बंदूकों से
उगलते हैं मौत
और जहर
रचनाओं से
जैसे कि जहर और
गोली में बुद्धि होती हो
अपने-पराये का
अंतर समझने की
खुशी से उछल रहे हैं कि
दुश्मनों के खात्मे के बाद
समेट लेंगे उनकी
सारी पूंजी
और दुनिया उनकी
मेहनत से बनी
गिराकर सारे बुत
बताएंगे खुद को खुदा
और बैठकर पिएंगे चुरुट
चलाएँगे हुक्म
समझते नहीं कि जहर
अपने फिरके आप बनाता है
बंदूक की नाल
खुद पर तन जाती है
जब सामने दुश्मन का
कोई चिह्न नहीं बचता
अपनी कहानियों के लिए, उनके विविध विषयों, रोचक पृष्ठभूमि और यत्र-तत्र बिखरे रंगों के लिए मैं अपने पात्रों का आभारी हूँ। मेरी कहानियों की ज़मीन उन्होंने तैयार की है। वे सब मेरे मित्र हैं यद्यपि मैं उन्हें व्यक्तिगत रूप से नहीं जानता हूँ।
कथा निर्माण के उदेश्य से मैं उनसे मिला अवश्य हूँ। कहानी लिखते समय मैं उन्हें टोकता भी रहता हूँ। लेकिन हमारा परिचय केवल उतना ही है जितना कहानी में वर्णित है। बल्कि वहाँ भी मैंने लेखकीय छूट का लाभ उठाया है। इस हद तक, कि कुछ पात्र शायद अपने को वहाँ पहचान न पायें। कई तो शायद खफा ही हो जाएँ क्योंकि मेरी कहानी उनका जीवन नहीं है।
मेरे पात्र भले लोग हैं। अच्छे या बुरे, वे सरल और सहज हैं, जैसे भीतर, तैसे बाहर।
मेरी कहानियाँ इन पात्रों की आत्मकथाएँ नहीं हैं। उन्हें मेरी आत्मकथा समझना तो और भी ज्यादती होगी। मेरी कहानियाँ समाचारपत्र की रिपोर्ट भी नहीं हैं। मैंने अपने या पात्रों के अनुभवों में से कुछ भी यथावत नहीं परोसा है।
मेरी हर कहानी एक संभावना प्रदान करती है। एक अँधेरे कमरे में खिड़की की किसी दरार से दिखते तारों की तरह। किसी सुराख से आती प्रकाश की एक किरण जैसे, मेरी कहानियाँ आशा की कहानियाँ हैं। यदि कहीं निराशा दिखती भी है, वहाँ भी जीवन की नश्वरता के दुःख के साथ मृत्योर्मामृतम् गमय का उद्घोष है। कल अच्छा था, आज बेहतर है, कल सर्वश्रेष्ठ होगा।
जो आज दिखी
असहमति नहीं
अभिव्यक्ति मात्र है
आज तक
सारा नियंत्रण
अभिव्यक्ति पर ही रहा
असहमति
विद्यमान तो थी
सदा-सर्वदा ही
पर
रोकी जाती रही
अभिव्यक्त होने से
सभ्यता के नाते
विभिन्न परिस्थितियों में कुछ बातें मन में आयीं और वहीं ठहर गयीं। जब ज़्यादा घुमडीं तो डायरी में लिख लीं। कई बार कोई प्रचलित वाक्य इतना खला कि उसका दूसरा पक्ष सामने रखने का मन किया। ऐसे अधिकांश वाक्य अंग्रेज़ी में थे और भाषा क्रिस्प थी। हिन्दी अनुवाद यहाँ प्रस्तुत है। अनुवाद करने में भाषा की चटख शायद वैसी नहीं रही, परंतु भाव लगभग वही हैं। कुछ वाक्य पहले चार आलेखों में लिख चुका हूँ, कुछ यहाँ प्रस्तुत हैं।
भाग 1; भाग 2; भाग 3; भाग 4; भाग 5;
आज की जवानी, कल एक बचपना थी।
शक्ति सदा ही कमजोरी है, लेकिन कई बार कमजोरी भी ताकत बन जाती है।
स्वप्नों को हक़ीक़त में बदलने का काम भले ही भाड़े पर कराया जाए लेकिन सपने देखना तो खुद को ही सीखना पड़ेगा।
जिस भावनाप्रधान देश को हल्की-फुलकी अफवाहें तक गहराई से प्रभावित करके आसानी से बहा ले जाती हों, वहाँ प्रशासनिक सुधार हो भी तो कैसे?
यह आवश्यक नहीं है कि बेहतर सदा अच्छा ही हो।
भारतीय राजनीति में सही गलत कुछ नहीं होता, बस मेरा-तेरा होता है।
अज्ञान कितना उत्तेजक और लोंमहर्षक होता है न!
आपकी विश्वसनीयता बस उतनी ही है जितनी आपकी फेसबुक मित्र सूची की।
जनहितार्थ होम करते हाथ न जलते हों, ऐसा नहीं है। लेकिन कई लोग सारा गरम-गरम खाना खुद हड़प लेने की उतावली में भी हाथ जलाते हैं ...
जीवन भर एक ही कक्षा में फेल होने वाले जब हर क्लास को शिक्षा देने लगें तो समझो अच्छे दिन आ चुके हैं।
समय से पहले लहर को देख पाते, ऐसी दूरदृष्टि तो सबमें नहीं होती। लेकिन लहर में सिर तक डूबे होने पर भी किसी शुतुरमुर्ग का यह मानना कि सिर सहरा की रेत में धंसा है, दयनीय है।
आपके चरित्र पर आपका अधिकार है, छवि पर नहीं ...
आँख खुली हो तो नए निष्कर्ष अवश्य निकलते हैं, वरना - पहले वाले ही काम आ जाते हैं।
"भगवान भला करें" कहना आस्था नहीं, सदिच्छा दर्शाता है।
सही दिशा में एक कदम गलत दिशा के हज़ार मील से बेहतर है
खुद मिलना तो दूर, जिनसे आपके विचार तक नहीं मिलते, उन्हें दोस्तों की सूची में गिनना फेसबुक पर ही संभव है।
... और अंत में एक हिंglish कथन पाकिस्तानी सीमा पर घुसपैठ के साथ-साथ गोलियाँ भी चलती रहती हैं जबकि चीनी सैनिक घुसपैठ भले ही रोज़ करते हों गोली कभी बर्बाद नहीं करते क्योंकि चीनी की गोली is just a placebo ...
नोट: कुछ समय पहले मैंने यह लेखक बेचारा क्या करे? भाग 1 में एक लेखक की ज़िम्मेदारी और उसकी मानसिक हलचल को समझने का प्रयास किया था। उस पोस्ट पर आई टिप्पणियों से जानकारी में वृद्धि हुई। पिछले दिनों इसी विषय पर कुछ और बातें ध्यान में आयी, सो चर्चा को आगे बढ़ाता हूँ।
कालजयी ग्रन्थों की सूची में निर्विवाद रूप से शामिल ग्रंथ महाभारत में मुख्य पात्रों के साथ रचनाकार वेद व्यास स्वयं भी उपस्थित हैं। कोई लोग जय संहिता को भले आत्मकथात्मक कृति कहें लेकिन आज की आत्मकथाओं में अक्सर दिखने वाले एकतरफा और सीमित बयान के विपरीत वहाँ एक समग्र और विराट वर्णन है। मेरे ख्याल से समग्रता और विराट रूप अच्छे लेखन के अनिवार्य गुण हैं। यदि लेखन संस्मरणात्मक या आत्मकथनपरक लगे, और पाठक उससे अपने आप को जुड़ा महसूस करें तो सोने में सुहागा। लघुकथा के नाम पर अनगढ़ चुट्कुले या किसी उद्देश्यहीन घटना का सतही और आंशिक विवरण सामने आये तो निराशा ही होती है।
बदायूँ में अपने अल्पकालीन निवास के दौरान एक बार मैंने पत्राचार के माध्यम से अपने प्रिय लेखक उपेन्द्रनाथ अश्क से अच्छी कहानी के बारे में उनकी राय पूछी थी। अन्य बहुत से गुणों के साथ ही जिस एक सामान्य तत्व की ओर उन्होने दृढ़ता से इशारा किया था वह थी सच्चाई। उनके शब्दों में कहूँ तो, "अच्छी कहानियाँ सच्चाई पर आधारित होती हैं। कल्पना के आधार पर गढ़ी कहानियों के पेंच अक्सर ढीले ही रह जाते हैं।"
अच्छी कहानियाँ पात्रों से नहीं, लेखकों से होती हैं। सर्वश्रेष्ठ कहानियाँ पात्रों या लेखकों से नहीं, पाठकों से होती हैं।
महाभारत का तो काल ही और था, छापेखाने से सिनेमा तक के जमाने में पाठक का लेखक से संवाद भी एक असंभव सी बात थी, पात्र की तो मजाल ही क्या। लेकिन आज के लेखक के सामने उसके पात्र कभी भी चुनौती बनकर सामने आ सकते हैं। बेचारा भला लेखक या तो अपना मुँह छिपाए घूमता है या अपने पात्रों का चेहरा अंधेरे में रखता है।
अपनी कहानियों के लिए, उनके विविध विषयों, रोचक पृष्ठभूमि और यत्र-तत्र बिखरे रंगों के लिए मैं अपने पात्रों का आभारी हूँ। मेरी कहानियों की ज़मीन उन्होंने तैयार की है। कथा निर्माण के दौरान मैं उनसे मिला अवश्य हूँ। कहानी लिखते समय मैं उन्हें टोकता भी रहता हूँ। वे सब मेरे मित्र हैं यद्यपि मैं उन सबको व्यक्तिगत रूप से नहीं जानता हूँ। हमारा परिचय बस उतना ही है जितना कहानी में वर्णित है। बल्कि वहां भी मैंने लेखकीय छूट का लाभ यथासंभव उठाकर उनका कायाकल्प ही कर दिया है। कुछ पात्र शायद अपने को वहां पहचान भी न पायें। कई तो शायद खफा ही हो जाएँ क्योंकि मेरी कहानी उनका असली जीवन नहीं है। इतना ज़रूर है कि मेरे पात्र बेहद भले लोग हैं। अच्छे दिखें या बुरे, वे सरल और सहज हैं, जैसे भीतर, तैसे बाहर।
मेरी कहानियाँ मेरे पात्रों की आत्मकथाएँ नहीं हैं। लेकिन उन्हें मेरी आत्मकथा समझना तो और भी ज्यादती होगी। मेरी कहानियाँ वास्तविक घटनाओं का यथारूप वर्णन या किसी समाचारपत्र की रिपोर्ट भी नहीं हैं। मैं तो कथाकार कहलाना भी नहीं चाहता, मैं तो बस एक किस्सागो हूँ। मेरा प्रयास है कि हर किस्सा एक संभावना प्रदान करे , एक अँधेरे कमरे में खिड़की की किसी दरार से दिखते तारों की तरह। किसी सुराख से आती प्रकाश की एक किरण जैसे, मेरी अधिकाँश कहानियाँ आशा की कहानियाँ हैं। जहाँ निराशा दिखती है, वहां भी जीवन की नश्वरता के दुःख के साथ मृत्योर्मामृतंगमय का उद्घोष भी है।
एक लेखक अपने पात्रों का मन पढ़ना जानता है। एक सफल लेखक अपने पाठकों का मन पढ़ना जानता है। एक अच्छा लेखक अपने पाठकों को अपना मन पढ़ाना जानता है। सर्वश्रेष्ठ लेखक यह सब करना चाहते हैं ...
अरे, आप भी तो लिखते हैं, आपके क्या विचार हैं लेखन के बारे मेँ?
विभिन्न परिस्थितियों में कुछ बातें मन में आयीं और वहीं ठहर गयीं। जब ज़्यादा घुमडीं तो डायरी में लिख लीं। कई बार कोई प्रचलित वाक्य इतना खला कि उसका दूसरा पक्ष सामने रखने का मन किया। ऐसे अधिकांश वाक्य अंग्रेज़ी में थे और भाषा क्रिस्प थी। हिन्दी अनुवाद यहाँ प्रस्तुत है। अनुवाद करने में भाषा की चटख शायद वैसी नहीं रही, परंतु भाव लगभग वही हैं। कुछ वाक्य पहले चार आलेखों में लिख चुका हूँ, कुछ यहाँ प्रस्तुत हैं।
1. जित्ता बड़ा दिल, उत्ता बड़ा बिल
2. किसी फिक्र का ज़िक्र करने वालों को अक्सर उस ज़िक्र की फिक्र करनी पड़ती है।
3. दोस्ती दो दिलों की सहमति से ही हो सकती है, असहयोग के लिए एक ही काफी है।
4. उदारता की एक किरण उदासी की कालिमा हर लेती है।
5. हर किसी का पक्षधर अक्सर किसी का भी पक्षधर नहीं होता, खासकर तब जब वह खुद भी दौड़ में शामिल हो।
6. अच्छी कहानियाँ पात्रों से नहीं, लेखकों से होती हैं। सर्वश्रेष्ठ कहानियाँ पात्रों या लेखकों से नहीं, पाठकों से होती हैं।
7. सूमो विरोधी का बलपूर्वक सामना करता है लेकिन जूडोका विरोधी की शक्ति से ही काम चलाता है।
8. जो कुछ नहीं करते, वे गज़ब करते हैं।
9. बहरूपिये के मुखौटे के पीछे छिपे चेहरे को न पहचानकर उसे समर्थन देने वाले एक दिन खुद अपनी नज़रों में तो गिरते ही हैं, लेकिन तब तक समाज के बड़े अहित के साझीदार बन चुके होते हैं।
10. दुनिया का आधा कबाड़ा इंसानी गलतियों से हुआ। गलतियाँ सुधारने के अधकचरे, कमअक्ल और स्वार्थी प्रयासों ने बची-खुची उम्मीद का बेड़ा गर्क किया है।
11. तानाशाहों की वैचारिकी उनके हथियारबंद गिरोहों द्वारा मनवा ली जाती है, विचारकों की तानाशाही को तो उनकी अपनी संतति भी घास नहीं डालती।
आज आपके लिये कुछ कथन जिसका अनुवाद मुझसे नहीं हो सका। कृपया अच्छे से हिन्दी अनुवाद सुझायें:
You are not frugal until you use coupons at a dollar store
Don't act, just act!
visibility enables trust, familiarity means comfort
सुखिया सब संसार है खाए और सोये। दुखिया दास कबीर है जागे और रोये।।
ज्ञानियों की दुनिया भी निराली है। जहाँ एक तरफ सारी दुनिया एक दूसरे की नींद हराम करने में लगी हुई है, वहीं अपने मगहरी बाबा दुनिया को खाते, सोते, सुखी देखकर अपने जागरण को रुलाने वाला बता रहे हैं। जागरण भी कितने दिन का? कभी तो नींद आती ही होगी। या शायद एक ही बार सीधे सारी ज़िंदगी की नींद की कसर पूरी कर लेते हों, कौन जाने! मुझे तो लगता है कि कुछ लोग कभी नहीं सोते, केवल मृत्यु उनकी देह को सुलाती है। सिद्धार्थ को बोध होने के बाद किसका घर, कैसा परिवार। मीरा का जोग जगने के बाद कौन सा राजवंश और कहाँ की रानी? बस "साज सिंगार बांध पग घुंघरू, लोकलाज तज नाची।" जगने-जगाने की स्थिति भी अजीब है। जिसने देखी-भोगी उसके लिए ठीक, बाकियों के लिये संत कबीर के ही शब्दों में:
अकथ कहानी प्रेम की कहे कही न जाय। गूंगे केरी शर्करा, खाए और मुस्काय।।
पतंजलि के योग सूत्र के अनुसार योग का अर्थ चित्तवृत्तियों का निरोध है। अभ्यास तथा वैराग्य के द्वारा उनका निरोध संभव है। बचपन से अपने आसपास के लोगों को जीवन की सामान्य प्रक्रियाओं के साथ ही योगाभ्यास भी करते पाया। सर पर जितने दिन बाबा का हाथ रहा उन्हें नित्य प्राणायाम और त्रिकाल संध्या करते देखा। त्रिकाल संध्या की हज़ारों साल पुरानी परम्परा तो उनके साथ ही चली गयी, उनका मंत्रोच्चार आज भी मन के किसी कोने में बैठा है और यदा-कदा उन्हीं की आवाज़ में सुनाई देता है।
जैसे आदमी पुराने वस्त्र त्याग कर नये ग्रहण करता है, वैसे ही आत्मा एक शरीर छोड़कर दूसरा शरीर धारण कर लेती है। मगर ऐसी सूक्ष्म आत्मा को क्या चाटें ? ऐसी आत्मा न खा-पी सकती है, न भोग कर सकती है, न फिल्म देख सकती है। ~ हरिशंकर परसाई
पटियाली सराय के वे सात घर एक ही परिवार के थे। पंछी उड़ते गए, घोंसले रह गए समय के साथ खँडहर बनने के लिए। पुराने घरों में से एक तो किसी संतति के अभाव में बहुत पहले ही दान करके मंदिर बना दिया गया था। एक युवा पुत्र की मोहल्ले के गुंडों द्वारा हत्या किया जाना दूसरे घर के कालान्तर में खँडहर बनाने का कारण बना। कोई बुलाये से गये, तो कुछ स्वजन स्वयं निकल गए। घर खाली होते गए। इन्हीं में से छूटे हुए एक लबे-सड़क घर के मलबे को मोहल्ले के छुटभय्ये नेता द्वारा अपने ट्रक खड़े करने के लिए हमसार कराते देखता था। जब गर्मियों की छुट्टियों में सात खण्डों में से एक अकेला घर आबाद होता था तब कभी मन में आया ही नहीं कि एक दिन यह घर क्या, नगर क्या, देश भी छूट जायेगा। हाँ, दुनिया छूटने का दर्द तब भी दिल में था। संयोग है कि भरा पूरा परिवार होते हुए भी उस घर को बेचने हम दो भाइयों को ही जाना पड़ा। घर के अंतिम चित्र जिस लैपटॉप में रखे उसकी डिस्क इस प्रकार क्रैश हुई कि एक भी चित्र नहीं बचा।
बाबा रिटायर्ड सैनिक थे। अंत समय तक अपना सब काम खुद ही किया। उस दिन आबचक की सफाई करते समय दरकती हुई दीवार से कुछ ईंटें ऊपर गिरीं, अपने आप ही रिक्शा लेकर अस्पताल पहुँचे। हमेशा प्रसन्न रहने वाले बाबा को जब मेरे आगमन के बारे में बताया गया तो दवाओं की बेहोशी में भी उन्होंने आँख-मुँह खोले बिना हुंकार भरी और अगले दिन अस्पताल के उसी कमरे में हमसे विदा ले ली। दादी एक साल पहले जा चुकी थीं। मैं फिर से कछला की गंगा के उसी घाट पर खड़ा कह रहा था, "हमारा साथ इतना ही था।"
धर्म और अध्यात्म से जितना भी परिचय रहा, बाबा और नाना ने ही कराया। संयोग से उनका साथ लम्बे समय तक नहीं रहा। उनकी अनुपस्थिति का खालीपन आज भी बना हुआ है। जीवन में मृत्यु की अटल उपस्थिति की वास्तविकता समझते हुए भी मेरा मन कभी उसे स्वीकार नहीं सका। हमारा जीवन हमारे जीवन के गिर्द घूमता रहता है। शरीर माध्यम खलु धर्म साधनं। सारा संसार, सारी समझ इस शरीर के द्वारा ही है। जान है तो जहान है। इसके अंत का मतलब? मेरा अंत मतलब मेरी दुनिया का अंत। कई शुभचिंतकों ने गीता पढ़ने की सलाह दी ताकि आत्मा के अमरत्व को ठीक से समझ सकूँ। दूसरा अध्याय पढ़ा तो सर्वज्ञानी कृष्ण जी द्वारा आत्मा के अमरत्व और शरीर के परिवर्तनशील वस्त्र होने की लम्बी व्याख्या के बाद स्पष्ट शब्दों में कहते सुना कि यदि तू इस बात पर विश्वास नहीं करता तो भी - और सर्वज्ञानी का कहा यह "तो भी" दिल में किसी शूल की तरह चुभता है - तो भी इस निरुपाय विषय में शोक करने से कुछ बदलना नहीं है।
जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च। तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि ।।
एक बुज़ुर्ग मित्र से बातचीत में कभी मृत्यु का ज़िक्र आया तो उन्होंने इसे ईश्वर की दयालुता बताया जो मृत्यु के द्वारा प्राणियों के कष्ट हर लेता है। गीता में उनकी बात कुछ इस तरह प्रकट हुई दिखती है:
मेरे प्रिय व्यक्तित्वों में से एक विनोबा भावे ने अन्न-जल त्यागकर स्वयं ही इच्छा-मृत्यु का वरण किया था। मेरी दूसरी प्रिय व्यक्ति मेरिलिन वॉन सेवंट से परेड पत्रिका के साप्ताहिक प्रश्नोत्तरी कार्यक्रम में किसी ने जब यह पूछा कि संभव होता तो क्या वे अमृत्व स्वीकार करतीं तो उन्होंने नकारते हुए कहा कि यदि जीवनत्याग की इच्छा होने पर भी अमृत्व के बंधन के कारण जीवन पर वह अधिकार न रहे तो वह अमरता भी एक प्रकार की बेबसी ही है जिसे वे कभी नहीं चाहेंगी। अपने उच्चतम बुद्धि अंक के आधार पर मेरिलिन विश्व की सबसे बुद्धिमती व्यक्ति हैं। कुशाग्र लोगों के विचार मुझे अक्सर आह्लादित करते हैं, लेकिन नश्वरता पर मेरिलिन का विचार मैं जानना नहीं चाहता।
सिद्धांततः मैं अकाल-मृत्यु का कारण बनने वाले हर कृत्य के विरुद्ध हूँ। जीवन और मृत्यु के बारे में न जाने कितना कुछ कहा, लिखा, पढ़ा, देखा, अनुभव किया जा चुका है। शिकार, युद्ध, जीवहत्या, मृत्युदंड, दैहिक, दैविक ताप आदि की विभीषिकाओं से साहित्य भरा पड़ा है। संसार अनंत काल से है, मृत्यु होते हुए भी जीवन तो है ही। नश्वरता को समझते हुए, उसे रोकने का हरसंभव प्रयास करते हुए भी हम उसे स्वीकार करते ही हैं। लेकिन यह स्वीकृति और समझ हमारे अपने मन की बात है जो हमारे इस क्षणभंगुर शरीर से बंधा हुआ है। मतलब यह कि हमारी हर समझ, हमारा बोध हमारे जीवन तक ही सीमित है। लेकिन क्या यह बोध है भी? हमने सदा दूसरों की मृत्यु देखी है, अपनी कभी नहीं। कैसी उलटबाँसी है कि अपने सम्पूर्ण जीवन में हम सदा जीवित ही पाए गए हैं। जीवन, मृत्यु, पराजीवन, आदि के बारे में हमारी सम्पूर्ण जानकारी या/और कल्पनाएँ भी हमारे इसी जीवन और शरीर के द्वारा अनुभूत हैं। क्या इस जीवन के बाद कोई जीवन है? चाहते तो हैं कि हो लेकिन चाहने भर से क्या होता है?
हम न मरे मरै संसारा। हमको मिला जियावनहारा।। (संत कबीर)
ब्रह्म सत्यम् जगत मिथ्या। मेरी दुनिया शायद मेरा सपना भर नहीं। मेरे जीवन से पहले भी यह थी, और मेरे बाद भी रहेगी। हाँ, जिस भी मिट्टी से बना मैं आज अपने अस्तित्व के प्रति चैतन्य हूँ वह चेतना और वह अस्तित्व दोनों ही मरणशील हैं। यदि मैं दूसरा पक्ष मानकर यह स्वीकार कर भी लूं कि कोई एक आत्मा वस्त्रों की तरह मेरा शरीर त्यागकर किसी नए व्यक्ति का नया शरीर पहन लेगी तो भी वह अस्तित्व मेरा कभी नहीं हो सकता। क्या वस्त्र कभी किसी शरीर पर आधिपत्य जमा सकते हैं? ईंट किसी घर की मालकिन हो सकती है? कुछ महीने में मरने वाली रक्त-कणिका क्या अपने धारक शरीर की स्वामिनी हो सकती है? वह तो शरीर के सम्पूर्ण स्वरुप को समझ भी नहीं सकती। मेरा अस्तित्व मेरे शरीर के साथ, बस। उसके बाद, ब्रह्म सत्यम् ...
न तद्भासयते सूर्यो न शशाङ्को न पावक:। यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धामम् परमं मम ॥
(उस परमपद को न सूर्य प्रकाशित करता है, न चन्द्रमा और न अग्नि। जिस लोक को प्राप्त होकर मनुष्य लौटकर संसार में कभी वापस नहीं आता, ऐसा मेरा परमधाम है। (श्रीमद्भागवद्गीता)
जीवन की नश्वरता और कर्मयोग की अमरता की समझ देने के लिए गीता का आभार और आभार उन पूर्वजों का जिन्होंने जान देकर भी, कई बार पीढ़ियों तक भूखे, बेघरबार, खानाबदोश रहकर देस-परदेस भागते-दौड़ते हुए, कई बार अक्षरज्ञानरहित होकर भी अद्वितीय ज्ञान, समझ और विचारों को, इन ग्रंथों को भविष्य की पीढियों की अमानत समझकर संजोकर रखा और अपने घरों में जीवित रखी स्वतंत्र विचार की, वार्ता की, शास्त्रार्थ की, मत-मतांतर और वैविध्य के आदर की, शाकाहार और अहिंसा की, प्राणिमात्र पर दया की अद्वितीय भारतीय परम्परा।
धन्य हैं हम कि इस भारतभूमि में जन्मे!
ॐ असतो मा सद्गमय। तमसो मा ज्योतिर्गमय। मृत्योर्मामृतं गमय। ॐ शान्ति शान्ति शान्ति।।
स्वामी विवेकानंद के शब्द, येसुदास का स्वर, संगीत सलिल चौधरी का
विभिन्न परिस्थितियों में कुछ बातें मन में आयीं और वहीं ठहर गयीं। जब ज़्यादा घुमडीं तो डायरी में लिख लीं। कई बार कोई प्रचलित वाक्य इतना खला कि उसका दूसरा पक्ष सामने रखने का मन किया। ऐसे अधिकांश वाक्य अंग्रेज़ी में थे और भाषा क्रिस्प थी। हिन्दी अनुवाद यहाँ प्रस्तुत है। अनुवाद करने में भाषा की चटख शायद वैसी नहीं रही, परंतु भाव लगभग वही हैं। कुछ वाक्य पहले तीन आलेखों में लिख चुका हूँ, कुछ यहाँ प्रस्तुत हैं।
1. स्वतंत्रता कभी थोपी नहीं जा सकती। थोपते ही वह दासत्व में बदल जाती है।
2. इतिहास अब मिटाया नहीं जा सकता और भविष्य अभी पाया नहीं जा सकता।
3. आज के लोभ को कल का लाभ देखने की फ़ुर्सत कहाँ।
4. भविष्य किसने देखा है? बहुतेरे तो भूत भी नहीं देख पाते।
5. अफ़वाहों की समय सीमा (एक्सपायरी डेट) निर्धारित होनी चाहिये।
6. गिलास आधा खाली है या आधा भरा यह शंका समाप्त करनी है तो उसे पूरा भरना होगा।
7. रिश्ते अक्सर वनवे ट्रैफ़िक की तरह होते हैं। कोई देने के भार से दुखी है कोई लेने के।
8. इस ब्रह्माण्ड में सब कुछ अस्थाई है, हम भी। (सर्वम् क्षणिकम्)
9. कुछ लेख संग्रहणीय होते हैं, पढे तो बाकी भी जाते हैं।
10. पूँजीवाद का सबसे अमानवीय रूप साम्यवाद कहलाता है।
पिछले अंक में अंग्रेज़ी में लिखे दो कथन जिनका हिन्दी अनुवाद निशांत मिश्र के सहयोग से हुआ
11. गर्भधारण का झंझट न हो तो माँ-बाप बनना सहज है।
12. कला कोई मेज़-कुर्सी तो है नहीं जो अपने बूते पर टिक सके।
आज आपके लिये कुछ कथन जिसका अनुवाद मुझसे नहीं हो सका। कृपया अच्छे से हिन्दी अनुवाद सुझायें:
I have so many friends that I can't count. Can I count on them?
Every outsider is a potential insider from the "other" side!
What finish line? Nice guys never cared about rat race.
हाथ में गुलदस्ता लेकर वह कमरे में घुसी तो वहाँ का हाल देखकर भौंचक्की रह गई। सब कुछ बिखरा पड़ा था। बिस्तर कपड़ों से भरा था, कमीज़ें, पतलूनें, बनियान, पाजामा, मोज़े आदि तो थे ही, सूट और टाइयाँ भी मजगीले से पड़े थे। गुड़ी-मुड़ी से पड़े साफ़ कपड़ों के बीच एकाध पहने हुए कपड़े भी थे। ग़नीमत यही थी कि पहनी हुई ज़ुराबें कमरे के एक कोने में इकट्ठी थीं। अलमारियों के अलावा भी हर ओर किताबें, नोटबुकक्स, डायरियाँ, रजिस्टर, सीडी, डीवीडी और ब्लू रे आदि डिस्क जमा थीं। और पढने की मेज़? राम, राम! हर आकार के बीसियों कागज़ जिनपर तरह-तरह के नोट्स लिखे हुए थे।
अनेक फ़्लैश ड्राइव्स, पैन, पैंसिलें, एलर्जी और दर्द की दवाओं की डब्बियाँ, पेपर-कटर, हथौड़ी, पेंचकस जैसे छोटे मोटे औज़ार नेल-कटर, कैंची, टेप डिस्पैंसर आदि से प्रतियोगिता कर रहे थे।
मेज़ पर चश्मों, बटुओं, पासबुकों, चैकबुकों और रोल किये हुए कई पोस्टरों के बीच अपने लिये जगह बनाते हुए किंडल, टैबलैट, फ़ोन और लैपटॉप पड़े थे। मेज़ के नीचे रखे वर्कस्टेशन से न जाने कितने तार निकलकर मेज़ पर ही रखी हुई कई बाहरी हार्ड डिस्क ड्राइवों को जोड़कर एक अजीब सा मकड़जाल बना रहे थे। उसके ऊपर दो-तीन पत्रिकायें भी पड़ी थीं। साथ की छोटी सी मेज़ पर एक बड़ा सा प्रिंटर रखा था जिस पर कार्डबोर्ड के दो डिब्बे भी एक के ऊपर एक भिड़ाये हुए थे। साथ में ही डाक में आने-जाने वाले पत्रों को छाँटने के लिये एक पोर्टेबल दराज ज़बर्दस्ती अड़ा दिया गया था जोकि अब गिरा तब गिरा की हालत में अपने को संतुलित करने का प्रयास कर रहा था।
बुकशेल्व्स पर किताबों के अलावा भी जिस किसी चीज़ की कल्पना की जा सकती है वह सब मौजूद थी। अपने खोल से कभी निकाले न गये अखबारों के रोल, डम्बल्स, कलाकृति सरीखी मोमबत्तियाँ, देश-विदेश से जमा किया गया कबाड़। कितनी तो कलाई घड़ियाँ ही थीं। पाँच छः तरह के हैड फ़ोन पड़े थे। लैपटॉप के पहियों वाले दो बैग कन्धे पर टांगने वाले थैले को कोने की ओर खिसका रहे थे। कपड़ों की अलमारी के दोनों पट खुले हुए थे और वहाँ से भी काफ़ी कुछ बाहर आने की प्रतीक्षा में था। चाय, कॉफ़ी द्वारा अन्दर से काले पड़े कप, तलहटी में दूध का निशान छोड़ते हुए गिलास और सेरियल की कटोरियाँ। पास पड़ा कूड़ेदान कागज़ों में गर्दन तक डूबा हुआ था।
"हे भगवान! ये क्या हाल बना रखा है?"
"समय नहीं मिला, अगले इतवार को सब ठीक कर दूंगा।"
"आज क्यों नहीं? आज भी तो इतवार ही है।"
"कर ही देता, लेकिन सामान रखने की जगह ही नहीं बची है। न जाने लोग कैसे स्पेस मैनेज करते हैं। लगता है इस काम में मुझे विशेषज्ञ की सहायता की ज़रूरत है।"
"थिंक ऑउट ऑफ़ द बॉक्स!"
"वाह, मेरा ही वाक्यांश मेरे ही सर पर!"
"बेसमेंट में रख दें?"
" ... लेकिन मुझे तो इन सब चीज़ों की ज़रूरत रोज़ ही पड़ती है, ... इसी कमरे में रखना पड़ेगा।"
"तो फिर ... कुछ बॉक्स लेकर ..."
"अरे हाँ, क्लीयर प्लास्टिक के दो बड़े डब्बे ले आता हूँ। उनसे सब सामान व्यवस्थित भी जायेगा और मुझे दिखता भी रहेगा।"
तीन हफ़्ते बाद वह फिर आयी तो कमरे के स्वरूप में अंतर था। उस अव्यवस्था के बीच आड़े-टेढे पड़े दो खाली डब्बे भी अब बाकी सामान के साथ अपने रहने की जगह बना चुके थे।