Sunday, March 8, 2009

२३ घंटे का दिन - [इस्पात नगरी से - खंड १०]

हिन्दी ब्लॉग परिवार भी एक छोटा सा भारत ही है, सुंदर और विविधता से भरा हुआ। लेखक-सम्पादक-वकील-पत्रकार-अधिकारी तो मिलते ही हैं। छुटभैय्ये नेताओं से लेकर हम जैसे ठलुआ कवियों तक सभी जाति के प्राणी मिल जायेंगे यहाँ पर। वैसे एकाध बड़े नेता-अभिनेता भी मौजूद हैं यहाँ पर। कोई मशहूर होकर झगड़ते हैं कोई झगड़कर मशहूर होते हैं। कोई लेख लिखकर खुश कर देते हैं तो कोई टिप्पणी पढ़कर व्यथित हो जाते हैं। मगर इन सबको पीछे छोड़ आए हैं हमारे ताऊ रामपुरिया
ताऊ नै म्हारी घनी राम-राम. इस बार तो पहेली म्हां मज़ा आ लिया. न फ्लिकर ना गूगल इमेज काम आया. ताऊ, रामप्यारी, बीनू, सैम, सम्पादक मंड‌ल, निर्णायक मंड‌ल, खाली कमंडल तथा जीतने-हारने व‌ाले सभी प्रतियोगियों को बधाई और होली की शुभकामनाएं!
वैसे तो ताऊ अपनी चुटीली भाषा और भावपूर्ण (सीमा जी से साभार) कविताओं के लिए अपने भतीजियों-भतीजों में दुनिया भर में जाने जाते हैं, पिछले कई हफ्तों से उनकी प्रहेलिकाओं ने उन्हें ब्लॉगिंग के शिखर पर पहुँचा दिया है। ताऊ अपनी पहेलियों में देश भर की बातें पूछकर और फ़िर उनकी विस्तृत जानकारी देकर हमारा मनोरंजन और ज्ञानवर्धन एक साथ ही करते हैं। अब ताऊ अगर अपनी पहेलियों को भारत तक सीमित रखेंगे तो फ़िर देश से बाहर की बातें कौन पूछेगा भला? चलो मैं ही पूछ लेता हूँ।

आज का सवाल है, एक दिन में कितने घंटे होते हैं? क्या कहा, क्लू चाहिए? क्लू है "आज का सवाल" और आपने क्या कहा, "आसान सवाल - २४ घंटे?" यहीं पर आप धोखा खा गए। पिट्सबर्ग में (और शेष अमेरिका में) आज का दिन सिर्फ़ २३ घंटे का था क्योंकि आज यहाँ पर वार्षिक "ग्रीष्म समय बचत काल" शुरू हुआ और घडियां एक घंटा आगे कर दी गयी हैं। ज़ाहिर है कि ग्रीष्म की समाप्ति पर एक दिन पच्चीस घंटे का भी होगा। और यह दोनों संयोजन वर्षांत में होने वाले समय संयोजन से बिल्कुल भिन्न हैं। ग्रीष्म समय बचत काल (या summer time saving) का उद्देश्य गरमी के दिनों में सूर्य के प्रकाश का अधिकाधिक लाभ उठाना ही है। 

समय बचत के इस सिद्धांत के प्रवर्तक दो व्यवसायी थे जिनके नाम क्रमशः सिडनी कोलगेट और लिंकन फिलेने थे। उन्होंने ९० वर्ष पहले इस सिद्धांत की जमकर वकालत की कि दिन में एक अतिरिक्त घंटा मिलने से व्यवसायों पर अच्छा असर पडेगा। सन २००५ के ऊर्जा नियामक क़ानून के द्वारा इस समय बचत को नवम्बर तक चलाया जाने लगा। कहा जाता है कि ऐसा करने के पीछे कैंडी व्यवसाय का काफी दवाब रहा था।

देखने में आता है कि इस समायोजन से ऊर्जा की बचत होती है और अधिकाँश व्यवसायों को भी लाभ ही होता है सिवाय एक दूरदर्शन व्यवसाय के जिनकी टी आर पी में एक अल्पकालीन गिरावट देखी जाती है।

पिट्सबर्ग डाउनटाऊन में लगी एक इस्पात कलाकृति का दृश्य

[इस शृंखला के सभी चित्र अनुराग शर्मा द्वारा लिए गए हैं. हरेक चित्र पर क्लिक करके उसका बड़ा रूप देखा जा सकता है.]
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इस्पात नगरी से - अन्य कड़ियाँ
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Tuesday, March 3, 2009

वक़्त - एक कविता

यह वक़्त है
बदलते रहना इसकी फितरत है
कहीं दिल मिलते हैं
कहीं सपने टूटते हैं
मनचाहा होता भी है
और नहीं भी होता है
मनचाहा हो भी जाए
तो भी
बहुत सा मनचाहा
नहीं होता है
क्योंकि
यह वक़्त है
बदलते रहना इसकी फितरत है।
(अनुराग शर्मा)

Thursday, February 26, 2009

खून दो - खंड दो

आज 'हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन' के संस्थापक सदस्य श्री चंद्रशेखर आजाद की पुण्यतिथि है। 27 फरवरी 1931 को इलाहाबाद के अल्फ्रेड पार्क में एक मुखबिर की सहायता से अंग्रेजी राज की पुलिस ने आजाद को घेर लिया था। लगभग आधे घंटे तक गोलियों का आदान प्रदान हुआ और एक ही गोली बचने पर आजाद ने उससे स्वयं को शहीद कर लिया परन्तु मृत्युपर्यंत "आजाद" ही रहे। अपने नाम आजाद को सार्थक करने वाले इस वीर की आयु प्राण देते समय केवल पच्चीस वर्ष थी। आइये आज इस बात पर विचार करें कि हमने इस उम्र तक अपने देश को अपनी माँ को क्या दिया है।

"खून दो" के पिछले अंक में आपने पढा कि मिल्की सिंह जी सर्वज्ञानी हैं। रेड्डी की प्रसिद्धि से चिढ़कर उन्होंने रक्त-दान की बात सोची। वे खूब सारा कीमा डकार कर निर्धारित समय से पहले ही ब्लड-बैंक पहुँच गए।

कागजी कार्रवाई के बाद उन्हें एक मेज़ पर लिटा दिया गया। जब नर्स से उनकी बांह में अप्रत्याशित रूप से बड़ा सूजा भोंका तब उन्हें अपने ठगे जाने का अहसास हुआ। मगर अब पछताए का होत जब चिडिया चुग गई खेत। उनकी बांह में इतनी जलन हुई कि वे तकलीफ से चिल्ला ही पड़ते मगर पड़ोस में ही एक 60 वर्षीया महिला को आराम से खून देते देखकर उनकी चीख त्रिशंकु की तरह अधर में ही लटक गयी। मौका और हालत की नजाकत देखकर उन्होंने होठ सी लेने और अश्क पी लेने में ही भलाई समझी।

पूरी प्रक्रिया में काफी देर लग रही थी। मिल्की सिंह जी के मन में तरह-तरह के ख़याल आ रहे थे। न जाने उनका खून किसके काम आयेगा। उन्हें पता ही न था कि वे एक व्यक्ति की जान बचा रहे थे कि ज़्यादा लोगों की। हो सकता है कि उनका खून रणभूमि में घायल सिपाहियों के लिए ले जाया जाए. सिर्फ उनके खून की वजह से एक वीर सैनिक की जान बचेगी और वह वीर युद्ध की बाजी पलट देगा। इतना सोचकर मिल्की सिंह को अपने ऊपर बड़ा गर्व हुआ। वे अब तक अपने अन्दर छिपे पड़े युद्ध-वीर को पहचान चुके थे। उन्होंने तो अपनी कल्पना में इतनी देर में राष्ट्रपति के हाथों परमवीर चक्र भी कबूल कर लिया था।

बहादुरी के सपनों के बीच-बीच में उन्हें बुरे-बुरे खयालात भी आ रहे थे। उन्हें यह भी समझ नहीं आ रहा था कि उनके शरीर से इतना ज़्यादा खून क्यों निकाला जा रहा था। पड़ोस की बूढी महिला तो जा भी चुकी थी। क्या उनसे इतना ज़्यादा खून इसलिए लिया जा रहा है क्योंकि वे वीरों के दस्ते में से हैं?

तभी नर्स मुस्कराती हुई उनके पास आयी और पूछा, "आप ठीक तो हैं? रेलेक्सिंग?"

"माफ़ कीजिये, मैं मिल्की सिंह, रिलेक मेरा छोटा भाई है" मिल्की ने पहले तो नर्स का भूल सुधार किया। फिर अपनी दुखती राग पर हाथ रखकर झल्लाते हुए से पूछा, "और कितनी देर लगेगी? हाथ जला जा रहा है।"

"बस हो गया" नर्स ने उसी मधुर मुस्कान के साथ कहा और अपने नाज़ुक हाथों से सुई निकालकर घाव को रुई से दबा दिया।

मिल्की सिंह के होठ सूख रहे थे। नर्स का हाथ हटते ही वे जल्दी से कूदे और पास ही पडी उस मेज़ की और लपके जिस पर फलों के रस से भरी हुई बोतलें रखी थीं। खड़े होते ही उन्हें भयानक चक्कर आया और मेज़ तक पहुँचने से पहले ही वे धराशायी हो गए। आगे की कोई बात उन्हें याद नहीं है। जब होश आया तो वे डॉक्टरों और नर्सों से घिरे एक बिस्तरे पर लेते हुए थे। माथे और गर्दन पर बर्फ की पट्टियां लगी हुई थीं और हाथ में एक सुई चुभी हुई थी।

"यह क्या? आप लोगों ने पहले ही इतना खून निकाल लिया कि मैं गिर गया। अब फिर क्यों?" उन्होंने मिमियाते हुए पूछा।

जवाब उसी सुस्मिता ने दिया, "अभी तो आपको खून चढाया जा रहा है ताकि आप बिना गिरे अपने घर जा सकें।"

अगर उस दिन मिल्की सिंह की कार हमारा चालक सुनील नहीं चला रहा होता तो मुझे यह बात कभी भी पता न लगती। श्रीमती खान उनके घर "ठीक-हो-जाएँ" कार्ड के साथ फूलों का गुलदस्ता लेकर पहुँचीं। नहीं ... कुछ लोग कहते हैं कि वे पांच किलो कीमा लेकर गयी थीं। उस दिन के बाद जब मिल्की ने दफ्तर में वापस कदम रखा तो वे पूरी तरह से बदले हुए थे। अगले हफ्ते की कर्मचारी सभा में न सिर्फ उन्होंने रेड्डी साहब की जनसेवा को मुक्त-कंठ से सराहा बल्कि उनके लिए एक प्रमाण-पत्र और नकद पुरस्कार भी स्वीकृत किया।
[समाप्त]