Tuesday, December 9, 2008

सौभाग्य - कहानी [भाग 3]

प्रतिदिन इस कहानी की एक कड़ी लिखने का प्रयास करूंगा। आशा है आपको पसंद आयेगी। आपका सुझाव है कि कड़ी थोड़ी और बड़ी हो, सो हाज़िर है एक बड़ी कड़ी। अब तक की कथा यहाँ उपलब्ध है:
सौभाग्य - खंड १
सौभाग्य - खंड 2


फोन पर उसकी आवाज़ क्या सुनी, मानो मैं किसी टाइम मशीन में चली गयी। अपने जीवन में से कितनी भूली-बिसरी पुरानी यादें जैसे अब तक जबरन बंद रखी गयी खिड़कियों से उड़कर मेरे मन-मन्दिर में मंडराने लगीं। याद आए वे दिन जब हर पल आशा से बंधा था। मुझे हर रोज़ सुबह होने का इंतज़ार रहता था - ताकि उससे मिल सकूँ। उसके संग की खुशबू को बरसों बाद फ़िर से महसूस किया तो चेहरे पर स्वतः ही मुस्कान आ गयी।

कॉलेज में वह सब का चहेता था। मैं भी किसी से कम नहीं थी। वह खिलाड़ी था तो मैं पढाकू थी। मैं बहुत हाज़िर-जवाब थी जबकि वह चुप सा था। और भी बहुत से अन्तर थे हमारे बीच में। मसलन हम लोग खाते-पीते घर से थे जबकि उसका परिवार बड़ी मुश्किल से ही निम्न-मध्य वर्ग में गिना जाने लायक था। उसके पास अपनी साइकिल भी नहीं थी जबकि मुझे कॉलेज छोड़ने ड्राइवर आता था। हालांकि, बाद में मैंने जिद करके बस से आना-जाना शुरू कर दिया था। अब सोचती हूँ तो यह सपने जैसा लगता है कि इतने भेद के बावजूद हम दोनों धीरे-धीरे एक-दूसरे के रंग में रंग गए। जान-पहचान कब नज़दीकी में बदली, पता ही न लगा। मेरी सहेलियाँ शाम होते ही मुझे अकेला छोड़ देती थीं ताकि मैं उसके साथ समय बिता सकूँ। सुनयना तो हमेशा ही उसका नाम मेरे साथ जोड़कर कुछ न कुछ चुहल करती रहती। कॉलेज में सबको यकीन था कि हम शादी करेंगे ही।

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हम दोनों करोल बाग में एक छोटे से होटल में बैठे थे। मैं अपने परिवार की एल्बम ले गयी थी। वह एक-एक फोटो को बड़े ध्यान से देख रहा था। टेढ़े मेढ़े फोटो को एल्बम से निकालकर फिर वापस व्यवस्था से लगा देता। पापा के फोटो को उसने बिना बताये ही पहचान लिया।

"यह तो एक प्यारी से बच्ची के पापा ही हैं? ..."

“दिल कर रहा है कि अभी चरण छूकर आशीर्वाद ले लो, है न?”

हम दोनों ही खुलकर इतना हँसे कि आसपास की टेबल पर बैठे लोग मुड़कर हमें देखने लगे।
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मुझसे विदा लेना उसे कभी अच्छा नहीं लगता था। पर उस दिन वह कुछ ज़्यादा ही भावुक हो रहा था।

"थोडी देर और रुक जाओ न" उसने विनती की।

"आखरी बस निकल गयी तो फ़िर घर कैसे जाऊंगी?"

"काश हम लोग हमेशा साथ रह पाते" उसने एक ठंडी आह भरते हुए कहा।

"भूल जाओ, पापा इस शादी के लिए कभी भी तैयार नहीं होंगे", मैंने चुटकी ली। मुझे क्या पता था कि मेरा यह मजाक ही एक दिन मेरी ज़िंदगी का सबसे कड़वा सच बन जायेगा।
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हम दोनों पार्क में बैठे थे। वह मेरे बालों से खेल रहा था। पता ही न चला कब अँधेरा हो चला था। अचानक ही मुझे पापा का रौद्र रूप याद आया। "क्या समय है?" मैंने पूछा।

"मुझे क्या पता, मैं तो घड़ी नहीं बांधता हूँ।”

"हाँ वह तो दहेज़ में मिलेगी ही" मैंने छींटा कसा।

"मेरा दहेज़ में विश्वास नहीं है" उसे मेरी बात अच्छी नहीं लगी थी।

"रहने दो, पण्डितों को तो बस लेना ही लेना आता है।"

कहने के बाद मुझे अहसास हुआ कि मुझे ऐसा नहीं कहना चाहिए था। मैं यह सोच ही रही थी कि उसकी आवाज़ से मेरी तंद्रा भंग हुई।

"क्या चल रहा है प्रीति जी? सब ठीक तो है? करिश्मा का क्या हाल है? पढाई में तो अपनी माँ की तरह ही होशियार होगी? राइट?"

उसके मुँह से "जी" सुनकर अजीब सा लगा। शायद मुझे सहज करना चाहता था। मैंने भी संयत दिखने का पूरा प्रयास किया लेकिन अपनी सारी शक्ति लगाकर भी मैं उसके किसी भी प्रश्न का उत्तर नहीं दे सकी। गला और आँख दोनों ही भर आए।

उसने भी दोबारा नहीं पूछा। उसने अपनी नज़रें भी नीची कर लीं ताकि मैं चुपचाप छलक आया एक आँसू पोंछ सकूँ। मुझे अच्छा लगा। वह आज भी वैसा ही कोमल ह्रदय है। हमेशा ही दूसरों को पूरा मौका देता है सर्वश्रेष्ठ दिखने का।

मेरे उत्तर का इंतज़ार किए बिना उसने अपने आप ही कहा, "लंच टाइम हो रहा है, सोना रूपा में चलते हैं। तुम्हें पसंद भी है।”

हम दोनों जल्दी से बाहर निकले। लंच में मूड ख़राब हो जाने की वजह से मैं भूखी तो थी ही। मगर उसके साथ होने की बात ही और थी। मेरे कदम कुछ अधिक ही तेज़ चल रहे थे। आज बहुत सालों के बाद वह मेरे साथ चल रहा था। बिल्कुल वैसे ही जैसे शादी से पहले हम लोग घूमा करते थे।

[क्रमशः]

सौभाग्य - कहानी [भाग २]

काफी दिनों से इस कहानी का प्लाट दिमाग में घुमड़ रहा था। पर किसी न किसी कारणवश लिखना शुरू न कर सका। अब प्रतिदिन इस कहानी की एक कड़ी लिखने का प्रयास करूंगा। आशा है आपको पसंद आयेगी। आपका सुझाव है कि कड़ी थोड़ी और बड़ी हो, सो हाज़िर है एक बड़ी कड़ी। अब तक की कथा यहाँ उपलब्ध है: सौभाग्य - खंड १

दफ्तर पहुँचते-पहुँचते साढ़े दस बज ही गए थे। चीफ मैनेजर दरवाज़े पर ही खड़ा था। बुड्ढे को कोई और काम तो है नहीं। बीच में खड़ा होकर सुकुमार कन्याओं को ताकता रहता है। मुझे देखते ही अजब सी मुस्कराहट उसके चेहरे पर नाचने लगी। घिन आती है मुझे उसकी मुस्कराहट से। न मुँह में दाँत न पेट में आँत। खिजाब लगाकर कामदेव बनने की कोशिश करता है। सींग कटाने से बैल बछड़ा थोड़े ही हो जाएगा।

"तो आ गयीं आप, मुझे लगा छुट्टी पर हैं आज भी।” बुड्ढे ने हमेशा की तरह ताना मारा। बदतमीज़ कहीं का!

फ्यूचरटेक वाला जैन मेरे पहुँचने से पहले ही मेरी सीट पर पहुँच गया, "मैडम मेरी बिल पहले डिसकाउंट कर दीजिये, नहीं तो पार्टी कानूनी कार्रवाई शुरू कर देगी।” यह आदमी हमेशा कानूनी कार्रवाई की ही धमकी देता रहता है। इतना ही डर है तो अकाउंट में पहले से पैसा रखा करो ना। सबने सर पर चढ़ा रखा है। मंत्री जी का साला जो ठहरा। सारे अकाउंट ऊपर से ही तैयार होकर आते हैं हमारे पास तो साइन करने के अलावा कोई चारा ही नहीं होता है। जल्दी जल्दी उसका काम किया। दोपहर तक फ्यूचरटेक का खाता फिर से ओवर हो गया।

लंच करने बैठी तो पहले ही कौर में दाँत के नीचे कंकर आ गया। खाने का सारा मज़ा किरकिरा हो गया। तब तक राम बाबू आ गया। यह हमारा चपरासी है। चीफ मेनेजर से कम बदतमीज़ नही है। उससे कम समझता भी नहीं है अपने को। पढ़ा लिखा नहीं है। पढ़ाई की क़सर फैशनेबल कपडों से पूरी करने की कोशिश में लगा रहता है। है तो चपरासी ही और शायद सारी उम्र चपरासी ही रहे लेकिन खूबसूरती में अपने को ऋतिक रोशन से ज़्यादा सुंदर समझता है। हमेशा कुछ न कुछ कमेंट करता रहेगा। मेरी तरफ़ बढ़ा तभी मैं समझ गई कुछ बकवास करने वाला है। और ठीक वही हुआ।

उसने अपना बड़ा सा मुँह खोला, "मैडम आप न जींस में बहुत अच्छी लगती हैं, रोजाना ही जींस पहनकर आया करिये। एकदम टिप-टॉप लगेंगी।”

मुझे इतना गुस्सा आया कि उसी वक्त खाने की प्लेट छोड़कर उठ गयी।

वापस अपनी सीट पर आयी ही थी कि फ़ोन घनघनाया। 

"क्या प्रीति मैडम से बात कर सकता हूँ?" पूरे दिन में पहली बार किसी ने इतनी सभ्यता से बात की थी। अच्छा लगा। आवाज़ भी अच्छी लगी, कुछ हद तक जानी पहचानी भी।

"मैडम आपसे एक जानकारी चाहिए थी।”

"हाँ, पूछिए", पूरे दिन में अब मैं पहली बार सामान्य होने लगी थी।

"क्या आप किसी आदित्य रंजन को जानती हैं?"

उस सभ्य आवाज़ ने आदित्य कहा तो मेरा सारा शरीर एकबारगी पुलकित सा हो गया। यह नाम सुनने को मेरे कान तरस रहे थे। और मेरे होंठ भी पिछले दस सालों में कितनी बार अस्फुट स्वरों में यह नाम बोलते रहते थे। वही गंभीर स्वर, वही मिठास और वही शालीनता, मुझे यह पहचानने में एक पल भी नहीं लगा कि यह आदित्य ही है।

"बदमाश, कहाँ हो तुम?" बस यही वाक्य ठीक से निकला। गला काँपने लगा था।

"कहाँ खो गए थे तुम? पता भी है मैं किस हाल में हूँ? कितनी अकेली और उदास हूँ?" कहते कहते मेरी रुलाई फ़ूट पड़ी।

"मैं काम से नौसेना मुख्यालय आया था। पुरानी यादें ढूँढने कनोट प्लेस आया तो अरविंद मिल गया। उस से तुम्हारा सब हाल मिला। उसी ने तुम्हारा नंबर दिया और बताया कि तुम्हारी ब्रांच नजदीक ही है। सुनो… प्लीज़ रो मत। मैं पाँच मिनट में आ रहा हूँ।”

उसे आज भी मेरा इतना ख्याल है, यह जानकर अच्छा लगा। वह आज भी उतना ही भला था, उसकी आवाज़ में आज भी वही शान्ति थी जिसे मैं अब तक मिस करती रही थी।

[क्रमशः]

Monday, December 8, 2008

सौभाग्य - कहानी [भाग १]

कब से बिस्तर पर लेते हुए मैं सिर्फ़ करवटें बदल रही थी। नींद तो मानो कोसों दूर थी। करिश्मा को सोते हुए देखा। कितनी प्यारी लग रही थी। इतने जालिम बाप की इतनी प्यारी बच्ची। सचमुच कुदरत का करिश्मा है। इसीलिए मैंने इसका यह नाम रखा। इसके बाप का बस चलता तो कोई पुराने ज़माने का बहनजी जैसा नाम ही रख देते। सारी उम्र जिल्लत सहनी पड़ती मेरी बच्ची को। ख़ुद मैं भी तो रोज़ एक नरक से गुज़रती हूँ। कितना भी भुलाना चाहूँ, हर रात को दिन भर की तल्ख़ बातें याद आती रहती हैं। आज की ही बात लो, कितनी छोटी सी बात पर कितना उखड़ गए थे।

"टिकेट बुक कराया?"
"हाँ!"
"तुमने तो 8500 कहा था। अब ये 12000 कहाँ से हो गए?"
 चुप्पी।
"और ये सप्ताह के बीच में, इतवार का टिकेट क्यों नहीं लिया?"
चुप्पी।
"चार दिन का नुकसान करा दिया? चार दिन की कीमत पता है तुम्हें?"
चुप्पी।

इतना ही ख्याल है तो ख़ुद क्यों नहीं कर लिया। माना मैं पूरे हफ्ते से छुट्टी पर हूँ। इसका मतलब यह तो नहीं कि एक नौकरानी की तरह इस आदमी का हर काम करती रहूँ। अपने मायके में तो मैंने कभी खाना भी नहीं बनाया। हर काम के लिए नौकर-चाकर थे। इनको तो यह भी पसंद नहीं। कितनी बार ताना देकर कहते हैं कि रिश्वत की शान-शौकत के सामने तो मैं भूखा रहना ही पसंद करूँगा। तो रहो भूखे, मुझे और मेरे बच्चे को तो हमारा पूरा हक दो। उसके बाद जो चाहे करो। मैंने क्या-क्या कहना चाहा मगर पिछले कड़वे अनुभवों के कारण मन मारकर चुप ही रही। सोचते सोचते पता नहीं कब नींद आ गई। सुबह उठी तो सर दर्द के मारे फटा जा रहा था। आखिरी छुट्टी भी आज खत्म हो गई। पैर पटक कर दफ्तर के लिए निकलना ही पड़ा। हमेशा ऐसा ही होता है। ज़बरदस्ती कर के अपने को उठाती हूँ तब भी बस छूट जाती है। आखिरकार टैक्सी करनी पड़ी। और ये दिल्ली के टैक्सी वाले। ये तो लगता है माँ के पेट से ही गुंडे बनकर पैदा हुए थे। कोई लाज-लिहाज़ नही। अकेली औरत देखकर तो कुछ ज़्यादा ही इतराने लगते हैं।