आधी रात थी. मैं दिल्ली फ़ोन लगा रहा था. भारत का कोड, दिल्ली का कोड, फ़िर फ़ोन नम्बर. सभी तो ठीक था - ९१-११-२५२.... पहली बार में फोन नहीं लगा. उसके बाद कितनी भी कोशिश की, डायल टोन ही वापस नहीं आयी. कुछ ही क्षणों में किसी ने बहुत बेरहमी से दरवाजा खटखटाया. समझ में नहीं आया कि इतनी रात में कौन है और घंटी न बजाकर दरवाज़ा क्यों पीट रहा है. जब तक दरवाज़े तक पहुँचा, घंटी भी लगातार बजने लगी. देखा तो काले कपडों में साढ़े छः फ़ुट का एक पुलिस अधिकारी एक हाथ में पिस्टल और दूसरे में टॉर्च लेकर खड़ा था. मुझे देखकर बड़ी विनम्रता से कुशल-क्षेम पूछने लगा.
उसके बताने पर समझ आया कि दिल्ली फ़ोन करने के प्रयास में गलती से आपदा-सहायता नम्बर ९११ डायल हो गया था. चूंकि मैंने फ़ोन पर कुछ बोला नहीं इसलिए आपात-विभाग ने तुंरत ही एक पुलिसकर्मी को भेज दिया. मैंने स्थिति का खुलासा किया तो वह खलल डालने के लिए क्षमा मांगकर वापस चला गया. इसी प्रकार जब मेरे एक सहकर्मी को दफ्तर में दौरा पड़ा तो प्राथमिक चिकित्सा कर्मियों को पहुँचने में १० मिनट भी नहीं लगे.
मुझे ध्यान आया जब १० साल पहले दिल्ली में हमारे घर में चोरी हुई थी तो १०० नम्बर काफी समय तक व्यस्त ही आता रहा था. २०० कदम की दूरी पर स्थित थाने से दो पुलिसकर्मी घर तक पहुँचने में आधे घंटे से ज़्यादा लगा था और तफ्तीश के बारे में तो सोचना ही बेकार था. इसी तरह दिल्ली में बीमार के घर पर चिकित्सा सुविधा पहुँचाना तो दूर, सड़क पर दुर्घटना में घायल हुए अधिकाँश लोगों की मौत सिर्फ़ समय पर चिकित्सा न मिलने से ही हो जाती है. यह हाल तो है राजधानी का. थोड़ा दूर निकल गए तो फ़िर तो कहना ही क्या.
प्रशासन तंत्र की कुशलता अमेरिका की एक विशेषता है. कुछ लोग इसका कारण समृद्धि बताएँगे. ग़लत नहीं है, मगर इसमें समृद्धि से ज़्यादा काम मानवीय दृष्टिकोण का है. नाभिकीय समझौते की बाबत हमारे एक नेता ने हाल ही में अमेरिका को मुसलमानों का सबसे बड़ा दुश्मन बता दिया. जब मैंने अपने पाकिस्तानी मुसलमान मित्र से इसका ज़िक्र किया तो उन्होंने कहा कि जितने बेखौफ वे और उनका परिवार अमेरिका में महसूस करते हैं उस स्थिति की पकिस्तान में उन्होंने कल्पना भी नहीं की थी. उनकी बात एक आम मुसलमान के लिए बिल्कुल सच है. आम अमेरिकी आपको इंसान की तरह देखता है - हिन्दू या मुसलमान की तरह नहीं.
महात्मा गाँधी की हत्या के बाद पूरे महाराष्ट्र में ब्राह्मणों पर ज़ुल्म हुए. दशकों बाद इंदिरा गांधी की हत्या के बाद दिल्ली-यूपी में वही इतिहास सिखों के ख़िलाफ़ दोहराया गया. मजाल तो है कि अमेरिका में ११ सितम्बर २००१ को ३००० लोगों की नृशंस हत्या के बाद भी आम जनता किसी एक समुदाय या राष्ट्रीयता के ख़िलाफ़ क़त्ले-आम करने निकली हो. उलटा मेरे अमेरिकी हितैषियों ने बार बार यह पूछा कि कभी मेरे साथ कहीं किसी तरह का भेदभाव तो नहीं हुआ. जनता जागरूक थी और प्रशासन मुस्तैद था तो दंगा और आगज़नी कैसे होती?
भारत में बच्चे तो बच्चे, कई वयस्क(?) भी हर समस्या का हल तानाशाही और सशस्त्र आन्दोलनों में ढूंढ रहे होते हैं. बच्चों के साथ स्कूलों में कई मास्टर कसाई की तरह पेश आते हैं तो घरों में कई अभिभावक. सड़क के किनारे खुले में बनी मांस की दुकानों पर, ढाबों, ठेलों व खोखों पर भी छोटे-छोटे बच्चों को बचपन से ही हिंसा दिखाई देती है. अमेरिका में अधिकाँश लोगों के मांसाहारी होने के बावजूद भी वह हिंसा कत्लगाह से बाहर खुली सड़क तक नहीं आ सकती है. इसके उलट भारतीय बच्चे परिवार, विद्यालय, आस-पड़ोस सब जगह ताकतवर को कमज़ोर पर हाथ उठाते हुए देखते हैं और धीरे-धीरे अनजाने ही यह हिंसा उनके जीवन का एक सामान्य अंग बन जाती है.
ऐसा नहीं है कि इनमें सब अच्छा है और हममें सब बुरा. मगर हमें एक पल ठहरकर इतना तो सोचना ही पड़ेगा कि अहिंसा और प्रेम की धरती अपनी भारत भूमि को हिंसा से बंजर होने से रोकने के लिए हमने क्या किया? समय आ गया है जब हमें मजबूरी का नाम महात्मा गांधी जैसे आम मुहावरों की आड़ में पनप रही हिंसक वृत्तियों को रोकने के प्रयास शुरू करना पड़ेगा. आम जन के साथ साथ प्रशासन को भी जागरूक होना पड़ेगा.
[यह लेख पहले (सन् 2008 में) सृजनगाथा में प्रकाशित हो चुका है]
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उसके बताने पर समझ आया कि दिल्ली फ़ोन करने के प्रयास में गलती से आपदा-सहायता नम्बर ९११ डायल हो गया था. चूंकि मैंने फ़ोन पर कुछ बोला नहीं इसलिए आपात-विभाग ने तुंरत ही एक पुलिसकर्मी को भेज दिया. मैंने स्थिति का खुलासा किया तो वह खलल डालने के लिए क्षमा मांगकर वापस चला गया. इसी प्रकार जब मेरे एक सहकर्मी को दफ्तर में दौरा पड़ा तो प्राथमिक चिकित्सा कर्मियों को पहुँचने में १० मिनट भी नहीं लगे.
मुझे ध्यान आया जब १० साल पहले दिल्ली में हमारे घर में चोरी हुई थी तो १०० नम्बर काफी समय तक व्यस्त ही आता रहा था. २०० कदम की दूरी पर स्थित थाने से दो पुलिसकर्मी घर तक पहुँचने में आधे घंटे से ज़्यादा लगा था और तफ्तीश के बारे में तो सोचना ही बेकार था. इसी तरह दिल्ली में बीमार के घर पर चिकित्सा सुविधा पहुँचाना तो दूर, सड़क पर दुर्घटना में घायल हुए अधिकाँश लोगों की मौत सिर्फ़ समय पर चिकित्सा न मिलने से ही हो जाती है. यह हाल तो है राजधानी का. थोड़ा दूर निकल गए तो फ़िर तो कहना ही क्या.
प्रशासन तंत्र की कुशलता अमेरिका की एक विशेषता है. कुछ लोग इसका कारण समृद्धि बताएँगे. ग़लत नहीं है, मगर इसमें समृद्धि से ज़्यादा काम मानवीय दृष्टिकोण का है. नाभिकीय समझौते की बाबत हमारे एक नेता ने हाल ही में अमेरिका को मुसलमानों का सबसे बड़ा दुश्मन बता दिया. जब मैंने अपने पाकिस्तानी मुसलमान मित्र से इसका ज़िक्र किया तो उन्होंने कहा कि जितने बेखौफ वे और उनका परिवार अमेरिका में महसूस करते हैं उस स्थिति की पकिस्तान में उन्होंने कल्पना भी नहीं की थी. उनकी बात एक आम मुसलमान के लिए बिल्कुल सच है. आम अमेरिकी आपको इंसान की तरह देखता है - हिन्दू या मुसलमान की तरह नहीं.
महात्मा गाँधी की हत्या के बाद पूरे महाराष्ट्र में ब्राह्मणों पर ज़ुल्म हुए. दशकों बाद इंदिरा गांधी की हत्या के बाद दिल्ली-यूपी में वही इतिहास सिखों के ख़िलाफ़ दोहराया गया. मजाल तो है कि अमेरिका में ११ सितम्बर २००१ को ३००० लोगों की नृशंस हत्या के बाद भी आम जनता किसी एक समुदाय या राष्ट्रीयता के ख़िलाफ़ क़त्ले-आम करने निकली हो. उलटा मेरे अमेरिकी हितैषियों ने बार बार यह पूछा कि कभी मेरे साथ कहीं किसी तरह का भेदभाव तो नहीं हुआ. जनता जागरूक थी और प्रशासन मुस्तैद था तो दंगा और आगज़नी कैसे होती?
अहिंसा परमो धर्मः सर्वप्राणभृतां वरः (महाभारत - आदिपर्व ११।१३)कई बरस पहले की बात है. मेरी नन्ही सी बच्ची भारत वापस बसने की बात पर सहम सी जाती थी. मैंने कई तरह से यह जानने की कोशिश की कि आख़िर भारत में ऐसा क्या है जिसने एक छोटे से बच्चे के मन पर इतना विपरीत असर किया है. बहुत कुरेदने पर पता लगा कि भारत में उसने बहुत बार सड़क पर लोगों को बच्चों पर और ग़रीबों पर, खासकर ग़रीब चाय वाले लड़के या रिक्शा वाले के साथ मारपीट करते हुए देखा. उसको हिंसा का यह आम प्रदर्शन अच्छा नहीं लगा. यह बात सुनने पर मुझे याद आया कि बरसों के अमेरिका प्रवास में मैंने एक बार भी किसी व्यक्ति को दूसरे व्यक्ति पर हिंसा करते हुए नहीं देखा. अगर देखा भी तो बस एकाध भारतीय माता-पिता को ही अपने मासूमों के गाल पर थप्पड़ लगाते देखा.
भारत में बच्चे तो बच्चे, कई वयस्क(?) भी हर समस्या का हल तानाशाही और सशस्त्र आन्दोलनों में ढूंढ रहे होते हैं. बच्चों के साथ स्कूलों में कई मास्टर कसाई की तरह पेश आते हैं तो घरों में कई अभिभावक. सड़क के किनारे खुले में बनी मांस की दुकानों पर, ढाबों, ठेलों व खोखों पर भी छोटे-छोटे बच्चों को बचपन से ही हिंसा दिखाई देती है. अमेरिका में अधिकाँश लोगों के मांसाहारी होने के बावजूद भी वह हिंसा कत्लगाह से बाहर खुली सड़क तक नहीं आ सकती है. इसके उलट भारतीय बच्चे परिवार, विद्यालय, आस-पड़ोस सब जगह ताकतवर को कमज़ोर पर हाथ उठाते हुए देखते हैं और धीरे-धीरे अनजाने ही यह हिंसा उनके जीवन का एक सामान्य अंग बन जाती है.
परम धरम श्रुति विदित अहिंसा। पर निंदा सम अध न गरीसा।।सभी जानते हैं कि अमेरिका में बन्दूक खरीदने के लिए सरकार से किसी लायसेंस की ज़रूरत नहीं होती है. यहाँ के लोग बन्दूक को व्यक्तिगत स्वतंत्रता से जोड़कर देखते है. निजी हाथों में दुनिया की सबसे ज्यादा बंदूकें शायद अमेरिका में ही होंगी. मगर हत्याओं के मामले में वे अव्वल नंबर नहीं पा सके. २००७-०८ में अमेरिका में हुए १६,६९२ खून के मुकाबले शान्ति एवं अहिंसा के देश भारत में ३२,७१९ मामले दर्ज हुए. इस संख्या ने भारत को क़त्ल में विश्व में पहला स्थान दिलाया. हम सब जानते हैं कि हिन्दुस्तान में एक अपराध दर्ज होता है तो कितने बिना लिखे ही दफ़न हो जाते हैं.
ऐसा नहीं है कि इनमें सब अच्छा है और हममें सब बुरा. मगर हमें एक पल ठहरकर इतना तो सोचना ही पड़ेगा कि अहिंसा और प्रेम की धरती अपनी भारत भूमि को हिंसा से बंजर होने से रोकने के लिए हमने क्या किया? समय आ गया है जब हमें मजबूरी का नाम महात्मा गांधी जैसे आम मुहावरों की आड़ में पनप रही हिंसक वृत्तियों को रोकने के प्रयास शुरू करना पड़ेगा. आम जन के साथ साथ प्रशासन को भी जागरूक होना पड़ेगा.
[यह लेख पहले (सन् 2008 में) सृजनगाथा में प्रकाशित हो चुका है]
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