Friday, April 2, 2010

नींद हमारी ख्वाब तुम्हारे [7]

सपना एक क्षणिक पागलपन है जबकि पागलपन एक लंबा सपना है.
~आर्थर स्कोपेन्हौर (१७८८-१८६०)


आइये मिलकर उद्घाटित करें सपनों के रहस्यों को. पिछली कड़ियों के लिए कृपया निम्न को क्लिक करें: खंड [1]; खंड [2]; खंड [3]; खंड [4]; खंड [5]; खंड [6]

इस शृंखला को मैं जितना आगे बढ़ रहा हूँ, आपकी रोचक टिप्पणियों और जानकारी से लिखने का मज़ा बढ़ता जा रहा है.

स्वप्न में, देजा व्यू में बल्कि हमारे दिमाग में समय उस तरह एक रेखा में नहीं चलता है जैसे हम उसे मानते आये हैं. हाथ से नाक छूने के पिछले एक उदाहरण (संवेदी देरी) में और "ब्रेन टाइम" आलेख में हमने देखा कि काल की रैखिक गति की परिकल्पना का काल बीत चुका है. इसके अलावा दीवार की खिड़की में शीशा ढूंढना या चोरों की प्रकृति के बारे में विचार जैसे कार्यों में कोई इन्द्रियारोपित सीमाएं भी नहीं हैं इसलिए वे सारे कार्य एक अल्पांश में एक साथ प्रसंस्कृत हो सकते हैं. इसी रोशनी में, पिछली बार के सपने के बारे में आपका अंदाज़ सही है. यह सपना दरवाज़े पर क़दमों की आहट से शुरू हुआ और दरवाजा खुलने के साथ ख़त्म हो गया. कुल समय दो या तीन  पल.


स्वप्न और सृजनशीलता
पिछली कड़ियों में गिरिजेश राव ने चुटकी ली थी कि सपना देखने का सम्बन्ध कल्पनाशीलता से है. तो उनके बहाने आज का रहस्योद्घाटन - गोरा सपना भैस बराबर. मतलब यह कि सपने गाय भैंस और अन्य (स्तनधारी) प्राणियों को भी वैसे ही आते हैं जैसे हम मनुष्यों को. अब जरा बताइये कि बुद्धू घोसी की भैंस कितनी शायरी करती है या नत्थू कुम्हार का गधा अब तक कितने घोडे पेंट कर चुका है? मतलब यह कि सपने न देखने का (या भूल जाने का) कल्पनाशीलता पर बुरा असर नहीं पडता है. स्वप्न के अनेकों सिद्धांतों में से एक के अनुसार स्वप्न (देखकर) भूल जाना आपके दिमाग (और कल्पनाशीलता) को दुरुस्त रखता है.

"लाल लकड़ी के चालीस लट्ठे" नामक त्रिविमीय कलाकृति का चित्र अनुराग शर्मा द्वारा खींचा (और पलटा) गया [Forty redwood logs - photograph taken and put upside down by Anurag Sharma]

[क्रमशः]

Tuesday, March 16, 2010

आल इज वैल

कुछ न कुछ चलता न रहे तो ज़िंदगी क्या? इधर बीच में काफी भागदौड़ में व्यस्त रहा. न कुछ लिख सका न ज़्यादा पढ़ सका. इस बीच में बरेली के दंगे की ख़बरों से मन बहुत आहत हुआ. कुल्हाड़ा पीर पर एक बहुत अपनी दुकान भी जलकर राख हो गयी - ऐसा लगा जैसे दंगाइयों ने मेरे बचपन को ही झुलसाने की कोशिश की हो. दंगा कराने वाले जब गिरफ्तार हुए तो कुम्भकर्णी नींद ले रहे समाचार चैनलों की कान पर भी जून रेंगने लगी. बहरहाल, जो पकडे गए वे बरी भी हो गए मगर भविष्य में ऐसी घटनाओं को रोकने का कितना उद्यम हुआ यह हम सब जानते हैं. भाई धीरू सिंह (बरेली) और भारतीय नागरिक (बरेली/लखनऊ) यथा समय जानकारी देते रहे, इससे काफी राहत मिली.

कुछ अपनों ने खैरियत पूछी थी. सो बता दूँ कि फिलहाल जापान के एक शोधनगर में हूँ. अगले सप्ताह वापस घर पहुँचूंगा. तब पढ़ना, लिखना और सपनों की यात्रा वापस शुरू होगी. यहाँ तो वसंत आ चुकी है. उसके चित्र बाद में. अभी तो जापानी मुद्रा येन के कुछ चित्र. साथ ही कोका कोला की यह बोतल कुछ अलग सी लगी. कैन और बोतल का संगम याद दिला रहा है कि जापान किस तरह पूर्व और पश्चिम के मूल्यों में समन्वय बिठा सका है सो उसकी तस्वीर भी, ताकि सनद रहे.

सभी को युगादि, नव संवत्सर, चैत्रादि, चेती-चाँद, नव-रात्रि, गुडी पडवो, बोहाग बिहू तदनुसार कलियुग ५११२, सप्तर्षि ५०८५ की हार्दिक शुभकामनाएं!

Sunday, February 21, 2010

उठ दीवार बन

नरक के रस्ते से काफी बचना चाहा लेकिन फिर भी कुछ कहे बिना रहा न गया. स्वप्न-जगत से एक छोटा से ब्रेक ले रहा हूँ. तब तक गिरिजेश राव के "नरक के रस्ते" से प्रेरित कुछ अनगढ़ सी पंक्तियाँ प्रस्तुत है:

इंसान बलिश्ते क्यूँ अवरोध दानवी क्यूँ
प्रश्न सभी अपने रह जाते अनुत्तरित क्यूँ

क्यूँ त्याग दधीचि का भूदेव भूमिगत क्यूँ
ये सुरेश पराजित है वह वृत्र वृहत्तर क्यूँ

इस आग का जलना क्यूँ दिन रात सुलगना क्यूँ
ये नरक बनाते कौन इसमें से गुज़रना क्यूँ

दिल क्यूँ घबराता है यूँ दम घुटता है क्यूँ
चल उठ दीवार बनें बेबात का डरना क्यूँ

(अनुराग शर्मा)