Wednesday, December 31, 2014

बुद्धिजीवी कैसे बनते हैं?

सफल बुद्धिजीवी बनने के 6 सरल सूत्र

1) नाम
बुद्धिजीवी की पहली पहचान होती है उसका नाम। अपने लिए एक अलग सा नाम चुनें। अच्छा, बुरा, छोटा, बड़ा, चाहे जैसा भी हो, होना अजीबोगरीब चाहिए। वैसे चुनने को तो आप अदरक भी चुन सकते हैं लेकिन उस स्थिति में केवल आपका सब्जीवाला ही आपकी बुद्धिजीविता को पहचान सकेगा। सो आप किसी सब्जी के बजाय रूस, चीन, कोरिया, विएतनाम, क्यूबा आदि में हुई किसी खूनी क्रान्ति मिथक के किसी पात्र को चुन सकते हैं। जितना भावहीन पात्र हो बुद्धिजीविता उतनी ही बेहतर निखरेगी। अगर आप शुद्ध देसी नाम ही चलाना चाहते हैं तो भी अपने ठेठ देसी नाम राम परसाद, या चंपत लाल की जगह प्रचंड, तांडव, प्रलय, विप्लव, समर, रक्त, बारूद, सर्वनाश, युद्ध आदि कुछ तो ऐसा कर ही लीजिये जिससे आपके भीरु स्वभाव की गंध आपकी उद्दंडता के पीछे छिप जाये।

2) उपनाम
वैसे तो खालिस बुद्धिजीवी एकल नामधारी ही होता है। लेकिन यदि आप एकदम से ऊपर के पायदान पर बैठने में असहज (या असुरक्षित) महसूस कर रहे हों तो आरम्भ में अपना मूल नाम चालू रख सकते हैं। केवल एक उपनाम की दरकार है। वह भी न हो तो अपना कुलनाम ही किसी ऐसे नाम से बदल लीजिये जो क्रांतिकारी नहीं तो कम से कम परिवर्तनकारी तो दिखे। नाम अगर अङ्ग्रेज़ी के A अक्षर से शुरू हो तो किसी भी सूची में सबसे ऊपर दिखाई देगा। इसलिए सबसे आसान काम है किसी भी आदरणीय शब्द से पहले अ या अन चिपका दिया जाय। आजकल के ट्रेंड को देखते हुए अभारतीय, अनार्य, अद्रविड़, अहिंदू, अब्राह्मण, असंस्कृत, अनादर, और अशूर के हिट होने की काफी संभावना है। यदि ऐसा करना आपको ठीक न लगे तो बुद्धिजीवी से मिलता जुलता कोई शब्द चुनें, यथा: लेखजीवी, पत्रजीवी, परजीवी, तमजीवी, स्याहजीवी, कम्प्यूटरजीवी, कीबोर्डजीवी, व्हाट्सऐपजीवी आदि। यकीन मानिए, आधे लोग तो आपकी इस "GV" चाल से ही चित्त हो जाएँगे।

3) संघे शक्ति कलयुगे
कहावत है कि अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता। सो बुद्धिजीवी बनने के लिए मूर्खों की सहायता लीजिये। उनको अपने साथ मिलाकर दूसरों के फटे में टांग अड़ाने के सामूहिक प्रयोग आरम्भ कीजिये। मिलजुलकर एक संस्था रजिस्टर करवा लीजिये जिसके आजीवन अध्यक्ष, कोषाध्यक्ष, सचिव, व्यवस्थापक आदि सब आप ही हों। संस्था का नाम रचने के लिए अपने नाम से पहले प्रगतिशील, प्रोग्रेसफील, या तरक्कीझील जोड़ लीजिये। मसलन "तरक्कीझील सूखेलाल विरोध मंच"। यदि अपना नाम जोड़ने से बचना चाहते हैं तो किसी गरम मुद्दे को नाम में जोड़ लीजिये, यथा आतंक सुधार दल, नारीमन पॉइंट हड़ताल संघ, अनशन-धरना प्रोत्साहक मुख्यमंत्री समिति, सर्वकाम दखलंदाज़ी संगठन, लगाई-बुझाई समिति आदि। यदि आपको छोटा सा नाम चुनना है तो रास्ते के रोड़े जैसा कोई नाम चुनिये, प्रभाव पड़ेगा, लोग डरेंगे, उदाहरण: स्पीडब्रेकर, रोक दो, प्रतिरोध, गतिरोध, सड़क का गड्ढा, बारूदी सुरंग आदि। और यदि आपको ये सारे नाम पुरातनपंथी लगते हैं तो फिर चुनिये एक आक्रामक नाम, जैसे: पोलखोल, हल्लाबोल, पर्दाफाश, अंधविरोध, पीट दो आदि।

4) कर्मण्येवाधिकारस्ते 
अब संस्था बनाई है तो कुछ काम भी करना पड़ेगा। रोजाना दो-तीन बयान दे दीजिये। ओबामा ने आज पान नहीं खाया, यह बंगाल के पान-उत्पादक किसानों का अपमान है, आदि-आदि। अखबारों में आलेख भेजिये। आलेख न छपें तो पत्र लिखिए। पत्र भी न छपें तो अपने फेसबुक प्रोफाइल पर विरोध-पत्र पोस्ट कर दीजिये और अपने मित्रों से लाइक करवाइए। पड़ोस के किसी मंदिर, गुरुद्वारे, स्कूल, सचिवालय, थाने, अस्पताल आदि पहुँचकर अपने मोबाइल से वहाँ के हर बोर्ड का फोटो खींच लीजिये और बैठकर उनमें ऐसे चिह्न ढूंढिए जिनपर विवाद ठेला जा सके। कुछ भी न मिले तो फॉटोशॉप कर के विवाद उत्पन्न कर लीजिये। मंदिर के उदाहरण में "गैर-हिन्दू का प्रवेश वर्जित है" टाइप का कुछ भी लिखा जा सकता है। बहुत चलता है। बाकी तो आप खुद ही समझदार हैं, जमाने की नब्ज़ पहचानते हैं।

5) जालसाज़ी
ये जालसाज़ी वो वाली नहीं है जो नोट छापती है, ये है नेटवर्किंग। संस्था तो आप बना ही चुके हैं। सामाजिक चेतना के नाम पर थोड़ा बहुत चन्दा भी इकट्ठा कर ही लिया होगा। अब उस चंदे के प्रयोग से नेटवर्किंग का बाम मलिए और प्रगति के काम पर चलिये। ऐसे लोगों की सूची बनाइये जो आपके काम भी आ सकते हों और थोड़े लालची किस्म के भी हों। इनमें घंटाध्वनि प्रतिष्ठान के मालिक भी हो सकते हैं, बुझाचिराग के संपादक भी, सर्वहर समिति के अध्यक्ष भी, तंदूरदर्शन टीवी चैनल के प्रोड्यूसर भी और आसपड़ोस के अभिमानी और भ्रष्ट नौकरशाह भी। एक सम्मान समारोह आयोजित करके एक लाइन में सबको सम्मान सर्टिफिकेट बाँट दीजिये। अगर आपका चन्दा अच्छा हुआ है तो समारोह के बाद पार्टी भी कीजिये, हफ्ते भर में किरपा आनी शुरू हो जाएगी।

6) आत्मनिर्भरता 
इतने सब से भी अगर आपका काम न बने तो फिर आपको आत्मनिर्भर होना पड़ेगा। अपना खुद का एक टीवी चैनल, या पत्रिका या अखबार निकालिए। सबसे आसान काम एक न्यूज़ चैनल चलाने का है। तमाम अखबार पढ़कर सामग्री बनाइये और अपने इन्टरनेट कैफे में चाय लाने वाले लड़कों को टाई लगाकर "3 मिनट में 30 और 5 मिनट में 500 खबरें" जैसे कार्यक्रमों में कैमरे के सामने बैठा दीजिये। 8 मिनट तो ये हुये। 24 घंटों का बाकी काम हर मर्ज की दवा हकीम लुक़मान टाइप के विज्ञापनों से चल जाएगा। फिर भी जो एक घंटा बच जाये उसके बीच में आप अपनी बुद्धिजीवी विशेषज्ञता के साथ आजकल के हालात पर तसकरा कीजिये। पेनल के लिए पिछले कदम में सम्मानित लोगों में से कुछ को बारी-बारी से बुलाते रहिए। बोलने में घबराइये मत। चल जाये तो ठीक और अगर कभी लेने के देने पड़ जाएँ तो बड़प्पन दिखाकर बयान वापस ले लीजिये। टीवी पर रोज़ किसी न किसी गंभीर विषय पर लंबी-लंबी फेंकने वाला तो बुद्धिजीवी होगा ही। और फिर जनहित में हर हफ्ते अपना कोई न कोई बयान वापस लेने वाला तो सुपर-बुद्धिजीवी होना चाहिए।

... तो गुरु, हो जा शुरू, जुट जा काम पर। और जब बुद्धिजीवी दुकान चल निकले तो हमें वापस अपना फीडबैक अवश्य दीजिये।
जब फेसबुक पर एक मित्र "ठूँठ बीकानेरी" ने एक सहज सा प्रश्न किया, "ये बुद्धिजीवी कैसे बनते हैं?" तो बहुत से उत्तर आए। उन्हीं जवाबों के सहारे एक अन्य मित्र सतीश चंद्र सत्यार्थी के लिखे लाजवाब लेख "फेसबुक पर इंटेलेक्चुअल कैसे दिखें" तक पहुँच गये। गजब के सुझाव हैं। आप भी एक बार अवश्य पढ़िये। एक बुद्धिजीवी के रूप में अपना सिक्का कैसे जमाएँ, यह एक शाश्वत समस्या है। जिसका सामना बहुत से इंटरनेटजन अक्सर करते हैं। सत्यार्थी जी का आलेख उनके लिए अवश्य सहायक सिद्ध होगा। इसी संबंध में अब तक मेरे अनुभव में आए कुछ अन्य सरल बिन्दु यहाँ उल्लिखित हैं। इस लेख को सतीश के लेख का सहयोगी या पूरक समझा जा सकता है।

Wednesday, December 10, 2014

हम क्या हैं? - कविता

उनका प्रेम समंदर जैसा
अपना एक बूंद भर पानी

उनकी बातें अमृत जैसी
अपनी हद से हद गुड़धानी

उनका रुतबा दुनिया भर में
हम बस मांग रहे हैं पानी

उनके रूप की चर्चा चहुँदिश
ये सूरत किसने पहचानी

उनके भवन भुवन सब ऊँचे
अपनी दुनिया आनी जानी

वे कहलाते आलिम फाजिल
हमको कौन कहेगा ज्ञानी

इतने पर भी हम न मिटेंगे
आखिर दिल है हिन्दुस्तानी

Saturday, November 29, 2014

तल्खी और तकल्लुफ

जो आज दिखी
असहमति नहीं
अभिव्यक्ति मात्र है
आज तक
सारा नियंत्रण
अभिव्यक्ति पर ही रहा
असहमति
विद्यमान तो थी
सदा-सर्वदा ही
पर
रोकी जाती रही
अभिव्यक्त होने से
सभ्यता के नाते

Thursday, October 23, 2014

खान फ़िनॉमिनन - कहानी

(कथा व चित्र: अनुराग शर्मा)
"गरीबों को पैसा तो कोई भी दे सकता है, उन्हें इज्ज़त से जीना खाँ साहब सिखाते हैं।"

"खाँ साहब के किरदार में उर्दू की नफ़ासत छलकती है।"

"अरे महिलाओं को प्रभावित करना तो कोई खान साहब से सीखे।"

"कभी शाम को उनके घर पर जमने वाली बैठकों में जा के तो देख। दिल्ली भर की फैशनेबल महिलायें वहाँ मिल जाएंगी।"

"खाँ साहब कभी भी मिलें, गजब की सुंदरियों से घिरे ही मिलते हैं।

"महफिल हो तो खाँ साब की हो, रंग ही रंग। सौन्दर्य और नज़ाकत से भरपूर।"

बहुत सुना था खाँ साहब के बारे में। सुनकर चिढ़ भी मचती थी। रईस बाप की बिगड़ी औलाद, उस बददिमाग बूढ़े के व्यक्तित्व में कुछ भी ऐसा नहीं है जिससे मैं प्रभावित होता। कहानी तो वह क्या लिख सकता है, हाँ संस्मरणों के बहाने, अपने सच्चे-झूठे प्रेम-प्रसंगों की डींगें ज़रूर हाँकता रहता है। अपनी फेसबुक प्रोफाइल पर भी यह कुंठित व्यक्तित्व केवल महिलाओं के कंधे पर हाथ धरे फोटो ही लगाता है। मुझे नहीं लगता कि उस आदमी में ऐसी एक भी खूबी है जो किसी समझदार महिला या पुरुष को प्रभावित करे। स्वार्थजनित संबंधों की बात और होती है। मतलब के लिए तो बहुत से लोग किसी की भी लल्लो-चप्पो करते रहते हैं। खाँ तो एक बड़े साहित्यिक मठ द्वारा स्थापित संपादक है सो छपास की लालसा वाले लल्लू-पंजू लेखकों-कवियों-व्यंग्यकारों द्वारा उसे घेरे रहना स्वाभाविक ही है। एक ही लीक पर लिखे उसके पिटे-पिटाए संस्मरण उसके मठ के अखबार उलट-पलटकर छापते रहते हैं। चालू साहित्य और गॉसिप पढ़ने वालों की संख्या कोई कम तो नहीं है, सो उसके संस्मरण चलते भी हैं। लेकिन इतनी सी बात के कारण उसे कैसानोवा या कामदेव का अवतार मान लेना, मेरे लिए संभव नहीं। मुझे न तो उसके व्यक्तित्व में कभी कोई दम दिखाई दिया और न ही उसके लेखन में।

कस्साब वादों से हटता रहा है, बकरा बेचारा ये कटता रहा है
खाँ साहब कोई पहले व्यक्ति नहीं जिनके बारे में अपनी राय बहुमत से भिन्न है। अपन तो जमाने से मठाधीशों को इगनोर मारने के लिए बदनाम हैं। लेकिन बॉस तो बॉस ही होता है। जब मेरे संपादक जी ने हुक्म दिया कि उसका इंटरव्यू करूँ तो जाना ही पड़ा। नियत दिन, नियत समय पर पहुँच गया। खाँ साहब के एक साफ सुथरे नौकर ने दरवाजा खोला। मैंने परिचय दिया तो वह अदब के साथ एक बड़े से हॉलनुमा कमरे में ले गया। सीलन की बदबू भरे हॉल के अंदर बेतरतीब पड़े सोफ़ों पर 10-12 अधेड़ महिलाएं बैठी थीं। कमरे में बड़ा शोर था। बेशऊर सी दिखने वाली वे महिलाएँ कचर-कचर बात करे जा रही थीं।

कमरे के एक कोने में 90 साल के थुलथुल, खाँ साहब, अपनी बिखरी दाढ़ी के साथ मैले कुर्ते-पाजामे में एक कुर्सी पर चुपचाप पसरे हुए थे। सामने की मेज़ पर किताबें और कागज बिखरे हुए थे। मुझे "दैनंदिन प्रकाशिनी" नामक पत्रिका के खाँ विशेषांक में छपा एक आलेख याद आया जिसमें खान फ़िनॉमिनन की व्याख्या करते हुए यह बताया गया था कि लोग, खासकर स्त्रियाँ, उनकी तरफ इसलिए आकृष्ट होती हैं क्योंकि वे उनकी बातें बहुत ध्यान से सुनते हैं और एक जेंटलमैन की तरह उन्हें समुचित आदर-सत्कार के साथ पूरी तवज्जो देते हैं।

नौकर के साथ मुझे खाँ साहब की ओर बढ़ते देखकर अधिकांश महिलाएँ एकदम चुप हो गईं। खाँ साहब के एकदम नजदीक बैठी युवती ने अभी हमें देखा नहीं था। अब बस एक उसी की आवाज़ सुनाई दे रही थी। ऐसा मालूम पड़ता था कि वह खाँ साहब से किसी सम्मेलन के पास चाहती थी। खाँ साहब ने हमें देखकर कहा, "खुशआमदीद!" तो वह चौंकी, मुड़कर हमें देखा और रुखसत होते हुए कहती गई, "पास न, आप मेरे को, ... परसों ... नहीं, नहीं, कल दे देना"

खाँ साहब ने इशारा किया तो अन्य महिलाएँ भी चुपचाप बाहर निकल गईं। नौकर मुझे खाँ साहब से मुखातिब करके दूर खड़ा हो गया। मैं खाँ साहब को अपना परिचय देता उससे पहले ही वे बोले, "अच्छा! इंटरव्यू को आए हो, गुप्ताजी ने बताया था, बैठो।" हफ्ते भर से बिना बदले कुर्ते-पाजामे की सड़ान्ध असह्य थी। अपनी भाव-भंगिमा पर काबू पाते हुए मैं जैसे-तैसे उनके सामने बैठा तो अपनी दाढ़ी खुजलाते हुए वे अपने नौकर पर झुँझलाये, "अबे खबीस, जल्दी मेरी हियरिंग एड लेकर आ, इनके सवाल सुने बिना उनका जवाब क्या तेरा बाप देगा?"

[समाप्त]

Sunday, September 28, 2014

सम्राट पतङ्गम [इस्पात नगरी से - 69]


एक हिन्दी कहावत है,"खाली दिमाग शैतान का घर"। कुछ दिमाग इसलिए खाली होते हैं कि उनके पास फुर्सत खूब होती है लेकिन कुछ इसलिए भी खाली होते हैं कि वे पुराने काम कर कर के जल्दी ही बोर हो जाते हैं और इसलिए कुछ नया, कुछ रोचक करने की सोचते हैं। कोई एवरेस्ट जैसी कठिन चोटियों पर चढ़ जाता है तो कोई बड़े मरुस्थल को अकेले पार करने निकल पड़ता है। उत्तरी-दक्षिणी ध्रुव अभियान हों या अन्तरिक्ष में हमारे चंद्रयान और मंगलयान जैसे अभियान, ये मानव की ज्ञान-पिपासा और जिजीविषा के साथ उसकी संकल्प शक्ति के भी प्रतीक हैं। बड़े लोगों के काम भी बड़े होते हैं, लेकिन सब लोग बड़े तो नहीं हो सकते न। तो उनके लिए इस संसार में छोटे-छोटे कामों की कमी नहीं है।

प्यूपा से तितली बनाते देखना भी एक ऐसा ही सरल परंतु रोचक काम है जो कि हमने पिछले दिनों किया। यह प्यूपा था एक मोनार्क बटरफ्लाई का जिसे हम सुविधा के लिए हिन्दी में सम्राट पतंग या सम्राट तितली कह सकते हैं। सम्राट तितली के गर्भाधान का समय वसंत ऋतु है। गर्मी के मौसम में अन्य चपल तितलियों के बीच अमेरिका और कैनेडा से मेक्सिको जाती हुई ये सम्राट तितलियाँ अपने बड़े आकार और तेज़ गति का कारण दूर से ही नज़र आ जाती हैं।

तितली और पतंगे कीट वर्ग के एक ही परिवार (order: Lepidoptera) के अंग हैं और उनकी जीवन प्रक्रिया भी मिलती-जुलती है। तितली का जीवनकाल उसकी जाति के अनुसार एक सप्ताह से लेकर एक वर्ष तक होता है।

तितली के अंडे गोंद जैसे पदार्थ की सहायता से पत्तों से चिपके रहते हैं। कुछ सप्ताह में अंडे से लार्वा (larvae या caterpillars) बन जाता है जो सामान्य रेंगने वाले कीटों जैसा होता है। लार्वा जमकर खाता है और समय आने पर प्यूपा (pupa) में बदल जाता है। प्यूपा बनाने की प्रक्रिया पतंगों में भी होती है। प्यूपा एक खोल में बंद होता है। पतंगे के प्यूपा के खोल को ककून (cocoon) तथा तितली के प्यूपा के खोल को क्राइसेलिस (chrysalis) कहते हैं। ज्ञातव्य है कि ककून से रेशम बनता है। क्राइसेलिस का ऐसा कोई उपयोग नहीं मिलता। क्राइसेलिस भी गोंद जैसे प्राकृतिक पदार्थ द्वारा अपने मेजबान पौधे से चिपका रहता है।

अब आता है तितली के जीवन-चक्र का सबसे रोचक भाग, जब क्राइसेलिस में बंद प्यूपा एक खूबसूरत तितली में बदलता है। प्यूपा के रूपान्तरण की इस जादुई प्रक्रिया को मेटमोर्फ़ोसिस (metamorphosis) कहते हैं। रूपान्तरण काल में प्यूपा अपने खोल में बंद होता है। इसी अवस्था  में प्यूपा के पंख उग आते हैं और तेज़ी से बढ़ते रहते हैं। भगवा और काले रंग के पंखों वाली खूबसूरत सम्राट तितली पिट्सबर्ग जैसे नगर से हजारों मील दूर मेक्सिको की मिचोआकन (Michoacán) पहाड़ियों में स्थित अपने मूल निवास तक हर साल पहुँचती हैं। सामान्यतः नवंबर से मार्च तक ये तितलियां मेक्सिको में रहती हैं। और उसके बाद थोड़ा-थोड़ा करके फिर से उत्तर की ओर हजारों मील तक अमेरिका और दक्षिण कैनेडा तक बढ़ आती हैं।

सम्राट तितलियाँ शक्तिशाली होती हैं। अधिकांश तितलियों की तरह उनके चारों पंख भी एक दूसरे से स्वतंत्र होते हैं। लेकिन इनके पंख सामान्य तितलियों की तरह छूने से झड़ जाने वाले नाज़ुक नहीं होते हैं।

ऐसा समझा जाता है कि सम्राट तितलियों में धरती के चुंबकीय क्षेत्र और सूर्य की स्थिति की सहायता से मार्गदर्शन के क्षमता होती हैं। हजारों मील की दूरी सुरक्षित तय करने वाली सम्राट तितलियाँ जहरीली भी होती हैं। विषाक्तता उनमें पाये जाने वाले कार्डिनेलाइड एग्लीकॉन्स रसायनों के कारण है जो इनकी पाचनक्रिया में भी सहायक होते हैं। इस विष के कारण वे कीटों और चिड़ियों का शिकार बनाने से बच पाती हैं।  ये तितलियाँ काफी ऊँचाई पर उड़ सकती हैं और ऊर्जा संरक्षण के लिए गर्म हवाओं (jet streams) की सहायता लेती हैं।

सम्राट तितलियों का अभयारण्य (Monarch Butterfly Biosphere Reserve) एक विश्व विरासत स्थल है जहां का अधिकतम तापमान 22° सेन्टीग्रेड (71° फहरनहाइट) तक जाता है। राजधानी मेक्सिको नगर से 100 किलोमीटर उत्तरपूर्व स्थित यह क्षेत्र मेक्सिको देश का सबसे ऊँचा भाग है।

थोड़ा ढूँढने पर यूट्यूब पर एक वीडियो मिला जिसमें यह पूरी प्रक्रिया बड़ी सुघड़ता से कैमरा में कैद की गई है, आनंद लीजिये:


[सभी चित्र अनुराग शर्मा द्वारा :: Photos by Anurag Sharma]
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सम्बन्धित कड़ियाँ
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इस्पात नगरी से - श्रृंखला
तितलियाँ

Tuesday, September 16, 2014

शब्दों के टुकड़े - भाग 6

(~ स्वामी अनुरागानन्द सरस्वती
विभिन्न परिस्थितियों में कुछ बातें मन में आयीं और वहीं ठहर गयीं। जब ज़्यादा घुमडीं तो डायरी में लिख लीं। कई बार कोई प्रचलित वाक्य इतना खला कि उसका दूसरा पक्ष सामने रखने का मन किया। ऐसे अधिकांश वाक्य अंग्रेज़ी में थे और भाषा क्रिस्प थी। हिन्दी अनुवाद यहाँ प्रस्तुत है। अनुवाद करने में भाषा की चटख शायद वैसी नहीं रही, परंतु भाव लगभग वही हैं। कुछ वाक्य पहले चार आलेखों में लिख चुका हूँ, कुछ यहाँ प्रस्तुत हैं। भाग 1; भाग 2; भाग 3; भाग 4; भाग 5;
  • आज की जवानी, कल एक बचपना थी।
  • शक्ति सदा ही कमजोरी है, लेकिन कई बार कमजोरी भी ताकत बन जाती है।
  • स्वप्नों को हक़ीक़त में बदलने का काम भले ही भाड़े पर कराया जाए लेकिन सपने देखना तो खुद को ही सीखना पड़ेगा।
  • जिस भावनाप्रधान देश को हल्की-फुलकी अफवाहें तक गहराई से प्रभावित करके आसानी से बहा ले जाती हों, वहाँ प्रशासनिक सुधार हो भी तो कैसे?
  • यह आवश्यक नहीं है कि बेहतर सदा अच्छा ही हो।
  • भारतीय राजनीति में सही गलत कुछ नहीं होता, बस मेरा-तेरा होता है।
  • अज्ञान कितना उत्तेजक और लोंमहर्षक होता है न!
  • आपकी विश्वसनीयता बस उतनी ही है जितनी आपकी फेसबुक मित्र सूची की।  
  • जनहितार्थ होम करते हाथ न जलते हों, ऐसा नहीं है। लेकिन कई लोग सारा गरम-गरम खाना खुद हड़प लेने की उतावली में भी हाथ जलाते हैं ... 
  • जीवन भर एक ही कक्षा में फेल होने वाले जब हर क्लास को शिक्षा देने लगें तो समझो अच्छे दिन आ चुके हैं।
  • समय से पहले लहर को देख पाते, ऐसी दूरदृष्टि तो सबमें नहीं होती। लेकिन लहर में सिर तक डूबे होने पर भी किसी शुतुरमुर्ग का यह मानना कि सिर सहरा की रेत में धंसा है, दयनीय है।
  • आपके चरित्र पर आपका अधिकार है, छवि पर नहीं ... 
  • आँख खुली हो तो नए निष्कर्ष अवश्य निकलते हैं, वरना - पहले वाले ही काम आ जाते हैं।
  • "भगवान भला करें" कहना आस्था नहीं, सदिच्छा दर्शाता है।
  • सही दिशा में एक कदम गलत दिशा के हज़ार मील से बेहतर है 
  • खुद मिलना तो दूर, जिनसे आपके विचार तक नहीं मिलते, उन्हें दोस्तों की सूची में गिनना फेसबुक पर ही संभव है।
... और अंत में एक हिंglish कथन
पाकिस्तानी सीमा पर घुसपैठ के साथ-साथ गोलियाँ भी चलती रहती हैं जबकि चीनी सैनिक घुसपैठ भले ही रोज़ करते हों गोली कभी बर्बाद नहीं करते क्योंकि चीनी की गोली is just a placebo ...
अनुरागी मन कथा संग्रह :: लेखक: अनुराग शर्मा 

Saturday, August 30, 2014

ठेसियत की ठोसियत

मिच्छामि दुक्खड़म
जैसे ऋषि-मुनियों का ज़माना पुण्य करने का था वैसे आजकल का ज़माना आहत होने का है। ठेस आजकल ऐसे लगती है जैसे हमारे जमाने में दिसंबर में ठंड और जून में गर्मी लगती थी। अखबार उठाओ तो कोई न कोई आहत पड़ा है। रेडियो पर खबर सुनो तो वहाँ आहत होने की गंध बिखरी पड़ी है। टेलीविज़न ऑन करो तो वहाँ तो हर तरफ आहत लोग लाइन लगाकर खड़े हैं।

ये सब आहत टाइप के, सताये गए, असंतुष्ट प्राणी संसार के आत्मसंतुष्ट वर्ग से खासतौर से नाराज़ लगते हैं। कोई इसलिए आहत है कि जिस दिन उसका रोज़ा था उस दिन मैंने अपने घर में अपने लिए चाय क्यों बनाई। कोई इसलिए आहत है कि जब आतंकी हत्यारे के मजहब या विचारधारा के अनुसार सारे पाप जायज़ थे तो उसे क्षमादान देने के उद्देश्य से कानून में ज़रूरी बदलाव क्यों नहीं दिया गया। कोई किसी के कविता लिखने से आहत है, कोई कार्टून बनाने से, तो कोई बयान देने से। किसी को किसी की किताब प्रतिबंधित करानी है तो कोई किताब के अपमान से आहत है।

भारत से निरामिष ब्लॉग पर अब न आने वाले एक भाई साहब तो इसी बात से आहत थे कि ये पशुप्रेमी लोग मांसाहार क्यों नहीं करते। अमेरिका में कई लोग इस बात पर आहत हैं कि हर मास किलिंग के बाद बंदूक जैसी आवश्यकता को कार जैसी अनावश्यक विलासिता की तरह नियमबद्ध करने की बात क्यों उठती है। जहाँ, धर्मातमा किस्म के लोग विधर्मियों और अधर्मियों से आहत हैं वहीं व्यवस्थाहीन देशों में आतंक और मानव तस्करी जैसे धंधे चलाने वाले गैंग, धर्मपालकों से आहत हैं क्योंकि धर्म के बचे रहते उनकी दूकानदारी वैसे ही आहत हो जाती है, जैसे जैनमुनियों के अहिंसक आचरण से किसी कसाई का धंधा।  

चित्र इन्टरनेट से साभार, मूल स्रोत अज्ञात
गरज यह है कि आप कुछ भी करें, कहीं भी करें, किसी न किसी की भावना को ठेस पहुँचने ही वाली है। लेकिन क्या कभी कोई इस ठेसियत की ठोसियत की बात भी करेगा? किसी को लगी ठेस के पीछे कोई ठोस कारण है भी या केवल भावनात्मक अपरिपक्वता है। आहत होने और आहत करने में न मानसिक परिपक्वता है, न मानवता, और न ही बुद्धिमता। आयु, अनुभव और मानसिक परिपक्वता बढ़ने के साथ-साथ हमारे विवेक का भी विकास होना चाहिए। ताकि हम तेरा-मेरा के बजाय सही-गलत के आधार पर निर्णय लें और फिजूल में आहत होने और आहत करने से बचें। कभी सोचा है कि सदा दूसरों को चोट देते रहने वाले भी खुद को ठेस लगाने के शिकवे के नीचे क्यों दबे रहते हैं? क्या रात की शिकायत के चलते सूर्योदय प्रतिबंधित किया जाना चाहिए? साथ ही यह भी याद रहे कि भावनाओं का ख्याल रखने जैसे व्यावहारिक सत्कर्म की आशा उनसे होती है जिन्हें समझदार समझा जाता है। और समझदार अक्सर निराश नहीं करते हैं। आग लगाने, भावनाएं भड़काने, आहत रहने या करने के लिए समझ की कमी एक अनिवार्य तत्व जैसा ही है

न जाने कब से ठेस लगने-लगाने पर बात करना चाहता था लेकिन संशय यही था कि इससे भी किसी न किसी की भावना आहत न हो जाये। लेकिन आज तो पर्युषण पर्व का आरंभ है सो ठोस-अठोस सभी ठेसाकुल सज्जनों, सज्जनियों से क्षमा मांगने के इस शुभ अवसर का लाभ उठाते हुए इस आलेख को हमारी ओर से हमारे सभी आहतों के प्रति आधिकारिक क्षमायाचना माना जाय। हमारी इस क्षमा से आपके ठेसित होते रहने के अधिकार पर कोई आंच नहीं आएगी।
शुभकामनाएँ!
अपराधसहस्त्राणि क्रियन्ते अहर्निशं मया। दासोयमिति मां मत्वा क्षमस्व परमेश्वर।।
गतं पापं गतं दु:खं गतं दारिद्रयमेव च। आगता: सुख-संपत्ति पुण्योहं तव दर्शनात्।।
* संबन्धित कड़ियाँ *