(अनुराग शर्मा)
अनजानी राह में
जीवन प्रवाह में
बहते चले गये
आपके प्रताप से
दूर अपने आप से
रहते चले गये
आप पे था वक़्त कम
किस्से खुद ही से हम
कहते चले गये
सहर की रही उम्मीद
बनते रहे शहीद
सहते चले गये
माया है यह संसार
न कोई सहारा यार
ढहते चले गये ...
धन्यवाद दिलबाग
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (16-02-2017) को "दिवस बढ़े हैं शीत घटा है" (चर्चा अंक-2882) पर भी होगी।
ReplyDelete--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
Very heart-touching
ReplyDeleteआपके प्रताप से, दूर अपने आपसे, रहते चले गए....सचमुच कुछ लोग ऐसे मिलते हैं यहाँ जो अपने आपसे भी दूर कर देते हैं...
ReplyDeleteवाह, आपकी कविता दिल ले गई
ReplyDeleteबहुत खूब
ReplyDeletegood one
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