Thursday, September 27, 2018

स्वप्न का अर्थ

नींद हमारी ख्वाब तुम्हारे की पिछली कड़ियाँ
भाग 1; भाग 2; भाग 3भाग 4; भाग 5भाग 6; भाग 7;
सत्याभास (कहानी); किशोर चौधरी के नाम (पत्र)


सपने सबको आते हैं। सपने न आने का एक ही अर्थ है, सपना भूल जाना। और सपने देखने का अर्थ भी एक ही है, सपने के बीच नींद खुल जाना। स्वप्न वह दृश्यावली नहीं है जो आपने देखी, स्वप्न वह कहानी है जो एकसाथ घटती बीसियों ऊलजलूल घटनाओं को बलपूर्वक एक क्रम में बांधकर तारतम्य बिठाने के लिये आपके मस्तिष्क ने गढ़ी है।
पिछली कड़ियों में हमने स्वप्न को समझने के प्रयास के साथ-साथ मानव मस्तिष्क द्वारा तार्किकता बनाये रखने के लिये खेले जाने वाले कुछ अतार्किक खेलों का अध्ययन किया था। अब, इन्हीं तथ्यों के प्रकाश में कुछ स्वप्नों की सरल व्याख्या प्रस्तुत है। आज का स्वप्न सम्बन्धी प्रश्न -

स्वप्न: मैं सपने में जो भी काम करना शुरु करता हूँ वह कभी भी सम्पन्न नहीं हो पाता। क्या कोई मित्र इसकी व्याख्या या अर्थ समझा सकता है? ऐसा लगभग 20-25 साल से तो अवश्य ही घटित हो रहा है।

व्याख्या: सर्वप्रथम, यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि आपका स्वप्न वह नहीं जो आपने नींद में अनुभव किया, बल्कि उस अनुभव में से जितने अंश याद रह गये, स्वप्न उन अंशों से बुनी हुई तार्किक कथा मात्र है। इनमें से अनेक अंश एक दूसरे से पूर्णतः असम्बद्ध हो सकते हैं।

यदि आप स्वप्न में अक्सर कोई न कोई कार्य आरम्भ कर रहे होते हैं तो इसका सरल अर्थ यही है कि आपके मानकों के अनुसार आपके कार्य अभी अपूर्ण हैं। स्वप्न में उनका सम्पन्न न हो पाना भी यही दर्शाता है कि अभी आप अपने उद्देश्य को पूर्ण मानने की स्थिति में नहीं हैं।

सुझाव: मेरी सलाह यही है कि आप एक नई नोटबुक लेकर अपने जीवन के अपूर्ण/ पेंडिंग कार्यों की सूची बनाएँ, और उन कार्यों से सम्बंधित समस्त जानकारी, जैसे कार्य का महत्व, लागत, समय, बाधाएँ, सहयोगी, आदि को एकत्र करके उनकी परियोजना बनाकर कार्य करें। इससे दोहरा लाभ होगा। सम्पन्न होते जा रहे कार्यों की सूची सदा उपलब्ध होगी, और अपूर्ण कार्यों की वर्तमान स्थिति और सम्भावित अवधि अद्यतन रहेगी।
- अनुराग शर्मा

[क्रमशः]

Monday, September 3, 2018

कहानी: सत्याभास

आइये मिलकर उद्घाटित करें सपनों के रहस्यों को. पिछली कड़ियों के लिए कृपया निम्न को क्लिक करें: खंड [1]खंड [2]खंड [3]खंड [4]खंड [5]खंड [6]; खंड [7]और अब आज की कड़ी में, एक कहानी

वीरान जगह पर बने उस पुराने महलनुमा घर के विशाल आंगन में पड़ी चारपाई पर दुखी सा बैठा हुआ मैं सोच रहा था कि यूरोप के इस अनजान पहाड़ी जंगल के बीचोंबीच स्थित ऐसी भुतहा सी जगह में घर लेने की बात मैंने सोची ही क्यों। और अगर सोची भी तो घर देखे बिना ही बात नक्की क्यों कर दी। चूंकि इस घर की हमारी खरीद इसे देखे बिना ही ऑनलाइन तथा फ़ोन पर हुई थी इसलिये हमारी प्रॉपर्टी एजेंट आज यहाँ आकर हमें अपने इस नये खरीदे ऐतिहासिक भवन का टूर कराने वाली थी।

थकाने वाली कठिन यात्रा करके मैं सपत्नीक यहाँ पहुँचा था। पास के नगर में रहने वाले पुराने पर्वतारोही मित्र को पहले ही संदेश देकर यहाँ बुला लिया था। प्रॉपर्टी एजेंट का इंतज़ार करते-करते पत्नी को तो नींद भी आ गई थी सो वे अंदर जाकर सो गई थीं और मैं मित्र के साथ पीली पुती पुरानी दीवारों से घिरे आंगन के एक कोने में पड़ी मूंज की चारपाई पर बैठा बात कर रहा था। मित्र उस क्षेत्र का इतिहास बता रहा था। एक रेखाचित्र दिखाकर उसने समझाया कि प्राचीनकाल में किस प्रकार सेना विपक्षी किले से ऊपर की पहाड़ियों से मलमूत्र के ढेर बहाना शुरू करती थी। गंदगी आती देख किले के सैनिक ऊपर के पहाड़ी स्रोत से किले को आते पेयजल की आपूर्ति दूषित होने से बचाने जाते थे और वहाँ पहले से ही रणनीतिक ठिकानों पर छिपे शत्रुपक्ष द्वारा घेरकर मार दिये जाते थे।

झुटपुटा होने लगा है। घर में बिजली नहीं है। बड़े से आंगन के एक तरफ़ घर का बरामदा और फिर उसके पीछे बहुत से कमरे हैं। उस बरामदे के विपरीत दिशा में बाहर का दरवाज़ा और चबूतरे से नीचे उतरती हुई सीढ़ियाँ हैं। जंगली रात की नीरव शांति में वहीं दूर नीचे से इस मकान की एजेंट की आवाज़ सुनाई देती है। अभी वह दिखती नहीं है। उसकी आवाज़ सुनते ही कुछ सकपकाया सा मित्र बड़ी जल्दबाज़ी में मुझसे विदा लेकर लगभग भागता हुआ सा घर से बाहर निकल जाता है।

उसकी इस हरकत से आश्चर्यचकित मैं, अपने वर्तमान घर की गरमाहट याद करके सोचता हूँ कि अच्छा-भला घर होने के बावजूद ऐसे बेहूदे घर के लिये हमने हाँ की ही क्यों? आंगन की शेष दो दिशाओं में बिना दरवाज़ों के अनेक प्राचीन दर हैं, बारादरियों जैसे, जिनकी गहराई का अंधेरे के कारण मुझे अंदाज़ नहीं लग पा रहा। मेरी सतर्क बुद्धि उन्हें सुरक्षा का खतरा मानकर मन ही मन यह तय कर रही है कि सुबह उठते ही मेरा पहला काम उन्हें बंद कराने का होना चाहिये।

प्रॉपर्टी एजेंट भीतर आ गई है। उससे फ़ोन पर पहले बात हो चुकी है लेकिन भेंट का यह पहला अवसर होगा। अंधेरे में उसका चेहरा स्पष्ट नहीं दिखता, तो भी उसका बड़ा अजीब सा चश्मा और एक मर्दाना सा विग उसे रहस्यमयी बना रहा है। मेरे शक़्क़ी दिल को ऐसा लगता है जैसे वह अपनी पहचान छिपाने का प्रयास कर रही हो। पत्नी उसके स्वागत में बरामदे से बाहर आती है। पत्नी उससे इस जगह और घर के वीरान होने की शिकायत करती है तो वह पत्नी को समझाती है कि इस घर में हैलोवीन के पर्व पर ‘स्पूकी नाइट’ का खेल मज़े से खेला जा सकता है। एजेंट पत्नी को अपने फ़ोन पर इन्स्टाल्ड स्पूकी ऐप दिखाती है जिसे त्रिविमीय प्रोजेक्टर से जोड़ा जा सकता है। वे दोनों बातें करने लगते हैं। मैं उसकी बात सुनना तो चाहता हूँ लेकिन दिन भर की यात्रा और काम की थकान के कारण मुझे बहुत नींद आ रही है। न चाहते हुए भी सर भारी हो रहा है और आँखें मुंदने लगी हैं। लेकिन एजेंट द्वारा चलाई जा रही ‘स्पूकी ऐप’ की दर्दनाक और भयावह आवाज़ें सुन पा रहा हूँ। पत्नी की आवाज़ सुनाई देती है, “अरे ये सब तो एकदम सचमुच के भूत जैसे लग रहे हैं। आभासी होकर भी इतने वास्तविक!” मैं आँख खोलकर देखने की कोशिश करता हूँ लेकिन तब तक एप्प बंद हो चुकी है। मैं एजेंट को एक बार फिर से ऐप चलाने को कहता हूँ, ताकि मैं ठीक से देख और समझ सकूँ लेकिन वह कहती है कि एक प्रीव्यू चल चुकने के बाद अब इसे खरीदने के बाद ही चलाया जा सकता है। वह पत्नी को ऐप की खरीद के सारे डिटेल दे देती है।

एजेंट ने पत्नी को घर का नक्शा दिखाया। नक्शा देखकर पत्नी कहने लगी कि जब इस जंगल में जगह की कोई कमी नहीं थी तो फिर ठीक कब्रिस्तान के ऊपर ही घर बनाने की क्या ज़रूरत थी? यह सुनते ही मैंने नक्शा अपने हाथ में लेकर ध्यान से देखा। उसमें घर के ठीक नीचे एक के ऊपर एक सैकड़ों कब्रों की कई परतें बनी हुई दिखाई दीं। मुझे लगा कि यह तो बुरे फँसे। मैंने कुछ कहने की कोशिश की लेकिन एजेंट ने कुछ ऐसी नज़रों से मुझे देखा कि तीन-चार बार प्रयास करने पर भी किसी भयावह सपने की तरह मेरे सूखे गले से आवाज़ बाहर नहीं आ सकी। एजेंट को इशारे से घर दिखाने को कहा तो वह मुख्य भवन के बरामदे और बेडरूम की ओर जाने के बजाय उजाड़ बारादरी की ओर चल पड़ी। घर में बिजली नहीं थी। रात भी या तो कृष्णपक्ष की थी या फिर आकाश में घने बादल थे। हम तीनों में किसी के पास भी कोई टॉर्च या लैम्प आदि नहीं था लेकिन फिर भी किसी हल्की सी रोशनी में कुछ दूर तक का दिखाई दे रहा था।

पत्नी अब वहाँ नहीं है, मैं इधर-उधर देखता हूँ और उसे पास न पाकर उसके बारे में एजेंट से पूछना चाहता हूँ। लेकिन उसने अपने ठण्डे, हड़ियल हाथ से मेरी कलाई कुछ ऐसे पकड़ ली है कि मैं कुछ कह नहीं पाता। वह मेरे साथ चल रही है लेकिन मैं उसे देख नहीं सकता हूँ। मेरे पूछे बिना ही वह समझ जाती है कि मैं उसके अदृश्य होने का कारण जानना चाहता हूँ। तब वह मेरे सर से चिपका तकिया दिखाती है जो उसके लिये मेरी दृष्टिबाधा बन रहा था। तकिये पर ध्यान जाते ही मुझे लगता है जैसे मैं तब नींद में ही था और सोते-सोते, तकिये पर सिर रखे हुए ही उसके साथ चल रहा था।

बीच में कई भयावह बातें हुईं, जिनका ज़िक्र यहाँ निरर्थक है। मैं इस विषय में पत्नी से कुछ बात करना चाहता था पर वह तब भी मुझे नहीं दिखी। शायद वह मुख्य भवन में, बरामदे के पीछे वाले कमरों के अंदर ही कहीं थी। एजेंट ने घर की एक दीवार दिखाते हुए उस पर पुते रंग का कोई अंग्रेज़ी या लैटिन नाम बताया। स्पष्ट कर दूँ कि उस परदेस में हम लोगों की समस्त वार्ता अंग्रेज़ी में ही चल रही थी। घुप्प अंधेरे में मुझे न तो दीवार ठीक से दिखी, और न ही अंग्रेज़ी में कहा वह रंग समझ आया। मैं उससे उस रंग के नाम का अर्थ पूछता हूँ तो हिंदी का वाक्य सुनाई दिया, 'अरे बैंगनी रंग, और क्या?' मैं अचम्भित हो उठा कि एक अनजान देश में अनजान जाति की महिला अचानक स्पष्ट हिंदी कैसे बोलने लगी। तब मैंने चौकन्ने होकर पूछा, “यह कौन बोला? हिंदी में किसने कहा?” तभी अचानक से सामने दिखने लगी एक सुंदर युवती ने कहा, “आई वर्क्ड विथ एन इंडियन फैमिली। वे बेंगाली थे, मैंने वहीं हिंदी सीखी।" सब कुछ स्पष्ट सा दिखने लगा। रोशनी का स्रोत कहीं नहीं दिखा लेकिन देखा कि वहाँ सब कुछ हल्का सा प्रकाशित था। कुछ कमरे थे, और उन कमरों के आगे और भी कमरे थे, शायद बुरी तरह पकी काली ककैया ईंट के। लड़की के पास ही एक और लड़की खड़ी थी, इस लड़की से थो‌ड़ी सी बड़ी। छोटी लड़की ने बड़ी लड़की को इंगित करके कहा, “इसी ने मेरा खून कर दिया था।”

अब मुझे स्पष्ट होने लगता है कि मैं किसी गड़बड़झाले में फँस चुका हूँ। प्रॉपर्टी एजेंट सहित वे सभी शायद भूत थे। दृष्टि कुछ और साफ़ हुई है। आगे के कमरों में काले सूट-बूट, चिमनी हैट और सफ़ेद दस्ताने पहने कई लोग स्ट्रेचर जैसे लेकर जा रहे हैं। उनका केवल चेहरा खुला है। चेहरा आम इंसानों जैसा न होकर अस्थिमात्र है। हम उनसे कुछ इस तरह घिर गये हैं कि उनके साथ ही चलना पड़ रहा है। वे अचानक दीवार में बने खुले दरवाज़े से बाहर निकलकर दरवाज़े के बाहर दीवार से लगी बिना रेलिंग की खुली सीढ़ियों से चलकर कई मंज़िल नीचे बने खुले बड़े आंगन, या अंटिया की ओर जाने लगते हैं। कुछ लोग हमारे आगे हैं कुछ पीछे।

मैं उनकी असलियत जानने को उत्सुक हूँ। एक बार साहस करके उनकी प्रतिक्रिया जानने के लिये ‘हरि ॐ’ कहता हूँ तो मेरे आगे वाला व्यक्ति अपना मुख मेरी ओर मोड़कर बिना सामने देखे आराम से सीढ़ी उतरते हुए मुँह पर उंगली रखकर श्श्श कहकर मुझे कुछ दिखाते हुए कहता है, “आवाज़ से उनके ध्यान में बाधा पहुँचेगी।” मैं देखता हूँ कि हर सीढ़ी के समांतर, हवा में ही लामाओं की तरह पद्मासन में बैठे हुए कई कंकाल, काले कपड़ों में ऐसे लिपटे हुए हैं कि उनकी केवल खोपड़ी दिख रही है हैं। मेरी आवाज़ सुनकर उनमें से कई अपना-अपना मुँह घुमाकर मेरी ओर करते हैं और अपनी तरेरने वाली नज़र से आँखों के गड्ढे मुझ पर केंद्रित कर देते हैं। उनकी नज़रों की उपेक्षा कर मैंने एक बार और अधिक ज़ोर से ‘हरि ॐ’ कहा, और मेरी नींद खुल गयी।

हे भगवान, यह कैसा स्वप्न था। अब मैं आभासी जगत से वापस यथार्थ में आ तो गया था लेकिन आँखें जल रही थीं, खोलने में भी कठिनाई हो रही थी। मैं मुँह धोने के लिये स्नानागार में जाता हूँ। बत्ती जलाकर शीशे में देखता हूँ तो मेरे कंधे के पीछे से कोई मुस्कुराता हुआ दिखता है। मेरे ठीक पीछे हवा में टंगा हुआ कंकाल काले कपड़ों में पद्मासन लगाये हुए ही, मुझे देखकर हँसता है।

“तुम कौन हो?” मैं कहना चाहता हूँ, परंतु आवाज़ नहीं निकलती। गला घुट सा गया है। चिल्लाता हूँ तो हाथ मसहरी के हैडबोर्ड से टकराता है। अब मैं सचमुच जग गया हूँ, तकिया मेरी गर्दन से चिपका हुआ है। और पसीने से लथपथ अपने बिस्तर पर पड़ा हूँ। पंखा चल रहा है लेकिन हवा मुझ तक नहीं आ रही। पंखे से उल्टा लटका हुआ कंकाल मुझे एकटक देख रहा है।

Wednesday, August 22, 2018

रोशनाई - कविता

(शब्द और चित्र: अनुराग शर्मा)

रात अपनी सुबह परायी हुई
धुल के स्याही भी रोशनाई हुई

उनके आगे नहीं खुले ये लब
रात-दिन बात थी दोहराई हुई

आज भी बात उनसे हो न सकी
चिट्ठी भेजी हैं,  पाती आई हुई  

कवि होना सरल नहीं समझो
कहा दोहा,  सुना चौपाई हुई

खुद न होते न तुमसे मिलते हम
ऐसी हमसे न आशनाई हुई॥