Tuesday, August 11, 2009

लित्तू भाई - गदा का रहस्य - कहानी - भाग 1

शायद इन लोगों की बुद्धि में ही कोई कमी है। या तो इन्हें घटना की पूरी जानकारी ही नहीं है या फिर यह लित्तू भाई को बदनाम करने की एक गहरी साजिश है। ये लोग जैसा चाहें कहें और जो चाहे यकीन करें। मगर मैं इनकी बातों में क्यों आऊँ? मैं तो लित्तू भाई को बहुत करीब से जानता हूँ। वे ऐसा नहीं कर सकते - कभी भी - किसी भी हालत में। इंसान गलतियों का पुतला है। इस पूरे घटनाक्रम में भी कहीं कोई बड़ी गलती ज़रूर हुई है वरना लित्तू भाई का नाम ऐसे जघन्य अपराध से नहीं जुड़ सकता था।

अपने घर से बाहर जितने भी लोगों को मैं जानता हूँ, उन सबमें, लित्तू भाई सबसे भले और सच्चे इंसान हैं। उम्र में मुझसे दो-एक साल बड़े हैं मगर लगते कहीं उम्रदराज़ हैं। अपने कपड़े-लत्ते और दिखावे के प्रति बिल्कुल बेपरवाह लित्तू भाई का नफासत से दूर-दूर तक कोई लेना-देना नहीं है। उन्होंने कभी किसी इंसान की औकात उसके कपडों से नहीं लगाई। इसके उलट वे "सादा जीवन उच्च विचार" के सच्चे अनुयायी हैं।

लित्तू भाई से मेरी पहली मुलाक़ात दद्दू के घर पर हुई थी। दद्दू मेरे चचाजात भाई की ससुराल वालों के दूर के रिश्तेदार हैं। रिश्ता तो वैसे काफी दूर का है मगर अमेरिका में वे मेरे अकेले रिश्तेदार हैं इसलिए किसी अपने सगे से भी बढ़कर हैं। दद्दू का मिजाज़ थोडा फ़ल्सफ़ाना सा है। लित्तू भाई का भी ज़मीनी हकीकत में कोई ख़ास भरोसा नहीं है। आर्श्चय नहीं कि इन दोनों की खूब छनती है।

शुरू में तो अपनी छितरी मूँछें, बिखरे बाल और बेतुके कपडों की वजह से लित्तू भाई ने मुझे विकर्षित ही किया था मगर जब धीरे-धीरे मैंने उन्हें पहचानना शुरू किया तो उनसे दोस्ती सी होने लगी। हँसोड़पन तो उनकी खूबी थी ही, मुझे वे बुद्धिमान भी लगे। अनजाने में ही मैं उनके अन्तरंग समूह का हिस्सा बन गया। आलम यह था कि मेरे सप्ताहांत भी लित्तू भाई के घर पर जमने वाली बैठकों में ही गुजरने लगे।
[क्रमशः]

Monday, August 10, 2009

श्रद्धांजलि - १०१ साल पहले

हुतात्मा खुदीराम बसु
(3 दिसंबर 1889 - 11 अगस्त 1908) 
कल की बात भी आज याद रह जाए, वही बड़ी बात है। फ़िर एक सौ एक साल पहले की घटना भला किसे याद रहेगी। मात्र 18 वर्ष का एक किशोर आज से ठीक 101 साल पहले अपने ही देश में अपनों की आज़ादी के लिए हँसते हुए फांसी चढ़ गया था।

आपने सही पहचाना, बात खुदीराम बासु की हो रही है। प्रथम स्वाधीनता संग्राम के बाद के दमन को गुज़रे हुए आधी शती बीत चुकी थी। कहने के लिए भारत ईस्ट इंडिया कंपनी के कुशासन से मुक्त होकर इंग्लॅण्ड के राजमुकुट का सबसे प्रतिष्ठित रत्न बन चुका था। परन्तु सच यह था कि सच्चे भारतीयों के लिए वह भी विकट समय था। देशभक्ति, स्वतन्त्रता आदि की बात करने वालों पर मनमाने मुक़दमे चलाकर उन्हें मनमानी सजाएं दी जा रही थीं। माँओं के सपूत छिन रहे थे। पुलिस तो भ्रष्ट और चापलूस थी ही, इस खूनी खेल में न्यायपालिका भी अन्दर तक शामिल थी।

तीन बहनों के अकेले भाई खुदीराम बसु तीन दिसम्बर 1889 को मिदनापुर जिले के महोबनी ग्राम में लक्ष्मीप्रिया देवी और त्रैलोक्यनाथ बसु के घर जन्मे थे। अनेक स्वाधीनता सेनानियों की तरह उनकी प्रेरणा भी श्रीमदभगवद्गीता ही थी।

मुजफ्फरपुर का न्यायाधीश किंग्सफोर्ड भी बहुत से नौजवानों को मौत की सज़ा तजवीज़ कर चुका था। 30 अप्रैल 1908 को अंग्रेजों की बेरहमी के ख़िलाफ़ खड़े होकर खुदीराम बासु और प्रफुल्ल चन्द्र चाकी ने साथ मिलकर मुजफ्फरपुर में यूरोपियन क्लब के बाहर किंग्सफोर्ड की कार पर बम फेंका।

पुलिस द्वारा पीछा किए जाने पर प्रफुल्ल चंद्र समस्तीपुर में खुद को गोली मार कर शहीद हो गए जबकि खुदीराम जी पूसा बाज़ार में पकड़े गए। मुजफ्फरपुर जेल में ११ अगस्त १९०८ को उन्हें फांसी पर लटका दिया गया। याद रहे कि प्राणोत्सर्ग के समय खुदीराम बासु की आयु सिर्फ 18 वर्ष 7 मास और 11 दिन मात्र थी

सम्बंधित कड़ी: नायकत्व क्या है?

Thursday, August 6, 2009

माँ - एक कविता

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माँ कितना बतलाती हो तुम
क्यूँ इतना समझाती हो तुम

संतति की ममता में विह्वल
क्यों इतना घबराती हो तुम

लड्डू समझ निगल जायेंगे
कीड़ा समझ मसल जायेंगे

जैसे नन्हा बालक हूँ मैं
सिंहों में मृगशावक हूँ मैं

माना थोड़ा कच्चा हूँ मैं
पर भोला और सच्चा हूँ मैं

सच की राह नहीं है मेला
चल सकता मैं सदा अकेला

काँटे सभी हटा सकता हूँ
बंधन सभी छुड़ा सकता हूँ

उसके ऊपर तेरा आशिष
अमृत में बदले सारा विष

माँ कितना बतलाती हो तुम
बस ममता बरसाती हो तुम

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