Saturday, September 6, 2008

शाकाहार - कुछ तर्क कुतर्क

Disclaimer[नोट]: मैं स्वयं शुद्ध शाकाहारी हूँ और प्राणी-प्रेम और अहिंसा का प्रबल पक्षधर हूँ। दरअसल शाकाहार पर अपने विचार रखने से पहले मैं अपने जीवन में हुई कुछ ऐसी मुठभेडों से आपको अवगत कराना चाहता था जिनकी वजह से मुझे इस लेख की ज़रूरत महसूस हुई। आशा है मित्रगण अन्यथा न लेंगे।

शाकाहार तो प्राकृतिक नहीं हो सकता - भाग २
[दृश्य १ से ५ तक के लिए कृपया इस लेख की पिछली कड़ी शाकाहार तो प्राकृतिक नहीं हो सकता! पढ़ें।]

दृश्य ६:
भारत में इस्लाम के एक आधुनिक आलिम, फाजिल और तालिब शिरीमान डॉक्टर ज़ाकिर नायक मांसाहार के विषय में अपने संचालन, सम्पादन, निर्देशन में अपने बुलाए गिने-चुने अतिथियों के साथ शाकाहार के मुद्दे पर कोरान-शरीफ की रोशनी में एक बहस कराते हैं। बहस के निष्कर्ष निकालते हुए वह कहते हैं कि भगवान् ने जहाँ भी खाने के लिए जो कुछ पैदा किया है वही खाना है। अपनी बात के समर्थन में वह एन्टआर्कटिका का उदाहरण देते हुए बताते हैं कि वहाँ पर भगवान् ने अनाज नहीं उगाया है इसलिए वहाँ पर मांस खाना ही इकलौता विकल्प है।

दृश्य ७:
मैं ट्रेन में जा रहा हूँ। एक विद्वान् अपनी बातों से सभी यात्रियों को मुग्ध कर रहे हैं। बातों में ही बात गोमांस पर पहुँच जाती है। विद्वान् सज्जन यह कहकर सबको चकित कर देते हैं कि गोमांस ब्राह्मणों का भोजन था और इसलिए ब्राहमणों का एक नाम गोखन भी है। वे बताते हैं कि उनके विद्वान् पिता ने इस बारे में एक किताब भी लिखी थी। अपनी बात के पक्ष में वे कोई भी उद्धरण नहीं दे पाते हैं सिवाय अपने पिता की किताब के।

मेरी बात:
अभी तक वर्णित दृश्यों में मैंने शाकाहार के बारे में अक्सर होने वाली बहस के बारे में कुछ आंखों देखी बात आप तक पहुँचाने की कोशिश की है। आईये देखें इन सब तर्कों-कुतर्कों में कितनी सच्चाई है। लोग पेड़ पौधों में जीवन होने की बात को अक्सर शाकाहार के विरोध में तर्क के रूप में प्रयोग करते हैं। मगर वे यह भूल जाते हैं कि भोजन के लिए प्रयोग होने वाले पशु की हत्या निश्चित है जबकि पौधों के साथ ऐसा होना ज़रूरी नहीं है।

मैं अपने टमाटर के पौधे से पिछले दिनों में बीस टमाटर ले चुका हूँ और इसके लिए मैंने उस पौधे की ह्त्या नहीं की है। पौधों से फल और सब्जी लेने की तुलना यदि पशु उपयोग से करने की ज़हमत की जाए तो भी इसे गाय का दूध पीने जैसा समझा जा सकता है। हार्ड कोर मांसाहारियों को भी इतना तो मानना ही पडेगा की गाय को एक बारगी मारकर उसका मांस खाने और रोज़ उसकी सेवा करके दूध पीने के इन दो कृत्यों में ज़मीन आसमान का अन्तर है।

अधिकाँश अनाज के पौधे गेंहूँ आदि अनाज देने से पहले ही मर चुके होते हैं। हाँ साग और कंद-मूल की बात अलग है। और अगर आपको इन कंद मूल की जान लेने का अफ़सोस है तो फ़िर प्याज, लहसुन, शलजम, आलू आदि मत खाइए और हमारे प्राचीन भारतीयों की तरह सात्विक शाकाहार करिए। मगर नहीं - आपके फलाहार को भी मांसाहार जैसा हिंसक बताने वाले प्याज खाना नहीं छोडेंगे क्योंकि उनका तर्क प्राणिमात्र के प्रति करुणा से उत्पन्न नहीं हुआ है। यह तो सिर्फ़ बहस करने के लिए की गयी कागजी खानापूरी है।

मुझे याद आया कि एक बार मेरे एक मित्र मेरे घर पर बोनसाई देखकर काफी व्यथित होकर बोले, "क्या यह पौधों पर अत्याचार नहीं है?" अब मैं क्या कहता? थोड़ी ही देर बाद उन्होंने अपने पेट ख़राब होने का किस्सा बताया और उसका दोष उन बीसिओं झींगों को दे डाला जिन्हें वे सुबह डकार चुके थे - कहाँ गया वह अत्याचार-विरोधी झंडा?

एक और बन्धु दूध में पाये जाने वाले बैक्टीरिया की जान की चिंता में डूबे हुए थे। शायद उनकी मांसाहारी खुराक पूर्णतः बैक्टीरिया-मुक्त ही होती है। दरअसल विनोबा भावे का सिर्फ़ दूध की खुराक लेना मांसाहार से तो लाख गुने हिंसा-रहित है ही, मेरी नज़र में यह किसी भी तरह के साग, कंद-मूल आदि से भी बेहतर है। यहाँ तक कि यह मेरे अपने पौधे से तोडे गए टमाटरों से भी बेहतर है क्योंकि यदि टमाटर के पौधे को किसी भी तरह की पीडा की संभावना को मान भी लिया जाए तो भी दूध में तो वह भी नहीं है। इसलिए अगली बार यदि कोई बहसी आपको पौधों पर अत्याचार का दोषी ठहराए तो आप उसे सिर्फ़ दूध पीने की सलाह दे सकते हैं। बेशक वह संतुलित पोषण न मिलने का बहाना करेगा तो उसे याद दिला दें कि विनोबा दूध के दो गिलास प्रतिदिन लेकर ३०० मील की पदयात्रा कर सकते थे, यह संतुलित और पौष्टिक आहार वाला कितने मील चलने को तैयार है?

आईये सुनते हैं शिरिमान डॉक्टर नायक जी की बहस को - अरे भैया, अगर दिमाग की भैंस को थोडा ढील देंगे तो थोड़ा आगे जाने पर जान पायेंगे कि अगर प्रभु ने अन्टार्कटिका में घास पैदा नहीं की तो वहाँ इंसान भी पैदा नहीं किया था। आपके ख़ुद के तर्क से ही पता लग जाता है कि प्रभु की मंशा क्या थी। और फिर आप मांस खाने के लिये क्या रोज़ एंटार्कटिका जाते हैं? अगर आपको जुबां का चटखारा किसी की जान से ज़्यादा प्यारा है तो उसके लिये ऐसा बेतुका कुतर्क सही नहीं हो जाता।  उसके लिये मज़हब का बहाना देना भी सही नहीं है। पशु-बलि की प्रथा पर कवि ह्रदय का कौतूहल देखिये:
अजब रस्म देखी दिन ईदे-कुर्बां
ज़बह करे जो लूटे सवाब उल्टा
मज़हब के नाम पर हिंसाचार को सही ठहराने वालों को एक बार इस्लामिक कंसर्न की वेबसाइट ज़रूर देखनी चाहिए। इसी प्रकार की एक दूसरी वेबसाइट है जीसस-वेजहमारे दूर के नज़दीकी रिश्तेदार हमसे कई बार पूछ चुके हैं कि "किस हिंदू ग्रन्थ में मांसाहार की मनाही है?" हमने उनसे यह नहीं पूछा कि किस ग्रन्थ में इसकी इजाजत है लेकिन फ़िर भी अपने कुछ अवलोकन तो आपके सामने रखना ही चाहूंगा।

योग के आठ अंग हैं। पहले अंग यम् में पाँच तत्त्व हैं जिनमें से पहला ही "अहिंसा" है। मतलब यह कि योग की आठ मंजिलों में से पहली मंजिल की पहली सीढ़ी ही अहिंसा है। जीभ के स्वाद के लिए ह्त्या करने वाले क्या अहिंसा जैसे उत्कृष्ट विषय को समझ सकते हैं? श्रीमदभगवदगीता जैसे युद्धभूमि में गाये गए ग्रन्थ में भी श्रीकृष्ण भोजन के लिए हर जगह अन्न शब्द का प्रयोग करते हैं।

अंडे के बिना मिठाई की कल्पना न कर सकने वाले केक-भक्षियों के ध्यान में यह लाना ज़रूरी है कि भारतीय संस्कृति में मिठाई का नाम ही मिष्ठान्न = मीठा अन्न है। पंचामृत, फलाहार, आदि सारे विचार अहिंसक, सात्विक भोजन की और इशारा करते हैं। हिंदू मंदिरों की बात छोड़ भी दें तो गुरुद्वारों में मिलने वाला भोजन भी परम्परा के अनुसार शाकाहारी ही होता है। संस्कृत ग्रन्थ हर प्राणी मैं जीवन और हर जीवन में प्रभु का अंश देखने की बात करते हैं। ग्रंथों में औषधि के उद्देश्य से उखाड़े जाने वाले पौधे तक से पहले क्षमा प्रार्थना और फ़िर झटके से उखाड़ने का अनुरोध है। वे लोग पशु-हत्या को जायज़ कैसे ठहरा सकते हैं?

अब रही बात प्रकृति में पायी जाने वाली हिंसा की। इस विषय पर कृपया द्विवेदी जी की टिप्पणी पर भी गौर फरमाएं। मेरे बचपन में मैंने घर में पले कुत्ते भी देखे थे और तोते भी। दोनों ही शुद्ध शाकाहारी थे। प्रकृति में अनेकों पशु-पक्षी प्राकृतिक रूप से ही शाकाहारी हैं। जो नहीं भी हैं वे भी हैं तो पशु ही। उनका हर काम पाशविक ही होता है। वे मांस खाते ज़रूर हैं मगर उसके लिए कोई भी अप्राकृतिक कार्य नहीं करते हैं। वे मांस के लिए पशु-व्यापार नहीं करते, न ही मांस को कारखानों में काटकर पैक या निर्यात करते हैं। वे उसे लोहे के चाकू से नहीं काटते और न ही रसोई में पकाते हैं। वे उसमें मसाले भी नहीं मिलाते और बचने पर फ्रिज में भी नहीं रखते हैं। अगर हम मनुष्य इतने सारे अप्राकृतिक काम कर सकते हैं तो शाकाहार क्यों नहीं? शाकाहार को अगर आप अप्राकृतिक भी कहें तो भी मैं उसे मानवीय तो कहूंगा ही।

अगर आप अपने शाकाहार के स्तर से असंतुष्ट हैं और उसे पौधे पर अत्याचार करने वाला मानते हैं तो उसे बेहतर बनाने के हजारों तरीके हैं आपके पास। मसलन, मरे हुए पौधों का अनाज एक पसंद हो सकती है। और आगे जाना चाहते हैं तो दूध पियें और सिर्फ़ पेड़ से टपके हुए फल खाएं और उसमें भी गुठली को वापस धरा में लौटा दें। नहीं कर सकते हैं तो कोई बात नहीं - शाकाहारी रहकर आपने जितनी जानें बख्शी हैं वह भी कोई छोटी बात नहीं है। दया और करुणा का एक दृष्टिकोण होता है जिसमें जीव-हत्या करने या उसे सहयोग करने का कोई स्थान नहीं है।

अगर मच्छर मारने से आपकी आत्मा को कष्ट होता है तो मच्छरदानी लगाएं। जूते में चमड़ा नहीं चाहिए तो खडाऊं के अलावा आजकल बहुत सारे मानव-निर्मित पदार्थों से बने जूते पहनने का विकल्प है आपके पास। चमड़े की पेटी का क्या उपयोग है? कपड़े के ससपेंडर लगाईये।

आप सभी के उत्साह और टिप्पणियों के लिए धन्यवाद। मुझे यह जानकर अच्छा लगा कि यहाँ दया और करुणा के समर्थकों की संख्या में कोई कमी नहीं है।

चलते चलते एक सवाल: पौधों/वनस्पति/हरयाली के लिए प्रयुक्त होने वाले शब्द शस्य का शाब्दिक अर्थ क्या है?
[क्रमशः]

Friday, September 5, 2008

शाकाहार तो प्राकृतिक नहीं हो सकता!

Disclaimer[नोट] : मैं स्वयं शुद्ध शाकाहारी हूँ और प्राणी-प्रेम और अहिंसा का प्रबल पक्षधर हूँ। दरअसल शाकाहार पर अपने विचार रखने से पहले मैं अपने जीवन में हुई कुछ ऐसी मुठभेडों से आपको अवगत कराना चाहता था जिनकी वजह से मुझे इस लेख की ज़रूरत महसूस हुई। आशा है मित्रगण अन्यथा न लेंगे।

भाई अभिषेक ओझा आजकल अमेरिका में हैं। इसके पहले भी काफी देश-विदेश घूमे हैं। एक पूरी की पूरी पोस्ट भोजन,शाकाहार, अंतरात्मा और सापेक्षतावाद पर लिखी है। सुना है आगे और भी लिखनेवाले हैं। हम कहा के हमहूँ कुछ लिखबे करें। उन्होंने आज्ञा दे दी है। जिन शंकालु भाइयों को भरोसा न हो वे हमारी पिछली पोस्ट "टीस - एक कविता" में कमेन्ट देख कर अपनी तसल्ली कर लें। ओझा जी, वह कमेन्ट हटाना मत भाई, जब तक सारे पाठक "पढ़ चुके हैं" का साक्ष्य न दे दें।

दृश्य १:
दफ्तर में छोटा सा समूह था। एक जापानी, एक बांग्लादेशी, एक इराकी एक अमेरिकन और एक भारतीय मैं। महीने में एक दिन खाना दफ्तर की तरफ़ से ही होता था। उसी खाने पर अक्सर किसी ठेकेदार, आपूर्तिकार आदि के साथ बैठक का भी समायोजन हो जाता था। इस बार एक भारतीय बन्धु आए। खाना पहले से आ चुका था। आते ही पहले वे हम सब से मिले। मुलाक़ात पुरानी थी सो औपचारिकताएँ पूरी करने के बाद सीधे खाने की तरफ़ लपके। शाकाहारी खाने की तरफ़ हिकारत से देखते हुए बोले, "यहाँ कोई शाकाहारी भी है क्या?"

दृश्य २:
एक स्थानीय होटल में पारिवारिक भोज का समय। हमारे बहुत अधिक दूर के एक काफी नज़दीकी रिश्तेदार हमारी ही मेज़ पर बैठकर मुर्गे की टांग तोड़ रहे हैं। काफी गुस्से में हैं कि उनके सामने ही एक ऐसा बेवकूफ बैठा है जो मछली-अंडा तक नहीं खाता। बड़बड़ा रहे हैं, "किस हिन्दू ग्रन्थ में लिखा है कि मांस नहीं खाना चाहिए?" उनकी पतिव्रता पत्नी भी भारतीय परम्परा को निभाते हुए अपने पति-परमेश्वर का मान रखते हुए शुरू हो गयी हैं, "आदमी को खा जाते हैं, सब तरह के अत्याचार करते रहते हैं लोग, मगर मांस नहीं खाते हैं - यह कौन सा नाटक है?"

दृश्य ३:
साप्ताहिक प्रवचन सुनकर बाहर आने के बाद पता लगता है शाह जी के पिता जी का जन्मदिन है। खाना पीना तो है ही मगर उसके पहले केक का वितरण भी होता है। हम मना करते हैं तो उपला जी आकर पूछते हैं, "केक भी नहीं खाते?

"खाते हैं मगर अंडे वाला नहीं!" अब उपला जी तो समझ ही पायेंगे हमारे दिल का हाल।

"क्यों, अंडा क्यों नहीं खाते?" उपला जी केक का दूसरा टुकडा मुँह में भरकर भोलेपन से पूछते हैं।

"हमारी मर्जी!" हम सोचते हैं कि एक ब्राह्मण परिवार में जन्मे आदमी को अगर यह सवाल पूछना पड़ रहा है तो फ़िर जवाब उसकी समझ में क्या ख़ाक आयेगा।

"नहीं मतलब स्वास्थ्य की दृष्टि से कोई नुक्स है क्या अंडे में? फायदेमंद ही है," वे बड़ी मासूमियत से हमें बहस में घसीटने की कोशिश करते हैं।

"हर आदमी हर बात फायदे नुक्सान के लिए ही करे ऐसा नहीं होता है," हमें पता है कि आज तक जिसने भी हमें बहस में घसीटा है वह कई दिन रोया है - एकाध लोग तो ताउम्र भी रोये। हम ठहरे अव्वल दर्जे के दयालु। किसी का भी दिल दुखे यह हमें कबूल नहीं। इसलिए हम उनकी बहस में पड़े बिना फ़टाफ़ट शाह जी के शाहनामे से बाहर आ जाते हें।

दृश्य ४:
भारतीय लोगों के कई झुंड खाना खाने के बाद देशसेवा की अपनी ड्यूटी पूरी करने के लिए लम्बी-लम्बी फेंक रहे हें। कोई डंडे के ज़ोर पे सारी समस्यायें हल करने वाला है तो कोई एक विशेष धर्म वालों का सफाया कर के। श्री लोचन जी विनोबा भावे से अप्रसन्न हैं क्योंकि वे सिर्फ़ दूध पीते थे.

"दूध में भी तो बैक्टीरिया होते हें," मानो उनका झींगा एकदम बैक्टीरिया-मुक्त हो।

"सब्जी, अनाज, फल, पेड़, पौधे सभी में जान होती है। कुछ भी खाओ, वह हत्या ही है," लोचन जी की बात चल रही है। हम नमस्ते कर के विदा ले लेते हें।

दृश्य ५:
श्रीवास्तव जी का गृह प्रवेश। सत्यनारायण व्रत कथा के बाद का भोज। सभी खा रहे हें। केवल भारतीय ही आमंत्रित हें। कुछ मांसाहारी हें, कुछ शाकाहारी हें और कुछ मौकापरस्त भी हें। एक शाकाहारी मित्र कहते हें कि उन्हें शाकाहार की बात समझ नहीं आती है। मित्र बहुत बुद्धिमान हें और अनुभवी भी। मुझे लगता है कि इनसे इस विषय पर बात की जा सकती है। मैं बात को उनकी समझ में न आने का कारण पूछता हूँ तो वे बताते हें, "शाकाहार अप्राकृतिक है।"

मेरी रूचि जगती है तो वे आगे बताते हें, "प्रकृति में देखिये, हर तरफ़ हिंसा है, हर प्राणी दूसरे प्राणी को मारकर खा रहा है।"

[क्रमशः]

Thursday, September 4, 2008

टीस - एक कविता

(अनुराग शर्मा)

एक टीस सी
उठती है
रात भर
नींद मुझसे
आँख मिचौली करती है
मन की अंगुलियाँ
बार-बार
खत लिखती हैं
तुम्हें
दीवानी नज़रें
हर आहट पे
दौड़ती हैं
दरवाजे की तरफ़
शायद
ये तुम होगे
फिर लगता है
नहीं
तुम तो
अपनी दुनिया मे
मगन हो
अपने ही
रंग मे रंगे
अपने
सुख दुख मे खोए
अपनों से घिरे
मेरे अस्तित्व से
बेखबर
मैं समझ नहीं पाता
कि
सिर्फ मेरे नसीब में
अकेलापन
क्यों है
अकसर
एक टीस सी
उठती है।