नोट: कुछ समय पहले मैंने यह लेखक बेचारा क्या करे? भाग 1 में एक लेखक की ज़िम्मेदारी और उसकी मानसिक हलचल को समझने का प्रयास किया था। उस पोस्ट पर आई टिप्पणियों से जानकारी में वृद्धि हुई। पिछले दिनों इसी विषय पर कुछ और बातें ध्यान में आयी, सो चर्चा को आगे बढ़ाता हूँ।कालजयी ग्रन्थों की सूची में निर्विवाद रूप से शामिल ग्रंथ महाभारत में मुख्य पात्रों के साथ रचनाकार वेद व्यास स्वयं भी उपस्थित हैं। कोई लोग जय संहिता को भले आत्मकथात्मक कृति कहें लेकिन आज की आत्मकथाओं में अक्सर दिखने वाले एकतरफा और सीमित बयान के विपरीत वहाँ एक समग्र और विराट वर्णन है। मेरे ख्याल से समग्रता और विराट रूप अच्छे लेखन के अनिवार्य गुण हैं। यदि लेखन संस्मरणात्मक या आत्मकथनपरक लगे, और पाठक उससे अपने आप को जुड़ा महसूस करें तो सोने में सुहागा। लघुकथा के नाम पर अनगढ़ चुट्कुले या किसी उद्देश्यहीन घटना का सतही और आंशिक विवरण सामने आये तो निराशा ही होती है।
बदायूँ में अपने अल्पकालीन निवास के दौरान एक बार मैंने पत्राचार के माध्यम से अपने प्रिय लेखक उपेन्द्रनाथ अश्क से अच्छी कहानी के बारे में उनकी राय पूछी थी। अन्य बहुत से गुणों के साथ ही जिस एक सामान्य तत्व की ओर उन्होने दृढ़ता से इशारा किया था वह थी सच्चाई। उनके शब्दों में कहूँ तो, "अच्छी कहानियाँ सच्चाई पर आधारित होती हैं। कल्पना के आधार पर गढ़ी कहानियों के पेंच अक्सर ढीले ही रह जाते हैं।"
अच्छी कहानियाँ पात्रों से नहीं, लेखकों से होती हैं। सर्वश्रेष्ठ कहानियाँ पात्रों या लेखकों से नहीं, पाठकों से होती हैं।महाभारत का तो काल ही और था, छापेखाने से सिनेमा तक के जमाने में पाठक का लेखक से संवाद भी एक असंभव सी बात थी, पात्र की तो मजाल ही क्या। लेकिन आज के लेखक के सामने उसके पात्र कभी भी चुनौती बनकर सामने आ सकते हैं। बेचारा भला लेखक या तो अपना मुँह छिपाए घूमता है या अपने पात्रों का चेहरा अंधेरे में रखता है।
अपनी कहानियों के लिए, उनके विविध विषयों, रोचक पृष्ठभूमि और यत्र-तत्र बिखरे रंगों के लिए मैं अपने पात्रों का आभारी हूँ। मेरी कहानियों की ज़मीन उन्होंने तैयार की है। कथा निर्माण के दौरान मैं उनसे मिला अवश्य हूँ। कहानी लिखते समय मैं उन्हें टोकता भी रहता हूँ। वे सब मेरे मित्र हैं यद्यपि मैं उन सबको व्यक्तिगत रूप से नहीं जानता हूँ। हमारा परिचय बस उतना ही है जितना कहानी में वर्णित है। बल्कि वहां भी मैंने लेखकीय छूट का लाभ यथासंभव उठाकर उनका कायाकल्प ही कर दिया है। कुछ पात्र शायद अपने को वहां पहचान भी न पायें। कई तो शायद खफा ही हो जाएँ क्योंकि मेरी कहानी उनका असली जीवन नहीं है। इतना ज़रूर है कि मेरे पात्र बेहद भले लोग हैं। अच्छे दिखें या बुरे, वे सरल और सहज हैं, जैसे भीतर, तैसे बाहर।
मेरी कहानियाँ मेरे पात्रों की आत्मकथाएँ नहीं हैं। लेकिन उन्हें मेरी आत्मकथा समझना तो और भी ज्यादती होगी। मेरी कहानियाँ वास्तविक घटनाओं का यथारूप वर्णन या किसी समाचारपत्र की रिपोर्ट भी नहीं हैं। मैं तो कथाकार कहलाना भी नहीं चाहता, मैं तो बस एक किस्सागो हूँ। मेरा प्रयास है कि हर किस्सा एक संभावना प्रदान करे , एक अँधेरे कमरे में खिड़की की किसी दरार से दिखते तारों की तरह। किसी सुराख से आती प्रकाश की एक किरण जैसे, मेरी अधिकाँश कहानियाँ आशा की कहानियाँ हैं। जहाँ निराशा दिखती है, वहां भी जीवन की नश्वरता के दुःख के साथ मृत्योर्मामृतंगमय का उद्घोष भी है।
एक लेखक अपने पात्रों का मन पढ़ना जानता है। एक सफल लेखक अपने पाठकों का मन पढ़ना जानता है। एक अच्छा लेखक अपने पाठकों को अपना मन पढ़ाना जानता है। सर्वश्रेष्ठ लेखक यह सब करना चाहते हैं ...अरे, आप भी तो लिखते हैं, आपके क्या विचार हैं लेखन के बारे मेँ?
रचनाएँ लेखक की परछाई ही तो है | जो की प्रकाशमयी होनी चाहिए |
ReplyDeleteपाठक को एक या अधिक पात्रों से जुड़ाव (चाहे वह प्रेम और सहानुभूति हो या नफरत) महसूस हो.. मेरे हिसाब से तो कहानी लेखन में यही महत्वपूर्ण है..
ReplyDeleteकहानियां और क्या है हमारे आस पास घटने वाली घटनाएँ , चरित्र जिन्हें लेखक अपनी कला और कल्पना से मांजता है ! पाठक उसी कहानी को अधिक पसंद करेगा जिससे वह जुड़ सकता हो किसी न किसी रूप में ! नकारात्मकता समय ने यूँ ही खूब भरी है , कहानियों की सकारत्मकता जीवन में आशावाद को बनाये रखती है !
ReplyDeleteसार्थक आलेख !
""समग्रता और विराट रूप अच्छे लेखन के अनिवार्य गुण हैं""
ReplyDeleteसुन्दर आलेख प्रस्तुति
एक सार्थक और रोचक विमर्श को आपने आगे बढ़ाया है... शानदार प्रयास है
ReplyDeleteजी धन्यवाद!
ReplyDeleteबहुत ही सटीक और विचारवान तथ्य लिखा है आपने. आलेख की भाषा बहुत ही सुंदर और काव्य जैसी लगी. दो बार पढ चुका हूं, बहुत बहुत शुभकामनाएं.
ReplyDeleteरामराम.
सार्थक चर्चा ।
ReplyDeleteलेखक का लिखना लिखना होता है अब आप ने जब कह ही दिया आप भी तो लिखते हैं तो भाई जी कुछ लोग यूँ ही कुछ भी लिख देते हैँ हम जैसे :)
ReplyDeleteचार साल पहले लिखे लेख को पिछले वर्ष लिखा लेख बताया है, मुचलका भरने को तैयार रहियेगा :)
ReplyDeleteमुझे लगता है कि अधिकतर मामलों में कहानी में किसी न किसी पात्र के माध्यम से लेखक उपस्थित तो रहता ही है।निजता का सम्मान शायद एक सबसे बड़ा कारक है जो किसी भी सीधी सरल कहानी में पेंच ले आता है और इसी में कहानी की और लेखन की खूबसूरती परवान चढ़ती है।
नहीं है, सही है। आधे-अधूरे, या छिप गए ड्राफ्ट्स को ढूंढकर लाइन पर लाने का काम चल रहा है। यह लेख जब लिखा था तब बात एक साल पुरानी ही थी, फिर यह भी कहें छिप गया। जब झाड़पोंछकर यहाँ लगाने का नंबर आया तब तक पता हे नहीं चला कि कुछ साल और बीत गए। बुढ़ापे में चूकें बहुत हो रही हैं, लेकिन सभी "भूल-चूक-लेनी-देनी" की श्रेणी की हैं, इरादा नेक ही रहा है। आपकी पैनी नज़र का शुक्रिया, समयान्तराल अभी ठीक किए देता हूँ।
Deleteआपके इरादों की नेकनीयत पर शक कौन कमबख्त कर रहा था, ये तो हम कमी ढूँढने के अपने यूएसपी का प्रदर्शन कर रहे थे :)
Deleteसुंदर आलेख।।।
ReplyDeleteकहानी पूरी होते होते मुझे लगता है कई बातों सा मिश्रण हो जाता है ... लेखक की कल्पना से शुरू होती हुयी सजीव पात्रों में गति ढूंढती हुयी कथा आगे बढती है फिर स्थान, पात्रों का चयन करती हुयी पाठकों तक पहुँचती है ...
ReplyDeleteरोचक आलेख..
ReplyDeleteचलते-फिरते जीवन का प्रतिबिंब होती है कहानी ,और लेखक ,बेचारा सब पात्रों से जुड़ा कभी उसकी कभी इसकी गाँठें खोलता फिरता है .
ReplyDeleteaapne upendranath ashk ji ka jikr kiya, unhe har baar padh kar lagta hai ki ye to mera hi samay hai, koi itna achchha kaise likh leta hai?
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