Sunday, February 15, 2009

सुभद्रा कुमारी चौहान - सेनानी कवयित्री की पुण्यतिथि

हिन्दी साहित्य जगत हो या भारत के स्वाधीनता संग्राम की गाथा, हमारे देश का इतिहास ऐसे नर-नारियों से भरा पडा है जो कलम के धनी तो थे ही, राष्ट्र-सेवा में प्राण अर्पण करने में भी किसी से पीछे रहने वाले नहीं थे। इन्हीं कवि-सेनानियों की शृंखला के एक महामना पंडित रामप्रसाद बिस्मिल की आत्मकथा को सिलसिलेवार प्रकाशित करने का महान कार्य हमारे अपने डॉक्टर अमर कुमार अपने ब्लॉग काकोरी के शहीद पर बखूबी कर रहे हैं। यदि आप की रूचि एक अद्वितीय स्वाधीनता संग्राम सेनानी द्वारा लिखे लोमहर्षक और प्रामाणिक विवरण को विस्तार से जानने में है तो कृपया एक बार वहाँ जाकर ज़रूर पड़ें और अपने श्रद्धा सुमन अर्पित करे।

इस परमोच्च श्रेणी के साहित्यकारों की बात चलती है तो एक और नाम बरबस ही याद आ जाता है। सुभद्रा कुमारी चौहान का नाम किसी परिचय का मोहताज नहीं है। १९०४ में इलाहाबाद जिले के निहालपुर ग्राम में जन्मीं सुभद्रा खंडवा के ठाकुर लक्ष्मण सिंह से विवाहोपरांत जबलपुर में रहीं. उन्होंने १९२१ के असहयोग आन्दोलन में बढ़-चढ़ कर भाग लिया. नागपुर में गिरफ्तारी देकर वे असहयोग आन्दोलन में गिरफ्तार पहली महिला सत्याग्रही बनीं. वे दो बार १९२३ और १९४२ में गिरफ्तार होकर जेल भी गयीं। उनकी अनेकों रचनाएं आज भी उसी प्रेम और उत्साह से पढी जाती हैं जैसे आजादी के पूर्व के दिनों में. "सेनानी का स्वागत", "वीरों का कैसा हो वसंत" और "झांसी की रानी" उनकी ओजस्वी वाणी के जीवंत उदाहरण हैं. वे जितनी वीर थीं उतनी ही दयालु भी थीं। १५ फरवरी १९४८ में एक कार दुर्घटना के बहाने से ईश्वर ने इस महान कवयित्री और वीर स्वतन्त्रता सेनानी को हमसे छीन लिया। आइये उनकी पुण्यतिथि पर याद करें उन सभी वीरों को जिन्होंने इस राष्ट्र की सेवा में हँसते हँसते अपना तन-मन-धन न्योछावर कर दिया. प्रस्तुत है सुभद्रा कुमारी चौहान की मर्मस्पर्शी रचना, "जलियाँवाला बाग में वसंत" जिसे मैंने बचपन में खूब पढा है:

यहाँ कोकिला नहीं, काग हैं, शोर मचाते,
काले काले कीट, भ्रमर का भ्रम उपजाते।

कलियाँ भी अधखिली, मिली हैं कंटक-कुल से,
वे पौधे, व पुष्प शुष्क हैं अथवा झुलसे।

परिमल-हीन पराग दाग सा बना पड़ा है,
हा! यह प्यारा बाग खून से सना पड़ा है।

ओ, प्रिय ऋतुराज! किन्तु धीरे से आना,
यह है शोक-स्थान यहाँ मत शोर मचाना।

वायु चले, पर मंद चाल से उसे चलाना,
दुःख की आहें संग उड़ा कर मत ले जाना।

कोकिल गावें, किन्तु राग रोने का गावें,
भ्रमर करें गुंजार कष्ट की कथा सुनावें।

लाना संग में पुष्प, न हों वे अधिक सजीले,
तो सुगंध भी मंद, ओस से कुछ कुछ गीले।

किन्तु न तुम उपहार भाव आ कर दिखलाना,
स्मृति में पूजा हेतु यहाँ थोड़े बिखराना।

कोमल बालक मरे यहाँ गोली खा कर,
कलियाँ उनके लिये गिराना थोड़ी ला कर।

आशाओं से भरे हृदय भी छिन्न हुए हैं,
अपने प्रिय परिवार देश से भिन्न हुए हैं।

कुछ कलियाँ अधखिली यहाँ इसलिए चढ़ाना,
कर के उनकी याद अश्रु के ओस बहाना।

तड़प तड़प कर वृद्ध मरे हैं गोली खा कर,
शुष्क पुष्प कुछ वहाँ गिरा देना तुम जा कर।

यह सब करना, किन्तु यहाँ मत शोर मचाना,
यह है शोक-स्थान बहुत धीरे से आना।

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सम्बंधित कड़ियाँ
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* वीरों का कैसा हो वसंत - ऑडियो
* खूब लड़ी मर्दानी...
* 1857 की मनु - झांसी की रानी लक्ष्मीबाई
* सुभद्रा कुमारी चौहान - विकिपीडिया

Thursday, February 12, 2009

खाली प्याला - समापन किस्त

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यह कथा मेरे सहकर्मी नीलाम्बक्कम के बारे में है। पिछली कड़ी में आपने पढा कि मेरे अधिकाँश सहकर्मी मेरे आगरा शाखा में आने से खुश नहीं थे। वहाँ बस एक एक अपवाद था, अमर सहाय सब्भरवाल. अमर का बूढा और नीरस अधिकारी नीलाम्बक्कम उस शाखा की सज्जा में कहीं से भी फिट नहीं बैठता था. वह हमेशा चाय पीकर खाली प्याले मेरी मेज़ पर छोड़ देता था. आगे पढिये कि मैंने उसे कैसे झेला। [पहली कड़ी; दूसरी कड़ी; तीसरी कड़ी; चौथी कड़ी]
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मुझे लगता है कि ज़िंदगी से हर दाँव हारे हुए उस बेबस इंसान पर आता हुआ मेरा रहम उन खाली प्यालों पर आए हुए मेरे गुस्से से कहीं भारी था।

उस शाखा में मेरा कार्यकाल कब पूरा हो गया, पता ही न चला। मेरा तबादला महाराष्ट्र में सात पर्वतों से घिरे एक सुदूर ग्राम में हो गया था। मेरी विदाई-सभा में सारे सहकर्मियों ने मेरी प्रशंसा में कोई कसर न छोड़ी। जिन लोगों को आरम्भ में मैं फूटी आँख न सुहाता था जब उन्होंने तारीफ़ के पुल बांधे तो मेरा सीना गर्व से फूल गया। शाखा की ओर से और कुछ लोगों ने व्यक्तिगत रूप से भी मुझे उपहारों से लाद दिया। सभी दिख रहे थे परन्तु नीलाम्बक्कम नदारद था। उस दिन वह छुट्टी पर था। पूछने पर अमर ने बताया कि उसका इकलौता स्वेटर उसे आगरा की ठण्ड से नहीं बचा सका। मैंने नीलाम्बक्कम की अनुपस्थिति के बारे में अधिक ध्यान नहीं दिया। शायद मेरे मन में उसके प्रति दयाभाव से ज़्यादा कुछ भी नहीं था। वैसे भी मैं अपनी नयी शाखा के बारे में बहुत उत्साहित था।

नयी जगह आकर मैं बहुत खुश था। मेरी नयी शाखा बहुत अच्छी थी। गाँव हरी-भरी पहाड़ियों से घिरी एक सुंदर घाटी में स्थित था। शाखा में कागजी काम तो कम था मगर बाहर घूम-फिरकर करने के लिए कामों की कमी नहीं थी। छोटी सी शाखा थी जिसमें मेरे अलावा केवल पाँच लोग थे। सभी बहुत खुशमिजाज़ और मित्रवत थे, विशेषकर मोहिनी जिसने अपने आप ही मुझे मराठी सिखाने की जिम्मेदारी ले ली थी।

वहाँ रहकर मैंने पहली बार भारत के ग्रामीण विकास में सरकारी बैंकों की महत्त्वपूर्ण भूमिका को करीब से देखा। हमारी शाखा के सहयोग से क्षेत्र के 12 गाँवों की काया पलट हुयी थी। दूध के लिए गाय-भैसें, ईंधन के लिए गोबर गैस, और सिंचाई के लिए सामूहिक जल-संरक्षण परियोजनाओं ने किसानों के जीवन-स्तर को बहुत सुधारा था। इस गाँव में ही पहली बार मैंने गरीबी-रेखा से नीचे रह रहे लोगों को भी बेधड़क बैंक आते-जाते देखा।

पूरा गाँव एक बड़े परिवार की तरह था। हम छः लोग भी इस परिवार का अभिन्न अंग थे। गाँव में किसी न किसी बहाने से आए-दिन दावतें होती रहती थीं। न जाने क्यों, गाँव की हर दावत मांसाहार पर केंद्रित होती थी। जब मोहिनी को मेरी खानपान की सीमाओं का पता लगा तो उसने मुझे इन दावतों से बचाने की जिम्मेदारी भी ले ली। वह मुझे अपने घर ले जाती और कुछ नया पकाकर खिलाती थी। मुझे यह मानना पड़ेगा कि उस गाँव के लोग बहुत ही सहिष्णु और उदार थे। खासकर मोहिनी मेरे प्रति बहुत ही सहनशील थी।

गाँव में रहते हुए भी अमर के साथ मेरा पत्र-व्यवहार जारी रहा। एक दिन शाखा में उसका ट्रंक-कॉल आया। पता लगा कि आगरा में काम करते हुए जब एक दिन मैंने अपने खाते से पैसे निकाले तो मेरा चेक गलती से किसी ग्राहक के खाते में घटा दिया गया था। बाद में जब विदाई पर मैंने अपना खाता बंद करके बचा हुआ पैसा निकाला तो बैलेंस शून्य होने के बजाय असलियत में ऋण में बदल गया था। जब उस ग्राहक ने अपने खाते में पैसा कम पाया तो गलती का पता लगा।

मैं चिंतित हुआ। इतने दिनों के प्रशिक्षण में मैं यह जान चुका था कि किसी कर्मचारी के बचत खाते में किसी भी कारण से उधार हो जाना एक बहुत ही गंभीर त्रुटि थी जिसकी सज़ा निलंबन तक हो सकती थी। लेकिन साथ ही मुझे आगरा शाखा में अपनी लोकप्रियता का ध्यान आया। शाखा से मेरी विदाई के भाषणों में कहे गये शब्द भी कान में मधुर संगीत की भांति झंकृत हुए। मेरी आंखों के सामने ऐसा चित्र साकार हुआ जिसमें कई सहकर्मी मेरे खाते में पैसा डालने के लिए एक-दूसरे से मुकाबला कर रहे थे। मैं यह जानने को उत्सुक था कि अंततः मेरे मित्रों में से कौन सफल हुआ। आख़िर मेरा मधुर व्यवहार और मेरी लोकप्रियता बेकार थोड़े ही जाने वाली थी।

"कोई आगे नहीं आया ..." अमर ने कहा, "... कुछ लोग तो मामले को तुंरत ही ऊपर रिपोर्ट कराना चाहते थे।"

"यह कल के लड़के समझते क्या हैं अपने को?"

"अफसर बन गए तौ बैंक खरीद ली क्या इन्ने?"

"क़ानून सबके लिए बराबर है। रिपोर्ट करो।"

अमर ने बताया कि उपरोक्त जुमले मेरे कई "नज़दीकी" मित्रों ने उछाले थे। उसकी बातें सुनकर मैं सन्न रह गया। हे भगवान्! कितने झूठे थे वे पढ़े-लिखे, सुसंस्कृत लोग। मैंने सपने में भी नहीं सोचा था कि दोस्ती का दम भरने वाले वे लोग मेरी अनुपस्थिति में ऐसा व्यवहार करेंगे। मैं अपने भविष्य को दांव पर लगा देख पा रहा था। एक छोटी सी भूल मेरा आगे का करियर चौपट कर सकती थी।

"फ़िर क्या हुआ? क्या उन्होंने ऊपर रिपोर्ट किया? मेरे सामने क्या रास्ता है अब?" मुझे पता था कि अमर के खाते में कभी भी इतना पैसा नहीं होता था कि वह इस मामले में मेरी सहायता कर सका हो।

"जल्दी बताओ, मैं क्या करूँ?" मैंने उद्विग्न होकर पूछा।

"बेफिक्र रहो ..." अमर ने मुझे दिलासा देकर कहा, "नीलाम्बक्कम ने ज़रूरी रक़म अपने खाते से चुपचाप तुम्हारे खाते में ट्रांसफर कर दी।"

अमर ने बताया कि नीलाम्बक्कम तो यह भी चाहता था कि मुझे इस बात का पता ही न लगे लेकिन अमर ने सोचा कि मुझे बताना चाहिए।

"इस दुनिया में अच्छे लोगों के साथ कभी भी बुरा नहीं होना चाहिए" अमर ने मेरे बारे में नीलाम्बक्कम के शब्द दोहराए तो कृतज्ञता से मेरा दिल भर आया।

मैंने रात भर सोचकर नीलाम्बक्कम को एक सुंदर सा "धन्यवाद" पत्र लिखा और पैसों के साथ भेज दिया। नीलाम्बक्कम की और से कोई प्रत्युत्तर नहीं आया। मुझे पता भी नहीं कि आज वह कहाँ है मगर मेरी शुभकामनाएँ हमेशा उसके और अशोक के साथ हैं। मुझे पूर्ण विश्वास है कि ईश्वर ने उनके सब सपने ज़रूर साकार किए होंगे। सच्चाई के प्रति मेरे विश्वास को आज भी बनाए रखने में नीलाम्बक्कम जैसे लोगों का बहुत योगदान है।

[समाप्त]

Wednesday, February 11, 2009

खाली प्याला - चौथी कड़ी

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यह कथा मेरे सहकर्मी नीलाम्बक्कम के बारे में है। पिछली कड़ी में आपने पढा कि मेरे अधिकाँश सहकर्मी मेरे आगरा शाखा में आने से खुश नहीं थे। वहाँ बस एक एक अपवाद था, अमर सहाय सब्भरवाल. अमर का बूढा और नीरस अधिकारी नीलाम्बक्कम उस शाखा की सज्जा में कहीं से भी फिट नहीं बैठता था. एक सुबह को नीलाम्बक्कम जी अपनी सीट से उठे और सीधे मेरी मेज़ पर आकर रुके. उनके एक हाथ में एक पोस्टकार्ड था और दूसरे में उनकी सद्य-समाप्त चाय का खाली प्याला. आगे पढिये कि नीलाम्बक्कम कौन था। [पहली कड़ी; दूसरी कड़ी; तीसरी कड़ी]
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एक सुबह को नीलाम्बक्कम जी अपनी सीट से उठे और सीधे मेरी मेज़ पर आकर रुके। उनके एक हाथ में एक पोस्टकार्ड था और दूसरे में उनकी सद्य-समाप्त चाय का खाली प्याला। उनके मुर्दार चेहरे पर मैंने पहली बार मुस्कान देखी। मेरे नमस्कार के उत्तर में उन्होंने उत्साह से उछालते हुए कार्ड मेरी और बढ़ाया और फिर शब्दों को सहेजते हुए टूटी-फूटी हिन्दी में जो कहा उससे मुझे समझ आया कि उनका बेटा हाई स्कूल पास हो गया था। मैंने उनके हाथ से कार्ड लिया, पढा और वापस करते हुए खुश होकर उन्हें बधाई भी दी। कुछ देर तक वे भाव-विह्वल होकर अपने बेटे अशोक के बारे में बताते रहे। जितना कुछ मैं समझ सका उससे पता लगा कि अपनी इस होनहार इकलौती संतान को उन्होंने बड़े जतन से पाला है। उसकी माँ तो जन्म देते ही चल बसी थी। तब से नीलाम्बक्कम अशोक का माँ-बाप दोनों ही बन गया। अशोक बड़ा होकर डॉक्टर बनना चाहता था। उसके परीक्षा-परिणाम से यह स्प्पष्ट था कि उसके लिए यह काम ज़्यादा कठिन नहीं होगा। इस छोटी सी मुलाक़ात के बाद नीलाम्बक्कम जी अपना पोस्टकार्ड और अशोक की यादें साथ लेकर वापस अपनी सीट पर चले गए मगर जोश में चाय पीकर छूटा हुआ खाली प्याला मेरी मेज़ पर छोड़ गए।

इसके बाद तो वे रोजाना ही मेरी मेज़ पर आ जाते थे और कुछ देर बात करके ही जाते थे। शायद तब तक उन्हें भी यह अहसास हो गया था कि मैं वह बादल था जो सिर्फ़ छाया देना जानता था, गरजना नहीं। कभी कभार वे काम से सम्बंधित बातें भी करते थे मगर उनकी अधिकांश बातें उनकी दिवंगत पत्नी या उनके पुत्र के चारों और ही घूमती थीं। मैं दावे से कह सकता हूँ कि एक हफ्ते के अन्दर मैंने नीलाम्बक्कम के बारे में जितना जाना था उतना उस शाखा के अन्य कर्मी उनके साथ महीनों रहकर भी नहीं जान सके होंगे। इतना स्पष्ट था कि उस व्यक्ति का भूत उसकी मृत पत्नी थी और उसका भविष्य मीलों दूर बैठा उसका प्रिय बेटा। ऐसा लगता था जैसे उसके जीवन की एकमात्र प्रेरणा उसका बेटा ही था। उसके जीवन का एकमात्र उद्देश्य अशोक को जीवन की सारी खुशियाँ देना ही रह गया था। कभी-कभी यह सोचकर दुःख भी होता था कि बेचारा बूढ़ा अपने अकेले प्रियजन से इतनी दूर इन बेरहम और स्वार्थी अजनबियों के बीच क्या पाने के लिए पड़ा हुआ है।

समय बीतने के साथ उनके मुझसे बात करने की आवृत्ति बढ़ती गयी। और उसके साथ ही बढ़ती गयी, मेरी मेज़ पर छोड़े गए उनके जूठे खाली प्यालों की संख्या। मैं बचपन से ही अपने संयम और शांत स्वभाव के लिए ख्यात हूँ। सब जानते हैं कि जिन परिस्थितियों में सामान्यजन क्रोध से पागल हो जाते हैं, मैं उनमें भी प्राकृतिक रूप से सहज रहता हूँ। मेरी इस प्रकृति का एक धुर-विरोधी पक्ष भी है जो सिर्फ़ मैं बेहतर जानता हूँ। वह यह कि मैं बड़ी-बड़ी चुनौतियाँ भले ही बड़ी आसानी से नज़रंदाज़ कर सकता होऊँ, छोटी-छोटी बदतमीजियाँ भी अगर लगातार होती रहें तो मुझे बहुत गुस्सा दिलाती हैं। एक बेशऊर व्यक्ति द्वारा बार-बार मेरी मेज़ पर जूठे प्याले छोड़ जाना भी ऐसी ही छोटी सी बदतमीजी थी जिसे कोई भी अन्य व्यक्ति शायद आसानी से नज़रंदाज़ कर देता। मगर मैं तो मैं ही हूँ - क्या करूँ?

मेरे मित्र कहते हैं कि मेरा चेहरा तो शीशे की तरह साफ़ है जिसके भाव कोई अंधा भी पढ़ सकता है। मगर नीलाम्बक्कम शायद भाव पढने की कला का इकलौता अपवाद था। उसका छोड़ा हुआ हर जूठा प्याला मेरे रक्तचाप को और अधिक बढ़ाता जाता था। कभी-कभी मेरा मन करता था कि उसे सामने बिठाकर पूरी विनम्रता से यह समझाऊँ कि उसके हर जूठे कप की जिम्मेदारी भी उसकी ही है, मेरी नहीं। अगर वह उसे काउंटर पर नहीं रख सकता है तो कहीं और रखे, या फिर चाय पीये ही नहीं। जब मैं अच्छे मूड में नहीं होता था तब तो दिल करता था कि उस खाली प्याले को घुमाकर उसीके सर पर दे मारूँ। मैं किसी को आसानी से बख्शता नहीं हूँ लेकिन न जाने क्यों यह दोनों विकल्प मेरे मन में ही रखे रह गए। न मैंने कभी उसे प्याला मारा और न ही उसकी इस परेशान करने वाली आदत का ज़िक्र उससे किया। मुझे लगता है कि ज़िंदगी से हर दाँव हारे हुए उस बेबस इंसान पर आता हुआ मेरा रहम उन खाली प्यालों के कारण आने वाले गुस्से से कहीं भारी था।

[क्रमशः]