के सामने तीन छोटे टोड बैठे थे। नन्हें बच्चे की कल्पनाशीलता से होठों पर मुस्कान आ गयी। सचमुच बच्चों के सामने टोड मास्टर जी बैठे थे।

टोड मास्टर जी कक्षा के बाहर अपनी कुर्सी पर बैठे हैं। सभी बच्चे सामने घास पर बैठे हैं। मैं, दिलीप, संजय, प्रदीप, कन्हैया, सभी तो हैं। सर्दियों में कक्षा के अन्दर काफी ठंड होती है सो धूप होने पर कई अध्यापकगण अपनी कक्षा बाहर ही लगा लेते हैं। टोड जी भी ऐसे ही दयालुओं में से एक हैं। वैसे उनका वास्तविक नाम है आर.पी. रंगत मगर आजकल वे सारे स्कूल में अपने नये नाम से ही पहचाने जाने लगे हैं।

प्रायमरी स्कूल की ममतामयी अध्यापिकाओं की स्नेहछाया से बाहर निकलकर इस जूनियर हाई स्कूल के खडूस, कुंठित और हिंसक मास्टरों के बीच फंस जाना कोई आसान अनुभव नहीं था। गेंडा मास्साब ने एक बार संटी से मार-मारकर एक छात्र को लहूलुहान कर दिया था। छिपकल्ली ने एक बार जब डस्टर फेंककर मारा तो एक बच्चे की आंख ही जाती रही थी।

सारे बच्चे इन राक्षसों से आतंकित रहते थे। डरता तो मैं भी था परंतु रफी हसन के साथ मिलकर मैंने बदला लेने का एक नया तरीका निकाल लिया था। हम दोनों ने इस जंगलराज के हर मास्टर को एक नया नाम दे दिया था। उनके नाक-नक्श, चाल-ढाल और जालिम हरकतों के हिसाब से उन्हें उनके सबसे नज़दीकी जानवर से जोड़ दिया था।

जब हमारे रखे हुए नाम हमारी आशा से अधिक जल्दी सभी छात्रों की ज़ुबान पर चढने लगे तो हमारा जोश भी बढ गया। आरम्भ में तो हमने केवल आसुरी प्रवृत्ति के शिक्षकों का नामकरण किया था परंतु फिर धीरे-धीरे सफलता के जोश में आकर हमने एक सिरे से अब तक बचे हुए भले मास्टरों को भी नये नामों से नवाज़ दिया। हमारे अभियान के इसी दूसरे चरण में श्रीमान आरपी रंगत भी अपनी खुरदुरी त्वचा के कारण मि. टोड हो गये।

तालियाँ बजाते चिंटू के उत्साह को दिल की गहराइयों तक महसूस करने के बावज़ूद न जाने क्यों मुझे आरपी रंगत के प्रति किये हुए अपने बचपने पर एक शिकायत सी हुई। उस हिंसक जूनियर हाई स्कूल के परिसर में एक वे ही तो थे जो एक आदर्श अध्यापक की तरह रहे। अन्य अध्यापकों की तरह मारना-पीटना तो दूर उन्होंने अपने घर कभी भी ट्यूशन नहीं लगाई। विद्यार्थी कमरुद्दीन की किताबों का खर्च हो चाहे चौकीदार मूखरदीन की टॉर्च की बैटरी हो, सबको पता था कि ज़रूरत के समय उनकी सहायता ज़रूर मिलेगी।

राम का गायन हो, आफताब की कला प्रतिभा, कृष्ण का अभिनय या मेरी वाक्शैली, इन सब को पहचानकर विभिन्न समारोहों का आकर्षण बनाने का काम भी उन्होंने ही किया था। अधिक विस्तार में जाने की ज़रूरत नहीं है परंतु एक बार जब परिस्थितियाँ ऐसी बनीं कि निरपराध होते हुए भी मुझे विद्यालय से रस्टीकेट होने का समय आया तो मेरी बेगुनाही पर उनके विश्वास के चलते ही मैं बच सका था। यह सब ध्यान आते ही मुझे अपने ऊपर क्रोध आने लगा। अगर मेरे पास उनका फोन नम्बर आदि होता तो शायद मैं उसी समय उनसे अपनी करनी की क्षमा मांगता। परंतु नम्बर होता कैसे? मैने तो वह स्कूल छोड़ने के बाद वहाँ की किसी भी निशानी पर दोबारा नज़र ही नहीं डाली थी।

चिंटू की माँ कहती है कि मेरा चेहरा मेरे मन का हर भाव आवर्धित कर के दिखाता रहता है। पूछने लगी तो मैंने सारी कहानी कह डाली। उन्होंने तुरंत ही यह ज़िम्मेदारी अपने सर ले ली कि इस बार भारत जाने पर वे मुझे अपने पैतृक नगर अवश्य भेजेंगी, केवल रंगत जी से मिलकर क्षमा मांगने के लिये।

[क्रमशः]

Saturday, February 12, 2011

याद तेरी आयी तो - कविता

(अनुराग शर्मा)


सुरमयी यादों की बात ही निराली है
भंडार है अनन्त जेब भले खाली है।

परदे के पीछे से झांक झांक जाती थी
हृदय में रहती वह षोडशी मतवाली है।

थामा था हाथ जो ओठों से चूमा था
रूमानी शाम थी आज भी हरियाली है।

याद तेरी आयी तो सहरा शीतल हुआ
चतुर्मास की सांझ घिरी घटा काली है।

दृष्टि क्षीण हो भले रजतमय केश हों
आज भी अधरों पे याद वही लाली है।

Thursday, February 10, 2011

आपकी गज़ल - इदम् न मम्

व्यवहारिकता शीर्षक से लिखी मेरी पंक्तियों पर आई आपकी सारगर्भित टिप्पणियों को देखकर मन प्रसन्न हो गया। आपने गलतियों को बडप्पन के साथ नज़रअन्दाज़ भी किया और ध्यान भी दिलाया गया तो उतने ही बडप्पन और प्यार से। साथ ही आप की टिप्पणियों से उस रचना के आगे की पंक्तियाँ भी मिलीं। आप सभी का धन्यवाद। सर्वश्री संजय अनेजा, संजय झा, राजेश नचिकेता, प्रतुल वसिष्ठ, सुज्ञ जी, राहुल जी, अली जी और वर्मा जी के योगदान से बनी नई रचना कहीं अधिक रोचक है| आइये आपकी सम्मिलित कृति का आनन्द लेते हैं।

वंचित फल सुगन्ध छाया से
तरु ऊँचा क्या और बौना क्या

जब ज़ाग़* देश को लूट रहे
तो आँख खोलकर सोना क्या

शबनम से क्षुधा मिटाता है
उसे सागर क्या और दोना क्या

काँटों का ताज लिया सिर पर
फिर कठिन घड़ी में रोना क्या

जिस नगर में हम बेभाव बिके
वहाँ माटी क्या और सोना क्या

बहता जल अनिकेत यायावर
वसुधा अपनी कोई कोना क्या

जग सत्य नहीं बस मिथ्या है
इसे पाना क्‍या और खोना क्‍या

जब कर्म की गठरी छूट गयी
खाली घट को संजोना क्या
(*ज़ाग़ = कौव्वे। अली जी, क्या ज़ाग़ शब्द और इसके प्रयोग के बारे में कुछ लिखेंगे?)

धन्यवाद!
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ये शाहिद कबीर कौन हैं?
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Tuesday, February 8, 2011

व्यावहारिकता - कविता


(अनुराग शर्मा)

वो खुद है खुदा की जादूगरी
फिर चलता जादू टोना क्या

जो होनी थी वह हो के रही
अब अनहोनी का होना क्या

जब किस्मत थी भरपूर मिला
अब प्यार नहीं तो रोना क्या

गर प्रेम का नाता टूट गया
नफरत के तीर चुभोना क्या

जज़्बात की ही जब क़द्र नहीं
तो मुफ्त में आँख भिगोना क्या

[क्रमशः]

Tuesday, February 1, 2011

नानृतम् - कविता

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क्या हुआ सब तेज
गुम हुआ वह ओज
मुख मलिन है
ग्रहण जो है
आन्धी घनी औ' धुन्ध भी
गहरा रही है
पूर्वप्रसवा है कुपोषित
दिख रही निष्प्राण सी है
पर हटेगी नहीं
वह टिकेगी यहीं
और जन्म देगी
एक सुन्दर स्वस्थ
नव आशा किरण को
दुश्मन भले फैला रहे
अफवाह झूठी ला रहे
कि चिरयुवा स्थूलकाय
रोज़ नौ सौ चूहे खाय
उस झूठ का इक पाँव
भारी है अभी भी।