Sunday, September 10, 2017

अनुरागी मन

नवीं कक्षा में था तो रसायनशास्त्र के प्रवक्ता मु. यामीन अंसारी ने कहा कि छात्र संघ में कनिष्ठ उपाध्यक्ष के लिये नामांकन भर दो। उन्होंने बताया कि उस पद के लिये पात्रता कक्षा 9 तक की ही है। शायद इसीलिये उस दिन अंतिम तिथि होने के बावजूद, तब तक कोई नामांकन नहीं आया था। मुझे राजनीति में जाने की कोई इच्छा वैसे भी नहीं थी। ऊपर से मेरे जैसा शांत व्यक्ति ज़ोर-जबर के नक्कारखाने के लिये शायद ही उपयुक्त होता। तीसरी बात यह भी थी कि नामांकन के लिये दस रुपये शुल्क था, जो उस समय मेरे पास नहीं था। अंसारी साहब शुल्क अपनी जेब से देने को भी तैयार थे परंतु मैं अनिच्छुक ही रहा।

अंतिम तिथि निकल गई। उस वर्ष का छात्रसंघ कनिष्ठ उपाध्यक्ष के बिना ही बना क्योंकि मैंने उस पद पर निर्विरोध चुने जाने का अवसर छोड़ दिया था। अगले वर्ष से छात्रसंघ के चुनावों पर प्रतिबंध लग गया और सभी तत्कालीन पदाधिकारी जोकि 12वीं के ही छात्र थे, परीक्षा पास करके विद्यालय से बाहर चले गये। मैं तीन और साल वहीं था। अंसारी साहब ने एकाध बार मज़ाक में कहा भी कि यदि उस दिन मैंने पर्चा भर दिया होता तो चार साल मैं छात्रसंघ पर एकछत्र राज्य करता।

नवीं कक्षा में ही जीवविज्ञान की प्रयोगशाला में जब ताज़े कटे हुए मेंढ़कों को धड़कते दिल के साथ क्रूरता से एक गड्ढे में फेंके जाते देखा तो सभ्य-समाज में सर्व-स्वीकृत निर्दयता ने दिल को बहुत चोट पहुँचाई। आज शायद सुनने में अजीब लगे लेकिन यह सच है कि उस समय तक मैं यही समझता था कि प्रयोगशाला में डाइसेक्ट किये हुए प्राणियों को सर्जरी द्वारा पहले जैसा स्वस्थ बनाकर वापस प्रकृति में छोड़ दिया जाता होगा। जीवविज्ञान के साथ मानसिक रूप से उसी समय अपना तलाक़ हो गया लेकिन हाईस्कूल तक जैसे-तैसे साथ निभाया और फिर गणित-विज्ञान समूह की दिशा पकड़ी।

तब से अब तक जीवन में कई ऐसे अवसर आये जब मौके हाथ से छूटे, या कहूँ कि छूटने दिये गये। जब किसी को आत्मविश्वास के साथ यह कहते सुनता हूँ कि उसने परिस्थितियों को अपने अनुकूल बनाया तो अच्छा लगता है क्योंकि मैंने शायद इस दिशा में कभी कोई खास श्रम नहीं किया। हाँ, जीवन में जो कुछ सामने आता गया उसके सदुपयोग पर थोड़ा बहुत विचार अवश्य किया। लेकिन वहाँ भी कोई जल्दबाज़ी कभी नहीं की।

एक दफ़ा एक बस यात्रा में जेब कट गई। दो-चार सौ रुपयों के साथ-साथ परिचय-पत्र भी चला गया, जिसकी सामान्यतः आवश्यकता भी नहीं पड़ती थी। वैसे भी परिचयपत्र में चित्र के साथ अपने और संस्थान के नाम के अलावा काम की कोई जानकारी नहीं थी। न कार्यालय का नाम था और न ही पदनाम। दोबारा बनवाने का शुल्क भी लगता था और उसके लिये एक दूसरे कार्यालय में अर्ज़ी देने भी जाना पड़ता, जिसकी काम ने कभी फ़ुर्सत ही नहीं दी, सो टलता रहा।

जब नौकरी छोड़ने की नौबत आई तो नियमानुसार इस्तीफ़े के साथ परिचयपत्र भी जमा कराना था। नया परिचयपत्र बनवाने के लिये अगले सप्ताह का मुहूर्त निकालकर प्रबंधक जी को बता दिया गया। अगले हफ़्ते जब निकलने ही वाले थे तब उस दिन की अंतर-विभागीय डाक आ गई। और डाक में पत्रों के ऊपर ही मेरा परिचयपत्र भी पड़ा हुआ था जिसे कुछ साल पहले किसी जेबकतरे ने कहीं फेंका होगा और किसी भलेमानस ने शायद किसी मेलबॉक्स में डाल दिया होगा जोकि बरसों बाद किसी डाकिये को नज़र आया होगा और एक दफ़्तर से दूसरे में पहुँचते हुए आखिर मेरे पास आ गया।

यह तो एक सरल सा उदाहरण था लेकिन कई उदाहरण तो इतने जटिल संयोग के उदाहरण हैं कि लगता है मानो एक लम्बी परियोजना बनाकर उन्हें गढ़ा गया हो। सौ बात की एक बात यह कि ज़िंदगी अपने साथ बहाकर ले जाती रही लेकिन फिर भी रही अपने प्रति दयालु ही। तरबूज सौ बार छुरों पर गिरा लेकिन हर बार हाथ-पाँव झाड़कर उठ खड़ा हुआ।

पाँच साल की उम्र में एक नहर के तेज़ बहाव में बहकर मर ही जाता लेकिन बचा लिया गया। उसी समय तैरना सीखने का प्रण लिया। सीखने का कोई साधन ही नहीं था। न प्रशिक्षक, न तरण ताल। सो कुछ साल यूँ ही बीतने के बाद, अंततः, बिना पानी के ही तैराकी सीखने का निश्चय किया। जब पहली बार तरण-ताल देखने को मिला तब तक बिना पानी और बिना प्रशिक्षक के कामचलाऊ तैराकी सीख चुका था।

मरने के भी कई मौके आये और सीखने के भी। आलसी जीव, मृत्यु से भी बचकर निकलते रहे और सीखना भी अपने हिसाब से करते गये। हर काम सदा तसल्ली बख्श तो किया मगर किया भरपूर तसल्ली के साथ, बिना किसी जल्दबाज़ी के। बारहवीं के बाद जब सारे मित्र अभियांत्रिकी में जा रहे थे तब मैं उस उम्र में मिल सकने वाली एकमात्र नौकरी के लिये अर्ज़ियाँ भरकर जीवन की शुरुआत करने को तैयार था। अलबत्ता साथ में बेमन से ही सही बीएससी में प्रवेश भी ले लिया था।

बीएससी की फ़ाइनल परीक्षा के दौरान ही जीवन में पहली बार सीरियसली पढ़ाई करने का प्रण ले लिया। तय किया कि एमएससी गणित में की जायेगी। ज़िंदगी में पहली बार ऐसा हुआ कि कक्षा में प्रवेश लेने से पहले ही सारी किताबें खरीदी हों। लेकिन एमएससी में आवेदन से पहले ही नौकरी शुरू करनी पड़ी।

बिल्कुल एक जैसी तीन नौकरियों के लिये एप्लाई किया था। एक का ऑफ़र बहुत बाद में आया। लेकिन जिन दो में पहले बुलाया गया उनमें से दिल्ली वाली का साक्षात्कार देने नहीं गया क्योंकि परिवार की राय घर के पास, यानी रुहेलखण्ड में रहने की थी। परीक्षा परिणाम में प्रदेश के पहले पाँच में नाम था। किसे खबर थी कि उत्तरप्रदेश का बोर्ड ही मुझे दिल्ली पोस्टिंग दे देगा। दिल्ली तो दे नहीं सकते थे मगर उन्होंने नोएडा भेज दिया। केवल एक उस निर्णय के बहाने घर-गाँव, रुहेलखण्ड ऐसा छूटा कि दोबारा वहाँ रहने का सुयोग बना ही नहीं।

 मित्रों से पिछड़ने की बात तो मन में क्या आनी थी, अपने पैरों पर खड़े होने का संतोष अवश्य था। इत्तेफ़ाक़ से उसी समय पिताजी देश भर के दुर्गमतम क्षेत्रों की अपनी ड्यूटी से छुटकारा पाकर सीआरपीएफ़ के दिल्ली स्थित केंद्र झाड़ौदा कलाँ में आये, सो हम भी उनके सरकारी निवास में फ़िट हो लिये। दफ्तर से घर खासा दूर था तो रोज़ाना 6-7 घंटे का कम्यूट होता था। रूट ऐसा था कि बसों में बैठना तो दूर, चढ़ना और उतरना भी आसान न था। एक दिन बहन की सहेलियों ने उसे बताया कि हमारे घर कोई मेहमान आया हुआ है। वह मेहमान मैं ही था क्योंकि मैं घर से इतना बाहर रहता था कि आस-पड़ोस के बहुत से लोगों को घर में मेरे अस्तित्व के बारे में जानकारी ही नहीं थी।

मेरे दिल्ली आने पर एमएससी की गणित की किताबें बदायूँ के तालाबंद घर में रखी रह गईं क्योंकि नौकरी के साथ पढ़ाई जारी रखने के प्रयास में निराशा हाथ लगी। विश्वविद्यालय वालों ने स्नातकोत्तर में प्रवेश इस आधार पर नहीं दिया कि एमएससी न तो प्राइवेट ही हो सकती है और न ही उसके लिये सायंकालीन या सप्ताहांत कक्षा की कोई व्यवस्था है। इस बाधा का कारण पूछने पर विज्ञान के कोर्स में प्रयोगशाला की अनिवार्यता का तर्क दिया गया। गणित में प्रयोगशाला नहीं थी लेकिन अधिकार के आगे तर्क की क्या बिसात। सो जिस ज़माने में तथागत अवतार तुलसी बिना प्रयोगशाला देखे, बिना अनिवार्यता पूरी किये हुए बीएससी और एमएससी की परीक्षा देकर सरकारी खर्चे पर नोबल पुरस्कार विजेताओं से मिलवाने ले जाये जा रहे थे, हमारे रोहिलखण्ड (अब ज्योतिबा फुले) विश्वविद्यालय ने हमें नौकरी के साथ गणित में स्नातकोत्तर करने से मना कर दिया। 6-7 घण्टे के दैनिक कम्यूट, पूरे दिन की नौकरी के अलावा डोमिसाइल सर्टिफ़िकेट आदि के सरकारी जंजालों के कारण हम भी चुप लगाकर बैठ गये। भला हो विदेश-प्रवास का कि यह स्नातकोत्तर भी बाद में पूरा हुआ, यद्यपि हुआ गणित के बिना।

उस बीच में उपेक्षा के कारण टूटते-फ़ूटते पुश्तैनी घर की छत गिरने के बाद जब उसे बेचने के लिये गये तो एमएससी गणित की सभी किताबें बिना छत के कमरे की बिना दरवाज़ों की अलमारी में तला ऊपर रखी थीं। लगभग गली हुई हालत में भी सबसे ऊपर की किताब का मुखपृष्ठ पठनीय था। मानो हँस रहा हो, "ज़िंदगी प्लैन करने चले थे? अब मत करना"

नौएडा से झाड़ौदा तक की उस दैनिक भागदौड़ में बैंक के परिवीक्षाधीन अधिकारी की परीक्षा दी, एक बार फिर पहले पाँच में चुनाव हुआ। देश भर से चुने गये 135 से अधिक अधिकारियों में मैं सबसे कमउम्र था। कुछ वर्ष बाद बैंक ने कम्प्यूटरीकरण की इन-हाउस टीम के लिये जब देशव्यापी परीक्षा द्वारा युवा अधिकारियों को चुनना शुरू किया तो बैंकिंग में रहते हुए सूचना प्रौद्योगिकी, परियोजना प्रबंधन आदि की शिक्षा और अनुभव का अवसर मिला जो अब तक साथ चल रहा है।

पढ़ने लिखने का शौक पुराना था। सम्वाद-वाद-विवाद में पुरस्कार पाना स्कूल में ही शुरू हो गया था। 13-14 साल की आयु में सोचा था कि बड़े होने पर बरेली-बदायूँ मार्ग पर हरियाली के बीच बनाये आधुनिक फ़ार्महाउस से प्रकाशन का व्यवसाय चलाया जायेगा। अनुराग प्रकाशन का उन्हीं दिनों का डिज़ाइन किया लोगो और एकाध नमूना पुस्तकें भी शायद अल्मारी में अभी भी पड़ी हों। माचिस की डिब्बी के आकार की 'मैचबुक्स' का विचार भी तभी-कभी दिमाग़ में कौंधा था। खैर बरेली के दर्शन तो फिर भी हो जाते हैं, बदायूँ तो एकदम से ही पराया हो गया। नसीब अपना-अपना ...  

लेखन-प्रकाशन के सपने देखते हुए, लगभग उन्हीं दिनों में कई कहानियाँ लिख डाली थीं। 1983-84 में एक कहानी का प्लॉट मन में था। 3-4 पन्नों की कहानी बोल-बोलकर कई बार टाइप करवाई लेकिन हिंदी टंकण में हर बार अनेक ग़लतियाँ रह जाती थीं। दशकों बाद जब ब्लॉग पर उसे अनुरागी मन के नाम से धारावाहिक लिखना शुरू किया तो इस बीच के अनेक अनुभवों और उपलब्ध समय ने कथानक को पहले से अधिक रोचक बना दिया था। ब्लॉग नियमित पढ़ने वाले मित्रों को कहानी पसंद आई लेकिन अंतिम कड़ी पर कुछ मित्रों ने उसके दुखांत होने पर शिकायत भी की। कविहृदय मित्र देवेंद्र पाण्डेय ने तो कथा के दुखांत को मेरे पश्चिम में रहने का प्रभाव ही बता दिया। जबकि सच यह है कि कहानी का अंत 1984 में भी यही था। इसमें पूर्व-पश्चिम का कोई चक्कर नहीं था, यूँ ही सोचा कि आज यह बात स्पष्ट कर ही दी जाय।

देवेन्द्र पाण्डेय October 27, 2011 at 4:18 AM
मूड खराब कर दिया आपने तो। ऐसे अंत की उम्मीद नहीं थी। छुट्ठी निकालकर इतमिनान से पढ़ने बैठा था। शेख चिल्ली के मजार से जो उम्मीद बंधी थी यहां आकर तहस-नहस हो गई। ऐसे भी भला कोई अंत करता है! इतनी जल्दी क्या थी? अंततः समाप्त। यह भी कोई बात हुई। ... ... ... पश्चिम में रहकर यही अंत करने की भावना जगी? 
मेरे जीवन की लम्बी यात्रा के अनुरागी मन से ही सम्बंधित एक अल्पांश, जब इस कथा संग्रह को मॉरिशस के महात्मा गांधी संस्थान द्वारा भोपाल में हुए 10वें विश्व हिंदी सम्मेलन में स्थापित किये गये द्वैवार्षिक 'आप्रवासी हिंदी साहित्य सृजन संस्थान' का प्रथम विजेता बनने का गौरव प्राप्त हुआ। सम्मान मॉरिशस की संसद की स्पीकर शांतिबाई हनुमानजी जीओएसके द्वारा मॉरिशस में आयोजित एक सम्मान में प्रदान किया गया। निम्न विडियो में देखिये मॉरिशस टीवी पर प्रस्तुत इस समारोह की रिपोर्ट की एक झलक और बताइये किस भाषा में क्या कहा गया है:



पितृपक्ष चल रहे हैं। सालभर के कामधंधे और उलझनों के कारण बिसर गये पितरों से वापस जुड़ने का समय है। उन्हीं यादों के बीच ये कुछेक यादें मानो याद दिलाने आईं कि मेरे अपने जीवन पर मेरा कितना कम नियंत्रण रहा है। पितरों के संघर्षों द्वारा संवरी अपनी ज़िंदगी के पुनरावलोकन का समय यह भी विचार करने का है कि हम आने वाली संतति द्वारा कैसे पितरों के रूप में याद किये जायेंगे। उनके लिये हम धरा पर कौन सी विरासत, कैसी धरोहर छोड़कर जायेंगे।

फिर मिलेंगे ब्रेक के बाद

Wednesday, August 30, 2017

घोंसले - कविता

(अनुराग शर्मा)

बच्चे सारे कहीं खो गये
देखो कितने बड़े हो गये

घुटनों के बल चले थे कभी 
पैरों पर खुद खड़े हो गये

मेहमाँ जैसे ही आते हैं अब
छोड़ के जबसे घर वो गये 

प्यारे माली जो थे बाग में
उनमें से अब कई सो गये

याद से मन खिला जिनकी
यादों में ही नयन रो गये॥


گھوںسلا


بچچے سارے کہیں کھو گئے

دیکھو کتنے بعد_ا ہو گئے

گھٹنوں کے بل چلے تھے کبھی
پیروں پر خود کھڈے ہو گئے

مہمان جیسے ہی آتے ہیں اب
چھوڈ کے جب سے گھر وو گئے

پیارے ملے جو تھے باگ میں
انمیں سے اب کے سو گئے

یاد سے من کھلا جنکی
یاد میں ہی نہیں رو گئے

Sunday, July 9, 2017

आह्वान या आवाहन? दोनों का अंतर

हिंदी के बहुत से शब्दों का दुरुपयोग होता है, अक्सर बोलने में उनके मिलते-जुलते होने के कारण। ऐसा ही एक उदाहरण आवाहन और आह्वान का भी है। जैसा कि पहले कह चुका हूँ, हिंदी के बहुत से शब्दों का सत्यानाश आलसी मुद्रकों और अज्ञानी सम्पादकों ने भी किया है। संयुक्ताक्षर को सटीक रूप से अभिव्यक्त करने वाले साँचे के अभाव में वे उन्हें ग़लत लिखते रहे हैं, ह्व, ह्य, ह्र आदि भी कोई अपवाद नहीं। आह्वान का ह्व न होने की स्थिति में वे कभी आहवान तो कभी आवाहन छाप कर काम चला लेते थे। इस शब्द पर लिखने की बात पहले भी कई बार मन में आई लेकिन हर बार किसी अन्य अधिक महत्वपूर्ण प्राथमिकता के कारण पीछे छूट गई। गत एक जुलाई को 'भारतीय नागरिक-Indian Citizen' की पोस्ट पर निम्न प्रश्न देखा तो आज लिखने का योग बना:

प्रश्न: आह्वान और आवाहन दोनों में अंतर है, क्या है मुझे इस समय बड़ा भ्रम है, कृपया बताएँ 

उत्तर: आह्वान एक पुकार, विनती, या ललकार है। मतलब यह कि आह्वान में बोलकर कहना प्रमुख है। जबकि आवाहन में किसी को आमंत्रित करने की क्रिया है। वाहन चलने-चलाने के लिये है, आवागमन का साधन है। आवाहन में आपके देव अपने वाहन से आकर आपके सामने स्थापित होते हैं। जबकि उससे पहले आप उनके आने का आह्वान कर सकते हैं। आह्वान आप देश की जनता का भी कर सकते हैं कि वह भ्रष्टाचार का विरोध करे। आव्हान एक वचन है जबकि आवाहन एक कर्म है। आह्वान में कथन है जबकि आवाहन में विचलन है।