Sunday, May 27, 2012

ब्राह्मण कौन?

(आलेख व चित्र: अनुराग शर्मा)
ज्ञानी जन तौ नर कुंजर में, सम भाव धरत सब प्रानिन में। 
सम दृष्टि सों देखत सबहिं, गौ श्वानन में चंडालन में ॥
 [डॉ. मृदुल कीर्ति - गीता पद्यानुवाद]
जब से बोलना सीखा, दिल की बात कहता आया हूँ। मेरे दिल की बात क्या है, कुछ मौलिक नहीं, वही सब जो अपने आसपास सुना, पढा, समझा और सीखा है। सब कुछ सही होने का दावा नहीं कर सकता हाँ इतना प्रयास अवश्य रहता है कि सत्य अपनाया जा सके और उसे प्रिय और श्रेयस्कर मान सकूँ।

उपनिषदों में जाबालि ऋषि सत्यकाम की कथा है जो जाबाला के पुत्र हैं। जब सत्यकाम के गुरु गौतम ने नये शिष्य बनाने से पहले साक्षात्कार में उनके पिता का गोत्र पूछा तो उन्होंने उत्तर दिया कि उनकी माँ जाबाला कहती हैं कि उन्होंने बहुत से ऋषियों की सेवा की है, उन्हें ठीक से पता नहीं कि सत्यकाम किसके पुत्र हैं। ज्ञानवृत्ति के पालक ऋषि सत्य को सर्वोपरि रखते आये हैं। सत्यकाम की बात सुनते ही गौतम ऋषि उन्हें सत्यव्रती ब्राह्मण स्वीकार करके जाबालि गोत्र का नाम देकर पुकारते हैं।
खून से ही वंश की परम्परा नहीं चलती, जो विश्वास वहन करता है, वही होता है असली वंशधर ~ सत्यकाम फ़िल्म से (रजिन्दर सिंह बेदी लिखित) एक सम्वाद 
बात की शुरुआत हुई एक मित्र के फ़ेसबुक स्टेटस से जिसका शीर्षक था "बन्दउँ प्रथम महीसुर चरना :)" संलग्न लिंक था टाइम्स ऑफ़ इंडिया की एक खबर से जिसमें चर्चा थी उस ट्रेंड की जहाँ निसंतान भारतीय दम्पत्तियों की पहली पसन्द ब्राह्मण संतति प्राप्त करना पाई गयी थी। ब्राह्मण शब्द पर ज़ोर था। काफ़ी दिन बाद फिर से ध्यान गया उस शब्द पर जिसकी चर्चा अक्सर होती है पर उसका अर्थ शायद अलग-अलग लोगों के लिये अलग ही रहा है। एक बुज़ुर्ग भारतीय मित्र हैं जो जाति पूछे जाने पर अपने को "जन्मना ब्राह्मण" कहते थे क्योंकि तथाकथित ब्राह्मण कुल में जन्म लेने के बावजूद उन्होंने अपने को कभी ब्राह्मण नहीं माना। एक अन्य जन्मना ब्राह्मण मित्र हैं जो अक्सर जन्मना ब्राह्मणों को कोसते दिखाई देते हैं। विद्वान हैं, कई बातें सही भी हैं लेकिन कई बार यह विघ्नकारी हो जाता है।

अली सैयद जी के ब्लॉग उम्मतें की एक पोस्ट "कभी यहां तुम्हें ढूंढा...कभी वहां देखा...!" पढते समय ध्यान गया कि शास्त्रों के काल से लेकर आज तक भले ही भृगु, विश्रवा, च्यवन आदि ब्रह्मर्षियों की बात हो या वर्तमान समाज में देखें तो अरुणा आसफ़ अली, सरोजिनी नायडू, इन्दिरा गांधी जैसे स्वाधीनता सेनानियों की, भारत में यदि कोई एक जाति अंतर्जातीय सम्बन्धों में आगे रही है तो वह ब्राह्मण जाति ही है। ब्राह्मण परिवार में जन्मी पॉप गायिका पार्वती खान का नाम कई पाठकों को याद होगा। पढ़ने में आता है कि डॉ भीमराव अंबेडकर की पत्नी डॉ शारदा कबीर (माई सविता अंबेडकर) भी एक ब्राह्मण परिवार में जन्मी थीं। मैं अपने आसपास के अंतर्जातीय विवाहों पर नज़र दौड़ाता हूँ तो जन्मना ब्राह्मणों को अग्रणी पाता हूँ। प्रेम की तरह शायद कट्टरता के भी कई रूप होते हैं, एक सर्वभूतहितेरतः वाला और दूसरा अहमिन्द्रो न पराजिग्ये वाला। 

प्रथम ब्राह्मण रेजिमेंट (1776-1931) भारतीय सेना
ब्राह्मण यानी द्विज यानी दूसरे जन्म याने संस्कार से बना हुआ व्यक्ति। मतलब यह कि ब्राह्मण जन्म से नहीं होता। ब्राह्मण होने का मतलब ही है आनुवंशिकता के महत्व को नकारकर ज्ञान, शिक्षा और संस्कार के महत्व को प्रतिपादित करना। विश्व के अन्य राष्ट्रों की तरह भारतीय जातियाँ पितृकुल से भी हैं, मातृकुल से भी। लेकिन भारत के ब्राह्मण गोत्र संसार भर से अलग एक अद्वितीय प्रयोग हैं। ब्राह्मण मातृकुल, पितृकुल, कम्यून आदि से बिल्कुल अलग ऐसी परिकल्पना है जो गुरुकुल से बनी है। जातिवाद और ब्राह्मणत्व दो विरोधी प्रवृत्तियाँ हैं। इनका घालमेल करना निपट अज्ञान ही नहीं, एक तरह से भारतीय परम्परा का निरादर करना भी है।

गुरुकुल शब्द ही ब्राह्मणों के कुल के अनानुवंशिक होने का प्रमाण है। न माता का, न पिता का, गुरु का कुल - ब्राह्मणों के एक नहीं, न जाने कितने गोत्र ऐसे हैं जहाँ पिता और पुत्र के चलाये हुए गोत्र अलग हैं उदाहरणार्थ वसिष्ठ का अपना गोत्र है और उनके पौत्र पराशर का अपना - यदि आनुवंशिक आधार होता तो ये दो गोत्र अलग नहीं होते। इसी प्रकार भृगु का अपना गोत्र भी है और उनकी संततियों के अपने-अपने। सभी शिष्य अपने गुरु का कुल चलाते हैं। इस विशाल समुदाय में गुरु के अपने भी एकाध बच्चे होंगे, मगर भूसे के ढेर को उसमें पड़ी एक सुई से परिभाषित नहीं किया जा सकता। शुनःशेप का गोत्र परिवर्तन भी गुरुकुल के सिद्धांत को ही प्रतिपादित करता है।

भारतीय संस्कृति संस्कारों में विश्वास करती है। सभी संस्कार सबके लिये हैं मगर उपनयन किये बिना द्विज नहीं बना जा सकता, मतलब यह कि ब्राह्मणत्व केवल वंश आधारित नहीं हो सकता है। ब्राह्मण परिवार के बाहर जन्मे विश्वामित्र का ब्रह्मर्षि बनना ब्राह्मणत्व के जन्म से मुक्त होने का एक दृष्टांत है। विश्वामित्र का हिंसक क्रोध बना रहने तक वशिष्ठ उन्हें ब्रह्मर्षि स्वीकार नहीं करते। इन्हीं विश्वामित्र का पश्चात्ताप वसिष्ठ द्वारा उनके ब्राह्मणत्व को मान्यता देने का आधार बनता है। यह संयोग मात्र नहीं कि विश्वामित्र को ब्राह्मणत्व प्रदान करने वाले वसिष्ठ स्वयं भी किसी ब्राह्मणी के नहीं बल्कि अप्सरा उर्वशी के पुत्र हैं। उनके अतिरिक्त व्यास, कौशिक, ऋष्यशृंग, अगस्त्य, जम्बूक आदि ऋषियों के अब्राह्मण जन्म की कथायें शास्त्रों में मिलती हैं परंतु उन सबका ब्राह्मणत्व सुस्थापित और सर्वमान्य हैं।

बुद्ध के शब्दों में ब्राह्मण अकिंचनं अनादानं तमहं ब्रूमि ब्राह्मणं॥
जो अकिंचन है, अपरिग्रही और त्यागी है, उसे ही मैं ब्राह्मण कहता हूँ।
वारि पोक्खरपत्ते व आरग्गे रिव सासपो।
यो न लिम्पति कामेसु तमहं ब्रूमि ब्राह्मणं॥
कमल के पत्ते पर जल की बूंद और आरे की धार पर सरसों के दाने की तरह भोगों से निर्लिप्त रहने वाले को मैं ब्राह्मण कहता हूँ।
निधाय दंडं भूतेसु तसेसु ताबरेसु च।
यो न हन्ति न घातेति तमहं ब्रूमि ब्राह्मणं॥
चर-अचर, किसी प्राणी को जो दंड नहीं देता, न मारता है, न हानि पहुँचाता है वही ब्राह्मण कहलाएगा।

आज ब्राह्मण जाति की उपस्थिति देश के लगभग हर क्षेत्र में हैं परंतु असम का ब्राह्मण पंजाबी ब्राह्मण के मुकाबले एक असमी से अधिक मिलता हुआ होता है और यह बात तमिळ, नेपाली, कश्मीरी, गुजराती सब ब्राह्मणों के बारे में कमोबेश सही है। हाँ राष्ट्रभर में बिखरा हुआ यह समुदाय वैचारिक रूप से अवश्य एकरूप हुआ है मगर उसका कारण संस्कार, दीक्षा, दृष्टि और परिवेश है न कि आनुवंशिकता। ब्राह्मण अलग वर्ण अवश्य है लेकिन अलग आनुवंशिक जाति कदापि नहीं।

गीता के मेरे प्रिय श्लोकों में से एक है:
विद्याविनयसंपन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि
शुनिचैव श्वपाके चः पंडिताः समदर्शिनः
ज़र्रे-ज़र्रे में एक ही ईश्वर का अंश देखने वाली भारतीय परम्परा में हर प्राणी के लिये समदर्शी होने में कोई अनोखी बात नहीं है। गाय, हाथी, ब्राह्मण, कुत्ता और यहाँ तक कि कुत्ता खाने वाले में भी समानता देखने वाली परम्परा में मज़हब, भाषा आदि जैसी दीवारों के नामपर बँटवारा और फ़िरकापरस्ती के लिये कोई जगह नहीं है। एक ओर हम भेदभाव विहीन समाज की मांग करते हैं, वहीं दूसरी ओर अपने परिवार के विवाह सम्बन्ध ढूंढते समय, बच्चे गोद लेते समय और टाइम्स ऑफ़ इंडिया के समाचार के अनुसार उससे भी एक क़दम आगे बढकर जाति में गौरव ढूंढते हैं, यह कैसा विरोधाभास है?

रेखाचित्र: अनुराग शर्मा
इसी प्रकार कुछ लोग जात-पाँत को सही ठहराने के लिये प्राचीन वर्ण व्यवस्था का नाम लेते हैं। वे भूल जाते हैं कि वर्ण व्यवस्था वास्तव में वर्णाश्रम व्यवस्था थी। आश्रम के आग्रह के बिना वर्ण के आग्रह का कोई अर्थ नहीं रहता। दूसरे, शास्त्रसम्मत चार वर्ण और आज की भेदभावपरक हज़ारों जातियाँ दो अलग-अलग बातें हैं। और फिर प्राचीन व्यवस्था में से कितनी अन्य बातें आज हमने बचाकर रखी हैं? उस पर यह भी एक तथ्य है कि ब्राह्मण भले ही वर्णाश्रम-व्यवस्था का अंग हों, विभिन्न जातियाँ भारत में सभी धर्मों में स्पष्ट और गहराई से गढी हुई दिखाई देती हैं। मुसलमानों में अशरफ़, अजलाफ़, अरजाल आदि समूहों में बंटी सैकड़ों जातियाँ मिल जायेंगी। बल्कि मुसलमानों में अनेक ऐसी जातियाँ भी हैं जो हिन्दुओं में नहीं होतीं। सिखों में जाट, खत्री, मज़हबी समूहों के अतिरिक्त हिन्दू जातियों में पाये जाने वाले कुलनाम मिलेंगे और ईसाई समुदाय में तो अपने को दलित, सीरियन, सारस्वत आदि मानकर भिन्नता बरतने वाले आसानी से दिखाई देते हैं। इस प्रकार, जातियाँ आनुवंशिक, क्षेत्रीय या दोनों हो सकती हैं जबकि ब्राह्मण इन दोनों से ही अलग हैं। इसी प्रकार जातियाँ हिन्दूओं से इतर मान्यता वाले समूहों में भी उपस्थित हैं जबकि ब्राह्मण नहीं।

जन्मना जायतेशूद्र: संस्कारात् द्विज उच्यते:
शास्त्र का वचन है कि जन्म से सभी मनुष्य शूद्र हैं। ज्ञान प्राप्त करने के उद्देश्य से यज्ञोपवीत लेकर शिक्षा लेने वाला मनुष्य द्विज कहलाता है। अर्थात ब्राह्मण वह है जो ज्ञान प्राप्ति द्वारा समाज के उत्थान हेतु अपने जन्म, जाति, देश, अस्तित्व आदि के बन्धनों का त्याग करता है।

सामवेद शाखा के वज्रसूचिकोपनिषद (वज्रसूचि उपनिषद) में ब्राह्मण विषय पर विस्तार से वार्ता हुई है। प्रश्न हैं, सम्भावनायें हैं, उनका सकारण खंडन है और फिर परिभाषा भी है:
क्या जीव ब्राह्मण है? नहीं!
क्या शरीर ब्राह्मण है? नहीं!
क्या जाति ब्राह्मण है? नहीं!
क्या ज्ञान ब्राह्मण है? नहीं!
क्या कर्म ब्राह्मण है? नहीं!
क्या (सत्कर्म का) कर्ता ब्राह्मण है? नहीं!

तब फिर ब्राह्मण है कौन? जिसे आत्मा का बोध हो गया है, जो जन्म और कर्म के बन्धन से मुक्त है, वह ब्राह्मण है। ब्राह्मण को छह बन्धनों से मुक्त होना अनिवार्य है - क्षुधा, तृष्णा, शोक, भ्रम, बुढ़ापा, और मृत्यु। एक ब्राह्मण को छह परिवर्तनों से भी मुक्त होना चाहिये जिनमें पहला ही जन्म है। इन सब बातों का अर्थ यही निकलता है कि जन्म और भेद में विश्वास रखने वाला ब्राह्मण नहीं हो सकता। ब्राह्मण वह है जिसकी इच्छा शेष नहीं रहती। सच्चिदानन्द की प्राप्ति (या खोज) ब्राह्मण की दिशा है। ब्राह्मण समाज के उत्थान के लिये कार्य करता है। ब्राह्मण का एक और कार्य ब्रह्मदान या ज्ञान का प्रसार है। इसी तरह, असंतोष के रहते कोई ब्राह्मण नहीं रह सकता, भले ही उसका जन्म किसी भी परिवार में हुआ हो। ऐसा लगता है कि "संतोषः परमो धर्मः" भी ब्राह्मणत्व की एक ज़रूरी शर्त है।

आपका क्या विचार है?
ब्लॉगअड्डा ने मेरा एक साक्षात्कार प्रकाशित किया है, यदि आपकी रुचि हो तो यहाँ क्लिक करके पढ सकते हैं, आभार!
* सम्बन्धित कड़ियाँ *
* वज्रसूचि उपनिषद्
* चार वर्ण (गायत्री परिवार)
* बॉस्टन ब्राह्मण
* पाकिस्तान में एक ब्राह्मण
* हू इज़ अ ब्राह्मण (धम्मपद)
* जन्मना (रमाकांत सिंह) 

Friday, May 25, 2012

गहरे गह्वर गहराता - कविता

बसेरा चार दिन का है :(
(शब्द व चित्र: अनुराग शर्मा)

वह आता
मद छाता
मन गाता

मन भाता
सुख पाता
उद्गाता*

वह जाता
उजियारा
हट जाता

अन्धियारा
घिर आता
पछताता

सूना मन
क्या पाता
दुःखदाता

जो आता
पल भर में
सब जाता

सुख लगता
छल जाता
औ' बिसराता

जब दुःख
गहरे गह्वर
गहराता ...
--------
*उद्गाता = 1. सन्ध्या/अग्निहोत्र में वेदमंत्रों का गायक,
2. यज्ञ में वेदमंत्र गायक ऋत्विजों का नायक, 3. प्राण, 4. वायु

Tuesday, May 15, 2012

बदले ज़माने देखो - कविता

(कविता व चित्र अनुराग शर्मा)


रंग मेरे जीवन में, तुमने भी सजाये हैं
याद से हटते नहीं गुज़रे ज़माने देखो।
सूनी आँखों में बसे दोस्त पुराने देखो॥

प्यार की जीत सदा नफ़रतों पे होती है।
हर तरफ़ महके मेरे शोख फ़साने देखो॥

ग़लतियाँ हमने भी सरकार बड़ी कर डालीं।
चाहते क्या थे चले क्या-क्या कराने देखो॥

कोशिशें करने से भी वक़्त ही जाया होगा।
भर सकेंगे न कभी दिल के वीराने देखो॥

सारा दिन दर्द के काँटों पे ही गुज़रा था।
रात आयी है यहाँ ख्वाब सजाने देखो॥

आखिरी बूंद मेरे खून की बहने के बाद।
ताल खुद आये मेरी प्यास बुझाने देखो॥

साँस रोकी थी मेरी जिसने ज़ुबाँ काटी थी।
मर्सिया पढ़ता वही बैठ सिरहाने देखो॥

Saturday, May 12, 2012

मातृ दिवस पर सभी माताओं को हार्दिक नमन!

मेरे एक मित्र ने एक बार यह कथा सुनाई थी। वही क़िस्सा आज मातृदिवस के अवसर पर आपकी सेवा में प्रस्तुत है।
मातृ देवो भवः, पितृ देवो भवः, आचार्य देवो भवः, अतिथि देवो भवः॥

एक बार एक पहुँचे हुए सत्पुरुष ने सिनाई पर्वत पर ईश्वर का साक्षात्कार किया। ईश्वर ने उन्हें बताया कि अमुक स्थान में रहने वाला एक वधिक स्वर्ग में उनका साथी होगा। एक वधिक, स्वर्ग में, उनका साथी? सत्पुरुष को आश्चर्य तो हुआ पर बात ईश्वर की थी सो उसका रहस्य जानने के उद्देश्य से वे इस वार्ता के बाद, अपनी पहचान गुप्त रखते हुए उस वधिक को मिले। अतिथि की सेवा करने के उद्देश्य से वह वधिक उन्हें अपने घर ले गया। घर पहुँचकर उन्हें बिठाकर कुछ देर इंतज़ार करने के लिये कहकर यजमान अपनी वृद्ध और जर्जर माँ के पास पहुँचा और उनके हाथ पाँव धोकर बाल संवारे फिर अपने हाथ से खाना खिलाया। तृप्त होकर वृद्धा कुछ बुदबुदाई जिस पर यजमान ने तथास्तु कहा।
माँ - एक कविता 
जब यजमान अतिथि के पास वापस पहुँचा तो सत्पुरुष ने उससे वृद्धा और उसकी कही बात के बारे में पूछा। यजमान ने हँसते हुए बताया कि माँ अपने बेटे के स्नेह में कुछ भी बोल देती है और मैं तो माँ की भावना का आदर करते हुए तथास्तु कहता हूँ। वरना, जो वह कहती है, वैसा संभव नहीं है।

अतिथि ने जानने का इसरार किया तो यजमान ने शर्माते हुए बताया कि माँ कहती है कि जन्नत में मूझे हज़रत मूसा का साथ मिलेगा, माँ की ममता को जानते हुए हाँ कह देता हूँ। वर्ना कहाँ एक वधिक, कहाँ स्वर्ग और कहाँ हज़रत मूसा।

तब अतिथि ने कहा, "तुम्हारी माँ की प्रार्थना स्वीकार हो चुकी है, मैं स्वर्ग में तुम्हारा साथी मूसा हूँ।"

पाकिस्तान में रहनेवाले डॉ क़ुरेशी से यह कथा सुनने के बाद मेरे मन में पहला विचार यही आया कि वन्दे-मातरम पर हम भारतीयों का एकाधिकार नहीं है। अन्य संस्कृतियों में भी जन्नत माँ के चरणों में ही मानी जाती है।

अपि स्वर्णमयी लंका न मे लक्ष्मण रुच्यते। जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी॥

मूल आलेख की तिथि: रविवार, 12 मई 2012, मातृदिवस (Mother's Day)

Tuesday, May 8, 2012

इतना भी पास मत आओ - कविता

 (कविता व चित्र: अनुराग शर्मा)

ज़िन्दगी प्रेम का राग है
मार तेरे प्यार की हमने प्रिये हँसकर सही है।
शब्द मिटते जा रहे पर अर्थ तो फिर भी वही है॥

सर झुका लेते हैं जब भी देखते हैं हम तुम्हें।
रास्ते में छेड़ना तुम ही कहो कितना सही है॥

है सफ़र मुश्किल अगर गुज़रें रक़ीबों की गली।
मेरी डगर के ज़िक्र पे तुमने सदा कड़वी कही है॥

सह सकूँ हर ज़ुल्म तेरा चाहत ए दिल है यही।
दर्द से चिल्ला पड़ा इतनी शिकायत तो रही है॥

खिड़की खुले तो हो सके रोशन जो घर अन्धेरा है।
सियाही कब से इस चौखट में जमती जा रही है॥

Saturday, May 5, 2012

चक्रव्यूह - कविता

आर्ट कनेक्शन 2012 से साभार
(कविता व चित्र: अनुराग शर्मा)

यादों के बंधन
बंधन के बांध
बांध की सीमायें
सीमा पर अन्धकार
अन्धकार का अज्ञान
और उस
अज्ञान की यादें
कभी तो यह चक्र टूटे
कभी तो टूटे ...