अमेरिका में गर्मियों की छुट्टियाँ पूरी हो गयी हैं और शिक्षण संस्थान नए सत्र के लिए खुल गए हैं। सुबह दफ्तर जाते समय सड़क पर स्कूल बस दिखने लगी हैं। स्कूल बस जब बच्चों को लेने या उतारने के लिए लाल बत्ती जलाती हुई रुकती है तो बाकी सभी गाड़ियों को उससे कम से कम 10 फीट की दूरी पर रुक जाना होता है ताकि बच्चे निर्भय होकर आ-जा सकें। मेरी दृष्टि में यह लाल-बत्ती वाहनों का एक अनुकरणीय उदाहरण तो है ही, बाल शिक्षा के प्रति एक समूचे राष्ट्र की प्रतिबद्धता भी दिखाता है।
गर्मियों की छुट्टियों से पहले एक प्राथमिक विद्यालय में पाँचवीं कक्षा के दीक्षांत समारोह में जाने का अवसर मिला। जी हाँ, विश्व विद्यालयों की तर्ज़ पर यहाँ प्राथमिक, माध्यमिक व उच्च-विद्यालयों में भी हर वर्ष दीक्षांत समारोह होता है जिसमें बच्चे बाकायदा दीक्षांत वेशभूषा में आते हैं, सम्मानित होकर अपने प्रमाणपत्र लेते हैं, अपना भाषण देते हैं और अक्सर अपने भविष्य के सपनों के बारे में भी बताते हैं।
मुझे एक सुखद आश्चर्य हुआ जब पाँचवीं कक्षा उत्तीर्ण करने वाले बच्चों ने एक-एक कर के अपने सपने बाँटना शुरू किए। कोई बच्चा फुटबाल खिलाड़ी बनना चाहता था तो कोई रसोइया। कोई चित्रकार तो कोई अभिनेता। कवि, लेखक और पत्रकार बनने की इच्छा रखने वाले भी कम नहीं थे। कुछ बच्चे पटकथा लेखक व निर्देशक भी बनना चाहते थे। वास्तुकार बनने वाले तो थे ही, कोई-कोई बढ़ई व राज-मिस्त्री भी बनना चाहते थे।
मगर जिस व्यवसाय ने इन सब को कहीं पीछे छोड़ दिया, वह था "प्राथमिक विद्यालय का शिक्षक।" मुझे यह स्वीकार करने में कोई संकोच नहीं है कि मैंने अपने जीवन में पहली बार प्राथमिक विद्यालय का शिक्षक बनने को एक व्यवसाय के रूप में इतने आदर के साथ कहे जाते सुना था। प्राइमरी के मास्टर सुन रहे हैं क्या?
ऐसा नहीं कि यहाँ पर भारत की तरह डॉक्टर, इंजिनियर या फाइटर पायलट बनने की चाह रखने वाले नहीं थे। ऐसे बच्चे भी थे, मगर संयोगवश उनमें से अधिकांश प्रथम पीढी के आप्रवासियों की संतान ही थे। इन नौनिहालों की बातें सुनते हुए यह समझ में आया कि एक शक्तिशाली और सक्षम राष्ट्र के सभी अंग सक्षम होने चाहिए। प्राथमिक शिक्षा को नकार कर उच्च शिक्षा का विकास अगर किया भी जायेगा तो वह असंतुलित ही होगा। साथ ही अगर हर बच्चा डॉक्टर, इंजिनियर या प्रबंधक बनेगा तो देश का नवनिर्माण करने के लिए शिक्षक, लोहार और सुतार कहाँ से आयेंगे?
अमेरिका में जहाँ उच्च शिक्षा बहुत ही महंगी है वहीं पर बारहवीं तक की शिक्षा न सिर्फ़ निशुल्क है बल्कि अनिवार्य भी है। कोई आश्चर्य नहीं कि शिक्षा की दर शत-प्रतिशत है। उच्च शिक्षा के लिए भी शिक्षावृत्ति और आर्थिक सहायता की व्यवस्था तो है लेकिन फ़िर भी अधिकाँश उच्च शिक्षार्थी अपने दम पर शिक्षा-ऋण लेते हैं और अपनी नौकरी के शुरू के कुछ सालों में उस ऋण को चुकाते हैं।
पिछले कुछ वर्षों में भारत ने शिक्षा, व्यवसाय और उच्च तकनीक के क्षेत्रों में काफी उन्नति की है। अक्सर ही किसी भारतीय बहुराष्ट्रीय प्रतिष्ठान द्वारा किसी विदेशी कंपनी के अधिग्रहण की ख़बर सुनाई देती है। इसके साथ ही सुनने को मिलती है भारतीय शिक्षा तंत्र की प्रशंसा। जब भी शिक्षा और तकनीकी क्षेत्रों में भारत की प्रगति के बारे में सुनाई देता है तो कानों को अच्छा लगता है। पढने में आता है कि भारत के विश्वविद्यालय विश्व में सर्वाधिक पीएचडी उत्पन्न करते हैं। हमारे देश के शिक्षण संस्थानों से आने वाले डॉक्टर व इंजिनियर की संख्या भी शायद सर्वाधिक ही हो।
शिक्षा हर भारतीय के लिए गर्व का विषय है मगर इसका एक दुखद पहलू भी है। एक तरफ़ जहाँ उच्च शिक्षा सस्ती और सुलभ है वहीं उच्च-शिक्षा के स्वर्ग इस देश में विश्व के सर्वाधिक (निर्धन) बच्चे शिक्षा के अधिकार से वंचित रह जाते हैं। जिसके पास दो जून की रोटी नहीं है उसके लिए शिक्षा एक विलास से कम नहीं है। काश हम अपने सीमित संसाधनों को बाल-शिक्षा की कीमत पर उच्च शिक्षा में लगाना कम करें और इस बात के प्रयास सुनिश्चित करें कि घर-घर में बच्चों तक शिक्षा पहुँचे। अगर हर व्यक्ति सिर्फ़ एक अशिक्षित की प्राथमिक शिक्षा की जिम्मेदारी ले ले तो सरकारों की उदासीनता के बावजूद भी इस असंभव को सम्भव किया जा सकता है।
साथ ही अगर शिक्षा का संतुलित विकास होगा तो शायद हमारे देश में भी नोबल पदक पाने वाले वैज्ञानिकों और साहित्यकारों की कमी नहीं होगी। साथ ही देश के खिलाड़ी ओलंपिक एवं अन्य अंतर्राष्ट्रीय प्रतिस्पर्धाओं में पदक तालिकाओं में स्थान पाकर देश का नाम रौशन कर सकेंगे।
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इस्पात नगरी से - पिछली कड़ियाँ
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बहुत उम्दा आलेख..अनुराग भाई.
ReplyDeleteयह फरक है एक विकसित और विकासशील देश का।
ReplyDeleteमूल अंतर संभवतः नागरिकता बोध का है ! सार्थक मुद्दे पर लिखा गया सुचिंतित आलेख !
ReplyDeleteसही कह रहे हैं भैया! भारत में सपनों की रेंज बहुत कम है। बेतहाशा बढ़ती आबादी, अनुशासन की कमी और पोर पोर में बसा भ्रष्टाचार! - मुझे जो कुछ सही घट रहा है, उस पर आश्चर्य होता है।
ReplyDeleteभारत में प्राथमिक स्तर पर शिक्षा में कई प्रयोग किये गए लेकिन बाल मजदूरी के कारण ड्राप आउट संख्या बढ जाती है। इसलिए राजस्थान के गांवों में तो विद्यालय का प्रथम दिन प्रवेशोत्सव के रूप में मनाया जाता है। इस दिन सारे ही गाँव वाले एकत्र होते हैं और बच्चों को पढाने के प्रति प्रतिज्ञ भी। लेकिन गाँवों में रोजगार के अवसर सीमित होने के कारण बच्चे शीघ्र ही नौकरी की तलाश में शहर भाग जाते हैं। लेकिन फिर भी जागरूकता बढ रही है और शिक्षा का प्रतिशत भी।
ReplyDeleteप्राथमिक शिक्षा को नकार कर उच्च शिक्षा का विकास अगर किया भी जायेगा तो वह असंतुलित ही होगा...
ReplyDeleteबहुत जरुरी आलेख लगा. यहाँ बदलाव सुखद नहीं है. हद से ज्यादा समस्याएं मुंह बाए खड़ी है. नागरिक और राज्य दोनों ही तरफ से प्रतिबद्धता की विशेष कमी है.
Nice and informative post . It's really good to know that they think with a positive frame of mind.
ReplyDeleteक्या कहें? यहां गिरजेशराव जी की चिंताएं हमें भी डराती है. बहुत ही सार्थक और सामयिक आलेख.
ReplyDeleteरामराम.
आपने वहां का जो विवरण दिया...जैसे लगा किसी दूसरी दुनिया की बात हो....भारत में तो ऐसे परिदृश्य की हम कल्पना भी नहीं कर सकते...
ReplyDeleteदुर्भाग्यपूर्ण है यह... हमारे देश में प्रतिभाओं की भरमार रहते हुए भी भाषा(अंगरेजी) और धन की कमी के कारण असंख्य प्रतिभाएं पनपने का सुअवसर नहीं पातीं..
अपने यहाँ के सरकारी प्राथमिक शालाओं की स्थिति बड़ी दयनीय है. उच्च शिक्षा के साथ साथ प्राथमिक शिक्षा पर भी समुचित ध्यान देना चाहिए. वहां की व्यवस्था अनुकरणीय ही है. आभार.
ReplyDeleteवेल... जब सरकार सोती है तो हम आगे बढ़ जाते हैं, और फिर जैसे-जैसे ब्रेड बटर की चिंता दूर हो रही है वैसे भारत में भी लोग इंजिनियर और डॉक्टर से 'ऊपर' उठ कर सोच रहे हैं.
ReplyDeleteशिक्षा के स्तर व उपलब्धता का असंतुलन हमारी कमजोरी भी है।
ReplyDeleteवास्तव में प्राइमरी शिक्षा का बहुत महत्व है. हमें कोशिश करनी चाहिए की सभी लोग कम से कम प्राथमिक स्तर की शिक्षा तो अवश्य ही ग्रहण कर पायें. बढ़िया लिखा.
ReplyDeleteअमरीकी इम्मीग्रेंट को पता था कि सफलता ही जीवन है, यहां सब बैठे ठाले ही चला आ रहा है...घर की मुर्गी दाल बराबर.
ReplyDeleteअनुराग जी बिलकुल यही हाल यहां जर्मनी मै भी है, यहां तो उच्च शिक्षा भी बिलकुल फ़्री है....भारत मै जो कुछ हम देख रहे है उस पर सिर्फ़ शर्म आती है, या फ़िर गुस्सा,भारत के लोगो को यह पढ कर शायद हेरानगी हो कि यहां उच्च शिक्षा ग्रह्ण कर के भी लोग, टेकसी चलाते है, अपनी दुकाने चलाते है, अपने घर का सारा काम जेसे सफ़ेदी वगेरा खुद ही करते है
ReplyDeleteपहले तो सारी जानकारियॉं 'रोचक' लगीं। पॉंचवी कक्षा के दीक्षान्त समारोहवाली बात पर विश्वास नहीं हो पा रहा है। थोडी देर बाद जानकारियॉं 'गम्भीर' अनुभव होने लगीं और अगले ही क्षण 'महत्वपूर्ण' लगने लगीं।
ReplyDeleteशिक्षा को लेकर पश्चिमी देशों और भारत की मानसिकता के आमूलचूल अन्तर से हमारे संकटों का मूल कारण अनुभव हो जाता है।
नमस्कार सर,
ReplyDeleteआप के पास वहाँ के भी अनुभव हैं, अपने पास यहाँ के भी पूरे अनुभव नहीं हैं। सरकारी स्कूलों से अपना वास्ता पहली बार हरियाणा में नौकरी करते समय इलैक्शन ड्यूटी के दौरान ही पड़ा। प्रिंसीपल महोदय के कमरे को छॊड़कर एक भी कमरा मुकम्मल नहीं था। दरवाजे, खिड़कियां, बेंच, पानी की व्यवस्था जिस चीज का नाम लीजिये वही चौपट। दरियाफ़्त करने पर पता चला कि पूरे स्कूल में शायद बीस या पच्चीस ही बच्चे पढ़ते हैं। हमारी सरकारों ने आरक्षण और इस उस के नाम पर कागजी ड्रामे पूरे करे हैं, बस्स। कितना फ़र्क है पश्चिम और हमारे आज के भारत में और लोग कहते हैं कि हमारा भारत विश्व में सिरमौर है, कभी कभी मन करता है भरपूर गालियाँ लिखूँ लेकिन फ़िर हँस कर रह जाते हैं जी।
@मो सम कौन
ReplyDeleteमिल जुल के इस वतन को
ऐसा सजायेंगे हम
हैरत से मुंह तकेगा
सारा जहाँ हमारा...
शिक्षा का प्रतिशत तो बढ़ रहा है हमारे देश में ...
ReplyDeleteमगर जो समर्पण शिक्षकों में होना चाहिए ...वह अब नजर नहीं आता ...
@ प्राथमिक शिक्षा को नकार कर उच्च शिक्षा का विकास अगर किया भी जायेगा तो वह असंतुलित ही होगा।
भारत में तो प्राथमिक शिक्षा me shiksha kee gunvatta par itna jor nahi diya jaata ...
बेहतरीन पोस्ट ..!
america mey shikcha ka aisa sundar mahaul ...hm to yo hi bekar meyn apne ko sikch mey viswa ka guru kahte hai.. yaha sikch ka mtlb dhan se khrida gyan... us bacche ki primary schook ka teacher bannene ki khohis dil ko choo gai. ab up me bhi bahut log BTC KARNA CHAHTEY HAI... UNKA ANURAG SIKCHA KE PRTI HAI AISA NAHI HAI .. SALARY KAFI HO GAI HAI ..ISLIYE. HM BHI AAP SE KUCH PRERNA LEY SAKE..KASSSSS....
ReplyDelete........कुछ मुद्दे है तो गंभीर .....पर जैसे व्यवस्था चल पा रही कितना समय लगेगा ...कहना मुश्किल है |
ReplyDelete@अभिषेक ओझा जी का कहना ठीक है कि हालात बदल तो रहें हैं ......पर जब हम कुछ बदलते हैं तो ज़माना हमसे पहले बदल जाता है | प्राइमरी के मास्टर के रूप में जब मैंने नौकरी शुरू की थी ...तो कुछ भाव ऐसा था कि कहाँ आ गया मैं ? आज दस ग्यारह बरस बाद ......लगता है कि कितना मानसिक सुकून है जो आईएएस/पीसीएस ना बना !
था तो मैं भी उसी मध्यमवर्गीय सपने की उपज |