Tuesday, December 29, 2009

ये बदनुमा धब्बे

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मेरे शुभचिंतक
जुटे हैं दिलोजान से
मिटाने
बदनुमा धब्बों को
मेरे चेहरे से
शुभचिंतक जो ठहरे
लहूलुहान हूँ मैं
कुछ भी
देख नहीं सकता
समझा भी नहीं पाता
किसी को कि
ये धब्बे नहीं
मेरी आँखें हैं!

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Saturday, December 26, 2009

हिन्दी की कालजयी रचना हार की जीत के लेखक पण्डित सुदर्शन

प्रेमचन्द, कौशिक और सुदर्शन, इन तीनों ने हिन्दी में कथा साहित्य का निर्माण किया है।
~ भगवतीचरण वर्मा (हम खंडहर के वासी)
पण्डित बद्रीनाथ भट्ट "सुदर्शन"
(1896-1967)
जम्मू में पाँचवीं कक्षा की पाठ्यपुस्तक में जब पहली बार "हार का जीत" पढी थी, तब से ही इसके लेखक के बारे में जानने की उत्सुकता थी। कितना ही ढूँढने पर भी कुछ जानकारी नहीं मिली। दुःख की बात है कि हार की जीत जैसी कालजयी रचना के लेखक होते हुए भी उनके बारे में जानकारी बहुत कम लोगों को है। गुलज़ार और अमृता प्रीतम पर आपको अंतरजाल पर बहुत कुछ मिल जाएगा मगर यदि आप पंडित सुदर्शन की जन्मतिथि, जन्मस्थान या कर्मभूमि के बारे में ढूँढने निकलें तो निराशा ही होगी।

पचास से अधिक पुस्तकों के लेखक पंडित सुदर्शन के नाम से प्रसिद्ध साहित्यकार का वास्तविक नाम बद्रीनाथ भट्ट (शर्मा) था। उनका जन्म 1896 में स्यालकोट पंजाब (अब पाकिस्तान) में हुआ था। उनके पिता पण्डित गुरुदित्तामल्ल गवर्नमेंट प्रेस शिमला में काम करते थे।

मुंशी प्रेमचंद और उपेन्द्रनाथ अश्क की तरह पंडित सुदर्शन हिन्दी और उर्दू दोनों में लिखते रहे हैं। उनकी गणना प्रेमचंद संस्थान के लेखकों में विश्वम्भरनाथ कौशिक, राजा राधिकारमणप्रसाद सिंह, भगवतीप्रसाद वाजपेयी आदि के साथ की जाती है। उनकी पहली उर्दू कहानी तब प्रकाशित हुई जब वे छठी कक्षा के छात्र थे।  उसके बाद लाहौर की उर्दू पत्रिका हज़ार दास्ताँ में उनकी अनेक कहानियाँ छपीं।

पंडित सुदर्शन ने 1913 कॉलेज छोड़ने के बाद लाहौर से प्रकाशित होने वाले उर्दू साप्ताहिक "हिंदोस्तान" के संपादकीय विभाग में नौकरी आरंभ की। उसके बाद उन्होने क्रम से चार उर्दू पत्रों, भारत, चंद्र, आर्य पत्रिका, व आर्य गज़ट का सम्पादन किया। उन्होने अखबार चलाये और साथ ही कहानियाँ लिखते रहे। उनकी पुस्तकें मुम्बई के हिन्दी ग्रन्थ रत्नाकर कार्यालय द्वारा भी प्रकाशित हुईं। उन्हें गद्य और पद्य दोनों ही में महारत थी। पंडित जी की पहली प्रकाशित हिन्दी कथा उनकी सबसे प्रसिद्ध कहानी हार की जीत है जो कि सन् 1920 में प्रतिष्ठित हिन्दी साहित्यिक पत्रिका सरस्वती में प्रकाशित हुई थी। उनकी कहानियों में मानवीय तत्व की प्रमुखता है।
“मेरी प्रार्थना केवल यह है कि इस घटना को किसी के सामने प्रकट न करना। ... लोगों को यदि इस घटना का पता चला तो वे दीन-दुखियों पर विश्वास न करेंगे।” ~ बाबा भारती (हार की जीत)
मुख्य धारा के साहित्य-सृजन के अतिरिक्त उन्होंने अनेक फिल्मों की कथा, पटकथा, संवाद और गीत भी लिखे हैं। सन् 1935 में उन्होंने "कुंवारी या विधवा" फिल्म का निर्देशन भी किया था। इस फिल्म के देशभक्ति-भाव से ओत-प्रोत गीत "भारत की दीन दशा का तुम्हें भारतवालों, कुछ ध्यान नहीं ..." ने पराधीन भारत के फिल्म-दर्शकों के मन में देशप्रेम का एक ज्वार सा उत्पन्न किया। फिल्म धूप-छाँव (1935) के प्रसिद्ध गीत "तेरी गठरी में लागा चोर", "बाबा मन की आँखें खोल" आदि उन्ही के लिखे हुए हैं। इसी फ़िल्म में उनका लिखा और पारुल घोष, सुप्रभा सरकार और हरिमति का गाया गीत “मैं ख़ुश होना चाहूँ, हो न पाऊँ...” सही अर्थ में भारतीय सिनेमा का पहला प्लेबैक गीत था। सोहराब मोदी की प्रसिद्ध फिल्म सिकंदर (1941) सहित अनेक फिल्मों की सफलता का श्रेय उनके पटकथा लेखन को जाता है।
आइये सुनें उनकी एक फिल्मी रचना मन की आँखें खोल का पुनर्प्रस्तुतिकरण मन्ना डे के स्वर में
(मूल प्रस्तुति फिल्म धूप छांव में श्री केसी डे के स्वर में थी।)
उनकी साहित्यिक रचनाओं में तीर्थ-यात्रा, पत्थरों का सौदागर, पृथ्वी-वल्लभ, बचपन की एक घटना, परिवर्तन, अपनी कमाई, हेर-फेर, सुप्रभात, सुदर्शन-सुधा आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। वे सन् 1950 में बने फिल्म लेखक संघ के प्रथम उपाध्यक्ष थे और सन् 1945 में महात्मा गांधी द्वारा प्रस्तावित अखिल भारतीय हिन्दुस्तानी प्रचार सभा वर्धा की साहित्य परिषद् के सम्मानित सदस्यों में से एक थे। उनका विवाह लीलावती देवी से हुआ था।

हिंदी के इस अग्रगण्य साहित्यकार का देहावसान 16 दिसम्बर 1967 को मुम्बई में हुआ था। यदि आपके पास पण्डित सुदर्शन पर कोई आलेख, उनका कोई चित्र या रेखाचित्र हो तो कृपया साझा कीजिये।
धन्यवाद!


 (निवेदक: अनुराग शर्मा शनिवार, 26 दिसंबर, 2009)
रेडियो प्लेबैक इंडिया पर पंडित सुदर्शन की कुछ कहानियाँ (ऑडियो)
* पण्डित सुदर्शन की "परिवर्तन"
* कालजयी रचना "हार की जीत"
* पंडित सुदर्शन की "तीर्थयात्रा
* साईकिल की सवारी - पंडित सुदर्शन
* पंडित सुदर्शन की "अठन्नी का चोर"
शिशिर कृष्ण शर्मा जी के ब्लॉग बीते हुए दिन पर प्रामाणिक जानकारी -
* कलम के सिकंदर: पण्डित सुदर्शन


Friday, December 25, 2009

लेन देन - एक कविता

(अनुराग शर्मा)

दीवारें मजदूरों की दर-खिड़की सारी सेठ ले गए।
सर बाजू सरदारों के निर्धन को खाली पेट दे गए।।

साम-दाम और दंड चलाके सौदागर जी भेद ले गए।
माल भर लिया गोदामों में रखवालों को गेट दे गए।।

मेरी मिल में काम मिलेगा कहके मेरा वोट ले गए।
गन्ना लेकर सस्ते में अब चीनी महंगे रेट दे गए।।

ठूँस-ठास के मन न भरा तो थैले में भरपेट ले गए।
चाट-चाट के चमकाने को अपनी जूठी प्लेट दे गए।।

अंत महीने बचा रुपय्या जनसेवा के हेत ले गए।
रक्त-सनी जिह्वा से बाबा शान्ति का उपदेश दे गए।।

चिकनी-चुपड़ी बातें करके हमसे सारा देश ले गए।
हाथी घोड़े प्यादे खाकर मंत्री जी चेक मेट दे गए।।

[आपको बड़े दिन, क्वांज़ा, हनूका, और नव वर्ष की हार्दिक शुभकामनाएं!]

Sunday, December 20, 2009

रजतमय धरती हुई [इस्पात नगरी से - २२]

पिछले हफ्ते से ही तापक्रम शून्य से नीचे चला गया था. रात भर हिमपात होता रहा. कल सुबह जब सोकर उठे तो आसपास सब कुछ रजतमय हो रहा था. बर्फ गिरती है तो सब कुछ अविश्वसनीय रूप से इतना सुन्दर हो जाता है कि शब्दों में व्यक्त करना कठिन है. चांदनी रातों की सुन्दरता तो मानो गूंगे का गुड़ ही हो. शब्दों का चतुर चितेरा नहीं हूँ इसलिए कुछ चित्र रख रहा हूँ. देखिये और आनंद लीजिये:


मेरे आँगन का एक पत्रहीन वृक्ष


घर के सामने का मार्ग


रात में बाहर छूटी कार


हमारे पड़ोस का वाइल्ड वुड नामक पारिवारिक मनोरंजन क्षेत्र


एक करीबी मुख्य मार्ग

[सभी चित्र अनुराग शर्मा द्वारा. बड़ा चित्र देखने के लिए चित्र को क्लिक करे.
Winter in Pittsburgh: All photos by Anurag Sharma]

Saturday, December 19, 2009

कार के प्रकार [इस्पात नगरी से - २१]


पिट्सबर्ग की एक विंटेज कार

                                      मर्सिसीज़ की पिद्दी सी स्मार्ट कार पिट्सबर्ग में


विश्व की पहली बिजली की कार १९६७ में पिट्सबर्ग की कंपनी वेस्टिंगहाउस ने बनाई थी


अलुमिनम कंपनी अल्कोआ द्वारा पिट्सबर्ग में अलुमिनम से बनाई गई कार


विश्व की प्राचीनतम जीप बैंटम ००७ पिट्सबर्ग में ही बनी थी


द्वितीय विश्व युद्ध के लिए बना उभयचर वाहन पिट्सबर्ग की मोनोंगाहेला नदी में


बोनस चित्र: पिट्सबर्ग की सड़क किनारे एक होंडा रूकस

अमेरिका के तिपहिया वाहनों के लिए इंतज़ार कीजिये अगली कड़ी तक.

[सभी चित्र अनुराग शर्मा द्वारा. बड़ा चित्र देखने के लिए चित्र को क्लिक करे.]
[Photo Courtesy: Anurag Sharma]

Tuesday, December 15, 2009

किशोर चौधरी के नाम...

प्रिय किशोर,

हम सभी को रोचक सपने आते रहे हैं, कभी-कभार कुछ याद भी रह जाता है और अक्सर सब भूल ही जाते हैं. कभी-कभी तो भूल जाने की प्रक्रिया याद रखने से पहले ही हो जाती है. मगर आपने उसे याद रखा और इतनी कुशलता से हम तक पहुँचाया, इसके लिये आभार. इस सपने में बहुत से सन्देश हैं जिन पर कभी व्यक्तिगत रूप से बात करेंगे.

सबसे पहले तो अपने पैर के आईठाण को निकलवाइये. मेरे ख्याल से तो कोई चर्मरोग विशेषज्ञ उसे कुछ मिनटों में ही निकाल सकता है. डॉ अनुराग आर्य बेहतर बता सकते हैं.

आपके पिताजी के बारे में जानकार दुःख हुआ. परिजनों का जाना - विशेषकर माता या पिता का - ऐसा विषय है जिस पर कोई कितना कुछ भी कहे या लिखे, उस क्षति की पूर्ति नहीं हो सकती है. जीवन फिर भी चलता है. भविष्य के लिए नहीं बल्कि भूत के सपनों को साकार करने के लिए. पुरखों की आशा को, उनके जीवन की ज्योति को अगली पीढ़ियों के सहारे पुष्ट करने के लिए. ज़रा सोचिये कि आपकी माताजी को उनकी कमी कितनी गहराई से महसूस होती होगी. उनके दर्द को समझकर जो भी सहायता कर सकते हैं करिये.

प्रियजनों का जाना बहुत दुखद है. इसके कारण हममें से बहुत लोग अस्थायी रूप से अवसादग्रस्त हो जाते हैं. इसका इलाज़ संभव है. चिकित्सा के साथ-साथ दिनचर्या में परिवर्तन भी लाभप्रद है. अगर आसानी से संभव हो तो आकाशवाणी की अपनी शिफ्ट दिन की कराने का प्रयास करो. संभव हो तो आधे घंटे का व्यायाम अपनी दिनचर्या में जोड़ लो. मित्रों से मिलते रहो, खासकर जीवट वाले मित्रों से.

सबको खुश रख पाना संभव नहीं है. इसका प्रयास भी आसान नहीं है. बहुत दम चाहिए. कोशिश यह करो कि अपनी और से सब ठीक हो आगे प्रभु की (और उनकी) मर्जी.

नाराज़ होकर ब्लॉग छोड़ने (और उसका ऐलान करने) की बात मुझे कभी समझ नहीं आयी. फिर भी इतना ही कहूंगा कि स्वतंत्र समाज में सबको अपनी मर्जी से चलने का हक है जब तक कि उनका कृत्य उन्हें और अन्य लोगों और परिवेश को कोई हानि न पहुँचाए.

शुभाकांक्षी
अनुराग.

पुनश्च: अगर में यह न बताऊँ कि तुम्हारा आज का लिखा मन को छू गया है तो यह पत्र अधूरा ही रह जाएगा. ऐसे ही लिखते रहो. बहुत लोगों को तुम्हारे लिखे का इंतज़ार रहता है.

[किशोर चौधरी एक समर्थ ब्लोगर हैं. उनकी पोस्ट "दोस्तों ब्लॉग छोड़ कर मत जाओ, कौन लिखेगा कि वक्त ऐसा क्यों है?" पर टिप्पणी लिखने बैठा तो पूरी पोस्ट ही बन गयी. टिप्पणी बक्से की अपनी शब्द सीमा है, इसलिए पोस्ट बनाकर यहाँ रख रहा हूँ. बहुत लम्बे समय से सपनों के बारे में एक शृंखला लिखने की सोच रहा था, किशोर की पोस्ट ने मुझे एक बार फिर उसके बारे में याद दिलाया है. जल्दी ही शुरू करूंगा.]

Friday, December 11, 2009

हनूका पर्व [इस्पात नगरी से - २०]

 भारत की तरह ही अमेरिका भी पारिवारिक और लोकतांत्रिक मूल्यों वाला और विविध संस्कृतियों की स्वतन्त्रता का सम्मान करने वाला देश है. सच पूछिए तो मुझे इन दोनों देशों के चरित्र में समानताएं अधिक दिखती हैं और अंतर न्यून. जिस प्रकार भारत में बहुत से धर्म, त्यौहार और उल्लास चहुँ और दिखता है वैसा ही यहाँ भी. प्रेतों के उत्सव हेलोवीन और धन्यवाद दिवस का ज़िक्र मैंने अपनी पिछली पोस्टों में किया था. यह समय क्रिसमस और नव-वर्ष का है. क्रिसमस के साथ ही दो अन्य प्रमुख पर्व इसी समय मनाये जाते हैं. क्वांज़ा नाम का त्यौहार मूलतः अफ्रीकी मूल के समुदाय द्वारा मनाया जाता है, जबकि हनूका या हनुक्कः का पर्व एक यहूदी परम्परा है.

दीवाली की तरह ही हनूका भी एक ज्योति पर्व है जो आठ दिन तक चलता है. इस साल यह ग्यारह दिसंबर, यानी आज से शुरू हो रहा है और विश्व भर में लगभग डेढ़ करोड़ यहूदियों द्वारा मनाया जाएगा. हिब्रू के शब्द हनुका का अर्थ है समर्पण. इसमें मनोरा नाम के आठ बत्तियों के चिराग को जलाकर प्रकाश फैलाया जाता है.

इन्हें भी पढ़ें:
लोक संगीत का आनंद लीजिये:  एक अलग सा राजस्थानी लोकगीत
गिरिजेश की प्रेरणा से लिखी यह उलटबांसी पढ़िए: भय - एक कविता



मासचुसेट्स जनरल हॉस्पिटल में वर्षांत पर्व-काल का एक पोस्टर
[चित्र सौजन्य: अनुराग शर्मा. Hanukkah poster. Photo by Anurag Sharma]


Wednesday, December 9, 2009

भय - एक कविता

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बच रहा था आप सबसे
कल तलक सहमा हुआ
अब बड़ा महफूज़ हूँ मैं
कब्र में आने के बाद

मौत का अब डर भी यारों
हो गया काफूर है
ज़िंदगी की बात ही क्या
ज़िंदगी जाने के बाद

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Friday, November 27, 2009

कुछ पल - टाइम मशीन में

बड़े भाई से लम्बी बातचीत करने के बाद काफी देर तक छोटे भाई से भी फ़ोन पर बात हुई। ये  दोनों भाई जम्मू में हमारे मकान मालिक के बेटे हैं। इन्टरनेट पर मेरे बचपन के बारे में एक आलेख पढ़कर बड़े भाई ने ईमेल से संपर्क किया, फ़ोन नंबर का आदान-प्रदान हुआ और आज उनतालीस साल (39) बाद हम लोग फिर से एक दूसरे से मुखातिब हुए। इत्तेफाक से इसी हफ्ते उसी शहर के एक सहपाठी से भी पैंतीस साल बाद बात हुई। उस बातचीत में थोड़ी निराशा हुई क्योंकि सहपाठी ठीक से पहचान भी नहीं सका।  लेकिन इन भाइयों की याददाश्त और उत्साह ने निराशा के उस अंश को पूरी तरह से धो डाला।

जम्मू के गरनों का स्वाद अभी भी याद है
फ़ोन रखकर हम लोग अपना सामान कार में सेट किया और निकल पड़े धन्यवाद दिवस (Thanksgiving Day) की अपनी 600 मील लम्बी यात्रा पर। पिट्सबर्ग के पहाड़ी परिदृश्य अक्सर ही जम्मू में बिताये मेरे बचपन की याद दिलाते हैं। जगमगाते जुगनुओं से लेकर हरे-भरे खड्डों तक सब कुछ वैसा ही है। आगे चल रही वैन का नंबर है JKT 3646। जम्मू में होने का अहसास और वास्तविक लगने लगता है। गति सीमा 70 मील है मगर अधिक चौकसी और भीड़ के कारण कोई भी गाड़ी 80 से ऊपर नहीं चल रही है। जहाँ तहाँ किसी न किसी वाहन को सड़क किनारे रोके हुए लाल-नीली बत्ती चमकाती पुलिस दिख रही है। वाजिब है, धन्यवाद दिवस की लम्बी छुट्टी अमेरिका का सबसे लंबा सप्ताहांत होता है। इस समय सड़क परिवहन भी अपने चरम पर होता है और दुर्घटनाएँ भी खूब होती हैं। जम्मू की यह गाडी तेज़ लेन में होकर भी सुस्त है, रास्ता नहीं दे रही है। मुझे दिल्ली के अपने बारह साल पुराने शांत मित्र फक्कड़ साहब याद आते हैं। यातायात की परवाह न करके वे अपने बजाज पर खरामा-खरामा सफ़र करते थे। मगर रहते थे हमेशा सड़क के तेज़ दायें सिरे पर। हमेशा पीछे से ठोंके जाते थे।

आधा मार्ग बीतने पर एक जगह रुककर हमने रात्रि भोजन कर लिया है। भोजन की खुमारी भी छाने लगी है। घर से निकलने में देर हो गयी थी मगर मैं अभी भी चुस्त हूँ और एक ही सिटिंग में सफ़र पूरा कर सकता हूँ। पत्नी को बैठे -बैठे बेचैनी होने लगी है सो रुकने को कहती हैं। होटल के स्वागत पर बैठी महिला दो बार अलग अलग तरह से पूछती है कि मैं डॉक्टर तो नहीं। जब उसे पक्का यकीन हो जाता है कि मैं नहीं हूँ तो झेंपती सी कहती है कि कई भारतीय लोग डॉक्टर होते हैं और अगर वह रसीद में उनके नाम से पहले यह विशेषण न लिखे तो वे खफा हो जाते हैं, बस इसलिए मुझसे पूछा। मैं कहना चाहता हूँ कि मैं अगर डॉक्टर होता तो भी ध्यान नहीं देता मगर कह नहीं पाता क्योंकि कोई कान में चीखता है, "तभी तो हो नहीं।" देखता हूँ तो पचीस साल पुराने सहकर्मी जनरंजन सरकार मुस्कराते हैं। जब भी मैं किसी परिवर्तन का ज़िक्र करता था, वे कहते थे कि यह काम नेताओं और अफसरों का है इसलिए कभी नहीं होगा। मैं कहता था कि यदि मैं नेता और अफसर होता तो ज़रूर करता। और जवाब में वे कहते थे, "इसीलिए तो तुम दोनों में से कुछ भी नहीं हो।" मेरे कुछ भी न होने की बात सही थी इसलिए उनसे कुछ कह नहीं सका हाँ एक बार इतना ज़रूर कहा कि वे अगर अपने बेटे का नाम भारत रखें तो भारत सरकार पर बेहतर नियंत्रण रख सकेंगे।

होटलकर्मी अगली सुबह के मुफ्त नाश्ते का समय बताने लगती है और मैं पच्चीस साल पुराने भारत सरकार के समय से निकलकर 2009 में आ जाता हूँ।

Sunday, November 8, 2009

सर्वे भवन्तु सुखिनः

नौ नवम्बर १९८९ - आज से बीस साल पहले घटी इस घटना ने साम्यवाद, कम्युनिज्म, मर्क्सिज्म और तानाशाही आदि टूटे वादों की कब्र में आखिरी कील सी ठोक दी थी. जब जर्मनी के नागरिकों ने साम्यवाद के दमन की प्रतीक बर्लिन की दीवार को तोड़कर साम्यवादियों के चंगुल को पूर्णतया नकार दिया था तब से आज तक की दुनिया बहुत बदल चुकी है. ऐसा नहीं कि बर्लिन की दीवार टूटने से सारी दुनिया में बन्दूक्वाद और तानाशाही का सफाया हो गया हो. ऐसा भी नहीं है कि इससे दुनिया की गरीबी या बीमारी जैसी समस्यायें समाप्त हो गयी हों. क्यूबा के नागरिक आज भी कम्युनिस्ट प्रशासन में भयंकर गरीबी में जीने को अभिशप्त हैं. तिब्बत के बौद्ध हों, चीन के वीघर((Uyghur: ئۇيغۇر) मुसलमान हों या पाकिस्तानी सिख, इंसानियत का एक बहुत बड़ा भाग आज भी अत्याचारी तानाशाहों के खूनी पंजों तले कुचला जा रहा है .


बर्लिन दीवार का पतन


जजिया और दमन के शिकार पाकिस्तान के सिख


माओवादियों के सताए वीघर मुसलमान

Thursday, November 5, 2009

... छोटन को उत्पात

पिछले दिनों रंजना जी ने क्षमा के ऊपर एक बहुत अच्छा लेख लिखा जिसने मुझे बहुत प्रभावित किया. पूरा लेख और टिप्पणियाँ पढने के बाद मुझे लगा कि भारतीय मानस में क्षमा का एक अन्य पक्ष अक्सर छूट जाता है, क्यों न इस बहाने उसका ज़िक्र कर लिया जाए, सो कुछ विचार प्रस्तुत हैं.

क्षमा के बारे में दुनिया भर में बहुत कुछ कहा गया है. विशेषकर भारतीय ग्रन्थ क्षमा की महिमा से भरे पड़े हैं. हर प्रवचन में लगभग हर स्वामी जी क्षमा की महत्ता पर जोर देते रहे हैं. पश्चिमी विचारधारा में भी क्षमा महत्वपूर्ण है. जब भी हम किसी और से कुढे बैठे होते हैं तब अक्सर अंग्रेजी की कहावत "फोरगिव एंड फोरगेट" याद आती है (या फिर याद दिला दी जाती है.) भारत में तो बाकायदा क्षमा-पर्व भी होता है जिसमें बड़े बड़े लोग क्षमा मांगते हुए और छोटे-बड़े लोग क्षमा करके भूलते (?) हुए नज़र आते हैं.

बाबाजी प्रवचन में क्षमा पर जोर देते हैं और हम अपने बदतमीज़ बॉस के प्रति तुंरत ही क्षमाशील हो जाते हैं. यह बात अलग है कि हम बात-बेबात अपने बाल-परिचारक का कान उमेठना बंद नहीं करते. बीमार बच्चे के लिए महरी का एक दिन न आना कभी भी क्षम्य नहीं होता है. हमारी क्षमा या तो अपनों के लिए होती है या अपने से बड़ों के लिए. आइये एक नज़र देखें क्या यही हमारे ग्रंथों की क्षमा है.

बाबा तुलसीदास ने कहा था, "क्षमा बडन को चाहिए, छोटन को उत्पात." इस कथन में मुझे दो बाते दिखती हैं, पहली यह कि उत्पात छोटों का काम है. दूसरी बात यह है कि क्षमा (मांगना और करना दोनों ही) बड़े या शक्तिशाली का स्वभाव होना चाहिए. जब किसी राष्ट्र का सर्वोपरि मृत्युदंड पाए कैदियों को क्षमा करता है तो उसमें "क्षमा बडन को चाहिए" स्पष्ट दिखता है. अपराधी ने राष्ट्रपति के प्रति कोई अपराध नहीं किया था. फिर क्षमा राष्ट्रपति द्वारा क्यों? क्योंकि क्षमा शक्तिशाली ही कर सकता है. "क्षमा वीरस्य भूषणं" से भी यही बात ज़ाहिर होती है. भारतीय संस्कृति में तो एक बंदी छोड़ने का दिन भी होता था जब राजा सुधरे हुए अपराधियों की बाकी की सजा माफ़ कर देते थे. राष्ट्रकवि दिनकर के शब्दों में:
क्षमा शोभती उस भुजंग को जिसके पास गरल हो,
उसको क्या जो दंतहीन विषरहित विनीत सरल हो


"फोरगिव एंड फोरगेट" की बात करें तो एक और बात पर ध्यान जाता है वह है क्षमा किसको? हम किसी को क्षमा करते हैं क्योंकि हमने अपने मन में उसे किसी बात का दोषी ठहरा दिया था. क्या अपनी नासमझी के चलते दूसरों को दोषी ठहराना सही होगा?

अगर अस्सी साल की माँ अपनी साठ साल की बेटी से दशकों तक इसलिए नहीं मिली है क्योंकि बेटी ने प्रेम-विवाह कर लिया था तो उस माँ के लिए क्षमा सुझाना बचपना होगा. इस माँ ने बेटी के अपने से स्वतंत्र व्यक्तित्व को समझा नहीं तो उसमें बेटी का कोई अपराध नहीं है. निर्दोष को पहले दोषी ठहराकर आरोपित करना और कुढ़ते रहना और फिर क्षमा करके बड़े बन जाना सही नहीं लगता है. बेहतर होगा कि हम हर बात में दूसरों को दोष देने के बजाय वस्तुस्थिति को समझने का प्रयास करें.

मैं क्षमा के महत्व को कम नहीं आंक रहा हूँ बल्कि मैं इसके विपरीत यह कहने का प्रयास कर रहा हूँ कि क्षमा एक बहुत बड़ा गुण है और इसे देने का अधिकार उसे ही है जो शक्तिशाली भी है और जिसने दूसरों को अकारण दोषी नहीं ठहराया है. दूसरे शब्दों में, हम जैसे गलतियों के पुतलों के लिए, "क्षमा विनम्र होकर मांगने की चीज़ है, बड़े बनकर बांटने की नहीं."

जो तीसरी बात सामने आती है वह यह कि क्षमा न्याय-सांगत होनी चाहिए. हम गलतियां करते रहें और क्षमा मांगते रहें यह भी गलत है और उससे भी ज़्यादा गलत यह होगा कि सिर्फ स्वार्थ के लिए किसी भी धर्म, वाद या विचार के नाम पर आसुरी शक्तियां निर्दोषों का खून बहाती रहें और हम अपनी निस्सहायता, भीरुता या बेरुखी को क्षमा के नाम से महिमामंडित करते रहें.

संतों ने तो क्षमा को साक्षात प्रभु का रूप ही माना है इसलिए इस लेख में हुई सारी त्रुटियों के लिए आपसे क्षमा मांगते हुए मैं तुलसीदास जी को उद्धृत करना चाहूंगा:

दया धर्म का मूल है, पाप मूल अभिमान।
तुलसी दया न छांड़िए, जब लग घट में प्राण॥


यही बात कबीरदास के शब्दों में:
जहां क्रोध तहं काल है, जहां लोभ तहं पाप।
जहां दया तहं धर्म है, जहां क्षमा तहं आप॥

Tuesday, November 3, 2009

अहम् ब्रह्मास्मि - कविता

हिन्दी अकादमी, दिल्ली द्वारा प्रकाशित
प्रवासी काव्य संग्रह "देशांतर" की प्रथम कविता
शामे अवध हो या सुबहे बनारस
पूनम का चन्दा हो चाहे अमावस

अली की गली या बली का पुरम हो
निराकार हो या सगुण का मरम हो

हो मज़हब रिलीजन, मत या धरम हो
मैं फल की न सोचूँ तो सच्चा करम हो

कोई नाम दे दो कोई रूप कर दो
उठा दो गगन में धरा पे या धर दो

तमिलनाडु, आंध्रा, शोनार बांगला
सिडनी, दोहा, पुणे माझा चांगला

सूरत नी दिकरी, मथुरा का छोरा
मोटा या पतला, काला या गोरा

सारे जहाँ से आयी ये लहरें
ऊँची उठी हैं, पहुँची हैं गहरे

खुदा की खुमारी, मदमस्त मस्ती
हरि हैं हृदय में, यही मेरी हस्ती

Monday, November 2, 2009

भोर का सपना - कविता

बीता हर पल ही अपना था
विरह-वेदना में तपना था

क्या रिश्ता है समझ न पाया
आज पराया कल अपना था

हुई उषा तो टूटा पल में
भोर का मीठा सा सपना था

रुसवाई की हुई इंतहा
नाम हमारा ही छपना था

सजी चिता तपती प्रेमाग्नि
जीवन अपना यूँ खपना था

बैरागी हों या अनुरागी
नाम तुम्हारा ही जपना था

(अनुराग शर्मा)

Wednesday, October 28, 2009

प्रेतों का उत्सव [इस्पात नगरी से - १९]

पिछली एक पोस्ट में जब मैंने हैलोवीन की तैय्यारी में बैठे बच्चों द्वारा अपने घरों के बाहर नकली कब्रें और कंकाल आदि का ज़िक्र किया था तो इसी बहाने हैलोवीन पर कुछ लिखने का शरद जी का अनुरोध मिला। पिछले साल मैंने इस विषय पर लिखने के बारे में सोचा भी था मगर फिर आलस करके (गिरिजेश राव से क्षमा याचना सहित) रह गया। खैर, देर आयद दुरुस्त आयद। आज की शुरुआत कुछ चित्रों से कर रहा हूँ। बाद में अन्य जानकारी भी रखने का प्रयास करूंगा। सभी चित्र क्लिक करके बड़े किए जा सकते हैं। समुद्री डाकू का यह भूत हमसे मिलने बड़ी दूर से आया है। उड़ने वाले प्रेतों के प्यारे-प्यारे बच्चे कुछ दिन मेपल के इसी वृक्ष पर रहने वाले हैं। चेतावनी भूत के लिए? नहीं, वर्तमान के लिए! मकडी के जाले? नए निराले. अभी-अभी कब्र फाड़कर निकला हूँ। कुछ दिन यहीं रहूँगा। इस्पात नगरी से - १८ [पिछली कडी] [All Halloween photos by Anurag Sharma. सभी चित्र अनुराग शर्मा द्वारा]

Saturday, October 24, 2009

चौथी का जोडा (खंड २): इस्मत चुगताई

आज उर्दू की क्रांतिकारी लेखिका इस्मत चुगताई की पुण्यतिथि के अवसर पर उनकी एक मार्मिक कहानी का लेख यहाँ प्रस्तुत है. यदि आप सुनना चाहें तो आवाज़ के सौजन्य से यह कहानी यहाँ सुनी जा सकती है: सुनो कहानी

चौथी का जोडा: इस्मत चुगताई
[अब तक की कहानी यहाँ है]
और अब अब्बा कुबरा की जवानी की तरफ रहम-तलब निगाहों से देखते। कुबरा जवान थी। कौन कहता था जवान थी? वो तो जैसे बिस्मिल्लाह के दिन से ही अपनी जवानी की आमद की सुनावनी सुन कर ठिठक कर रह गयी थी। न जाने कैसी जवानी आयी थी कि न तो उसकी आंखों में किरनें नाचीं न उसके रुखसारों पर जुल्फ़ें परेशान हुईं, न उसके सीने पर तूफान उठे और न कभी उसने सावन-भादों की घटाओं से मचल-मचल कर प्रीतम या साजन मांगे। वो झुकी-झुकी, सहमी-सहमी जवानी जो न जाने कब दबे पांव उस पर रेंग आयी, वैसे ही चुपचाप न जाने किधर चल दी। मीठा बरस नमकीन हुआ और फिर कडवा हो गया।

अब्बा एक दिन चौखट पर औंधे मुँह गिरे और उन्हें उठाने के लिये किसी हकीम या डाक्टर का नुस्खा न आ सका।और हमीदा ने मीठी रोटी के लिये जिद करनी छोड दी। और कुबरा के पैगाम न जाने किधर रास्ता भूल गये। जानो किसी को मालूम ही नहीं कि इस टाट के परदे के पीछे किसी की जवानी आखिरी सिसकियां ले रही है और एक नयी जवानी सांप के फन की तरह उठ रही है।
मगर बी-अम्मां का दस्तूर न टूटा। वो इसी तरह रोज-रोज दोपहर को सहदरी में रंग-बिरंगे कपडे फ़ैला कर गुडियों का खेल खेला करती हैं।

कहीं न कहीं से जोड ज़मा करके शरबत के महीने में क्रेप का दुपट्टा साढे सात रुपए में खरीद ही डाला। बात ही ऐसी थी कि बगैर खरीदे गुज़ारा न था। मंझले मामू का तार आया कि उनका बडा लडक़ा राहत पुलिस की ट्रेनिंग के सिलसिले में आ रहा है। बी-अम्मां को तो बस जैसे एकदम घबराहट का दौरा पड ग़या। जानो चौखट पर बारात आन खडी हुई और उन्होंने अभी दुल्हन की मांग अफशां भी नहीं कतरी। हौल से तो उनके छक्के छूट गये। झट अपनी मुँहबोली बहन, बिन्दु की मां को बुला भेजा कि बहन, मेरा मरी का मुँह देखो जो इस घड़ी न आओ।

और फिर दोनों में खुसर-पुसर हुई। बीच में एक नजर दोनों कुबरा पर भी डाल लेतीं, जो दालान में बैठी चावल फटक रही थी। वो इस कानाफूसी की जबान को अच्छी तरह समझती थी।

उसी वक्त बी-अम्मां ने कानों से चार माशा की लौंगें उतार कर मुँहबोली बहन के हवाले कीं कि जैसे-तैसे करके शाम तक तोला भर गोकरू, छ: माशा सलमा-सितारा और पाव गज नेफे के लिये टूल ला दें। बाहर की तरफ वाला कमरा झाड-पौंछ कर तैयार किया गया। थोडा सा चूना मंगा कर कुबरा ने अपने हाथों से कमरा पोत डाला। कमरा तो चिट्टा हो गया, मगर उसकी हथेलियों की खाल उड ग़यी। और जब वो शाम को मसाला पीसने बैठी तो चक्कर खा कर दोहरी हो गयी। सारी रात करवटें बदलते गुजरी। एक तो हथेलियों की वजह से, दूसरे सुबह की गाडी से राहत आ रहे थे।

"अल्लाह! मेरे अल्लाह मियां, अबके तो मेरी आपा का नसीब खुल जाये। मेरे अल्लाह, मैं सौ रकात नफिल तेरी दरगाह में पढूंग़ी।" हमीदा ने फजिर की नमाज पढक़र दुआ मांगी।

सुबह जब राहत भाई आये तो कुबरा पहले से ही मच्छरोंवाली कोठरी में जा छुपी थी। जब सेवइयों और पराठों का नाश्ता करके बैठक में चले गये तो धीरे-धीरे नई दुल्हन की तरह पैर रखती हुई कुबरा कोठरी से निकली और जूठे बर्तन उठा लिये।

"लाओ मैं धो दूं बी आपा।" हमीदा ने शरारत से कहा।
"नहीं।" वो शर्म से झुक गयीं।
हमीदा छेडती रही, बी-अम्मां मुस्कुराती रहीं और क्रेप के दुपट्टे में लप्पा टांकती रहीं।

जिस रास्ते कान की लौंग गयी थी, उसी रास्ते फूल, पत्ता और चांदी की पाजेब भी चल दी थीं। और फिर हाथों की दो-दो चूडियां भी, जो मंझले मामू ने रंडापा उतारने पर दी थीं। रूखी-सूखी खुद खाकर आये दिन राहत के लिये परांठे तले जाते, कोफ्ते, भुना पुलाव महकते। खुद सूखा निवाला पानी से उतार कर वो होने वाले दामाद को गोश्त के लच्छे खिलातीं।

"जमाना बडा खराब है बेटी!" वो हमीदा को मुँह फुलाये देखकर कहा करतीं और वो सोचा करती-हम भूखे रह कर दामाद को खिला रहे हैं। बी-आपा सुबह-सवेरे उठकर मशीन की तरह जुट जाती हैं। निहारमुँह पानी का घूंट पीकर राहत के लिये परांठे तलती हैं। दूध औटाती हैं, ताकि मोटी सी बालाई पडे। उसका बस नहीं था कि वो अपनी चर्बी निकाल कर उन परांठों में भर दे। और क्यों न भरे, आखिर को वह एक दिन उसीका हो जायेगा। जो कुछ कमायेगा, उसीकी हथेली पर रख देगा। फल देने वाले पौधे को कौन नहीं सींचता?

फिर जब एक दिन फूल खिलेंगे और फूलों से लदी हुई डाली झुकेगी तो ये ताना देने वालियों के मुँह पर कैसा जूता पडेग़ा! और उस खयाल ही से बी-आपा के चेहरे पर सुहाग खेल उठता। कानों में शहनाइयां बजने लगतीं और वो राहत भाई के कमरे को पलकों से झाडतीं। उसके कपडों को प्यार से तह करतीं, जैसे वे उनसे कुछ कहते हों। वो उनके बदबूदार, चूहों जैसे सडे हुए मोजे धोतीं, बिसान्दी बनियान और नाक से लिपटे हुए रुमाल साफ करतीं। उसके तेल में चिपचिपाते हुए तकिये के गिलाफ पर स्वीट ड्रीम्स काढतीं। पर मामला चारों कोने चौकस नहीं बैठ रहा था। राहत सुबह अण्डे-परांठे डट कर जाता और शाम को आकर कोफ्ते खाकर सो जाता। और बी-अम्मां की मुँहबोली बहन हाकिमाना अन्दाज में खुसर-पुसर करतीं।

"बडा शर्मीला है बेचारा!" बी-अम्मां तौलिये पेश करतीं।
"हां ये तो ठीक है, पर भई कुछ तो पता चले रंग-ढंग से, कुछ आंखों से।"
"ए नउज, ख़ुदा न करे मेरी लौंडिया आंखें लडाए, उसका आंचल भी नहीं देखा है किसी ने।" बी-अम्मां फख्र से कहतीं।
"ए, तो परदा तुडवाने को कौन कहे है!" बी-आपा के पके मुँहासों को देखकर उन्हें बी-अम्मां की दूरंदेशी की दाद देनी पडती।
"ऐ बहन, तुम तो सच में बहुत भोली हो। ये मैं कब कहूं हूं? ये छोटी निगोडी क़ौन सी बकरीद को काम आयेगी?" वो मेरी तरफ देख कर हंसतीं, "अरी ओ नकचढी! बहनों से कोई बातचीत, कोई हंसी-मजाक! उंह अरे चल दिवानी!"
"ऐ, तो मैं क्या करूं खाला?"
"राहत मियां से बातचीत क्यों नहीं करती?"
"भइया हमें तो शर्म आती है।"
"ए है, वो तुझे फाड ही तो खायेगा न?" बी अम्मां चिढा कर बोलतीं।
"नहीं तो मगर" मैं लाजवाब हो गयी।
और फिर मिसकौट हुई। बडी सोच-विचार के बाद खली के कबाब बनाये गये। आज बी-आपा भी कई बार मुस्कुरा पडीं। चुपके से बोलीं, " देख हंसना नहीं, नहीं तो सारा खेल बिगड ज़ायेगा।"
"नहीं हंसूंगी।" मैं ने वादा किया।

"खाना खा लीजिये।" मैं ने चौकी पर खाने की सेनी रखते हुए कहा। फिर जो पाटी के नीचे रखे हुए लोटे से हाथ धोते वक्त मेरी तरफ सिर से पांव तक देखा तो मैं भागी वहां से। अल्लाह, तोबा! क्या खूनी आंखें हैं!
"जा निगोड़ी, मरी, अरी देख तो सही, वो कैसा मुँह बनाते हैं। ए है, सारा मजा किरकिरा हो जायेगा।"
आपा-बी ने एक बार मेरी तरफ देखा। उनकी आंखों में इल्तिजा थी, लुटी हुई बारातों का गुबार था और चौथी के पुराने जोडों की मन्द उदासी। मैं सिर झुकाए फिर खम्भे से लग कर खडी हो गयी।

राहत खामोश खाते रहे। मेरी तरफ न देखा। खली के कबाब खाते देख कर मुझे चाहिये था कि मजाक उडाऊं, कहकहे लगाऊं कि वाह जी वाह, दूल्हा भाई, खली के कबाब खा रहे हो!" मगर जानो किसी ने मेरा नरखरा दबोच लिया हो।

बी-अम्मां ने मुझे जलकर वापस बुला लिया और मुँह ही मुँह में मुझे कोसने लगीं। अब मैं उनसे क्या कहती, कि वो मजे से खा रहा है कमबख्त!
"राहत भाई! कोफ्ते पसन्द आये? बी-अम्मां के सिखाने पर मैं ने पूछा।
जवाब नदारद।
"बताइये न?"
"अरी ठीक से जाकर पूछ!" बी-अम्मां ने टहोका दिया।
"आपने लाकर दिये और हमने खाये। मजेदार ही होंगे।"
"अरे वाह रे जंगली!" बी-अम्मां से न रहा गया।
"तुम्हें पता भी न चला, क्या मजे से खली के कबाब खा गये!"
"खली के? अरे तो रोज क़ाहे के होते हैं? मैं तो आदी हो चला हूं खली और भूसा खाने का।"

बी-अम्मां का मुँह उतर गया। बी-अम्मां की झुकी हुई पलकें ऊपर न उठ सकीं। दूसरे रोज बी-आपा ने रोजाना से दुगुनी सिलाई की और फिर जब शाम को मैं खाना लेकर गयी तो बोले-
"कहिये आज क्या लायी हैं? आज तो लकडी क़े बुरादे की बारी है।"
"क्या हमारे यहां का खाना आपको पसन्द नहीं आता?" मैं ने जलकर कहा।
"ये बात नहीं, कुछ अजीब-सा मालूम होता है। कभी खली के कबाब तो कभी भूसे की तरकारी।"
मेरे तन बदन में आग लग गयी। हम सूखी रोटी खाकर इसे हाथी की खुराक दें। घी टपकते परांठे ठुसाएं। मेरी बी-आपा को जुशांदा नसीब नहीं और इसे दूध मलाई निगलवाएं। मैं भन्ना कर चली आयी।

बी-अम्मां की मुँहबोली बहन का नुस्खा काम आ गया और राहत ने दिन का ज्यादा हिस्सा घर ही में गुज़ारना शुरु कर दिया। बी-आपा तो चूल्हे में जुटी रहतीं, बी-अम्मां चौथी के जोड़े सिया करतीं और राहत की गलीज आँखों के तीर मेरे दिल में चुभा करते। बात-बेबात छेड़ना, खाना खिलाते वक्त कभी पानी तो कभी नमक के बहाने। और साथ-साथ जुमलेबाजी! मैं खिसिया कर बी-आपा के पास जा बैठती। जी चाहता, किसी दिन साफ कह दूं कि किसकी बकरी और कौन डाले दाना-घास! ऐ बी, मुझसे तुम्हारा ये बैल न नाथा जायेगा। मगर बी-आपा के उलझे हुए बालों पर चूल्हे की उडती हुई राख नहीं सफेदी! मेरा कलेजा धक् से हो गया। मैं ने उनके सफेद बाल लट के नीचे छुपा दिये। नास जाये इस कमबख्त नजले का, बेचारी के बाल पकने शुरु हो गये।

राहत ने फिर किसी बहाने मुझे पुकारा।
"उंह!" मैं जल गयी। पर बी आपा ने कटी हुई मुर्गी की तरह जो पलट कर देखा तो मुझे जाना ही पडा।
"आप हमसे खफा हो गयीं?" राहत ने पानी का कटोरा लेकर मेरी कलाई पकड ली। मेरा दम निकल गया और भागी तो हाथ झटककर।
"क्या कह रहे थे?" बी-आपा ने शर्मो हया से घुटी आवाज में कहा। मैं चुपचाप उनका मुँह ताकने लगी।
"कह रहे थे, किसने पकाया है खाना? वाह-वाह, जी चाहता है खाता ही चला जाऊं। पकानेवाली के हाथ खा जाऊं। ओह नहीं खा नहीं जाऊं, बल्कि चूम लूं।" मैं ने जल्दी-जल्दी कहना शुरु किया और बी-आपा का खुरदरा, हल्दी-धनिया की बसांद में सडा हुआ हाथ अपने हाथ से लगा लिया। मेरे आंसू निकल आये। ये हाथ! मैं ने सोचा, जो सुबह से शाम तक मसाला पीसते हैं, पानी भरते हैं, प्याज काटते हैं, बिस्तर बिछाते हैं, जूते साफ करते हैं! ये बेकस गुलाम की तरह सुबह से शाम तक जुटे ही रहते हैं। इनकी बेगार कब खत्म होगी? क्या इनका कोई खरीदार न आयेगा? क्या इन्हें कभी प्यार से न चूमेगा?
क्या इनमें कभी मेंहदी न रचेगी? क्या इनमें कभी सुहाग का इतर न बसेगा? जी चाहा, जोर से चीख पडूं।

"और क्या कह रहे थे? " बी-आपा के हाथ तो इतने खुरदरे थे पर आवाज ऌतनी रसीली और मीठी थी कि राहत के अगर कान होते तो मगर राहत के न कान थे न नाक, बस दोजख़ ज़ैसा पेट था!
"और कह रहे थे, अपनी बी-आपा से कहना कि इतना काम न किया करें और जोशान्दा पिया करें।"
"चल झूठी!"
"अरे वाह, झूठे होंगे आपके वो"
"अरे, चुप मुरदार!" उन्होंने मेरा मुँह बन्द कर दिया।
"देख तो स्वेटर बुन गया है, उन्हें दे आ। पर देख, तुझे मेरी कसम, मेरा नाम न लीजो।"
"नहीं बी-आपा! उन्हें न दो वो स्वेटर। तुम्हारी इन मुट्ठी भर हड्डियों को स्वेटर की कितनी जरूरत है? मैं ने कहना चाहा पर न कह सकी।
"आपा-बी, तुम खुद क्या पहनोगी?"
"अरे, मुझे क्या जरूरत है, चूल्हे के पास तो वैसे ही झुलसन रहती है।"

स्वेटर देख कर राहत ने अपनी एक आई-ब्रो शरारत से ऊपर तान कर कहा, "क्या ये स्वेटर आपने बुना है?"
"नहीं तो।"
"तो भई हम नहीं पहनेंगे।"
मेरा जी चाहा कि उसका मुँह नोच लूं। कमीने, मिट्टी के लोंदे! ये स्वेटर उन हाथों ने बुना है जो जीते-जागते गुलाम हैं। इसके एक-एक फन्दे में किसी नसीबों जली के अरमानों की गरदनें फंसी हुई हैं। ये उन हाथों का बुना हुआ है जो नन्हे पगोडे झुलाने के लिये बनाये गये हैं। उनको थाम लो गधे कहीं के और ये जो दो पतवार बडे से बडे तूफान के थपेडों से तुम्हारी जिन्दगी की नाव को बचाकर पार लगा देंगे। ये सितार की गत न बजा सकेंगे। मणिपुरी और भरतनाटयम की मुद्रा न दिखा सकेंगे, इन्हें प्यानो पर रक्स करना नहीं सिखाया गया, इन्हें फूलों से खेलना नहीं नसीब हुआ, मगर ये हाथ तुम्हारे जिस्म पर चरबी चढाने के लिये सुबह शाम सिलाई करते हैं, साबुन और सोडे में डुबकियां लगाते हैं, चूल्हे की आंच सहते हैं। तुम्हारी गलाजतें धोते हैं। इनमें चूडियां नहीं खनकती हैं। इन्हें कभी किसी ने प्यार से नहीं थामा।

मगर मैं चुप रही। बी-अम्मां कहती हैं, मेरा दिमाग तो मेरी नयी-नयी सहेलियों ने खराब कर दिया है। वो मुझे कैसी नयी-नयी बातें बताया करती हैं। कैसी डरावनी मौत की बातें, भूख की और काल की बातें। धडक़ते हुए दिल के एकदम चुप हो जाने की बातें।

"ये स्वेटर तो आप ही पहन लीजिये। देखिये न आपका कुरता कितना बारीक है!"
जंगली बिल्ली की तरह मैं ने उसका मुँह, नाक, गिरेबान नोच डाले और अपनी पलंगडी पर जा गिरी। बी-आपा ने आखिरी रोटी डालकर जल्दी-जल्दी तसले में हाथ धोए और आंचल से पांछती मेरे पास आ बैठीं।
"वो बोले? " उनसे न रहा गया तो धडक़ते हुए दिल से पूछा।
"बी-आपा, ये राहत भाई बडे ख़राब आदमी हैं।" मैं ने सोचा मैं आज सब कुछ बता दूंगी।
"क्यों?" वो मुस्कुरायी।
"मुझे अच्छे नहीं लगते देखिये मेरी सारी चूडियां चूर हो गयीं!" मैं ने कांपते हुए कहा।
"बडे शरीर हैं!" उन्होंने रोमान्टिक आवाज में शर्मा कर कहा।
"बी-आपा सुनो बी-आपा! ये राहत अच्छे आदमी नहीं।" मैं ने सुलग कर कहा।
"आज मैं बी-अम्मां से कह दूंगी।"
"क्या हुआ? "बी-अम्मां ने जानमाज बिछाते हुए कहा।
"देखिये मेरी चूडियां बी-अम्मां!"
"राहत ने तोड ड़ालीं?" बी-अम्मां मसर्रत से चहक कर बोलीं।
"हां!"
"खूब किया! तू उसे सताती भी तो बहुत है। ए है, तो दम काहे को निकल गया! बडी मोम की नमी हुई हो कि हाथ लगाया और पिघल गयीं!" फिर चुमकार कर बोलीं, "खैर, तू भी चौथी में बदला ले लीजियो, कसर निकाल लियो कि याद ही करें मियां जी!" ये कह कर उन्होंने नियत बांध ली। मुँहबोली बहन से फिर कांफ्रेंस हुयी और मामले को उम्मीद-अफ्ज़ा रास्ते पर गामजन देखकर अज़हद खुशनूदी से मुस्कुराया गया।

"ऐ है, तू तो बडी ही ठस है। ऐ हम तो अपने बहनोइयों का खुदा की कसम नाक में दम कर दिया करते थे।" और वो मुझे बहनोइयों से छेड छाड क़े हथकण्डे बताने लगीं कि किस तरह सिर्फ छेडछाड क़े तीरन्दाज नुस्खे से उन दो ममेरी बहनों की शादी करायी, जिनकी नाव पार लगने के सारे मौके हाथ से निकल चुके थे। एक तो उनमें से हकीम जी थे। जहां बेचारे को लडक़ियां-बालियां छेडतीं, शरमाने लगते और शरमाते-शरमाते एख्तेलाज क़े दौरे पडने लगते। और एक दिन मामू साहब से कह दिया कि मुझे गुलामी में ले लीजिये। दूसरे वायसराय के दफ्तर में क्लर्क थे। जहां सुना कि बाहर आये हैं, लडक़ियां छेडना शुरु कर देती थीं। कभी गिलौरियों में मिर्चें भरकर भेज दें, कभी सेवंईंयों में नमक डालकर खिला दिया।

"ए लो, वो तो रोज आने लगे। आंधी आये, पानी आये, क्या मजाल जो वो न आयें। आखिर एक दिन कहलवा ही दिया। अपने एक जान-पहचान वाले से कहा कि उनके यहां शादी करा दो। पूछा कि भई किससे? तो कहा, "किसी से भी करा दो।" और खुदा झूठ न बुलवाये तो बडी बहन की सूरत थी कि देखो तो जैसे बैंचा चला आता है। छोटी तो बस सुब्हान अल्लाह! एक आंख पूरब तो दूसरी पच्छम। पन्द्रह तोले सोना दिया बाप ने और साहब के दफ्तर में नौकरी अलग दिलवायी।"
"हां भई, जिसके पास पन्द्रह तोले सोना हो और बडे साहब के दफ्तर की नौकरी, उसे लडक़ा मिलते देर लगती है?" बी-अम्मां ने ठण्डी सांस भरकर कहा।
"ये बात नहीं है बहन। आजकल लडक़ों का दिल बस थाली का बैंगन होता है। जिधर झुका दो, उधर ही लुढक़ जायेगा।"

मगर राहत तो बैंगन नहीं अच्छा-खासा पहाड है। झुकाव देने पर कहीं मैं ही न फंस जाऊं, मैं ने सोचा। फिर मैं ने आपा की तरफ देखा। वो खामोश दहलीज पर बैठी, आटा गूंथ रही थीं और सब कुछ सुनती जा रही थीं। उनका बस चलता तो जमीन की छाती फाडक़र अपने कुंवारेपन की लानत समेत इसमें समा जातीं।

क्या मेरी आपा मर्द की भूखी हैं? नहीं, भूख के अहसास से वो पहले ही सहम चुकी हैं। मर्द का तसव्वुर इनके मन में एक उमंग बन कर नहीं उभरा, बल्कि रोटी-कपडे क़ा सवाल बन कर उभरा है। वो एक बेवा की छाती का बोझ हैं। इस बोझ को ढकेलना ही होगा।

मगर इशारों-कनायों के बावज़ूद भी राहत मियां न तो खुद मुँह से फूटे और न उनके घर से पैगाम आया। थक हार कर बी-अम्मां ने पैरों के तोडे ग़िरवी रख कर पीर मुश्किलकुशा की नियाज दिला डाली। दोपहर भर मुहल्ले-टोले की लडक़ियां सहन में ऊधम मचाती रहीं। बी-आपा शरमाती लजाती मच्छरों वाली कोठरी में अपने खून की आखिरी बूंदें चुसाने को जा बैठीं। बी-अम्मां कमजाेरी में अपनी चौकी पर बैठी चौथी के जोडे में आखिरी टांके लगाती रहीं। आज उनके चेहरे पर मंजिलों के निशान थे। आज मुश्किलकुशाई होगी। बस आंखों की सुईयां रह गयी हैं, वो भी निकल जायेंगी। आज उनकी झुर्रियों में फिर मुश्किल थरथरा रही थी। बी-आपा की सहेलियां उनको छेड रही थीं और वो खून की बची-खुची बूंदों को ताव में ला रही थीं। आज कई रोज से उनका बुखार नहीं उतरा था। थके हारे दिये की तरह उनका चेहरा एक बार टिमटिमाता और फिर बुझ जाता। इशारे से उन्होंने मुझे अपने पास बुलाया। अपना आंचल हटा कर नियाज क़े मलीदे की तश्तरी मुझे थमा दी।

"इस पर मौलवी साहब ने दम किया है।" उनकी बुखार से दहकती हुई गरम-गरम सांसें मेरे कान में लगीं।

तश्तरी लेकर मैं सोचने लगी-मौलवी साहब ने दम किया है। ये मुकद्दस मलीदा अब राहत के पेट में झौंका जायेगा। वो तन्दूर जो छ: महीनों से हमारे खून के छींटों से गरम रखा गया; ये दम किया हुआ मलीदा मुराद बर लायेगा। मेरे कानों में शादियाने बजने लगे। मैं भागी-भागी कोठे से बारात देखने जा रही हूं। दूल्हे के मुँह पर लम्बा सा सेहरा पडा है, जो घोडे क़ी अयालों को चूम रहा है।

चौथी का शहानी जोडा पहने, फूलों से लदी, शर्म से निढाल, आहिस्ता-आहिस्ता कदम तोलती हुई बी-आपा चली आ रही हैं चौथी का जरतार जोडा झिलमिल कर रहा है। बी-अम्मां का चेहरा फूल की तरह खिला हुआ है बी-आपा की हया से बोझिल निगाहें एक बार ऊपर उठती हैं। शुकराने का एक आंसू ढलक कर अफ्शां के जर्रों में कुमकुमे की तरह उलझ जाता है।
"ये सब तेरी मेहनत का फल है।" बी-आपा कह रही हैं।

हमीदा का गला भर आया
"जाओ न मेरी बहनो!" बी-आपा ने उसे जगा दिया और चौंक कर ओढनी के आंचल से आंसू पौंछती डयोढी क़ी तरफ बढी।
"ये मलीदा," उसने उछलते हुए दिल को काबू में रखते हुए कहा उसके पैर लरज रहे थे, जैसे वो सांप की बांबी में घुस आयी हो। फिर पहाड ख़िसका और मुँह खोल दिया। वो एक कदम पीछे हट गयी। मगर दूर कहीं बारात की शहनाइयों ने चीख लगाई, जैसे कोई दिन का गला घोंट रहा हो। कांपते हाथों से मुकद्दस मलीदे का निवाला बना कर उसने राहत के मुँह की तरफ बढ़ा दिया।

एक झटके से उसका हाथ पहाड क़ी खोह में डूबता चला गया नीचे तअफ्फ़ुन और तारीकी से अथाह ग़ार की गहराइयों मेंएक बडी सी चट्टान ने उसकी चीख को घोंटा। नियाज मलीदे की रकाबी हाथ से छूटकर लालटेन के ऊपर गिरी और लालटेन ने जमीन पर गिर कर दो चार सिसकियां भरीं और गुल हो गयी। बाहर आंगन में मुहल्ले की बहू-बेटियां मुश्किलकुशा (हजरत अली) की शान में गीत गा रही थीं।

सुबह की गाडी से राहत मेहमाननवाज़ी का शुक्रिया अदा करता हुआ चला गया। उसकी शादी की तारीख तय हो चुकी थी और उसे जल्दी थी।उसके बाद इस घर में कभी अण्डे तले न गये, परांठे न सिकें और स्वेटर न बुने। दिक ज़ो एक अरसे से बी-आपा की ताक में भागी पीछे-पीछे आ रही थी, एक ही जस्त में उन्हें दबोच बैठी। और उन्होंने अपना नामुराद वजूद चुपचाप उसकी आगोश में सौंप दिया।

और फिर उसी सहदरी में साफ-सुथरी जाजम बिछाई गई। मुहल्ले की बहू-बेटियां जुडीं। क़फन का सफेद-सफेद लट्ठा मौत के आंचल की तरह बी-अम्मां के सामने फैल गया। तहम्मुल के बोझ से उनका चेहरा लरज रहा था। बायीं आई-ब्रो फडक़ रही थी। गालों की सुनसान झुर्रियां भांय-भांय कर रही थीं, जैसे उनमें लाखों अजदहे फुंकार रहे हों।

लट्ठे के कान निकाल कर उन्होंने चौपरत किया और उनके फिल में अनगिनत कैंचियां चल गयीं। आज उनके चेहरे पर भयानक सुकून और हरा-भरा इत्मीनान था, जैसे उन्हें पक्का यकीन हो कि दूसरे जोडों की तरह चौथी का यह जोडा न सेंता जाये।

एकदम सहदरी में बैठी लडक़ियां बालियां मैनाओं की तरह चहकने लगीं। हमीदा मांजी को दूर झटक कर उनके साथ जा मिली। लाल टूल पर सफेद गज़ी का निशान! इसकी सुर्खी में न जाने कितनी मासूम दुल्हनों का सुहाग रचा है और सफेदी में कितनी नामुराद कुंवारियों के कफन की सफेदी डूब कर उभरी है। और फिर सब एकदम खामोश हो गये। बी-अम्मां ने आखिरी टांका भरके डोरा तोड लिया। दो मोटे-मोटे आंसू उनके रूई जैसे नरम गालों पर धीरे धीरे रैंगने लगे। उनके चेहरे की शिकनों में से रोशनी की किरनें फूट निकलीं और वो मुस्कुरा दीं, जैसे आज उन्हें इत्मीनान हो गया कि उनकी कुबरा का सुआ जोडा बनकर तैयार हो गया हो और कोए ए अदम में शहनाइयां बज उठेंगी।

[समाप्त]

चौथी का जोडा: इस्मत चुगताई

इस्मत चुगताई (1911-1991)
चौथी के जोडे क़ा शगुन बडा नाजुक़ होता है।
आज उर्दू की क्रांतिकारी लेखिका, और बदायूँ की बेटी इस्मत चुगताई की पुण्यतिथि के अवसर पर उनकी एक मार्मिक कहानी का लेख (text) यहाँ प्रस्तुत है. यदि आप इस कहानी का ऑडियो  सुनना चाहें तो आवाज़ के सौजन्य से यह कहानी यहाँ सुनी जा सकती है: सुनो कहानी - चौथी का जोडा

सहदरी के चौके पर आज फिर साफ-सुथरी जाजम बिछी थी। टूटी-फूटी खपरैल की झिर्रियों में से धूप के आडे-तिरछे कतले पूरे दालान में बिखरे हुए थे। मोहल्ले टोले की औरतें खामोश और सहमी हुई-सी बैठी हुई थीं; जैसे कोई बडी वारदात होने वाली हो। मांओं ने बच्चे छाती से लगा लिये थे। कभी-कभी कोई मुनहन्नी-सा चरचरम बच्चा रसद की कमी की दुहाई देकर चिल्ला उठता।
"नांय-नायं मेरे लाल!" दुबली-पतली मां से अपने घुटने पर लिटाकर यों हिलाती, जैसे धान-मिले चावल सूप में फटक रही हो और बच्चा हुंकारे भर कर खामोश हो जाता।

आज कितनी आस भरी निगाहें कुबरा की मां के मुतफक्किर चेहरे को तक रही थीं। छोटे अर्ज की टूल के दो पाट तो जोड लिये गये, मगर अभी सफेद गजी क़ा निशान ब्योंतने की किसी की हिम्मत न पडती थी। कांट-छांट के मामले में कुबरा की मां का मरतबा बहुत ऊंचा था। उनके सूखे-सूखे हाथों ने न जाने कितने जहेज संवारे थे, कितने छठी-छूछक तैयार किये थे और कितने ही कफन ब्योंते थे। जहां कहीं मुहल्ले में कपडा कम पड ज़ाता और लाख जतन पर भी ब्योंत न बैठती, कुबरा की मां के पास केस लाया जाता। कुबरा की मां कपडे क़े कान निकालती, कलफ तोडतीं, कभी तिकोन बनातीं, कभी चौखूंटा करतीं और दिल ही दिल में कैंची चलाकर आंखों से नाप-तोलकर मुस्कुरा उठतीं।

"आस्तीन और घेर तो निकल आयेगा, गिरेबान के लिये कतरन मेरी बकची से ले लो।" और मुश्किल आसान हो जाती। कपडा तराशकर वो कतरनों की पिण्डी बना कर पकडा देतीं।

पर आज तो गजी क़ा टुकडा बहुत ही छोटा था और सबको यकीन था कि आज तो कुबरा की मां की नाप-तोल हार जायेगी। तभी तो सब दम साधे उनका मुँह ताक रही थीं। कुबरा की मां के पुर-इसतकक़ाल चेहरे पर फिक्र की कोई शक्ल न थी। चार गज गज़ी के टुकडे क़ो वो निगाहों से ब्योंत रही थीं। लाल टूल का अक्स उनके नीलगूं जर्द चेहरे पर शफक़ की तरह फूट रहा था। वो उदास-उदास गहरी झुर्रियां अंधेरी घटाओं की तरह एकदम उजागर हो गयीं, जैसे जंगल में आग भडक़ उठी हो! और उन्होंने मुस्कुराकर कैंची उठायी।

मुहल्लेवालों के जमघटे से एक लम्बी इत्मीनान की सांस उभरी। गोद के बच्चे भी ठसक दिये गये। चील-जैसी निगाहों वाली कुंवारियों ने लपाझप सुई के नाकों में डोरे पिरोए। नयी ब्याही दुल्हनों ने अंगुश्ताने पहन लिये। कुबरा की मां की कैंची चल पडी थी।

सहदरी के आखिरी कोने में पलंगडी पर हमीदा पैर लटकाये, हथेली पर ठोडी रखे दूर कुछ सोच रही थी।

दोपहर का खाना निपटाकर इसी तरह बी-अम्मां सहदरी की चौकी पर जा बैठती हैं और बकची खोलकर रंगबिरंगे कपडों का जाल बिखेर दिया करती है। कूंडी के पास बैठी बरतन मांजती हुई कुबरा कनखियों से उन लाल कपडों को देखती तो एक सुर्ख छिपकली-सी उसके जर्दी मायल मटियाले रंग में लपक उठती। रूपहली कटोरियों के जाल जब पोले-पोले हाथों से खोल कर अपने जानुओं पर फैलाती तो उसका मुरझाया हुआ चेहरा एक अजीब अरमान भरी रौशनी से जगमगा उठता। गहरी सन्दूको-जैसी शिकनों पर कटोरियों का अक्स नन्हीं-नन्हीं मशालों की तरह जगमगाने लगता। हर टांके पर जरी का काम हिलता और मशालें कंपकंपा उठतीं।

याद नहीं कब इस शबनमी दुपट्टे के बने-टके तैयार हुए और गाजी क़े भारी कब्र-जैसे सन्दूक की तह में डूब गये। कटोरियों के जाल धुंधला गये। गंगा-जमनी किरने मान्द पड गयीं। तूली के लच्छे उदास हो गये। मगर कुबरा की बारात न आयी। जब एक जोडा पुराना हुआ जाता तो उसे चाले का जोडा कहकर सेंत दिया जाता और फिर एक नये जोडे क़े साथ नयी उम्मीदों का इफतताह (शुरुआत) हो जाता। बडी छानबीन के बाद नयी दुल्हन छांटी जाती। सहदरी के चौके पर साफ-सुथरी जाजम बिछती। मुहल्ले की औरतें हाथ में पानदान और बगलों में बच्चे दबाये झांझे बजाती आन पहुँचतीं।

"छोटे कपडे क़ी गोट तो उतर आयेगी, पर बच्चों का कपडा न निकलेगा।"
"लो बुआ लो, और सुनो। क्या निगोडी भारी टूल की चूलें पडेंग़ी?" और फिर सबके चेहरे फिक्रमन्द हो जाते। कुबरा की मां खामोश कीमियागर की तरह आंखों के फीते से तूलो-अर्ज नापतीं और बीवियां आपस में छोटे कपडे क़े मुताल्लिक खुसर-पुसर करके कहकहे लगातीं। ऐसे में कोई मनचली कोई सुहाग या बन्ना छेड देती, कोई और चार हाथ आगे वाली समधनों को गालियां सुनाने लगती, बेहूदा गन्दे मजाक और चुहलें शुरु हो जातीं। ऐसे मौके पर कुंवारी-बालियों को सहदरी से दूर सिर ढांक कर खपरैल में बैठने का हुक्म दे दिया जाता और जब कोई नया कहकहा सहदरी से उभरता तो बेचारियां एक ठण्डी सांस भर कर रह जातीं। अल्लाह! ये कहकहे उन्हें खुद कब नसीब होंगे। इस चहल-पहल से दूर कुबरा शर्म की मारी मच्छरों वाली कोठरी में सर झुकाये बैठी रहती है। इतने में कतर-ब्योंत निहायत नाजुक़ मरहले पर पहुँच जाती। कोई कली उलटी कट जाती और उसके साथ बीवियों की मत भी कट जाती। कुबरा सहम कर दरवाजे क़ी आड से झांकती।

यही तो मुश्किल थी, कोई जोड़ा अल्लाह-मारा चैन से न सिलने पाया। जो कली उल्टी कट जाय तो जान लो, नाइन की लगाई हुई बात में जरूर कोई अडंग़ा लगेगा। या तो दूल्हा की कोई दाश्त: (रखैल) निकल आयेगी या उसकी मां ठोस कडों का अडंगा बांधेगी। जो गोट में कान आ जाय तो समझ लो महर पर बात टूटेगी या भरत के पायों के पलंग पर झगडा होगा। चौथी के जोडे क़ा शगुन बडा नाजुक़ होता है। बी-अम्मां की सारी मश्शाकी और सुघडापा धरा रह जाता। न जाने ऐन वक्त पर क्या हो जाता कि धनिया बराबर बात तूल पकड ज़ाती। बिसमिल्लाह के जोर से सुघड मां ने जहेज ज़ोडना शुरु किया था। जरा सी कतर भी बची तो तेलदानी या शीशी का गिलाफ सीकर धनुक-गोकरू से संवार कर रख देती। लडक़ी का क्या है, खीरे-ककडी सी बढ़ती है। जो बारात आ गयी तो यही सलीका काम आयेगा।

और जब से अब्बा गुजरे, सलीके क़ा भी दम फूल गया। हमीदा को एकदम अपने अब्बा याद आ गये। अब्बा कितने दुबले-पतले, लम्बे जैसे मुहर्रम का अलम! एक बार झुक जाते तो सीधे खडे होना दुश्वार था। सुबह ही सुबह उठ कर नीम की मिस्वाक (दातुन) तोड लेते और हमीदा को घुटनों पर बिठा कर जाने क्या सोचा करते। फिर सोचते-सोचते नीम की मिस्वाक का कोई फूंसडा हलक में चला जाता और वे खांसते ही चले जाते। हमीदा बिगड क़र उनकी गोद से उतर जाती। खांसी के धक्कों से यूं हिल-हिल जाना उसे कतई पसन्द नहीं था। उसके नन्हें-से गुस्से पर वे और हँसते और खांसी सीने में बेतरह उलझती, जैसे गरदन-कटे कबूतर फडफ़डा रहे हों। फिर बी-अम्मां आकर उन्हें सहारा देतीं। पीठ पर धपधप हाथ मारतीं।

"तौबा है, ऐसी भी क्या हंसी।"
अच्छू के दबाव से सुर्ख आंखें ऊपर उठा कर अब्बा बेकसी से मुस्कराते। खांसी तो रुक जाती मगर देर तक हांफा करते।
"कुछ दवा-दारू क्यों नहीं करते? कितनी बार कहा तुमसे।"
"बडे शफाखाने का डॉक्टर कहता है, सूइयां लगवाओ और रोज तीन पाव दूध और आधी छटांक मक्खन।"
"ए खाक पडे इन डाक्टरों की सूरत पर! भल एक तो खांसी, ऊपर से चिकनाई! बलगम न पैदा कर देगी? हकीम को दिखाओ किसी।"
"दिखाऊंगा।" अब्बा हुक्का गुडग़ुडाते और फिर अच्छू लगता।
"आग लगे इस मुए हुक्के को! इसी ने तो ये खांसी लगायी है। जवान बेटी की तरफ भी देखते हो आंख उठा कर?

Friday, October 16, 2009

तमसो मा ज्योतिर्गमय [इस्पात नगरी से - १८]

अमेरिकी राष्ट्रपति के निवास व्हाइट हाउस में कल एक ऐतिहासिक घटना हुई। बराक ओबामा ने भारतीय और एशियाई मूल के लोगों के बीच एक दिया जलाकर राष्ट्रपति निवास के पूर्वी कक्ष में ज्योति-उत्सव दीवाली मनायी। साथ ही उन्होंने अन्धकार पर प्रकाश और अज्ञान पर ज्ञान की विजय के प्रतीक दीपावली के लिए हिंदू, सिख, जैन एवं बौद्ध समुदाय के लोगों एवं अन्य सभी को सभी को विशेष रूप से बधाई दी।

कहा जा रहा है कि राष्ट्रपति भवन में आधिकारिक रूप से दीवाली मनाने वाले वे पहले अमेरिकी राष्ट्रपति हैं मगर मुझे याद पड़ रहा है कि बुश परिवार ने भी हर साल दीवाली मनाई थी और उसकी शुभकामनाएं दी थीं भले ही वह समारोह आम रूटीन की तरह रहे हों।

इस अवसर पर शिव विष्णु मन्दिर के पुजारी नारायण आचार्य दिगालाकोटे ने शान्ति वचन कहे और पेंसिलवेनिया विश्वविद्यालय के भारतीय छात्रों के अ-कापेला (a cappella = वाद्य यंत्रों के बिना मुँह से उनकी आवाज़ बनाने वाले) दल "पेन मसाला" ने एक गीत भी प्रस्तुत किया। आइये देखते हैं समारोह की एक झलकी यूट्यूब पर व्हाइट हाउस के सौजन्य से:


Happy Diwali! आप सभी को दीपावली की शुभकामनाएं!
तमसो मा ज्योतिर्गमय...

Tuesday, October 13, 2009

पतझड़ - एक कुंडली

पिट्सबर्ग में पतझड़ का मौसम आ चुका है। पत्ते गिर रहे हैं, ठंडी हवाएं चल रही हैं। हैलोवीन के इंतज़ार में बैठे बच्चों ने अपने घरों के बाहर नकली कब्रें और कंकाल इकट्ठे करने शुरू कर दिए हैं। पेड़ों पर जहाँ-तहाँ बिल्कुल असली जैसे नरकंकाल टंगे दीख जाते हैं। ऐसे मौसम का दूसरा पक्ष यह भी है कि प्रकृति रंगों से भर उठी है। धूप की गुनगुनाहट बड़ी सुखद महसूस होती है। काफी पहले पतझड़ शीर्षक से एक कविता लिखी थी आज उसी शीर्षक से एक कुंडली लिखने का प्रयास किया है जिसका प्रथम और अन्तिम शब्द पतझड़ ही है:

पतझड़ में पत्ते गिरैं, मन आकुल हो जाय।
गिरा हुआ पत्ता कभी, फिर वापस ना आय।।

फिर वापस ना आय, पवन चलै चाहे जितनी ।
बात बहुत है बड़ी, लगै चाहे छोटी कितनी ।।

अंधड़ चलै, तूफ़ान मचायै कितनी भगदड़।
आवेगा वसंत पुनः, जावैगा पतझड़।।

(अनुराग शर्मा)

Sunday, October 11, 2009

लित्तू भाई - गदा का रहस्य [कहानी - अन्तिम किस्त]

भोले-भाले लित्तू भाई पर ह्त्या का इल्जाम? न बाबा न! लित्तू भाई की कथा के पिछले भाग पढने के लिए समुचित खंड पर क्लिक कीजिये:भाग १; भाग २; भाग ३; भाग ४; एवं भाग ५ और अब, आगे की कहानी:]
भाभी ने यह भी बताया कि भारतीय समुदाय में दबे ढंके रूप में और स्थानीय अखबारों में खोजी पत्रकारिता के रूप में लित्तू भाई के कुछ गढ़े मुर्दों को उखाड़ने का प्रयास भी काफी जोशो-खरोश से चल रहा था।

पिट्सबर्ग में एकाध दिन और रूककर मैं वापस चला आया और जिंदगी फिर से रोज़मर्रा के कामों में व्यस्त हो गयी। कभी-कभार भोले-भाले से लित्तू भाई का रोता हुआ सा चेहरा याद आ जाता, कभी उनकी शेरो-शायरी। मैंने उनके घर में मिली बड़ी-बड़ी हस्तियों को भी याद किया और मन ही मन उस भारतीय छात्रा की तकलीफ़ को भी महसूस किया। इतना सब होने पर भी, जिन्दगी की चाल में कोई गतिरोध नहीं आया। काम-काज, लिखना-पढ़ना सब कुछ सुचारू रूप से चलता रहा।

फिर एक दिन स्मार्ट इंडियन डॉट कॉम की तरफ से पिट्सबर्ग के मंदिरों और भारतीय समुदाय पर कुछ लिखने का प्रस्ताव आया तो मैंने एक सप्ताहांत में पिट्सबर्ग जाने का कार्यक्रम बनाया। किसी परिचित को इस यात्रा के बारे में नहीं बताया ताकि बिना किसी व्यवधान के अपना काम जल्दी से निबटाकर वापस आ जाऊं।

सुबह को कार्नेगी पुस्तकालय पहुँचकर जल्दी से वहाँ के अभिलेखागार के अखबारों में डुबकी लगाई और भारत, भारतीय और मंदिरों से सम्बंधित अखबार चुनकर उनकी फोटोस्टेट कॉपी करके इकट्ठा करता रहा ताकि अपने साथ ले जाकर फ़ुर्सत से एक खोजपरक आलेख लिख सकूं। [यह बात अलग है कि छपने से पहले सम्पादकों ने आलेख में से सारी खोज सेंसर कर दी]

सुबह की फ्लाईट से आया था, नाश्ता भी नहीं किया था। दोपहर होने तक तेज़ भूख लगने लगी। सोचा कि पुस्तकालय के जलपान गृह में बैठकर कुछ खा लेता हूँ और अब तक जितना काम हुआ है उतनी क्लिपिंग्स को जल्दी से साथ-साथ पढ़कर कुछ नोट्स भी बना लूंगा। दो कागजों पर टिप्पणियाँ लिखने के बाद तीसरा कागज़ खोला ही था कि किसी ने कंधे पर धौल जमाकर कहा, "चश्मा कब से लग गया हीरो? पहले कह देते तो हम लिमुजिन लेकर आ जाते हवाई अड्डे पर!"

मैंने अचकचा कर मुँह उठाकर देखा तो एक बिज़नेस सूट में लित्तू भाई को खड़े पाया। वही सरलता, वही मुस्कराहट। फ़र्क बस इतना था कि इस बार बाल काले रंगे हुए और बड़े करीने से कढे हुए थे। वैसे सूट उन पर बहुत फ़ब रहा था। मैंने आदर में खड़े होकर उन्हें सामने वाली कुर्सी पर बैठने को कहा और फिर बातों का सिलसिला शुरू हो गया, मैं खाता रहा और वे एक ठंडा पेय पीते रहे। मैंने उनकी जेल-यात्रा की बात ज़ुबां पर न लाने के लिए विशेष प्रयास किया मगर बाद में उन्होंने ही बात शुरू की।

"तुम्हारी उस गदा ने तो मुझे घातक इंजेक्शन दिलाने में कोई कसर नहीं छोडी थी।"

"अरे, क्या बात करते हैं लित्तू भाई? ऐसा क्या हो गया?" मैंने अनजान बनते हुए कहा।

लित्तू भाई ने बताया कि उस दिन उनके फेंकने के बाद किसी हत्यारे ने कूड़ेदान से गदा उठाकर उनकी एक पूर्व-कर्मचारी की ह्त्या कर दी और पुलिस ने गलती से उन्हें फंसा दिया। न तो गदा पर उनकी उँगलियों के निशान थे और न ही कोई चश्मदीद गवाह, पर पुलिस तो पुलिस है। हत्यारा ढूँढने की अपनी नाकामी के चलते उन्हें लपेटती रही। बहुत परेशानी हुई मगर उनका वकील बहुत ही प्रभावी था।

"आखिर में मैं बेदाग़ बच गया... पिछले महीने ही छूटा हूँ। मगर इस घटना से दोस्त-दुश्मन का अंतर पता लग गया।"

"..."

"जो लोग दिन रात मेरे टुकड़े तोड़ते थे, उन्होंने ही मेरे खिलाफ माहौल बनाया, भगवान उन्हें उनके कर्मों का दण्ड अवश्य देगा। कई लोगों ने तो कहा कि मैंने पहले भी बहुत से बलात्कार और हत्याएं की हैं।"

"अंत भला तो सब भला! उन अज्ञानियों को माफ़ भी कर दीजिये अब!" मैंने माहौल की बोझिलता को कम करने का प्रयास किया, " ... मगर ये कुरते पजामे से टाई-शाई तक? बात क्या है?"

"अरे भैया, अच्छे दिखना चाहिए वरना पुलिस पकड़ लेती है" वे अपने पुराने स्वाभाविक अंदाज़ में हँसे। मानो बदली छँट गयी हो और सूरज निकल आया हो। थोड़ी बातचीत और एकाध काव्य के बाद उन्होंने उठने का उपक्रम किया।

"काम है, निकलता हूँ, फिर मिलेंगे" उन्होंने मुझसे विदा ली और चलते चलते मुस्कुराकर कहा, "हाँ, मगर ग्रंथों की बात सही है, सत्यमेव जयते!"

मैंने उन्हें गले लगकर विदा किया और उनके इमारत से बाहर होने तक खड़ा-खड़ा उन्हें देखता रहा। कितना कुछ सहा होगा इस आदमी ने। सारी दुनिया के काम आने वाले आदमी ने इतना अन्याय अकेले सहा, अगर शादी की होती तो शायद उनकी पत्नी तो साथ खड़ी होती उनके बचाव के लिए। उनके बाहर निकलते ही मैं खुशी-खुशी बाकी अखबार देखने बैठ गया। दस साल पुरानी अगली खबर की सुर्खी थी, "अपनी पत्नी का सर कुचलनेवाला निर्मम हत्यारा ललित कुमार सबूतों के अभाव में बाइज्ज़त बरी।"

तब से आज तक जब भी किसी को "सत्यमेव जयते" कहते सुनता हूँ लित्तू भाई, उनकी गदा और अंधा कानून याद आ जाते हैं।

[समाप्त]

Tuesday, October 6, 2009

लित्तू भाई [कहानी भाग ५]

[नोट: देरी के लिए क्षमाप्रार्थी हूँ. पहले सोचा था कि लित्तू भाई की कहानी इस कड़ी में समाप्त हो जायेगी मगर लिखना शुरू किया तो लगा कि मुझे एक बैठक और लगानी पड़ेगी, मगर इस बार का व्यवधान लंबा नहीं होगा, इस बात का वादा है इसलिए विश्वास से कह रहा हूँ कि "अगले अंक में समाप्य."
लित्तू भाई की कथा के पिछले भाग पढने के लिए समुचित खंड पर क्लिक कीजिये:
भाग १; भाग २; भाग ३ एवं भाग ४ और अब, आगे की कहानी:]

कई वर्ष पहले जिस दिन मैंने लित्तू भाई और मित्रों से विदा लेकर पिट्सबर्ग छोड़ा था उसके कुछ दिन बाद मेरे पड़ोस में भारतीय मूल की एक छात्रा का शव मिला था। पड़ोसियों द्वारा एक अपार्टमेन्ट से दुर्गन्ध आने की शिकायत पर जब प्रबंधन ने उस अपार्टमेन्ट में रहने वाली छात्रा से संपर्क करने की कोशिश की तो असफल रहे। एक कर्मचारी ने आकर दोहरी चाबी से ताला खोला तो दरवाज़े के पास ही उस युवती का मृत शरीर पाया। ऐसा लगता था जैसे मृत्यु से पहले वहां काफी संघर्ष हुआ होगा. शराब की एक बोतल मेज़ पर रखी थी। एक गिलास मेज़ पर रखा था और एक फर्श पर टूटा हुआ पडा था। युवती का सर फटा हुआ था और फर्श पर जमे हुए खून के साथ ही एक भारतीय गदा भी पडी हुई थी।

पुलिस की जांच पड़ताल के दौरान अपार्टमेन्ट के कैमरे से यह पता लगा कि उस दिन दोपहर में केवल एक बाहरी व्यक्ति उस परिसर में आया था और वह भी एक बार नहीं बल्कि दो बार। लडकी की मृत्यू का समय और उसकी दूसरी आगत का समय लगभग एक ही था। आगंतुक का चेहरा साफ़ नहीं दिखा मगर बिखरे बालों और ढीले ढाले कपडों से वह कोई बेघर नशेडी जैसा मालूम होता था। दूसरी बार उसके हाथ में वह गदा भी थी जो घटनास्थल से बरामद हुई थी। हत्यारे को जल्दी पकड़ने के लिए भारतीय समुदाय का भी काफी दवाब था। प्रशासन का भी प्रयास था कि जल्दी से ह्त्या के कारणों का खुलासा करके यह निश्चित किया जाए कि यह एक नस्लभेदी ह्त्या नहीं थी। स्थानीय मीडिया ने इस घटना को काफी कवरेज़ दिया था और दद्दू और भाभी भी इन ख़बरों को बहुत ध्यान से देखते रहे थे।

पुलिस के पास गदा की भारतीयता और सुरक्षा कैमरा की धुंधली तस्वीर के अलावा कोई भी इशारा नहीं था सो उन्होंने छात्रा के परिचितों से मिलना शुरू किया। इसी सिलसिले में यह पता लगा कि छात्रा रात और सप्ताहांत में जिस पेट्रोल पम्प पर काम करती थी उसके मालिक श्री ललित कुमार ने एक सप्ताह पहले ही उसे एक कड़वी बहस के बाद काम से निकाला था। यह ललित कुमार और कोई नहीं बल्कि हमारे लित्तू भाई ही थे। उनसे मुलाक़ात करते ही जांच अधिकारी को यह यकीन हो गया कि सुरक्षा कैमरा में दिखने वाला आदमी वही है जो उसके सामने खड़ा है। कुछ ही दिनों में संदेह के आधार पर अधिक जानकारी के लिए लित्तू भाई को अन्दर कर दिया गया।

इसके साथ ही पिट्सबर्ग का भारतीय समुदाय दो दलों में बाँट गया। एक तो वे जो लित्तू भाई को हत्याकांड में जबरिया फंसाए जाने के धुर विरोधी थे और दूसरे वे जिन्हें लित्तू भाई के रूप में भेड़ की खाल में छिपा एक भेड़िया नज़र आ रहा था। बहुत से लोगों का विश्वास था की जब लित्तू भाई द्वारा गदा कूड़े में फेंक दिये जाने के बाद किसी व्यक्ति ने उसे उठाकर प्रयोग किया होगा। इत्तेफ़ाक़ से मृतका लित्तू भाई की पूर्व-परिचित निकली। वहीं ऐसे लोगों की कमी नहीं थी जो यह मानने लगे थे कि इस एक घटना से पहले भी ऐसी या मिलती-जुलती घटनाओं में लित्तू भाई जैसे सफेदपोश दरिंदों का हाथ हो सकता है।

मैंने भाभी की बातों को ध्यान से सुना मगर इस पर अपनी कोई भी राय नहीं बना सका। जब मैं लित्तू भाई से आखिरी बार मिला था तो उस दिन वे आम दिनों से काफी फर्क लग रहे थे। मगर फ़िर भी मेरे दिल ने उन्हें हत्यारा मानने से इनकार कर दिया। भाभी ने बताया कि मुकदमा अभी भी चल रहा था।


[क्रमशः]

Monday, September 21, 2009

जी-२० पिट्सबर्ग में [इस्पात नगरी से - १७]

"इस्पात नगरी से" नामक शृंखला में मैं पिट्सबर्ग की छोटी-छोटी झलकियों की मार्फ़त यहाँ के परिवेश और सामयिक घटनाओं की जानकारी देता रहा हूँ । इस शृंखला की पिछली कडी में मैंने अपनी डैलस यात्रा का ज़िक्र किया था। इस समय कोई विशेष बात नहीं है। मतलब यह की बात सिर्फ़ विशेष न होकर अति-विशेष (VIP) है। क्यों न हो? विश्व की बीस सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं के भाग्य-विधाता एक साथ इस छोटे से नगर में इकट्ठे जो हो रहे हैं। जी हाँ, आगामी G-२० सम्मलेन २४ और पच्चीस सितम्बर २००९ को (इसी सप्ताह) इस्पात नगरी (Pittsburgh) में ही हो रहा है। बहुत से पत्रकार तो पिछले हफ्ते से ही यहाँ डेरा डाले हुए बैठे हैं। काफी लोगों के सवाल थे कि न्यू यार्क, वॉशिंगटन, लोस अन्जेलिस आदि बड़े बड़े नगरों के होते हुए इतनी महत्वपूर्ण सभा इस छोटी सी नगरी में क्यों हो रही है? राष्ट्रपति ओबामा के अनुसार ईसा इसलिए हो रहा है क्योंकि इस नगर में अद्वितीय अंतर्राष्ट्रीय विविधता के साथ-साथ हर मुश्किल वक्त से सफलतापूर्वक उभर आने की जिजीविषा और जीवट भी है। यदि आप या आपके कोई परिचित यहाँ तशरीफ़ ला रहे हों तो अपना (या उनका) कार्यक्रम मुझे बताने की कृपा करें ताकि मैं आपकी खातिरदारी के लिए तैयार रहूँ। धन्यवाद और शुभ यात्रा! इस नगरी ने अपने सीमित संसाधनों से विश्व का स्वागत करने की तैय्यारी तो शुरू कर दी है। आईये आपको कुछ झलकियाँ दिखाते हैं जी-२० की तैयारी की, चित्रों के सहारे: George Washington welcomes the visitors at Pittsburgh International Airport पिट्सबर्ग अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे पर आगंतुकों का स्वागत करते हुए जॉर्ज वॉशिंगटन की आदमकद प्रतिमा Pittsburgh welcomes you on the ocassion of G-20 summit पिट्सबर्ग तैयार है स्वागत के लिए Swagatam - Welcome message in Hindi हिन्दी सहित विभिन्न भाषाओं में स्वागत संदेश G-20 in local magazines स्थानीय पत्रिकाओं में जी-२० की चर्चा (मनमोहन सिंह के चित्र के साथ) Why Pittsburgh? Because Pittsburgh is the city of the future पिट्सबर्ग ही क्यों? भविष्य का नगर! पिट्सबर्ग में आपका स्वागत है, हिन्दी में देखें यूट्यूब पर Labels: G-20, international summit, Pittsburgh, September 24, 2009, Pennsylvania, USA

[सभी चित्र अनुराग शर्मा द्वारा Photo Courtesy: Anurag Sharma]

Thursday, September 17, 2009

लित्तू भाई - कहानी [भाग 4]

[अगले अंक में समाप्य]

लित्तू भाई की कथा के पिछले भाग पढने के लिए समुचित खंड पर क्लिक कीजिये: भाग १; भाग २ एवं भाग ३ और अब, आगे की कहानी:

एक-एक करके सभी आगंतुक रवाना हो गए। लित्तू भाई सबके बाद घर से निकले। जाते समय गदा उनके हाथ में थी और एक अनोखी चमक उनकी आँखों में। वह अनोखी चमक मुझे अभी भी आश्चर्यचकित कर रही थी। चलते समय मुझसे नज़रें मिलीं तो वे कुछ सफाई देने जैसे अंदाज़ में कहने लगे, "फेंक दूंगा मैं, इसे मैं बाहर जाते ही फेंक दूंगा।"

उनके इस अंदाज़ पर मुझे हंसी आ गयी। मुझे हंसता देखकर वे उखड गए और। बोले, "शर्म नहीं आती, बड़ों पर हंसते हुए, नवीन (दद्दू) के भाई हो इसका लिहाज़ है वरना मुझ पर हंसने का अंजाम अच्छा नहीं होता है..."

माहौल में अचानक आये इस परिवर्तन ने मुझे हतप्रभ कर दिया। न तो मैंने लित्तू भाई से ऐसे व्यवहार की अपेक्षा थी और न ही मेरी हँसी में कोई बुराई या तिरस्कार था। मैं तो कभी सपने में भी नहीं सोच सकता था कि लित्तू भाई एक सहज नैसर्गिक मुस्कान से इस तरह विचलित हो सकते हैं। उनकी आयु का मान रखते हुए मैंने हाथ जोड़कर क्षमा माँगी और वे दरवाज़े को तेजी से मेरे मुँह पर बंद करके बडबडाते हुए निकल गए। शायद उस दिन उन्होंने ज़्यादा पी ली थी। तारीफों के पुल बाँधने के उनके उस दिन के तरीके से मुझे तो लगता है कि वे पहले से ही टुन्न होकर आये थे और बाद में समय गुजरने के साथ उनकी टुन्नता बढ़ कर अपने पूरे शबाब पर आ गयी थी।

खैर, बात आयी गयी हो गयी। पिट्सबर्ग छूट गया और पुराने साथी भी अपनी-अपनी दुनिया में मस्त हो गए। बातचीत के सिलसिले कम हुए और फिर धीरे-धीरे टूट भी गए। सिर्फ दद्दू से संपर्क बना रहा। दद्दू की बेटी की शादी में मैं पिट्सबर्ग गया तो सोचा कि सभी पुराने चेहरे मिलेंगे। और यह हुआ भी। दद्दू के अनेकों सम्बन्धियों के साथ ही मेरे बहुत से पूर्व-परिचित भी मौजूद थे। एक दुसरे के बारे में जानने का सिलसिला जो शुरू हुआ तो फिर तभी ख़त्म हुआ जब हमने एक-दुसरे की जिंदगी के अब तक टूटे हुए सूत्रों को फिर से पूरा बिन लिया।

दद्दू और भाभी दोनों ही बड़े प्रसन्न थे। लड़के वालों का अपना व्यवसाय था। लड़का भी उनकी बेटी जैसा ही उच्च-शिक्षित और विनम्र था। इतना सुन्दर कि शादी के मंत्रों के दौरान जब पंडितजी ने वर में विष्णु के रूप को देखने की बात कही तो शायद ही किसी को कठिनाई हुई हो। शादी बड़ी धूमधाम से संपन्न हुई। शादी के इस पूरे कार्यक्रम के दौरान लित्तू भाई की अनुपस्थिति मुझे बहुत विचित्र लगी। शादी के बाद जब सब महमान चले गए तो मुझसे रहा नहीं गया। हम सब मिलकर घर को पुनर्व्यवस्थित कर रहे थे तब मैंने दद्दू से पूछा, "लित्तू भाई नज़र नहीं आये, क्या भारत में हैं?"

"नाम मत लो उस नामुराद का, मुझे नहीं पता कि जहन्नुम में है या जेल में" यह कहते हुए दद्दू ने हाथ में पकड़े हुए चादर के सिरे को ऐसे झटका मानो लित्तू भाई का नाम सुनने भर से उन्हें बिजली का झटका लगा हो।

भाभी उसी समय हम दोनों के लिए चाय लाकर कमरे में घुसी ही थीं। उन्होंने दद्दू की बात सुनी तो धीरज से बोलीं, "मैं बताती हूँ क्या हुआ था।"

और उसके बाद भाभी ने जो कुछ बताया उस पर विश्वास करना मुश्किल था।

[क्रमशः]

Tuesday, September 8, 2009

लित्तू भाई - कहानी [भाग ३]


लित्तू भाई की कथा के पिछले भाग पढने के लिए समुचित खंड पर क्लिक कीजिये: भाग १ एवं भाग २ और अब, आगे की कहानी:

एक एक करके दिन बीते और युवा शिविर का समय नज़दीक आया। सब कुछ कार्यक्रम भली-भांति निबट गए। लित्तू भाई का गतका कार्यक्रम बहुत लोकप्रिय रहा। अलबत्ता आयोजकों ने विजेताओं को पुरस्कार के रूप में एक भारी गदा के बजाय हनुमान जी की छोटी-छोटी मूर्तियाँ देने की बात तय की। शिविर पूरा होने पर बचे सामानों के साथ लित्तू भाई की भारी भरकम गदा भी हमारे साथ पिट्सबर्ग वापस आ गयी और मेरे अपार्टमेन्ट के एक कोने की शोभा बढाती रही। न तो लित्तू भाई ने उसके बारे में पूछा और न ही मैंने उसका कोई ज़िक्र किया।

समय के साथ मैं भी काम में व्यस्त हो गया और लित्तू भाई से मिलने की आवृत्ति काफी कम हो गयी। उसके बाद तो जैसे समय को पंख लग गए। जब मुझे न्यू यार्क में नौकरी मिली तो मेरा भी पिट्सबर्ग छोड़ने का समय आया। जाने से पहले मैंने सभी परिचितों से मिलना शुरू किया। इसी क्रम में एक दिन लित्तू भाई को भी खाने पर अपने घर बुलाया। एकाध और दोस्त भी मौजूद थे। खाने के बाद लित्तू भाई थोडा भावुक हो गए। उन्होंने अपनी दो चार रोंदू कवितायें सुना डालीं जो कि मेरे मित्रों को बहुत पसंद आयीं। कविता से हुई तारीफ़ सुनकर उन्होंने मेरे सम्मान में एक छोटा सा विदाई भाषण ही दे डाला।

दस मिनट के भाषण में उन्होंने मुझमें ऐसी-ऐसी खूबियाँ गिना डाली जिनके बारे में मैं अब तक ख़ुद ही अनजान था। लित्तू भाई की तारीफ़ की सूची में से कुछ बातें तो बहुत मामूली थीं और उनमें से भी बहुत सी तो सिर्फ़ संयोगवश ही हो गयी थीं। प्रशंसा की शर्मिंदगी तो थी मगर छोटी-छोटी सी बातों को भी ध्यान से देखने के उनके अंदाज़ ने एक बार फिर मुझे कायल कर दिया।

चलने से पहले मुझे ध्यान आया कि कोने की मेज़ पर सजी हुई लित्तू भाई की गदा उनको लौटा दूँ। उन्होंने थोड़ी नानुकर के बाद उसे ले लिया। हाथ में उठाकर इधर-उधर घुमाया, और बोले, "आप ही रख लो।"

"अरे, आपने इतनी मेहनत से बनाई है, ले जाइए।"

"मेरे ख्याल से इसे फैंक देना चाहिए, इसके रंग में ज़रूर सीसा मिला होगा... स्वास्थ्य के लिए अच्छा नहीं है।"

चीन से आए रंग तो क्या, खाद्य पदार्थों में भी सीसा और अन्य ज़हरीले पदार्थ होते हैं, यह तथ्य तब तक जग-ज़ाहिर हो चुका था। बहुत सी दुकानों ने चीनी खिलौने, टूथ पेस्ट, कपडे आदि तक बेचना बंद कर दिया था। मुझे यह समझ में नहीं आया कि लित्तू भाई कब से स्वास्थ्य के प्रति इतने सचेत हो गए। मगर मैंने कोई प्रतिवाद किए बिना कहा, "आपकी अमानत आपको मुबारक, अब चाहे ड्राइंग रूम में सजाएँ, चाहे डंपस्टर में फेंके।"

लित्तू भाई ने कहा, "चलो मैं फेंक ही देता हूँ।"

उन्होंने अपनी जेब से रुमाल निकाला और बड़ी नजाकत से गदा की धूल साफ़ करने लगे। मुझे समझ नहीं आया कि जब फेंकना ही है तो उसे इतना साफ़ करने की क्या ज़रूरत है। मैंने देखा कि गदा चमकाते समय उनके चेहरे पर एक बड़ी अजीब सी मुस्कान तैरने लगी थी।
[क्रमशः]

[गदा का चित्र अनुराग शर्मा द्वारा: Photo by Anurag Sharma]

Saturday, September 5, 2009

कैसे कैसे शिक्षक?

भारतीय संस्कृति में माता और पिता के बाद "गुरुर्देवो भवः" कहकर गुरु का ही प्रमुख स्थान है। संत कबीर ने तो गुरु को माता-पिता बल्कि परमेश्वर से भी ऊपर स्थान दे दिया है। शिक्षक दिवस पर गुरुओं, अध्यापकों और शिक्षकों की याद आना लाजमी है। बहुत से लोग हैं जिनके बारे में लिखा जा सकता है। मगर अभी-अभी अपने बरेली के धीरू सिंह की पोस्ट पर (शायद) बरेली के ही एक गुरुजी का कथन "बिना धनोबल के मनोबल नही बढ़ता है" पढा तो वहीं के श्रीमान डी पी जौहरी की याद आ गयी।

डी पी जौहरी की कक्षा में पढने का सौभाग्य मुझे कभी नहीं प्राप्त हुआ। मगर पानी में रहकर मगर की अनदेखी भला कैसे हो सकती है। सो छिटपुट अनुभव अभी भी याद हैं। प्रधानाचार्य जी से उनकी कभी बनी नहीं, वैसे बनी तो अन्य अध्यापकों, छात्रों से भी नहीं। यहाँ तक कि पास पड़ोस के दुकानदारों से भी मुश्किल से ही कभी बनी हो मगर प्रधानाचार्य से खासकर ३६ का आंकडा रहा। उन दिनों दिल्ली में सस्ते और भड़कीले पंजाबी नाटकों का चलन था जिनके विज्ञापन स्थानीय अखबारों में आया करते थे। उन्हीं में से एक शीर्षक चुनकर वे हमारे प्रधानाचार्य को पीठ पीछे "चढी जवानी बुड्ढे नूँ" कहकर बुलाया करते थे।

एक दिन जब वे प्राधानाचार्य के कार्यालय से मुक्कालात करके बाहर आए तो इतने तैश में थे कि बाहर खड़े चपरासी को थप्पड़ मारकर उससे स्कूल का घंटा छीना और छुट्टी का घंटा बजा दिया। आप समझ सकते हैं कि छात्रों के एक वर्ग-विशेष में वे कितने लोकप्रिय हो गए होंगे। एक दफा जब वे सस्पेंड कर दिए गए थे तो स्कूल में आकर उन्होंने विशिष्ट सभा बुला डाली सिर्फ़ यह बताने के लिए कि सस्पेंशन में कितना सुख है। उन्होंने खुलासा किया कि बिल्कुल भी काम किए बिना उन्हें आधी तनख्वाह मिल जाती है और बाक़ी आधी तो समझो बचत है जो बाद में इकट्ठी मिल ही जायेगी। तब तलक वे अपनी भैंसों का दूध बेचने के धंधे पर बेहतर ध्यान दे पाएंगे।

बाद में पूरी तनख्वाह मिल जाने के बाद उन्होंने भैंस-सेवा का काम अपने गुर्गों को सौंपकर सरस्वती-सेवा में फ़िर से हाथ आज़माना शुरू किया। हाई-स्कूल की परीक्षा में ड्यूटी लगी तो एक छात्र ने उनसे शिकायत की, "सर वह कोने वाला लड़का पूरी किताबें रखकर नक़ल कर रहा है। "

डी पी ने शिकायत करने वाले लड़के से हिकारत से कहा, "उसने नामा खर्च किया है, इसलिए कर रहा है, तुम भी खर्चो तो तुम भी कर लेना।"

और उसी कक्ष में बैठे हुए हमने कहा, "गुरुर्ब्रह्मा, गुरुर्विष्णु..."

Monday, August 31, 2009

शान्ति पांडे - बुआ नानी

वैसे तो बड़ा भरा-पूरा परिवार था। बहुत से चचेरे, ममेरे भाई बहिन। परन्तु अपने पिता की अकेली संतान थीं वह। शान्ति पाण्डेय। मेरे नानाजी की तहेरी बहिन। अपनी कोई संतान नहीं थी मगर अपने भाई बहनों, भतीजे-भतीजियों और बाद में उनके भी बच्चों और पोते-पोतियों के लिए वे सदा ही ममता की प्रतिमूर्ति थीं।

वैसे तो मेरी माँ की बुआ होने के नाते रिश्ते में मेरी नानी थीं मगर अपनी माँ और अपने अन्य भाई बहनों की तरह मैंने भी हमेशा उन्हें शान्ति बुआ कहकर ही पुकारा। उन्होंने सरकारी स्कूल में बच्चियों को संगीत पढ़ाया। उनका अधिकाँश कार्यकाल पहाड़ों पर ही बीता। गोपेश्वर, चमोली, पिथौरागढ़ और न जाने कहाँ-कहाँ। एक बार नैनीताल में किसी से मुलाक़ात हुई - पता लगा कि वे शान्ति बुआ की शिष्या थीं। एक शादी में दार्चुला के दुर्गम स्थल में जाना हुआ तो वहाँ उनकी एक रिटायर्ड सहकर्मिणी ने बहुत प्रेम से उन्हें याद किया।

मेरे नानाजी से उन्हें विशेष लगाव था इसलिए बरेली में नानाजी के घर पर हम लोगों की बहुत मुलाक़ात होती थी। उनके पिता (संझले बाबा) के अन्तिम क्षणों में मैं बरेली में ही था और मुझे अन्तिम समय तक उनकी सेवा करने का अवसर मिला था। संझले बाबा के जाने के बाद भी शान्ति बुआ हमेशा बरेली आती थीं। उनका अपना पैतृक घर भी था जिस पर उन्हीं की एक चचेरी बहन ने संझले बाबा से मनुहार करके रहना शुरू कर दिया था। फिर वे लोग उस घर पर काबिज़ हो गये।

मैं अपने बचपने में और सब लोगों के साथ उन पर भी बहुत बार गुस्सा हुआ हूँ और उसका बहुत अफ़सोस भी है। मगर उन्होंने कभी किसी बात का बुरा न मानकर हमेशा अपना बड़प्पन का आदर्श ही सामने रखा। रिटायर होकर बरेली आयीं तब तक नानाजी भी नहीं रहे थे। उनके अपने घर पर कब्ज़ा किए हुए बहन-बहनोई ने खाली करने से साफ़ इनकार कर दिया तो उन्होंने एक घर किराए पर लेकर उसमें रहना शुरू कर दिया। पिछले हफ्ते बरेली में पापा से बात हुई तो पता लगा कि बीमार थीं, अस्पताल में भर्ती रहीं और फिर घर भी आ गयीं। माँ ने बताया कि अपने अन्तिम समय में वे यह कहकर नानाजी के घर आ गयीं कि इसी घर में मेरे पिता का प्राणांत हुआ और किस्सू महाराज (मेरे नानाजी) ही उनके सगे भाई हैं इसलिये अपने अन्तिम क्षण वे वहीं बिताना चाहती हैं। और अब ख़बर मिली है कि वे इस नश्वर संसार को छोड़ गयी हैं। अपनी नानी को तो मैंने नहीं देखा था मगर शान्ति बुआ ही मेरी वो नानी थीं जिन्होंने सबसे ज़्यादा प्यार दिया।

चित्र में (बाएँ से) शान्ति बुआ, नानाजी और उनकी बहन।

Thursday, August 27, 2009

डैलस यात्रा - [इस्पात नगरी से - १६]

पिछ्ला हफ्ता काफी व्यस्त रहा इसलिए न तो कुछ नया लिखा गया और न ही ज़्यादा कुछ पढ़ सका। डैलस की भीषण गरमी में अपने मित्रों के साथ थोडा समय आराम से गुज़ारा। यात्रा काफी विविध रही। पर्यटन, नौकायन, काव्य-पाठ, मन्दिर-यात्रा आदि भी हुआ और जमकर भारतीय भोज्य-पदार्थों का स्वाद उठाने का आनंद भी लिया। यात्रा के कुछ चित्र आपके लिए प्रस्तुत हैं।


ग्रैंड प्रेयरी के वैक्स संग्रहालय की एक झलक

नीलेश और डॉक्टर फिल

मैं और मेरी झांसी की रानी

बरसाना धाम में मोर का जोड़ा

बरसाना धाम के बाहर हम लोग