Wednesday, August 6, 2008

आपके मुँह में घी-शक्कर

पुष्पे गन्धं तिले तैलं काष्ठेऽग्निं पयसि घृतम्।
इक्षौ गुडं तथा देहे पश्यात्मानं विवेकतः।।
भारत की ख्याति तो आज भी कम नहीं है मगर पश्चिमी सभ्यता के उत्थान से पहले की बात ही कुछ और थी। सारी दुनिया से छात्र और विद्वान् भारत आते थे ताकि कुछ नया सीखने को मिले। नालंदा और तक्षशिला जैसे विश्वविद्यालयों की ख्याति दूर-दूर तक थी। ऐसा नहीं कि विदेशी यहाँ सिर्फ़ शिक्षा की खोज में ही आते थे। हमलावर यहाँ सोने और हीरे के लालच में आते थे। ज्ञातव्य है कि दक्षिण अफ्रीका व ब्राजील में हीरे मिलने से पहले हीरे सिर्फ़ भारत में ही ज्ञात थे और अठारहवीं शती तक शेष विश्व को हीरे के उद्गम के बारे में ठीक-ठीक ज्ञान नहीं था। व्यापारी आते थे मसालों और धन के लिए और धर्मांध जुनूनी हमलावरों के आने का उद्देश्य धन के अलावा हमारी कला एवं संस्कृति का नाश भी था।

बहुत से लेखक भी भारत में आए। कुछ हमलावरों के साथ आए तो कुछ अपनी ज्ञान पिपासा को शांत करने के लिए और कुछ अन्य भारतीय संस्कृति एवं धर्म का ज्ञान पाने के लिए। ग्रीक विद्वान् मेगास्थनीज़ भी एक ऐसा ही लेखक था। उसकी पुस्तक "इंडिका" में उस समय के रहस्यमय भारत का वर्णन है। बहुत सी बातें तो साफ़ ही कल्पना और अतिशयोक्ति लगती हैं मगर बहुत सी बातों से पता लगता है कि उस समय का भारत अन्य समकालीन सभ्यताओं से कहीं आगे था।

मेगास्थनीज़ ने लिखा है कि भारतीय लोग मधुमक्खियों के बिना ही डंडों पर शहद उगाते हैं। स्पष्ट है कि यहाँ पर लेखक गन्ने की बात कर रहा है। चूंकि उसके उन्नत देश को मीठे के लिए शहद से बेहतर किसी पदार्थ का ज्ञान नहीं था, शक्कर को शहद समझने में कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए। कहते हैं कि यह शक्कर सिकंदर के सैनिकों के साथ ही भारत से बाहर गयी।

हिन्दी/फारसी/उर्दू का शक्कर बना है संस्कृत के मूल शब्द शर्करा से। मराठी का साखर और अन्य भारतीय भाषाओं के मिलते-जुलते शब्दों का मूल भी समान ही है। इरान से आगे पहुँचकर हमारी मिठास अरब में सुक्कर और यूरोप में सक्कैरम हो गयी। इस प्रकार अंग्रेजी के शब्द शुगर व सैकरीन दोनों ही संस्कृत शर्करा से जन्मे।
हमसे पंगे मत लेना मेरे यार ... मीठे से निबटा देंगे संसार ...
आज जिस शक्कर से सारी दुनिया त्रस्त है, उसकी जड़ में हम भारतीय हैं - हमारी खाण्ड  कब कैंडी बनकर दुनिया भर के बच्चों की पसंद बन गई, पता ही न चला। बनाई हुई शर्करा के टुकडों को खण्ड (टुकड़े - pieces) कहा जाता था जिससे खांड और अन्य सम्बंधित शब्द जैसे खंडसाल आदि बने हैं। फारसी में पहुँचते-पहुँचते खण्ड बदल गया कन्द में और यूरोप तक जाते-जाते यह कैंडी में तब्दील हो गया।
वैसे शर्करा या गन्ने की बात आए तो अपने गिरमिटिया बंधुओं को याद करना भी बनता है जिनकी वजह से साखर संसार को सुलभ हो सकी। हाँ गन्ने के रस के आनंद से वंचित ही रहे विदेशी।
गन्ने के खेत आज भी मॉरिशस की पहचान हैं।
अब एक सवाल: खाण्ड और शक्कर तक तो ठीक है - गुड़, मिश्री और चीनी के बारे में क्या?

सावन

निर्मल शीतल निश्छल पावन
घटा बादल जल और सावन

झरर झरर झर झरता जाता
प्यासी पृथ्वी की प्यास बुझाता

होती सुखमय निर्जल धरती
प्यासे प्राणीजन की पीड़ा हरती

भूरे मटमैले घावों पर
हरियाले मरहम का लेपन

धूल तपन सब दूर हो गई
आया मदमाता सावन।

Saturday, August 2, 2008

बुद्धिमता के साइड अफेक्ट्स

अगर आपके मित्र आपको ताना देते हैं कि जब सारी दुनिया उत्तर की तरफ़ दौड़ रही हो तो आप दक्षिण दिशा में गमन कर रहे होते हैं तो दुखी न हों। मतलब डटे रहें, हटें नहीं। दरअसल आपका यह दुर्गुण आपके अधिक बुद्धिमान होने का साइड अफेक्ट हो सकता है।

बुद्धिमता के ऊपर दुनिया भर में अलग अलग तरह के प्रयोग होते रहे हैं। जब प्रयोग होते हैं तो उनसे तरह तरह के निष्कर्ष भी निकलते हैं। हम उन्हें पसंद करें या न करें इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है। ऐसे ही एक प्रयोग ने दर्शाया कि अधिक बुद्धिमान लोग सामान्य लोगों से १५ वर्ष तक अधिक जीते हैं। इटली के कालाब्रिया विश्वविद्यालय में पाँच सौ लोगों पर हुए इस अनुसंधान के अनुसार ऐसा बुद्धिमानी के लिए जिम्मेदार एक जीन 'एसएसएडीएच (SSADH) के कारण होता है। जिन लोगों में यह जीन अधिक सक्रिय नहीं होता, उनके 85 साल की उम्र के बाद जीने की संभावना कम होती है। जिन लोगों में यह जीन सक्रिय होता है, उनके 100 वर्ष की आयु तक जीने की संभावना रहती है। कुछ समझ आया कि हमारे पूर्वज शतायु क्यों होते थे?

शोधकर्ता रिचर्ड लिन द्वारा ब्रिटेन में हुए एक अध्ययन ने यह निष्कर्ष निकाला कि अधिक बुद्धिमान व्यक्तियों के नास्तिक होने की संभावना आम लोगों से अधिक होती है। लिन का मानना है कि बुद्धिमानी नास्तिकता की ओर ले जाती है। विभिन्न धर्मों और बाबाओं के आधुनिक स्वरुप और आडम्बर को देखकर तो मुझे अक्सर ही यह विचार आता है कि यदि किसी बाबा या पीर के ये भक्त आस्तिक हैं तो आडम्बर से दूर रहने वाले सच्चे भक्त तो शायद आज नास्तिक ही कहलायेंगे।

गोली मारिये इस आस्तिक-नास्तिक की बहस को - अभी एक और रोचक अध्ययन भी हुआ है। तीस वर्षों तक ८००० से अधिक लोगों पर चले एक ब्रिटिश अध्ययन से अधिक बुद्धिमानों के एक और लक्षण का पता चला है। इस अध्ययन से पता लगा कि १० वर्ष की आयु में जिन ब्रिटिश बच्चों का आई क्यू (IQ) सबसे अधिक था वे ३० वर्ष की आयु तक पहुँचने तक शाकाहारी हो गए थे। यह अध्ययन डॉक्टर कैथरीन गेल द्वारा किया गया था और १०-वर्षीय बच्चों का सबसे पहला दल सन १९७० का था जो २००० में तीस वर्षीय थे।

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सम्बन्धित कडियाँ
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* ब्रिटिश मेडिकल जर्नल में विस्तृत रिपोर्ट
* SSAHD Deficiency
* आप कितने बुद्धिमान हैं? (निरामिष)