Saturday, May 11, 2013

अक्षय तृतीया की शुभकामनायें

अस्यां तिथौ क्षयमुर्पति हुतं न दत्तं। तेनाक्षयेति कथिता मुनिभिस्तृतीया॥
उद्दिष्य दैवतपितृन्क्रियते मनुष्यैः। तत् च अक्षयं भवति भारत सर्वमेव॥
(मदनरत्न)
सोने की ख़रीदारी ज़ोरों पर है और शादियों की तैयारी भी। क्यों न हो, साल का सबसे शुभ मुहूर्त जो है। वैशाख मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि चिरंजीवी भगवान परशुराम का जन्मदिन है। माना जाता है कि भगवान विष्णु के नर-नारायण और हयग्रीव रूपों का अवतरण भी इसी दिन हुआ था। ऐसी मान्यता है कि आज किए गए कार्य स्थायित्व को प्राप्त होते हैं। दया, दान और अन्य सत्कार्यों को विशेष महत्व देने वाली हमारी संस्कृति में आज का दिन व्रत, तप, पूजन और दान के लिए विशिष्ट है क्योंकि वह अनंतगुणा फल देने वाला समझा जाता है। स्थायित्व और वृद्धि की कामना से आज के दिन पुण्यकार्य किए जाते हैं। प्राचीन राज्यों में शासक किसानों को नई फसल की बुवाई के लिए बीजदान करते थे। उत्तर-पश्चिम के कई क्षेत्रों में किसान इस दिन घर से खेत तक जाकर मार्ग के पशु-पक्षियों को देखकर अपनी फसलों के लिए वर्षा के शकुन पहचानते हैं। कुछ समुदायों में आज सामूहिक विवाह सम्पन्न कराने की रीति है। अनेक गाँवों में बच्चे इस दिन अपने गुड्‌डे-गुड़िया का विवाह रचाते हैं। और जो ये सब नहीं भी करते हैं, उनके लिए शादी का सबसे बड़ा मुहूर्त तो है ही दावतें खाने के लिए।
संसार में जितने बड़े आदमी हैं, उनमें से अधिकतर ब्रह्मचर्य-व्रत के प्रताप से बड़े बने और सैंकड़ों-हजारों वर्ष बाद भी उनका यशगान करके मनुष्य अपने आपको कृतार्थ करते हैं। ब्रह्मचर्य की महिमा यदि जानना हो तो परशुराम, राम, लक्ष्मण, कृष्ण, भीष्म, ईसा, मेजिनी, बंदा, रामकृष्ण, दयानन्द तथा राममूर्ति की जीवनियों का अध्ययन करो। ~ अमर शहीद रामप्रसाद बिस्मिल
जम्बूद्वीप में अक्षय तृतीया को ग्रीष्मऋतु का आधिकारिक उदघाटन भी माना जा सकता है। बद्रीनारायण धाम के कपाट अक्षय तृतीया के आगमन पर खुलते हैं। पौराणिक मान्यता के अनुसार अक्षय तृतीया को किये गये पितृतर्पण, पिन्डदान सहित किसी भी प्रकार का दान अक्षय फलदायी होता है। श्वेत पुष्प का दान किया जा सकता है। कुछ स्थानों में 9 कुछ में 7 और कुछ में 3 प्रकार के धान्य के दान का रिवाज है। भगवान ऋषभदेव ने 400 दिन के निराहार तप के बाद ‘अक्षय तृतीया’ के दिन ही हस्तिनापुर के राजकुमार के हाथों इक्षु (ईख = गन्ना) के रस का पारायण किया था। उसी परंपरा में कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी से आरम्भ वर्षीतप का उपवास ‘अक्षय तृतीया’ को सम्पन्न होता है। तपस्वियों के सम्मान में भव्य शोभायात्रा निकाली जाती है और उपहार "प्रभावना" दिये जाते हैं। विष्णु पुराण के अनुसार ऋषभदेव के पुत्र भरत के नाम पर ही हमारे राष्ट्र का नाम भारतवर्ष पड़ा। यहाँ यह दृष्टव्य है कि भगवान राम का वंश भी ईक्ष्वाकु ही कहलाता है और गन्ने और शर्करा के उत्पादन का रहस्य आज भले ही संसार भर को ज्ञात हो परंतु हजारों साल तक यह रहस्य भारत के बाहर पूर्ण अज्ञात था। (कुछ परम्पराओं में भारतवर्ष के नामकरण का श्रेय दुष्यंत और शकुंतला के पुत्र भरत को भी जाता है।)
ऋषभो मरुदेव्याश्च ऋषभात भरतो भवेत्। भरताद भारतं वर्षं, भरतात सुमतिस्त्वभूत्
ततश्च भारतं वर्षमेतल्लोकेषुगीयते। भरताय यत: पित्रा दत्तं प्रतिष्ठिता वनम
(विष्णु पुराण)
एक अक्षय तृतीया के दिन भक्त सुदामा अपने बाल सखा कृष्ण से मिलने पहुँचे थे और अपने सेवाकार्यों के लिए सम्मानित हुए थे। कथा यह भी है कि इसी दिन जब शंकराचार्य जी भिक्षा के लिए एक निर्धन दंपति के पास पहुँचे तो उस भूखे परिवार ने कई दिन बाद अपने भोजन के लिए मिले एक फल को उन्हें समर्पित कर दिया। उनकी दान प्रवृत्ति के सम्मान में आदि शंकर ने कनकधारा स्तोत्र की रचना की। यह दिन युगादि भी है और कुछ परम्पराओं में महाभारत के युद्ध का अंत और फिर कलयुग का आरंभ भी इसी दिन से माना जाता है।

राम जामदग्नेय - अमर चित्र कथा 
भारत के अनेक ग्रामों में अक्षय तृतीया के दिन ग्राम के प्रवेशद्वार पर स्थापित ब्रह्मदेव, ग्राम देवी या ग्रामदेवता के पूजन का प्रचलन था। केनरा बैंक की नौकरी के दिनों में कुछ समय सातारा जिले के शिरवळ ग्राम (तालुक खंडाळा) में कुलकर्णी काका के घर रहा था जहाँ इस दिन ग्रामदेवी अंबिका माता की वार्षिक यात्रा बड़े धूमधाम से निकली जाती है।

हिमाचल, परशुराम क्षेत्र (गोआ से केरल तक) तथा दक्षिण भारत में तो परशुराम जयंती का विशेष महत्व रहा ही है, आजकल उत्तर भारत में भगवान परशुराम की जानकारी का प्रसार हो रहा है। परशुराम जी से जुड़े मंदिरों और तीर्थस्थलों में पूजा करने का विशेष महात्म्य है। भार्गव परशुराम ने जिस प्रकार अपनी दृढ़ इच्छाशक्ति से एक शक्तिशाली परंतु अन्यायी साम्राज्य के घुटने टिकाकर एक नई सामाजिक व्यवस्था की नींव रखी जिसमें शस्त्र और शास्त्र एक विशिष्ट वर्ग की गुप्त शक्ति न रहकर उनका वितरण और प्रसार नवनिर्माण के लिए हुआ वह अद्वितीय क्रान्ति थी। यदुवंशी सहस्रबाहु के अहंकार का पूर्णनाश करने वाले परशुराम यदुवंशी श्रीकृष्ण को दिव्यास्त्र प्रदान कर विजयी बनाते हैं। अजेय पश्चिमी घाट के घने जंगलों को परशु के प्रयोग से मानव निवास योग्य बनाकर बस्तियाँ बसाने की बात हो या पूर्वोत्तर में अटल हिमालय की चट्टानें काटकर ब्रह्मपुत्र की दिशा बदलने की बात हो, भगवान परशुराम जनसेवा के लिए जीवन समर्पण करने का ज्वलंत उदाहरण हैं।
पृथिवीम् च अखिलां प्राप्‍य कश्‍यपाय महात्‍मने। यज्ञस्‍य अन्‍ते अददं राम दक्षिणां पुण्‍यकर्मणे ॥
दत्‍वा महेन्‍द्रनिलय: तप: बलसमन्वित:। श्रुत्‍वा तु धनुष: भेदं तत: अहं द्रुतम् आगत:।। (रामायण) 

हे राम! सम्‍पूर्ण पृथिवी को जीतकर मैने एक यज्ञ किया, जिसकी समाप्ति पर पुण्‍यकर्मा महात्‍मा कश्‍यप को दक्षिणारूप में सारी पृथिवी का दान देकर मै महेंद्रपर्वत पर रहने गया। वहाँ तपस्‍या करके तपबल से युक्‍त हुआ मैं धनुष को टूटा हुआ सुनकर वहाँ से अतिशीघ्र आया हूँ।
जिस प्रकार हिमालय काटकर गंगा को भारत की ओर मोड़ने का श्रेय भागीरथ को जाता है उसी प्रकार पहले ब्रह्मकुन्ड से, और फिर लौहकुन्ड पर हिमालय को काटकर ब्रह्मपुत्र जैसे उग्र महानद को भारत की ओर मोड़ने का श्रेय परशुराम जी को जाता है। यह भी मान्यता है कि गंगा की सहयोगी नदी रामगंगा को वे अपने पिता जमदग्नि की आज्ञा से धरा पर लाये थे। ऋषभदेव का निर्वाण स्थल कैलाश पर्वत है जो कि भगवान् परशुराम की तपस्थली है। अफसोस कि भारतीयों के तिब्बत स्थित प्राचीन तीर्थस्थल तक हमारी पहुँच अब चीनियों के वीसा पर निर्भर है। भगवान परशुराम से संबन्धित बहुत से तीर्थ हिमालय क्षेत्र में हैं। विश्व की पहली समर कला के प्रणेता, निरंकुश शासकों, अत्याचारी आतंकियों, और आसुरी शक्तियों के विरोधी परम यशस्वी भगवान् परशुराम के जन्म दिन यानी अक्षय तृतीया के शुभ अवसर पर आइये तेजस्वी बनकर सदाचरण और सद्गुणों से अक्षय सत्कर्म और परोपकार करने की कामना करें।

धिग्बलं क्षत्रियबलं ब्रह्मतेजो बलं बलं। एकेन ब्रह्मदण्डेन सर्वास्त्राणि हतानि मे॥ (रामायण)
ज्ञानबल के सामने बाहुबल बेकार है। एक ज्ञानदंड के सामने सभी अस्त्र नष्ट हो जाते हैं।

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सम्बंधित कड़ियाँ
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* बुद्ध हैं क्योंकि परशुराम हैं
* परशुराम स्तुति
* परशुराम स्तवन
* भगवान परशुराम की जन्मस्थली
* जिनके हाथों ने पहाडों से गलाया दरिया ...
* क्या परशुराम क्षत्रिय विरोधी थे?
* परशुराम - विकीपीडिया
* ऋषभदेव -विकीपीडिया
* पंडितों ने लिया बाल विवाह रोकने का संकल्प
* परशुराम और राम-लक्ष्मण संवाद - ज्ञानदत्त पाण्डेय
* परशुराम-लक्ष्मण संवाद प्रसंग - कविता रावत
* ग्वालियर में तीन भगवान परशुराम मंदिर
* अरुणाचल प्रदेश का जिला - लोहित
 * बुद्ध पूर्णिमा पर परशुराम पूजा

Wednesday, April 24, 2013

तिब्बत, चीन, भारत और संप्रभुता

जिस देश के शिक्षित नागरिक भी बिना देखे भाले इन्टरनेट से लेकर अपने देश के आड़े टेढ़े नक्शे अपने ब्लोग्स पर ही नहीं, तथाकथित प्रतिष्ठित समाचार साइट्स पर भी लगा रहे हों, उस देश की सीमाओं का आदर एक अधिक शक्तिशाली शत्रु-राष्ट्र क्यों करेगा। पिछले दिनों जब मैं भारत का आधिकारिक मानचित्र ढूंढ रहा था तब पाया कि भारत सरकार की आधिकारिक साइट्स पर देश का मानचित्र ढूँढना दुष्कर ही नहीं असंभव कार्य है। लगा जैसे हमारे देश के कर्ता-धर्ता धरती पर अपनी उपस्थिति से शर्मिंदा हों। ऐसे देश का एक दुश्मन देश यदि वीसा जारी करते समय हमारे राष्ट्रपति द्वारा जारी किए गए आधिकारिक पारपत्र पर भी अपने अनाधिकारिक नक्शे की मुहर बेधड़क होकर सामान्य रूप से लगाते रहता हो, तो आश्चर्य कैसा?

साम्राज्यवादी कम्युनिस्ट चीन की लाल सेना की एक पूरी प्लाटून द्वारा लद्दाख में भारतीय सीमा के अंदर घुसकर एक और चौकी बना लेने की खबर गरम है। भ्रष्टाचार के मामलों का अनचाहा खुलासा हो जाने पर पूरी बहादुरी और निष्ठा से दनादन बयानबाजी करने वाले भारतीय नेता चीनी घुसपैठ पर लीपापोती में लगे हुए हैं। राजनीतिक नेतृत्व में गंभीरता दिखे भी कैसे, चीन तो बहुत बड़ा तानाशाह दैत्य है, पाकिस्तान जैसे छोटे और अस्थिर देश के सैनिक भी हमारी सीमा के भीतर आकर हमारे सैनिकों का सर काट लेते हैं और हमारी सरकार रोक नहीं पाती। हालत यह हो गयी है कि श्रीलंका, नेपाल और बांग्लादेश तो दूर, भूटान और मालदीव जैसे देश भी मौका मिलने पर भारत सरकार को मुँह चिढ़ाने से बाज़ नहीं आते।

तिब्बत में भारतीय जलस्रोतों पर चीन अपनी मनमर्ज़ी से न केवल बांध बनाता रहा है, बरसात के दिनों में चीन द्वारा गैरजिम्मेदाराना रूप से छोड़ा गया पानी भारत में भयंकर बाढ़-विभीषिका का कारण बना है। हिमाचल तो पहले ही चीन द्वारा निर्मित अप्राकृतिक बाढ़ से जूझ चुका है, अब ब्रह्मपुत्र के नए बांधों के द्वारा असम से लेकर बांगलादेश तक को डुबाने की साजिश चल रही है। अरुणाचल के क्षेत्रों में चीनी सैनिक पहले से ही जब चाहे भारतीय सीमा में गश्त लगाते रहे हैं। अक्साई-चिन दशकों से चीनी कब्जे में है, अब दौलत बेग ओल्डी में सीमा के छह मील अंदर घुसकर चौकी भी बना ली है। पक्की चीनी चौकी के फोटो इन्टरनेट पर मौजूद होते हुए भी सरकार इसके लिए सिर्फ "तम्बू गाढ़ना" और स्थानीय मुद्दा जैसे शब्दों का प्रयोग कर रही है। कल को शायद हमारी सरकार के किसी मंत्री के संबंधी की कंपनी द्वारा इस चौकी के चूल्हों के लिए कोयला और पीने के लिए चाय सप्लाई करने का ठेका भी ले लिया जाये। अफसोस की बात है कि ताज़ा चीनी दुस्साहस की प्रतिक्रिया में हमारे नेताओं की किसी भी हरकत में भारत का गौरव बनाए रखने की इच्छाशक्ति नहीं दिखती। अरे सरकार में बैठे "शांतिप्रिय" नेता कुछ और न भी करें, कम से कम दिग्विजय सरीखे किसी वक्तव्य सिंह को सीमा पर तो भेज सकते हैं।

अब एक सीरियस नोट - भारत की उत्तरी सीमा कहीं भी चीन से नहीं छूती। आधिकारिक रूप से उत्तर में हमारे सीमावर्ती राष्ट्र नेपाल, भूटान, अफगानिस्तान और तिब्बत हैं। चीन के साथ सभी मतभेदों की तीन मूल वजहें हैं।

  1. कश्मीर के पाकिस्तान अधिकृत क्षेत्र 
  2. चीनी कब्जे में अकसाई-चिन 
  3. तिब्बत राष्ट्र पर चीन का अनधिकृत कब्जा और उसके बावजूद होने वाली दादागिरी और अनियंत्रित विस्तारवाद

अच्छी बात है कि तिब्बत की निर्वासित सरकार और उनके राष्ट्रीय नेता ससम्मान भारत में रहते हैं। लेकिन उनका क्या जो पीछे छूट गए हैं? तिब्बत की पददलित बौद्ध जनता अपने देश की स्वतन्त्रता के लिए आगे बढ़-बढ़कर आत्मदाह कर रही है। तिब्बत के पश्चिमी क्षेत्रों में मुस्लिम वीगरों की हालत भी कोई खास अच्छी नहीं है। लेकिन तिब्बत के बाहर चीन के विकसित क्षेत्रों में भी जनता खुश नहीं है। कम्युनिस्ट नेताओं और उनके शक्तिशाली संबंधियों द्वारा गरीबों को निरंतर जबरन विस्थापित किए जाने से वहाँ भी असंतोष बढ़ रहा है। इसलिए, चीन की धमकियों और घुसपैठ का मुँहतोड़ जवाब देना उतना मुश्किल नहीं है जितना सतही तौर पर देखने से लगता है। चीनी आधिपत्य से दबी सम्पूर्ण जनता केवल एक दरार के इंतज़ार में है। वह दरार दिख जाये तो तानाशाही के दमन और साम्राज्यवाद के विघटन का काम वे काफी हद तक खुद कर लेंगे।

चीन की दादागिरी भारत की संप्रभुता के लिए एक बड़ी समस्या है। सीमा पर हर रोज़ बढ़ती उद्दंडता के मद्देनजर, भारत सरकार में बैठे लोगों को न केवल गंभीरता से तिब्बत की स्वतन्त्रता की ओर कदम उठाने चाहिए बल्कि चीन की नाक में तिब्बत कार्ड पूरी ताकत से ठूंस देना चाहिए। वे हमारे पासपोर्ट पर अपनी मुहर लगाएँ तो हम उनके पासपोर्ट पर उनकी साम्राज्यवादी असलियत चस्पाँ करें। मतलब यह कि उनके पारपत्रों पर ऐसी मुहर लगाएँ जिसमें भारत की सीमाएं तो सटीक हों ही, तिब्बत भी स्वतंत्र दिखाई दे।  मेरी नज़र में सरकार बड़ी आसानी से कुछ ऐसे काम कर सकती है जिनसे तिब्बत समस्या संसार में उजागर हो और भारत-चीन सीमा मामले पर चीन दवाब में आए। अभी तक जो गलत हुआ सो हुआ, कम से कम भविष्य पर एक कूटनीतिक नज़र तो रहनी ही चाहिए।


शुरुआत कुछ छोटे-छोटे कदमों से की जा सकती है:

1) भारत सरकार की वेब साइट्स पर भारत का आधिकारिक मानचित्र प्रमुखता से लगाया जाये।
2) सीमा पर चीनी गुर्राहट के मामले पाये जाने पर उन्हें छिपाने के बजाय संसार के सम्मुख लाया जाये
3) तिब्बत के मुद्दे पर हर मौके का फायदा उठाकर खुलकर सामने आया जाये
4) चीन से तिब्बती शरणार्थी और उनकी सरकार को उनकी ज़मीन एक समय सीमा के भीतर वापस देने की बात हो
5) मानचित्र के बारे में खुद भी जानें और आम जनता में भी जागरूकता उत्पन्न करें।
6) चीनी दूतावास वाली सड़क का नाम 'दलाई लामा मार्ग', 'स्वतंत्र तिब्बत पथ' या 'रंगज़ेन' रखा जाए।

दलाई लामा का भारत में निवास हमारे लिए गौरव की बात तो है ही,  अतिथि और शरणागत के आदर की गौरवमयी भारतीय परंपरा के अनुकूल भी है। फिर भी उनकी सहमति से उनकी सम्मानपूर्वक देश वापसी के बारे में समयबद्ध रणनीति पर काम होना चाहिए। सभी राजनीतिक दलों को अपने खोल से बाहर आकर इस राष्ट्रीय मुद्दे पर एकमत होना चाहिए।

सरकारी नौकरी न करने वाले सभी ब्लोगर्स, जिनमें विभिन्न राजनीतिक दलों के पक्ष में किस्म-किस्म के तर्क रखने वाले और राजनीतिक प्रतिबद्धता वाले ब्लॉगर ही नहीं,  बल्कि अन्य सभी भी शामिल हैं, अपने लेखन और अन्य सभी संभव माध्यमों से इस जागृति का प्रसार करें कि एक स्वतंत्र तिब्बत भारत की आवश्यकता है। संभव हो तो "तिब्बत के मित्र" जैसे जन आंदोलनों का हिस्सा बनिये। यदि आपकी नज़र में कुछ सुझाव हैं तो कृपया उन्हें मुझसे भी साझा कीजिये।

इसके अलावा, पाँच साल में एक बार अपनी चौहद्दी से बाहर निकलकर आपके दरवाजे पर वोट मांगने आने वाले नेताओं से भी यह पूछिये कि राष्ट्रीय गौरव के ऐसे मुद्दों पर उनकी कोई स्पष्ट नीति क्यों नहीं है, और यदि है तो वह उनके मेनिफेस्टो पर क्यों नहीं दिखती है?        

सभी चित्र अंतर्जाल पर विभिन्न समाचार स्रोतों से साभार
  
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Sunday, April 21, 2013

नकद धर्म - स्वामी रामतीर्थ के शब्दों में

इंडिया बनाम भारत जैसी गरमागरम बहसों के बीच एक भारतीय धार्मिक विचारक के एक शताब्दी से अधिक पुराने शब्दों पर एक नज़र
यह कथन असंगत है कि अमेरिकावासी डालर (लक्ष्मी) के दास हैं। सच तो यह है कि लक्ष्मी स्वयं सरस्वती के पीछे लगी रहती है। जो लोग यह आरोप मढ़ते हैं कि अमेरिकनों का धर्म नक़द धर्म नहीं वरन नक़दी धर्म है, वे या तो अमरीका की सही स्थिति का ज्ञान नहीं रखते अथवा वे घोर अन्यायी हैं, और ‘अंगूर न मिलें तो खट्टे’ वाली कहावत उन पर चरितार्थ होती है।
कैलीफोर्निया में एक नारी ने अठारह करोड़ रुपया अर्पित कर एक विश्वविद्यालय की स्थापना की। इसी प्रकार उस देश में विद्या की उन्नति और प्रसार के लिये प्रतिवर्ष करोड़ों का दान दिया जाता है। भारत की ब्रह्मविद्या की वहाँ कदर इसी से प्रकट है, कि जैसा ‘व्यावहारिक वेदांत’ अमेरिका में इस समय व्यवहृत हो रहा है। वैसा भारत में आज नहीं है। उन लोगों ने यद्यपि भारत के वेदांत को अपने में पचा लिया है और मनसा कर्मणा गृहण कर लिया है, फिर भी वे हिन्दू नहीं बन गये हैं।

वैसे ही हम भी उनके ज्ञान कला कौशल को अपने में पचा लेने पर भी अपनी राष्ट्रीयता को कायम रख सकते हैं। वृक्ष बाहर से खाद संग्रह करते हैं, स्वयं खाद नहीं बन जाते। बाहर की मिट्टी, जल वायु प्रकाश आदि ग्रहण करती और अपने में पचा लेती है, किन्तु वह स्वयं जल, वायु और प्रकाश नहीं हो जाती।

जापानियों ने अमेरिका और योरोप के विज्ञानशास्त्र और नाना कला कौशल को अपने में पचा लिया, फिर भी जापानी ही बने रहे। देवों ने अपने यहाँ से कुछ को असुरों के पास भेजकर उनकी जीवन तुल्य संजीवनी विद्या, सीख ली, परंतु वे असुर नहीं हो गये। इसी प्रकार तुम लोग भी अमेरिका, यूरोप आदि जाकर वहाँ से ज्ञान विज्ञान कला कौशल प्राप्त करो और इससे तुम्हारे धर्म और राष्ट्रीयता में धब्बा न आयेगा। जो लोग विद्या और ज्ञान, को भौगोलिक सीमा में परिसीमित करते हैं, जिनका कथन है, कि विदेशियों का ज्ञान हमारे यहां आने से अधर्म होगा और हम अपने ज्ञान को स्वदेश की सीमा से बाहर दूसरों के कल्याण के लिये क्यों जाने दें, और इस प्रकार जो लोग अपना ज्ञान पराया ज्ञान कहकर ज्ञान में विभाजन करते हैं, वे अपने ज्ञान को अज्ञान में बदलते हैं

इस कमरे में प्रकाश फैला है। यह प्रकाश अत्यंत लुभावना और सुहावना है ! यदि हम कहें कि यह प्रकाश हमारा है, एकमात्र हमारा है, हाय, यह कहीं बाहर के प्रकाश से मिलकर अपवित्र न हो जाय; और इस भय से हम अपने प्रकाश को सुरक्षित रखने के लिये, कमरे की खिड़कियाँ रौशनदान कपाट सब बंद कर दें; चिकें, परदे गिरा दें, तो परिणाम यह होगा कि वह स्वयं प्रकाश ही लुप्त हो जायगा। नहीं-नहीं कस्तूरी के समान काला नितांत अंधकार छा जायगा। हाय, हम लोगों ने भारत में इस भ्रान्तिमूलक धारणा और चलन को क्या अपना लिया।
हब्बुलवतन अज मुल्के सुलेमाँ खुश्तर।
खारे-वतन अज संबुले-रेहाँ खुश्तर।। 
इसे भूलकर स्वयं काँटा बन जाना और स्वदेश को काँटों का वन बना देना, यह कैसी देशभक्ति है? साधारण तौर पर एक ही प्रकार के वृक्ष जब गुन्जान समूहों में इकट्ठा उगते हैं, तो सब कमजोर रहते हैं। इनमें से किसी को उस झुण्ड से अलग ले जाकर कहीं बो दें तो वही बढ़कर बड़ा और अति पुष्ट हो जाता है। यही स्थिति राष्ट्रों और जातियों की है। कश्मीर के संबंध में कहा जाता है-
गर फिरदौस ब-रु-ए ज़मींनस्त, हमींनस्त हमींनस्त हमींनस्त!!
किन्तु यही कश्मीरी लोग, जो अपने स्वर्ग अर्थात् कश्मीर से बाहर निकलना पाप समझते हैं, अपनी कमजोरी नादानी और गरीबी लिये प्रख्यात हैं। और वह पुरुषार्थी कश्मीरी पण्डित जो उस फिरदौस से बाहर निकलकर आये, उन्होंने अन्य भारतवासियों को हर बात में मात कर दिया। वे सब ऊँचे-ऊँचे ओहदों पर विराजमान हैं। जापानी जब तक जापान में बन्द रहे, वे कमजोर और पस्त रहे। जब वे विदेशों को जाने लगे, वहाँ की हवा लगी, वे सशक्त हो गये। योरोप के गरीब धनहीन और प्रायः निम्न स्तर के लोग जहाजों पर सवार होकर अमरीका जा बसे और आज उनकी जमात संसार की सबसे शक्तिशाली कौम है। कुछ भारत वासियों ने भी विदेश का मुँह देखा। जब तक स्वदेश में रहे उनकी कोई पूछ-गछ न थी। विदेशों में गये तो उन उन्नत कौमों में प्रथम श्रेणी के समझे गये और उन्होंने ख्याति प्राप्त की।
पानी न बहे तो उसमें बू आये, खञ्जर न चले तो मोरचा खाये।
गर्दिश से बढ़ा लिहर व मह का पाया, गर्दिश से फ़लक ने औज़ पाया।
वृक्ष सारी रुकावटों को काटकर अपनी जड़ों को वहाँ प्रविष्ट कर देते हैं जहाँ जल प्राप्त हो। इसी प्रकार अमेरिका, जर्मनी, जापान, इँगलैण्ड के लोग सागरों को चीरकर, पर्वतों को काटकर धन खर्च करके, सभी प्रकार की विपत्तियों और कष्टों को झेलकर वहाँ-वहाँ पहुँचे, जहाँ से उन्हें कम या ज्यादा, किसी भी प्रकार का ज्ञान हो सका। यह तो है एक कारण उनकी उन्नति का।
(~ स्वामी रामतीर्थ)