Sunday, December 30, 2012

2013 में आशा की किरण?

हमें खबर है खबीसों के हर ठिकाने की
शरीके जुर्म न होते तो मुखबिरी करते
 (~ हसन निसार?)

विगत सप्ताह कठिनाई भरे कहे जा सकते हैं। पहले एक व्यक्तिगत क्षति हुई। उसके बाद तो बुरी खबरों की जैसे बाढ़ ही आ गई। न्यूटाउन, कनेटीकट निवासी एक 20 वर्षीय असंतुलित युवा ने पहले अपनी माँ की क्रूर हत्या की और फिर उन्हीं की मारक राइफलें लेकर नन्हें बच्चों के "सैंडी हुक एलीमेंट्री" स्कूल पहुँचकर 20 बच्चों और 6 वयस्कों की निर्मम हत्या कर दी।

जब तक सँभल पाते दिल्ली बलात्कार कांड की वहशियत की परतें उघड़नी आरंभ हो गईं। परिवहन प्राधिकरण और दिल्ली पुलिस के भ्रष्टाचारी गँठजोड़ से शायद ही कोई दिल्ली वाला अपरिचित हो। प्राइवेट बसें हों या ऑटो रिक्शा, हाल बुरा ही है क्योंकि देश में अपराधी हर जगह निर्भय होकर घूमते हैं। बची-खुची कसर पूरी होती है हर कोने पर खुली "सरकारी" शराब की दुकान और हर फुटपाथ पर लगे अंडे-चिकन-सिरी-पाये के ठेलों पर जमी अड्डेबाजी से। समझना कठिन नहीं है कि संस्कारहीन परिवारों के बिगड़े नौजवानों के लिए यह माहौल कल्पवृक्ष की तरह काम करता है। क्या कोई भी कभी भी पकड़ा नहीं जाता? इस बात का जवाब काका हाथरसी के शब्दों में - रिश्वत लेते पकड़ा गया तो रिश्वत देकर छूट जा।

दर्द की जो इंतहा इस समय हुई है, इससे पहले उसका अहसास सन 2006 में निठारी कांड के समय हुआ था जब स्थानीय महिला थानेदार को उपहार में एक कार देने वाले एक अरबपति की कोठी में दिन दहाड़े मासूम बच्चों का यौन शोषण, प्रताड़न, करने के बाद हत्या और मांसभक्षण नियमित रूप से होता रहा, और मृतावशेष घर के नजदीकी नाले में फेंके जाते रहे। शीशे की तरह स्पष्ट कांड में भी आरोपियों के मुकदमे आज भी चल रहे हैं। कुछ पीड़ितों के साथ यौन संसर्ग करने वाले धनिक के खिलाफ अभी तक कोई सज़ा सुनाये जाने की खबर मुझे नहीं है बल्कि एक मुकदमे में एक पीड़िता के मजदूर पिता के विरुद्ध समय पर गवाही के लिए अदालत न पहुँच पाने के आरोप में कानूनी कार्यवाही अवश्य हुई है। देश की मौजूदा कानून व्यवस्था और उसके सुधार के लिए किए जा रहे प्रयत्नों की झलक दिखने के लिए वह एक कांड ही काफी है।

हर ज़िम्मेदारी सरकार पर डाल देने की हमारी प्रवृत्ति पर भी काफी कुछ पढ़ने को मिला। व्यक्ति एक दूसरे से मिलकर समाज, समुदाय या सरकार इसीलिए बनाते हैं कि उन्हें हर समय अपना काम छोडकर अपने सर की रक्षा करने के लिए न बैठे रहना पड़े। मैं बार-बार कहता रहा हूँ कि कानून-व्यवस्था बनाना सरकार की पहली जिम्मेदारियों में से एक है और सभी उन्नत राष्ट्रों की सरकारें यह काम बखूबी करती रही हैं, तभी वे राष्ट्र उन्नति कर सके। आईपीएस-आईएएस अधिकारियों के सबसे महंगे जाल के बावजूद, भारत में न केवल व्यवस्था का, बल्कि सरकार और प्रशासन का ही पूर्णाभाव दिखाता है। जनता की गाढ़ी कमाई पर ऐश करने वाले नेता (जन-प्रतिनिधि?) तो आने के तीन मिलते हैं लेकिन प्रशासन अलोप है। समय आ गया है जब व्यवस्था बनाने की बात हो। न्याय और प्रशासन होगा तो रिश्वतखोरी, हफ्ता वसूली, पुलिस दमन से लेकर राजनीतिज्ञों की बद-दिमागी और माओवादियों की रंगदारी जैसी समस्याएँ भी भस्मासुर बनाने से पहले ही नियंत्रित की जा सकेंगी।

रही बात सरकार से उम्मीद रखने की, तो यह बात हम सबको, खासकर उन लोगों को समझनी चाहिए जो भूत, भविष्य या वर्तमान में सरकार का भाग हैं - कि सरकार से आशा रखना जायज़ ही नहीं अपेक्षित भी है। सरकारें देश के दुर्लभ संसाधनों से चलती हैं ताकि हर व्यक्ति को हर रोज़ हर जगह की बाधाओं और उनके प्रबंधन के बंधन से मुक्ति मिल सके। सरकार के दो आधारभूत लक्षण भारत में लापता हैं -
1. सरकार दिग्दर्शन के साथ न्याय, प्रशासन, व्यवस्था भी संभालती है|
2. कम से कम लोकतन्त्र में, सरकार अपने काम में जनता को भी साथ लेकर चलती है।

सरकार में बैठे लोग - नेता और नौकरशाह, दोनों - अपने अधकचरे और स्वार्थी निर्णय जनता पर थोपना रोककर यह जानने का प्रयास करें कि जनहित कहां है। व्यवस्था में दैनंदिन प्रशासन के साथ त्वरित न्याय-व्यवस्था भी शामिल है यह याद दिलाने के लिए ही निठारी का ज़िक्र किया था लेकिन कानून के एक भारी-भरकम खंभे के ज़िक्र के बिना शायद यह बात अधूरी रह जाये इसलिए एक सुपर-वकील का ज़िक्र ज़रूरी है।

भगवान राम के जन्मस्थान पर मंदिर बनाने का दावा करने वाले दल में कानून मंत्री रहे जेठमलानी पिछले दिनों मर्यादा पुरुषोत्तम "राम" पर अपनी टिप्पणी के कारण एक बार फिर चर्चा में आए थे। वैसे इसी शख्स ने पाकिस्तान से आए हैवानी आतंकवादियों की २६ नवम्बर की कारगुजारी (मुम्बई ऑपरेशन) के दौरान ही बिना किसी जांच के पकिस्तान को आरोप-मुक्त भी कर दिया था। लेकिन मैं इस आदमी का एक दीगर बयान कभी नहीं भूल पाता जो भारत में चर्चा के लायक नहीं समझा गया था।
आप जानते हैं कि आपके मुवक्किल ने हत्या की है वो अपराधी है लेकिन आपको तो उसे बचाना ही पड़ेगा. फ़र्ज़ करो कि मुझे मालूम है कि मेरे मुवक्किल ने अपराध किया है. मैं अदालत से कहूँगा कि साहब मेरे मुवक्किल को सज़ा देने के लिए ये सबूत काफ़ी नहीं हैं. मैं ऐसा नहीं कहूँगा कि मेरा मुवक्किल कहता है कि उसने ऐसा नहीं किया इसलिए वो निर्दोष है.ये हमारे पेशे की पाबंदी है. अगर मैं ऐसा करूँगा तो बार काउंसिल मेरे ख़िलाफ़ अनुशासनात्मक कार्रवाई कर सकता है. मुझे मालूम है कि मेरे मुवक्किल ने ऐसा किया है तो तो उसे बचाने के लिए मैं ऐसा नहीं कहूँगा कि किसी दूसरे ने अपराध किया है. आप झूठ नहीं बोल सकते बल्कि न्यायाधीश के सामने ये सिद्ध करने की कोशिश करेंगे कि सबूत पर्याप्त नहीं हैं. इस पेशे की भी अपनी सीमा है.
(~राम जेठमलानी)
सुपर-वकील साहब, अगर कानून में इतनी बड़ी खामी है तो उसका शोषण करने के बजाय उसे पाटने की दिशा में काम कीजिये। नियमपालक जनता के पक्ष में खड़े होइए। अब, सुपर-वकील की बात आई है तो एक सुपर-कॉप की याद भी स्वाभाविक ही है। जहां अधिकांश केंद्रीय कर्मचारी कश्मीर, पंजाब, असम और नागालैंड के दुष्कर क्षेत्रों में विपरीत परिस्थितियों में चुपचाप जान दे रहे थे, उन दिनों में भी अपने पूरे पुलिस करीयर में अधिकांश समय देश की राजधानी में बसे रहने वाली एक सुपर-कॉप अल्पकाल के लिए पूर्वोत्तर राज्य में गईं तभी "संयोग से" उनकी संतान का दाखिला दिल्ली के एक उच्च शिक्षा संस्थान में पूर्वोत्तर के कोटा में हो गया था। उसके बाद जब अगली बार उनके तबादले की बात चली तो वे अपने को पीड़ित बताकर अपनी "अखिल भारतीय ज़िम्मेदारी" के पद से तुरंत इस्तीफा देकर चली गईं और तब एक बार फिर खबर में आईं जब पता लगा कि उनकी अपनी जनसेवी संस्था उनके हवाई जहाज़ के किरायों के लिए दान में लिए जानेवाले पैसे में "मामूली" हेराफेरी करती रही है। दशकों तक दिल्ली पुलिस में रहते हुए, अपने ऊपर अनेक फिल्में बनवाने और कई पुरस्कार जीतने के बावजूद दिल्ली पुलिस का चरित्र बदलने में अक्षम रहने वाली इस अधिकारी को अचानक शायद कोई जादू का चिराग मिल गया है कि अब वे बाहर रहते हुए भी (अपनी उसी संस्था के द्वारा?) 90 दिनों में पुलिस का चरित्र बदल डालने का दावा कर रही हैं।

उदासी और विषाद के क्षणों में अलग-अलग तरह की बातें सुनने में आईं। कुछ अदरणीय मित्रों ने तो देश के वर्तमान हालात पर व्यथित होते हुए भ्रूण हत्या को भी जायज़ ठहरा दिया। लेकिन ऐसी बातें कहना भी उसी बेबसी (या कायरता) का एक रूप है जिसका दूसरा पक्ष पीड़ित से नज़रें बचाने से लेकर उसी को डांटने, दुतकारने या गलत ठहराने की ओर जाता है। जीवन में जीत ही सब कुछ नहीं है। अच्छे लोग भी चोट खाते हैं, बुद्धिमान भी असफल होते हैं। दुनिया में अन्याय है, ... और, कई बार वह जीतता हुआ भी लगता है। वही एहसास तो बदलना है। गिलास आधा खाली है या आधा भरा हुआ, इस दुविधा से बाहर निकालना है तो गिलास को पूरा भरने का प्रयास होना चाहिए। आगे बढ़ना ही है, ऊपर उठना ही होगा, एक बेहतर समाज की ओर, एक व्यवस्थित प्रशासन की ओर जहाँ "सर्वे भवन्तु सुखिना" का उद्घोष धरातलीय यथार्थ बन सके। सभ्यता का कोई विकल्प नहीं है।

मित्र ब्लॉगर गिरिजेश राव सर्वोच्च न्यायालय में "त्वरित न्याय" अदालतों के लिए याचिका बना रहे हैं। काजल कुमार जी ने इस बाबत एक ग्राफिक बनाया है जो इस पोस्ट में भी लगा हुआ है। अन्य मित्र भी अपने अपने तरीके से कुछ न कुछ कर ही रहे हैं। आपका श्रम सफल हो, कुछ बदले, कुछ बेहतर हो।

24 दिसंबर को बॉन (जर्मनी) में दो लोगों ने एक भारतीय युवक की ज़ुबान इसलिए काट ली कि वह मुसलमान नहीं था। पिछले गुरुवार को न्यूयॉर्क में एक युवती ने 46 वर्षीय सुनंदों सेन को चलती ट्रेन के आगे इसलिए धक्का दे दिया क्योंकि वह युवती हिन्दू और मुसलमानों से नफरत करती थी। विस्थापित देशभक्ति (मिसप्लेस्ड पैट्रियटिज्म) भी अहंकार जैसी ही एक बड़ी बुराई है। अपने को छोटे-छोटे गुटों में मत बाँटिये। बड़े उद्देश्य पर नज़र रखते हुए भी भले लोगों को छोटे-मोटे कन्सेशन देने में कोई गुरेज न करें, नफरत को मन में न आने दें, हिंसा से बचें। दल, मज़हब, विचारधारा, जाति आदि की स्वामिभक्ति की जगह सत्यनिष्ठा अपनाने का प्रयास चलता रहे तो काम शायद आसान बने और हमारा सम्मिलित दर्द भी कम हो!

निर्भया, दामिनी या (शिल्पा मेहता के शब्दों में) "अभिमन्यु" को मेरी विनम्र श्रद्धांजलि! उसकी पीड़ा हम मिटा न सके इसकी टीस मरते दम तक रहेगी लेकिन उस टीस को समूचे राष्ट्र ने महसूस किया है, यह भी कोई छोटी बात नहीं है। उस वीर नायिका के दुखद अवसान से इस निर्मम कांड का पटाक्षेप नहीं हुआ है। पूरा देश चिंतित है, शोकाकुल है लेकिन सुखद पक्ष यह है कि राष्ट्र चिंतन में भी लीन है। परिवर्तन अवश्य आयेगा, अपने आदर्श का अवमूल्यन मत कीजिये।

प्रथम विश्व युद्ध की हार से हतोत्साहित जर्मनों ने कम्युनिस्टों की गुंडागर्दी से परेशान होकर हिटलर जैसे दानव को अपना "फ्यूहरर" चुन लिया था। "हिन्दू" लोकतन्त्र से बचने के लिए पूर्वी बंगाल के मुसलमानों ने जिन्ना के पाकिस्तान को चुनने की गलती करके अपनी पीढ़ियाँ तबाह कर डालीं। हम भारतीय भी साँपनाथ से बचने को नागनाथ पालने की गलतियाँ बार-बार करते रहे हैं। वक़्त बुरा है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि एक बुराई मिटाने की आशा में हम दूसरी बुराइयों को न्योतते रहें। दुर्भाग्य से इस देश के जयचंदों ने अक्सर ऐसा किया। खुद भी उन्नत होइए और अपने आदर्शों में भी केवल उन्नत और विचारवान लोगों को ही जगह दीजिये। सम्पूर्ण क्रान्ति की आशा उस व्यक्ति से मत बांधिये जिसे यह भी नहीं पता कि देश का भूखा गरीब शीतलहर के दिन कैसे काटता है या बाढ़ में बांधों का पानी छोड़ने से कितने जान-माल की हानि हर साल होती है। लिखने को बहुत कुछ है, शायद बाद में लिखता भी रहूँ, फिलहाल इतना ही क्योंकि पहले ही इतना कुछ कहा जा चुका है कि किसी व्यक्ति विशेष के लिए कहने को कुछ खास बचता नहीं।
अल्लाह करे मीर का जन्नत में मकाँ हो
मरहूम ने हर बात हमारी ही बयाँ की (~इब्ने इंशा)
यहाँ लिखी किसी भी बात का उद्देश्य आपका दिल दुखाना नहीं है। यदि भूलवश ऐसा हुआ भी हो तो मुझे अवगत अवश्य कराएँ और भूल-सुधार का अवसर दें। नव वर्ष हम सबके लिए नई आशा किरण लेकर आए ...

* संबन्धित कड़ियाँ *
बलात्कार के विरुद्ध त्वरित न्यायपीठों हेतु गिरिजेश राव की जनहित याचिका
लड़कियों को कराते और लड़कों को तमीज
खूब लड़ी मर्दानी...
नव वर्ष का संकल्प

Tuesday, December 25, 2012

दुखी मन से

कवि नहीं हूँ पर आहत तो हूँ। यूं ही कुछ बिखरे से विचार
(अनुराग शर्मा
लिखा परदेस क़िस्मत में वतन को याद क्या करना
जहाँ बेदर्द हो हाकिम वहाँ फ़रियाद क्या करना
(~ अज्ञात)
(चित्र आभार: काजल कुमार)
गाँव छोड़कर क्यों जाते हैं
शहर की हैवानियत झेलने
हँसा मेरे गाँव का साहूकार
खेत हथियाने के बाद

अपनी इज्ज़त अपने हाथ
हमें तो कुछ नहीं हुआ
कपड़े उघड़े रहे होंगे बोले
मुर्दा खाल उघाड़ते क़स्साब

नज़र नीची रखो, पाँव की जूती
हया, नकाब, बुर्का और हिजाब
थोपकर ही खैरख्वाह बनते हैं
चेहरों पर तेज़ाब फेंकने वाले

घर से निकली ही क्यों
कहता है सौदागर हवस का
भारी छूट पर खरीदते हुए
एक नाबालिग को

दुर्योधन और रावण महान
विदेशी प्रथा है नारी अपमान
भाषण देता देसी पव्वा
सुन रहा है तंबाकू का पान

तुम्हें कर मिले तो कर लो
हमें तो देखना है, देख रहे हैं
देखते रहेंगे, कुछ न करेंगे
खाने कमाने आए थे, खाने दो

बसों में क्यों चढ़ते हैं लोग
मासूमियत से पूछते हैं
ज़ैड सिक्योरिटी पर इतराते
बुलेटप्रूफ शीशों के धृतराष्ट्र

अपनी हिफाज़त खुद करें
यही लिखा था उस बस में
जो अव्यवस्था के जंगल में
चलती है हफ्ते के ईंधन से

मानवता की गली लाशों के बीच
अट्टहास कर रहे हैं कुछ लोग
डॉक्टर ने मोटी रकम लेकर
जन्म से पहले ही कर दिया काम
सारे देश की शुभकामनाओं के बाद भी शनिवार 29 दिसंबर प्रातः हमने उसे खो दिया
सोया देश जागा है। आप भी न्यायमूर्ति जे एस वर्मा समिति को यौन-अपराध में त्वरित न्याय के लिए अपने सुझाव निम्न पते पर भेज सकते हैं:
फैक्स: 011 2309 2675
ईमेल: justice.verma@nic.in

Monday, December 10, 2012

बेशक मंदिर मस्जिद तोड़ो

अनुराग शर्मा

पाकिस्तान में अल्पसंख्यक वर्ग के लोगों, विशेषकर सिख और हिंदुओं के प्रति हिंसा और अत्याचार के मामले नए नहीं हैं। लेकिन इस साल तो जैसे इन मामलों की संख्या में बाढ़ सी आ गई है। कराची के हिंदुओं द्वारा अदालत से स्थगनादेश ले आने के बावजूद वहाँ के सोल्जर बाज़ार स्थित एक सौ वर्ष से अधिक पुराना राम पीर मंदिर और उसके परिसर में रहने वाले हिंदुओं के घर एक बिल्डर द्वारा दिन दहाड़े भारी पुलिस की उपस्थिति में गिरा दिये गये है जिसे लेकर वहां का हिंदू समुदाय दुखी है। स्थानीय हिंदुओं ने सरकार से कहा है कि यदि वह उनकी, उनके घरों तथा धार्मिक स्थलों की हिफाजत नहीं कर सकती है, तो वह उन्हें सुरक्षित भारत भिजवाने की व्यवस्था करे। अपने गैर-मुस्लिम नागरिकों के दमन के लिए बदनाम पाकिस्तान के इस कृत्य से वहां अल्पसंख्यकों के अधिकारों पर एक बार फिर प्रश्न चिह्न लगा है। मंदिर परिसर में रहने वाले लगभग 40 हिन्दू बेघर हो गए हैं और सर्दी की रातें अपने बच्चों के साथ खुले में आसमान के नीचे बिताने को मजबूर हैं। उनका आरोप है कि पुलिस मंदिर में रखी अनेक मूर्तियां तथा उन पर चढ़ाए गए सोने के आभूषण भी उठाकर ले गई।

अपने अस्तित्व में आने के साथ ही पाकिस्तान में मंदिर नष्ट करने के सुनियोजित प्रयास चलते रहे हैं। कराची में ही पिछले दिनों इवेकुई बोर्ड ने एक मंदिर को एक ऑटो वर्कशॉप चलाने के लिए लीज पर दे दिया था। पाकिस्तान हिंदू कांउसिल (PHC) ने इस बारे में पाकिस्तान के राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री को पत्र भी लिखे थे और कोई कार्यवाही न होने पर मन मसोस कर रह गए थे।

कराची के बाहरी इलाके में स्थित श्री कृष्ण राम मंदिर पर इस एक साल में ही दो बार हमला हुआ है। चेहरा छिपाने की कोई ज़रूरत न समझते हुए इन हमलावरों ने नकाब भी नहीं पहन रखा था। उन्होंने हवा में पिस्तौल लहराई, हिन्दुओं के खिलाफ नारे लगाए और प्रतिमाओं से छेड़छाड़ की। मंदिर में उपस्थित किशोर ने बताया कि पाकिस्तानी मुसलमान उन्हें अपने समान नागरिक नहीं समझते हैं और जब चाहे उन्हें मारते-पीटते हैं और मंदिरों पर हमले करते रहते हैं।

वैसे तो मंदिरों पर हमला करने के लिए पाकिस्तान में किसी बहाने की ज़रूरत नहीं पड़ती, लेकिन जब बहाना मिल जाये तो ऐसी घटनाएँ और भी आसानी से घटती हैं। शरारती तत्वों द्वारा यूट्यूब पर डाली गयी बेहूदा वीडियो क्लिप 'इंनोसेंस ऑफ मुस्लिम्स' के खिलाफ 21 सितंबर को पाकिस्तान भर में हुए विरोध प्रदर्शन ने पाकिस्तान के कई बड़े शहरों में हिंसक रूप ले लिया था जिनमें 19 अल्पसंख्यक मारे गए थे और जमकर तोड़फोड़ हुई थी। उसी दिन कराची के गुशलन-ए-मामार मुहल्ले के 25-30 हिन्दू परिवारों के एक मंदिर में रखी देवी-देवताओं की मूर्तियों को हबीउर्रहमान नाम के एक मौलवी के नेतृत्व में आयी एक भीड़ ने क्षतिग्रस्त किया। डर के कारण हिंदू परिवार इस मामले की रिपोर्ट तक दर्ज नहीं कराना चाहते थे।

छोटे शहरों या कम प्रसिद्ध मंदिरों की तो कोई खबर पाकिस्तान से बाहर पहुँचती ही नहीं है। इस साल के आरंभ में पाकिस्तान के बलूचिस्तान प्रांत में स्थित प्रसिद्ध हिंगलाज माता मंदिर की सालाना तीर्थयात्रा शुरू होने से महज दो दिन पहले वहाँ की प्रबंध समिति के अध्यक्ष महाराज गंगा राम मोतियानी का पुलिस की वर्दी में आए लोगों ने अपहरण कर लिया था।

अल्लाहो-अकबर के नारे लगाती एक भीड़ ने मई 2012 में पेशावर में गोर गाथरी इलाके के एक पुरातात्विक परिसर के बीच में स्थित 200 साल पुराने गोरखनाथ मंदिर को क्षतिग्रस्त कर दिया था। हमलावरों ने मंदिर में रखे धर्म ग्रन्थों और चित्रों में आग लगाई, शिवलिंग को खंडित कर दिया और मूर्तियां अपने साथ ले गये। मंदिर के संरक्षक ने बताया कि दो महीने में मंदिर पर यह तीसरा हमला था।

सिंध प्रांत के उमरकोट स्थित 3 एकड़ में फैले आखारो मंदिर की चारदीवारी के पास करीब 50 दुकानें हैं। फरवरी 2012 में वहाँ के एक व्यापारी जुल्फिकार पंजाबी और उसके भाई हाफिज पंजाबी ने अपनी किराए की दुकान बढ़ाने के लिए बिना मंदिर प्रशासन की इजाजत लिए निर्माण कार्य शुरू कर दिया और मंदिर समिति की आपत्ति पर गोलीबारी कर दी जिसमें दो हिन्दू बुरी तरह घायल हो गए थे।

मंदिर ही नहीं हिन्दुओं की शमशान भूमि पर भी पाकिस्तान के भू-माफियाओं की नज़र है। मुसलमानों की शह और सरकार की फिरकापरस्ती के चलते न जाने कितने हिंदुओं को मरने के बाद अग्नि संस्कार भी नसीब नहीं हो पाता है। पाकिस्तान से भागकर आए शरणार्थी अपने साथ न जाने कितनी दर्दनाक कहानियाँ लाये हैं। बीस वर्षीय रुखसाना ने कहा कि पाकिस्तान में कट्टरपंथियों के चलते हिन्दुओं को अपनी पहचान छिपानी पड़ती है और बहुत से लोग इसके लिए वहां मुसलमानों जैसे नाम रख लेते हैं। कभी पाकिस्तान के बलूचिस्तान में एक मंदिर के पुजारी रहे रामश्रवण ने कहा कि उनके यहां तालिबान जैसे धर्मांध संगठनों के डर का आलम यह था कि वह मंदिर जाते समय या घर लौटते समय मुसलमानी टोपी लगाकर चलते थे। 13 वर्षीय लक्ष्मी ने कहा कि उसे भारत में पहली बार एक स्कूल में दाखिला मिला है, जबकि पाकिस्तान में वह कभी स्कूल का मुँह नहीं देख सकी थी। वहां हिन्दू-सिख घरों में घुस कर धर्म परिवर्तन को लेकर मार-पीट करते हुए महिलाओं से बदसलूकी करना सामान्य है। सिन्धी समिति के समक्ष एक व्यक्ति ने बताया कि उन्हें बार-बार अपमानित किया जाता है और जबरदस्ती मांस खिलाया जाता है। 45 वर्षीय शांति देवी ने कहा कि वह कभी पाकिस्तान नहीं लौटेंगी और भारत में ही मरना पसंद करेंगी क्योंकि पाकिस्तान में हिन्दुओं को हिन्दू रीति रिवाज से अंतिम संस्कार तक नहीं करने दिया जाता है। डेरा इस्माइल खान में 1947 से अब तक एक मात्र हिंदू पंडित खडगे लाल के शव को ही हिंदू रीतिरिवाजों के तहत अंतिम संस्कार करने की अनुमति दी गई है। डेरा इस्माइल खान में पहले मेडियन कॉलोनी और टाउन हॉल में एक-एक श्मशान घाट था जिनकी नीलामी हो चुकी हैं।

मंदिरों पर हमलों के अलावा पाकिस्तान में हिंदुओं को लगातार ही महिलाओं के अपहरण और जबरन धर्मांतरण का सामना करना पड़ता है। मुसलमानों के निगरानी गुट अल्पसंख्यक हिंदुओं पर दबाव बनाते रहते हैं। सिंध प्रांत में मीरपुर माथेलो से गायब हुई 17 वर्षीय हिंदू लड़की रिंकल कुमारी बाद में एक स्थानीय दरगाह के एक प्रभावशाली मुस्लिम मिट्ठू मियां के परिवार की देख-रेख में मिली थी और उसका धर्म परिवर्तन कराकर एक स्थानीय मुसलमान युवक से उसकी शादी करा दी गई थी। एक तरफ खुशी मनाने और शक्ति प्रदर्शन के लिए दरगाह के हथियारबंद ज़ायरीन हवा में गोलियां चला रहे थे वहीं दूसरी तरफ सामाजिक कार्यकर्ता मिट्ठू मियां पर हिन्दू लड़कियों के संगठित अपहरण और विक्रय के आरोप लगा रहे थे।

26 मार्च 2012 को रिंकल कुमारी ने पाकिस्तान के मुख्य न्यायाधीश इफित्खार मुहम्मद चौधरी को बताया कि नवीद शाह ने उसका अपहरण किया था और अब उसे अपनी माँ के घर जाने दिया जाए। रिंकल के इस साहस के बदले में उसके दादा को गोली मार दी गई और अगली पेशी में उसकी अनुपस्थिति में अदालत को उसका एक वीडियो दिखाया गया जिसके आधार पर उसके अपहरण और धर्मपरिवर्तन को स्वेच्छा बताकर अपहरण, बलात्कार और जबरिया धर्म परिवर्तन के आरोप निरस्त कर दिये गए।

अमेरिकी विदेश विभाग की ताज़ा रिपोर्ट में गहरी चिंता जताते हुए कहा गया है कि पाकिस्तान में हिंदुओं को अपहरण और जबरन धर्म-परिवर्तन का डर लगा रहता है। पाकिस्तान मानवाधिकार परिषद के अनुसार वहाँ हर महीने 20-25 हिंदू लड़कियां अपहृत कर ली जाती हैं और उन्हें जबरन इस्लाम स्वीकार करने के लिए कहा जाता है। हिन्दू होने भर से किसी को ईशनिन्दा कानून में फंसाकर मृत्युदंड दिलाना या दिन दहाड़े मारना आसान हो जाता है। नवंबर 2011 में चार हिंदू डॉक्टरों की सिंध प्रांत के शिकारपुर जिले में सरेआम गोली मारकर हत्या कर दी गई थी।

असहिष्णुता के इस जंगल में जहां तहां एकाध आशा की किरण भी नज़र आ जाती है। मारवी सिरमेद जैसी समाज सेविका जहां अल्पसंख्यकों पर हो रहे अपराधों के विरुद्ध मीडिया और अदालत में अडिग खड़ी दिखती हैं वहीं वकील जावेद इकबाल जाफरी पाकिस्तान सरकार को अल्पसंख्यक समुदाय के अधिकारों एवं संपत्ति की रक्षा करने के संवैधानिक कर्तव्य की याद दिलाते हुए पाकिस्तान के मंदिरों को अवैध कब्जों से मुक्त कराने और उनके पुनर्निर्माण की मांग करते हैं। पाकिस्तानी अखबार डॉन ने अपने संपादकीय में सरकार से मांग की है कि राम पीर मंदिर गिराने के लिए हिंदू समुदाय से माफी मांगने की जरूरत है।

[आभार: चित्र व सूचनाएँ विभिन्न समाचार स्रोतों से]

Friday, December 7, 2012

कितना पैसा कितना काम - आलेख

 (अनुराग शर्मा)

वेतन निर्धारण एक जटिल प्रक्रिया है। भारत में एक सरकारी बैंक की नौकरी के समय उच्चाधिकारियों द्वारा जो एक बात बारम्बार याद दिलाई जाती थी, वह यह थी कि हम 24 घंटे के कर्मचारी थे। यह सर्वज्ञात था कि हमारा वेतन हमारे उस अतिरिक्त समय के हिसाब से तय नहीं किया जाता था। मेरे कितने ही अधीनस्थ मुझसे अधिक वेतन भत्ते पाते थे। कम्युनिस्ट देशों में तो वेतन कर्मचारी के काम, अनुभव या शिक्षा आदि पर आधारित न होकर सरकार द्वारा आँकी गई उनकी व्यक्तिगत आवश्यकताओं के आधार पर निर्धारित होता था।

आज समय बदल चुका है। कम्युनिस्ट तंत्र तो अपनी विद्रूपताओं के चलते दुनिया भर से लगभग साफ़ ही हो चुके हैं। नये संचार माध्यम और व्यापक जागरूकता के कारण सैन्य और धार्मिक तानाशाहियाँ भी समाप्ति के कगार पर ही हैं। लोकतंत्र का दायरा बढता जा रहा है। और इसके साथ ही बढ रही है व्यक्तिगत सम्पत्ति, और व्यवसाय चुनने की स्वतंत्रता। भारत, जापान, जर्मनी और अमेरिका जैसे लोकतंत्रीय राष्ट्रों में सिद्धांततः प्रत्येक व्यक्ति को अपनी मर्ज़ी का काम करने की पूरी स्वतंत्रता है। और उसी तरह कम्पनियों को भी आवश्यकतानुसार सुशिक्षित, कुशल और पद के लिये सटीक व्यक्ति चुनने और उन्हें भरपूर वेतन-भत्ते देने का अधिकार है।

श्रम है तो उसके मूल्य की बात उठना स्वाभाविक ही है। विभिन्न कर्मचारियों के कार्य की परिस्थितियाँ एक दूसरे से अलग होती हैं, और उसी प्रकार उनके वेतन की संरचना भी अलग होती है। कुछ दशक पहले के भारत में व्यक्ति एक बार एक नौकरी में घुसता था तो रिटायर होकर ही निकलता था लेकिन अब हालात दूसरे हैं। सूचना-संचार क्रांति और अंतर्राष्ट्रीय निगमों के आने के बाद से नौकरी के क्षेत्र में गलाकाट प्रतिस्पर्धा चल रही है। कर्मचारियों को ऊँची तनख्वाह देना नियोक्ताओं का नैतिक कर्तव्य ही नहीं उनकी मजबूरी भी बन गया है। “पैकेज” आज के युवा का मूलमंत्र सा है।

विज्ञान की प्रगति के साथ संसार भी सिकुड़ सा गया है। एक-दूसरे देश में आना जाना पहले से कहीं आसान हुआ है। इसके साथ ही अपने घर बैठे-बैठे दूर देश के नियोक्ता के लिये काम कर पाना भी सम्भव है। नियोक्ता और कर्मचारी के देशों के बीच की प्रति-व्यक्ति आय में अंतर होना भी स्वाभाविक है। अमेरिका में रहकर काम करते हुए भारत से अधिक वेतन पाना सामान्य बात है क्योंकि वहाँ का जीवन स्तर और जीवन यापन की लागत दोनों ही अलग हैं। कार्य-संस्कृति भी अलग है लेकिन उस पर बात फिर कभी होगी। भारत में रहते हुए किसी विदेशी संस्थान में काम करना एक अलग ही अनुभव है क्योंकि तब आप भारतीय परिवेश में रहते हुए भी अमेरिकी जीवन-स्तर के निकट होते हैं। इन विदेशी संस्थानों के सामने अपने मानव संसाधनों को न केवल बनाये रखने की चुनौती है बल्कि उसी संस्थान में रहते हुए उनको आगे बढने की प्रेरणा देने का ज़िम्मा भी है। ये संस्थान एक बड़ी चुनौती का सामना कर रहे हैं। बिल्कुल भिन्न वातावरण से आये, बल्कि कई बार दूर देश में ही रहते हुए काम कर रहे कर्मियों को अपनी कार्य संस्कृति से परिचित कराना, उन्हें एक अपरिचित नियमितता में ढालना आसान काम नहीं है। नैतिक, सामाजिक भेदों के अलावा बहुत से वैधानिक अंतर भी हैं जिन्हें समझने के लिये कर्मचारी चयन प्रक्रिया का एक उदाहरण काफ़ी है। भारत से आने वाले बहुत से आवेदनों में आवेदक के शिक्षा-वृत्त में जन्मतिथि, डिग्री पाने की तारीखें और माता-पिता के नाम आदि सामान्य सी बातें है जबकि अमेरिका में किसी आवेदक के जीवनवृत्त में सामान्यतः ऐसा कुछ नहीं होता जिससे उसकी आयु, सामाजिक स्थिति आदि का पता लग सके। बस काम से काम रखना शायद इसी को कहते हैं। भेदभाव से बचने के लिये, साक्षात्कार के जटिल नियमों के अनुसार किसी आवेदक के राष्ट्रीय मूल, आयु आदि के बारे में पूछना ग़ैर-क़ानूनी बनाया गया है। खासकर अमेरिका में पनपी बहुविध संस्कृति ने अपने द्वार दुनिया भर के योग्य कर्मचारियों के खोल रखे हैं।

बुद्धि-श्रम सम्मान के इस भौगोलिक परिदृश्य में आज के इस समय में भारत की स्थिति विशिष्ट है। भारतीय संस्कृति ने अनेक धार्मिक, ऐतिहासिक कारणों से शिक्षा को सदैव ही मूर्धन्य स्थान दिया है। भले ही आज़ादी के दशकों बाद भी देश का निर्धन वर्ग मूलभूत साक्षरता से वंचित हो, भले ही खेलों में हमारी दशा अति-शोचनीय हो, हमारे शिक्षण संस्थानों से आज भी किसी अन्य देश से अधिक चिकित्सक, अभियंता और अनुसन्धानकर्ता निकलते हैं। सूचना क्रांति के आरम्भिक दिनों की बात है जब बैंगळूरु जैसे नगरों में सूचना प्रौद्योगिकी में काम कर रहे कर्मचारी भोजनावकाश के समय भर्ती करनेवालों के दलों द्वारा घेर लिये जाते थे। समय के साथ तरीके बदले हैं लेकिन आधुनिक तकनीक की बढती मांग को न कोई मन्दी, और न कोई युद्ध ही मिटा सका है।

किसी भारतीय को बहुराष्ट्रीय संस्थान द्वारा उच्च पद या अद्वितीय रूप से बड़ा वेतन दिया जाना अक्सर अखबारों की सुर्खी बनता है। पिछले दिनों फ़ेसबुक ने भोपाल के मौलाना आजाद नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी (मैनिट) में कैंपस प्लेसमेंट के लिए छात्रों के वृत्तांत मांगे थे जिनमें से चुने गये छात्रों को अस्सी लाख रुपये से लेकर सवा करोड़ तक का वेतन दिये जाने की सम्भावना है। यह वेतन अब तक के सबसे बड़े प्रस्तावों में से एक है। ऐसी खबर पढकर जहाँ प्रसन्नता होती है वहीं कई प्रश्न भी उठते हैं, यथा: ऐसा कौन सा काम है कि जिसके लिये इतना बड़ा पैकेज प्रदान किया जाता है? आखिर बड़े वेतन तय कैसे होते हैं? बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के कामकाज और उनके प्रतिभा खोज अभियान कैसे काम करते हैं? आदि। सरकारी क्षेत्रों के वेतन अक्सर किसी व्यापक अध्ययन या किसी आयोग की सिफ़ारिशों पर आधारित होते हैं। कुछ क्षेत्रों में आज भी मज़दूर संघ हैं जो प्रबन्धन से बातचीत करके एक नियमित अंतराल के लिये वेतन करार करते हैं। कम कर्मचारी, विशिष्ट तकनीक, नवोन्मेषी उत्पाद, और विश्वव्यापी व्यवसाय वाले संस्थान अक्सर अपने वेतन तय करने के लिये पद की अर्हतायें, योग्यता की सुलभता, जन-संसाधन के बारे में उपलब्ध जानकारी व तकनीक आदि के साथ साथ नवागंतुक की व्यक्तिगत विशेषताओं को भी ध्यान में रखते हैं। अधिकांश कार्यस्थलों की संरचना इस प्रकार की होती है कि शारीरिक विकलांगता, लिंगभेद आदि के कारण किसी कर्मचारी के साथ जाने-अनजाने भेदभाव न हो।

बहुत से पदों के वेतनमान कार्य की विशेषता और नियोक्ता की भौगोलिक स्थिति से रूढ होते हैं लेकिन तब भी सक्षम कम्पनियाँ अपनी पहल बनाये रखने के लिये अधिक वेतन व सुविधायें देकर बेहतर कर्मचारी पाने को लालायित रहती हैं। लेकिन कई बार ऐसा भी होता है कि पद और वेतन का कार्य निष्पादन से कोई खास संतुलन नहीं बन पाता। कितनी ही बार बड़ी कम्पनियाँ किसी बड़े सौदे की आशा में कर्मचारियों की फ़ौज खड़ी कर लेती हैं ताकि काम मिलने की स्थिति में उसे कुशलता से निबटाया जा सके। काम आया तो ठीक वर्ना ऐसे कर्मचारियों को स्थानांतरण या बर्खास्तगी का सामना भी करना पड़ता है।

रोज़गार के क्षेत्र में नित नई जानकारी का प्रयोग भी धड़ल्ले से हो रहा है। कर्मचारियों का मनोबल ऊँचा कैसे रहे? उनकी अभिप्रेरणा क्या हो? ऐसा क्या किया जाये कि काम से उन्हें उदासी नहीं, प्रसन्नता मिले। भारत में केनरा बैंक में नौकरी के समय से मुझे मनन-कक्ष (मेडिटेशन रूम) का विचार याद है। अमेरिका की अधिकांश कम्पनियाँ अपने कर्मचारियों को मूलभूत से अधिक सुविधायें देने का प्रयास करती हैं। फ़्लेक्सि-ऑवर्स यानि कर्मचारी की सुविधानुसार कार्य-समय का निर्धारण, स्वास्थ्य सुविधा, जीवन बीमा, आवागमन, पार्किंग स्थल आदि से कहीं आगे बढकर कर्मचारियों को उच्च या विशिष्ट शिक्षा की सुविधायें देना, घर से काम करने का सुरक्षित वातावरण प्रदान करना, दूसरे नगर, देश आदि से आने पर आने-जाने, सामान पहुँचाने से लेकर पुराना घर बेचने और नया घर लेने आदि जैसे कार्य भी कई बार नये नियोजक द्वारा निष्पादित किये जाते हैं। भारत से आये कर्मचारियों के लिये विधिक प्रायोजन और ग्रीन कार्ड आदि से सम्बन्धित खर्च करना भी एक आम बात है।

यदि कम्पनी किसी पद के लिये अनुभव के साथ-साथ प्रबन्धन की शिक्षा की आवश्यकता महसूस करती है तो उसके सामने कई विकल्प दिखते हैं। किसी अनुभवी कर्मचारी को शिक्षित करना या पहले से शिक्षित अनुभवी कर्मचारी को लेना। क्या किया जायेगा यह अनेक बातों पर निर्भर करता है, जैसे आवश्यकता की योजना कितने पहले बनाई जा चुकी है, अनुभवी एमबीए कितने सुलभ हैं और बाहर से उन्हें बुलाने में क्या-क्या अड़चनें हैं। कुल मिलाकर आज के बहुराष्ट्रीय संस्थानों का का मूलमंत्र है, सर्वश्रेष्ठ कर्मचारी पाना जो संख्या में भले ही कम हों मगर काम में किसी से भी कम न हों और इस काम के लिये धन कोई बाधा नहीं है।
प्रस्तुत आलेख गर्भनाल पत्रिका के नवंबर 2012 अंक में प्रकाशित हुआ था जिसकी प्रति यहां उपलब्ध है

Sunday, December 2, 2012

यारी है ईमान - कहानी

ज़माना गुज़र गया भारत गए हुए, फिर भी उनका मन वहाँ की गलियों से बाहर आ ही नहीं पाता। जब भी जाते हैं, दिल किसी गुम हुई सी जगह को फिर-फिर ढूँढता है। कितनी ही बार अपने को शिरवळ के बस अड्डे पर अकेले बैठे हुए देखते हैं। कभी मुल्ला जी के रिक्शे पर शांति निकेतन जाता हुआ महसूस करते हैं तो कभी बाँस की झोंपड़ी में कविराज के मणिपुरी संगीत की स्वर लहरियाँ सुनते हुये। रामपुर के शरीफे का दैवी स्वाद हो या लखनऊ के आम की मिठास, बरेली में साइकिल से गिरकर घुटने छील लेना भी याद है और बदायूँ की रामलीला के संवाद भी। नन्दन से धर्मयुग और चंदामामा से न्यूज़वीक तक के सफर के बाद आज भी बालसभा की पहेलियाँ, इंद्रजाल कोमिक्स की रोमांचकारी दुनिया और दीवाना के गूढ कार्टून मनोरंजन करते से लगते हैं। स्कूल कॉलेज की यादों के साथ ही लखनऊ, दिल्ली और चेन्नई में शुरू की गई पहली तीन नौकरियों का उत्साह भी अब तक वैसा ही बना हुआ है।

पूना हो या पनवेल, कुछ यादें हल्की हैं और कुछ गहरी। लेकिन जो एक शहर अब भी उनके सपनों में लगभग रोज़ ही आता है वह है जम्मू! कितनी ही यादें जुड़ी हैं उस रहस्यमयी दुनिया से जो तब बन ही रही थी। जंगली फूलों की नशीली गंध से सराबोर पथरीली चट्टानों को काटकर बहती तवी नदी, और रणबीर नहर में तैरने जाना हो या पुराने पहाड़ी नगर के इर्दगिर्द बन रहे उपनगरीय क्षेत्रों में तलहटी में जाकर स्वादिष्ट लाल गरने चुनकर लाना। सुबह शाम स्कूल आते जाते समय आकाश को झुककर धरती छूते देखने का अनूठा अनुभव हो या जगमगाते जुगनुओं को देखकर आश्चर्यचकित होने की बारी हो, जम्मू की यादें छूटती ही नहीं।

भाषाई आधार पर राज्यों के निर्माण के बारे में बहुत बहसें हो चुकी हैं। लेकिन देशभर में रहने के बाद वे अब इस बात को गहराई से मानते हैं कि अलग इकाई बनाने की बात हो या अलग पहचान की, मानव-मात्र के लिए भाषा से बड़ी पहचान शायद मजहब की ही हो सकती है दूसरी कोई नहीं। भाषाएँ तोड़ती भी हैं और जोड़ती भी हैं। वे हमारी पहचान भी हैं और संवाद का साधन भी। वे जहाँ भी रहे, भाषा की समस्या रही तो लेकिन मामूली सी ही। अधिकांश जगहों पर लोगों को टूटी-फूटी ही सही, हिन्दी आती ही थी, कभी-कभी अङ्ग्रेज़ी भी। जम्मू में यह कठिनाई और भी आसान हो गई थी, लवलीन और रमणीक जैसे सहपाठी जो थे। हमेशा मुस्कराने वाली लवलीन जब किसी को उनकी भाषा या बोलने के अंदाज़ पर टिप्पणी करते देखती तो उसकी भृकुटियाँ तन जातीं और बस्स ... समझो किसी की शामत आयी। लंबा चौड़ा रमणीक उतना दबंग नहीं था। उससे दोस्ती का कारण था, हिन्दी पर उसकी पकड़। पूरी कक्षा में वही एक था जो उनकी बात न केवल पूर्णतः समझता था बल्कि लगभग उन्हीं की भाषा में संवाद भी कर सकता था।

पाठशाला जाने के लिए राजमहल परिसर से होकर निकलना पड़ता था। शाम को बस आने तक साथ के बच्चों के साथ अंकल जी की दुकान पर इंतज़ार। उसी बीच मे कई बार ऐसा भी हुआ जब रमणीक के साथ रघुनाथ मंदिर स्थित उसके घर भी जाना हुआ। वे लोग पक्के हिन्दूवादी साहित्यकार थे। शाखा के बारे मे पहली बार वहीं जाना और जनसंघ के बारे मे भी वहीं सुना। गोष्ठी से लेकर बाल भारती तक के शब्द पहली बार रमणीक के मुँह से ही पता लगे। खासकर अपना नाम बताते हुए जब वह सलीके से रमणीक गुप्त कहता था तो रमनीक गुप्ता पुकारने वाले सभी डोगरे बच्चे शर्मा जाते थे। लवलीन की बात और थी, वह उसे सदा ओए रमनीके कहकर ही बुलाती थी।

वे अक्सर सोचते थे कि उनके बचपन के साथी वे सब लोग अब न जाने कहाँ होंगे। उनकी यादें चेहरे पर मुस्कान लाती थीं। मन में सदा यही रहा कि किसी न किसी दिन जम्मू जाना ज़रूर होगा। तब ढूंढ लेंगे अपने नन्हे दोस्तों को। लवलीन का पूरा नाम, घर, ठिकाना कुछ भी नहीं मालूम, इसलिए कभी उसकी खोज नहीं की लेकिन रमणीक गुप्त से मुलाकात की उम्मीद कभी नहीं छूटी।

उस दिन तो मानो लॉटरी ही खुल गई जब रमणीक के छोटे भाई वीरभद्र का नाम इंटरनेट पर नज़र आया। पता लगा कि वह गुड़गांव की एक अंतर्राष्ट्रीय कंपनी में मुख्य सूचना अधिकारी है। फोन नंबर की खोज शुरू हुई। वीरभद्र गुप्त ने बड़े सलीके से बात की और नाम लेने भर की देर थी कि उन्हें पहचान भी लिया। पता लगा कि रमणीक भी ज़्यादा दूर नहीं है। वह राष्ट्रीय अभिलेखागार में एक महत्वपूर्ण पद पर लगा हुआ था। वीरभद्र से नंबर मिलते ही उन्होने रमणीक को कॉल किया।

हॅलो के जवाब में एक देहाती से स्वर ने जब उनका नाम, पता, वल्दियत आदि पूछना शुरू किया तो उन्होंने उतावली से अपना संबंध बताते हुए रमणीक को बुलाने को कहा। "मैं र-म-नी-क ही हूंजी!" अगले ने हर अक्षर चबाते हुए कहा, "... लेकिन मैंने आपको पहचाना नहीं।"

नगर, कक्षा, शाला आदि की जानकारी देने में थोड़ा समय ज़रूर लगा, फिर रमणीक को उनकी पहचान हो आई। कुछ देर तक बात करने के बाद उधर से सवाल आया, "लेकन आज हमारी याद कैसे आ गई, इतने दिन के बाद?"

"याद तो हमेशा ही थी, लेकिन संपर्क का कोई साधन ही नहीं था।"

"फिर भी, कोई वजह तो होगी ही ..." रमणीक ने रूखेपन से कहा, "बिगैर मतलब तो कोई किसी को याद नहीं करता!"

[समाप्त]