Thursday, July 2, 2009

शैशव - एक कविता

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शैशव में सुख सारे थे।
सारे जग के प्यारे थे ।।

राज सभी पर अपना था।
चलते हुक्म हमारे थे।।

गुड्डे-गुडियाँ, गेंदें-गोली।
ईद, बिहू और पोंगल, होली।।

सब त्यौहार मनाते थे।
हम कितना इतराते थे।।

जीवन सुख से चलता था।
बिन मांगे सब मिलता था।।

दिन वैभव से कटते थे।
ऐसे ठाठ हमारे थे।।

शैशव में सुख सारे थे।
सारे जग के प्यारे थे ।।

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Wednesday, June 24, 2009

प्रभु की कृपा, भयऊ सब काजू...

लगभग एक वर्ष पहले जब हमारे मित्र श्री भीष्म देसाई ने विनोबा भावे द्वारा १९३२ में धुले जेल में दिए गए गीता प्रवचन के वाचन के बारे में बात की तब हम दोनों ने ही यह नहीं सोचा था कि प्रभु-कृपा से यह काम शीघ्र ही संपन्न हो जाएगा। देसाई जी ने पिट्सबर्ग में रहते हुए अपने व्यस्त कार्यक्रम में से समय निकालकर भारत से इस पुस्तक की चार भाषाओं में अनेकों प्रतियाँ मंगवाईं और सभी संभावित वाचकों में बाँटीं। आर्श्चय की कोई बात नहीं है, देसाई दंपत्ति हैं ही ऐसे। इससे पहले, अपनी बेटी की शादी में उन्होंने चिन्मय मिशन द्वारा प्रकाशित गीता का सम्पूर्ण अनुवाद एवं व्याख्या का एक-एक सेट प्रत्येक अतिथि को दिया था। मैं शादी में भारत नहीं जा सका था सो मेरे लिए वे उसे वापस आने पर घर आकर दे गए।

मैंने गीता की विभिन्न व्याख्याएं पढीं हैं। कुछ विद्वानों की लिखी हुई और कुछ भक्तों (गुरुओं) की लिखी हुई। (क्या कहा, मार्कस बाबा की व्याख्या - जी नहीं, वे इतने भाग्यशाली नहीं थे कि हम तक पहुँच पाते।) दोनों ही प्रकारों की अपनी-अपनी सीमायें हैं। मगर विनोबा की व्याख्या में वे सभी बातें स्पष्ट समझ में आती हैं जिनकी अपेक्षा उन जैसे भक्त, विद्वान् और क्रांतिकारी से की जा सकती है । मैं तो यहाँ तक कहूंगा कि जीवन में सफलता की आकांक्षा रखने वाले हर व्यक्ति को विनोबा जी का यह भाषण सुनना चाहिए।

हिन्दी में सम्पूर्ण पाठ अनुराग शर्मा के स्वर में निम्न पोस्ट पर उपलब्ध है: पिट-ऑडियो पर सुनें

Tuesday, June 23, 2009

लड़कियों को कराते और लड़कों को तमीज़ ...

जाहिलियत के ज़माने से महिलाओं की सुरक्षा और उनके उत्थान के लिए दुनिया भर में अनेकों कृत्य होते रहे हैं। कभी उन्हें घूंघट या बुर्के के द्वारा सुरक्षित रखा जाता है और कभी मेहर और खुला के "अधिकार" से। कभी पाप से रक्षा जौहर कर के होती थी तो कभी पति के साथ चिता में जीवित जल जाने से।

यह तो थी पुराने ज़माने की बात। आजकल महिला सुरक्षा की जिम्मेदारी धार्मिक संगठनों से उठकर पहले तो आतंकवादी संगठनों तक पहुँची जिन्होंने कश्मीर में बुर्का न पहनने वाली लड़कियों की सुरक्षा के लिए उनके चेहरे पर तेजाब डालने का कर्म शुरू किया। अब आप कहेंगे कि कश्मीर की बात क्यों, वहाँ तो कोई प्रशासन ही नहीं है। राज्य सरकार हर जिम्मेदारी सेना के कन्धों पर डाल कर हाथ झाड़ लेती है। तो चलिए कानपुर चलते हैं जहाँ पर डीबीएस कालेज के प्राचार्य डॉ अशोक श्रीवास्तव ने नारी-सुरक्षा की जिम्मेदारी उठाने के लिए एक प्राचार्य-परिषद् बनाकर करीब 425 शिक्षण संस्थानों को यह फरमान जारी कर डाला कि लडकियाँ जींस नहीं पहनेंगी। डॉ श्रीवास्तव ने एक आदेश जारी कर कहा कि उन्होंने प्रदेश के सभी डिग्री कालेजों में लड़कियों के जीन्स, टाप पहनने और मोबाइल लेकर आने पर रोक लगा दी है।

वैसे श्रीवास्तव जी ने यह आदेश किस हैसियत से दिया है यह किसी को पता नहीं है। यह बात ध्यान में रखने की है कि इस संगठन को न तो शासन की मान्यता प्राप्त है और न ही कहीं इसका पंजीकरण है। संस्था की कानूनी स्थिति छोड़ भी दें मगर यह तो सोचना ही पडेगा कि क्या नारी के विरुद्ध होने वाले सब अपराधों की जड़ में यह जींस ही है?

मैं यहाँ पिट्सबर्ग में बैठा हुआ अपने अतिथि मित्र से यह बात कर ही रहा था कि उनके दोनों पुत्रों ने मेरे सोफे पर कूदना बंद करके खाने की मेज़ पर कूदना शुरू कर दिया। मित्र भारतीय हैं, उच्च-शिक्षित हैं और यह मानते हैं कि दुनिया की सारी समस्याओं का हल भारतीय संस्कृति के पालन में छिपा है। वे अपने बेटों को हर रविवार संस्कृति की शिक्षा के लिए स्थानीय आध्यात्मिक-धार्मिक-सत्संग ग्रुप में भी भेजते हैं। मुझे लगा कि अब वे अपने उद्दंड लड़कों को भी भारतीय संस्कृति के कुछ सुभाषित प्रदान करेंगे मगर वे या तो कानपुर की समस्या में समाधिस्थ हो गए थे या फ़िर बेटों के व्यवहार में उन्हें कुछ भी असामान्य नहीं नज़र आया - गरज़ यह कि वे बच्चों पर ध्यान दिए बिना अविचलित रूप से बात करते रहे। बच्चों की माँ भी कुछ व्यस्त नज़र आयीं। जब मेज़ कुछ खतरनाक रूप से हिलने लगी तो मैंने मित्र को समाधि से बाहर खींचकर उनके बेटों पर आसन्न खतरे की और उनका ध्यान आकर्षित किया। अपने सुखासन से हिले बिना ही उन्होंने एक डायलॉग मारा, "अरे लड़के तो ऐसे ही होते हैं, इन्हें कुछ नहीं होगा।"

लड़के मैंने भी बहुत देखे थे हाँ ऐसा बाप नहीं देखा था इसलिए इस संवाद से मेरी समझ में आ गया कि कानपुर वाले श्रीवास्तव जी प्राचार्य होते हुए भी समस्या की जड़ में क्यों नहीं जा सकते। होना यह चाहिए कि कुछ गैर-जिम्मेदार माँ-बाप के उद्दंड लड़कों की हरकतों की शिकार लड़कियों पर अनेकानेक प्रतिबन्ध लगाने के बजाय कुछ प्रैक्टिकल हल निकाले जाएँ। उदाहरण के लिए लड़कियों को घर-स्कूल-कॉलेज में शौर्यकलाओं की मुफ्त शिक्षा दी जा सकती है। और लड़कों को? उन्हें, कम से कम समाज-व्यवस्था का आदर करने की तमीज़ तो सिखानी ही पड़ेगी। अपराधियों को त्वरित और कड़ी सज़ा मिलने के साथ ही "लड़के तो ऐसे ही होते हैं ..." कहकर बढावा देने वाले उनके बेरीढ़ माँ-बाप को भी शिक्षित करने की दिशा में कदम उठाने चाहिए।

"लड़कियों को कराते और लड़कों को तमीज़" ऐसी शुरूआत करने के लिए इस प्राचार्य-परिषद् से बेहतर संस्था क्या हो सकती है?