Friday, January 23, 2009

केरल, नारी मुक्ति और नेताजी

जब मैं भारत में एक राष्ट्रीयकृत बैंक के शाखा स्वचालन विभाग में काम करता था तब काम के सिलसिले में अक्सर बहुत सी शाखाओं में आना जाना लगा रहता था। उसी सिलसिले में एक ऐसी शाखा में गया जिसके प्रबंध-प्रमुख का नाम था एन एस बोस।

मेरे साथी को शाखा प्रबंधकों और उच्च-अधिकारियों से नज़दीकी बनाने का काफी शौक था। होता अक्सर यूँ था कि मैं शाखा में जाकर सम्बंधित लोगों से वार्ता और कुछ काम-धाम करता था जबकि यह साथी शाखा-प्रमुख के दफ्तर में बैठकर उनसे बातचीत करके यह दिलासा दिलाता था कि उसके साथी लोग (यानी की मैं) भी ठीक-ठाक हैं और यदि कुछ काम बिगाड़ भी देंगे तो वे ख़ुद तो हैं ही न।

हमारे साथी के नाम में क्या रखा है मगर हमेशा की तरह इस बार भी सुविधा के लिए हम एक नाम ढूंढ लेते हैं। हम उन्हें रावण कहकर पुकारेंगे। तो रावण जी एन एस बोस के केबिन में घुस गए. अभी तक के सभी उच्चाधिकारी तो रावण के अपने राज्य या पड़ोसी राज्यों के होते थे सो उनको बात करने में काफी आसानी होती थी. अब एन एस बोस से वो क्या बात करें? मगर आप रावण को कम न समझें दस सर का मतलब दस जुबानें! उन्हें बांगला में भी कई वाक्य आते थे सो जाते ही उन्होंने टूटी-फूटी बँगला में बोस को एक मीठा सा मक्खन लगा वाक्य फेंककर मारा। मगर यह क्या, बोस जी तो पहली बाल में ही क्लीन बोल्ड। बोले, "सॉरी, मेरे को पंजाबी समझता नहीं।"

अब रावण जी को गुस्सा आ गया, "कैसे बोस हैं, बँगला को पंजाबी बोलते हैं?"

"ओह, अब समझा!"

अब बोस जी ने जो समझाया उससे पता लगा कि वे प्रभु की अपनी धरती केरल से हैं. राष्ट्रीय नायकों के नाम पर अपने बच्चों के नाम रखने की परम्परा को उदात करते हुए केरलवासियों ने अपने बच्चों के नाम स्वाधीनता सेनानियों और अन्य प्रसिद्द नायकों पर भी रखे हैं. वहाँ आपको, राम, गोविन्द, लक्षमण तो मिलेंगे ही इंदिरा गांधी भी मिलेंगी. इन एन एस बोस का पूरा नाम था - नेताजी सुभाषचन्द्र बोस.

बाद में तो हमें राम मनोहर लोहिया, बाल गंगाधर तिलक और जयप्रकाश नारायण भी मिले. आज नेताजी के जन्मदिन पर उनकी याद के साथ ही एक अरसे बाद यह घटना भी याद आयी तो आपके साथ बांटने को दिल किया.

इसी के साथ याद आया कि पराधीनता के उन दिनों में भी नेताजी जैसे नायकों ने देश की प्रगति में नारी के योगदान को बराबरी का महत्त्व दिया था. आज़ाद हिंद फौज में एक महिला रेजिमेंट भी थी जिसका नाम झांसी की वीरांगना के नाम पर "झांसी की रानी" रखा गया था. और उसकी प्रमुख थीं कर्नल डॉ. लक्ष्मी स्वामिनाथन.

उन सब वीरों को नमन जिन्होंने देश के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया और हमें भी घर बैठकर शिकायतें करते रहने के बजाय मैदान में उतरकर कुछ सकारात्मक करने की प्रेरणा दी.

Monday, January 19, 2009

जूता जैदी का इराक प्रेम - हीरो से जीरो

जान खतरे में डाले बिना हीरो बनने के नुस्खे के जादूगर अमरीकी राष्ट्रपति जॉर्ज बुश पर जूते फेंकने वाले इराक़ी पत्रकार मुंतज़र अल ज़ैदी जूताकार की तारीफ़ में काफी सतही पत्रकारिता पहले ही हो चुकी है। सद्दाम हुसैन और अरब जगत के अन्य तानाशाहों के ख़िलाफ़ कभी चूँ भी न कर सकने वाले इस पत्रकार को इस्लामी राष्ट्रों के सतही पत्रकारों ने रातों-रात जीरो से हीरो बना दिया। तानाशाहों के अत्याचारों से कमज़ोर पड़े दबे कुचले लोगों ने इस आदमी में अपना हीरो ढूंढा। क्या हुआ जो जूता किसी तानाशाह पर न चल सका, आख़िर चला तो सही।

मगर अब जब इस जूताकार पत्रकार मुंतज़र अल ज़ैदी की अगली चाल का खुलासा हुआ है तो उसके अब तक के कई मुरीदों को बगलें झाँकने पड़ रही हैं। स्विट्ज़रलैंड के समाचार पत्र ट्रिब्यून डि जिनेवा ने मुंतज़र अल ज़ैदी के वकील माउरो पोगाया के हवाले से बताया कि ज़ैदी बग़दाद में नहीं रहना चाहता है उसे इराक ही नहीं, दुनिया के किसी दूसरे इस्लामी राष्ट्र पर भी इतना भरोसा नहीं है कि वह वहाँ रह सके। इन इस्लामी देशों में उसे अपनी सुरक्षा को लेकर इतना अविश्वास है कि अब उसने स्विट्जरलैंड में शरण माँगी है।

उसके स्विस वकील पोगाया ने बताया कि ज़ैदी के रिश्तेदार उनसे मिले थे और वे उसकी तरफ़ से स्विट्ज़रलैंड में राजनीतिक शरण मांग रहे हैं। उन्होंने यह भी बताया कि जैदी के अनुसार इराक में उसकी ज़िंदगी नरक के समान है और वह स्विट्जरलैंड में एक पत्रकार का काम इराक से अधिक बेहतर कर सकेगा। जैदी की इस दरख्वास्त से यह साफ़ हो गया है कि कल तक इस्लामी जगत का झंडा फहराने का नाटक करने वाले की असलियत के पीछे इराक या सद्दाम का प्रेम नहीं बल्कि आसानी से यूरोप में राजनैतिक शरण लेने का सपना छिपा हुआ था। यहाँ यह भी ध्यान रखने योग्य बात है कि जैदी पहले ही इराकी प्रधानमंत्री को लिखे एक पत्र में जूता फेंकने की अपनी हरकत को शर्मनाक कहकर उनसे क्षमादान की अपील कर चुका है।

Saturday, January 17, 2009

कुछ शेर और

पिछली पोस्ट में पाण्डेय जी ने उत्सुकता व्यक्त की थी कि शून्य से नीचे के तापक्रम पर रेल चलती है। बात तो सही है। रेल खूब चल रही है। और हाँ, डिग्री सेंटीग्रेड में इस समय पिट्सबर्ग का तापमान शून्य से १९ अंश नीचे है। आज दिन में थोडा सा पैदल चलना पडा। ज़रा देर के लिए हाथ दस्ताने से बाहर निकाला तो लगा कि कुछ देर अगर बाहर रहा तो शायद कट कर गिर ही जायेगा। मगर ट्रेन तो चल रही है. ज़िक्र आया है तो बताता चलूँ कि पिट्सबर्ग की स्थानीय ट्राम सेवा को टी (T) कहते हैं। बाद में कभी विस्तार से सचित्र जानकारी दूंगा।

पिछली बार आपने मेरे "चंद अश'आर" पसंद किए, इसका आभारी हूँ। आपकी हौसला-अफजाई का फायदा उठाते हुए कुछ और शेर प्रस्तुत कर रहा हूँ, आशा है आपको पसंद आयेंगे।

जब भी मिलते हैं, नए ज़ख्म दिए जाते हैं,
उसपे शिकवा ये कि हम दूर हुए जाते हैं।
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बरबाद ही होंगे मेरे जज़्बात,
यहाँ नहीं ठहरी कुछ सुनने की बात।
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कितना ढूँढा पर हाथ न आया, प्यार का एक मिसरा भी
कहने को उनके ख़त में, बहुत कुछ लिखा था।
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शहर सुनसान सही, राह वीरान सही,
रात लम्बी ही सही, सहर तो होनी ही है।
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