Sunday, June 20, 2010

एक शाम बार में - कहानी

एलन
आजकल हर रोज़ रात को सोते समय सुबह होने का इंतज़ार रहता है। जाने कितने दिनों के बाद जीवन फिर से रुचिकर लग रहा है. और यह सब हुआ है मेगन के कारण। मेगन से मिलने के बाद ज़िन्दगी की खूबसूरती पर फिर से यक़ीन आया है। वरना जेन से शादी होने से लेकर तलाक़ तक मेरी ज़िन्दगी तो मानो नरक ही बन गयी थी। विश्वास नहीं होता है कि मैंने उसे अपना जीवनसाथी बनाने की बेवक़ूफी की थी। उसकी सुन्दरता में अन्धा हो गया था मैं।

मेगन
उम्रदराज़ है, मोटा है, गंजा है और नाटा भी। चश्मिश है, फिर भी आकर्षक है। चतुर, धनी और मज़ाकिया तो है ही, मुझ पर मरता भी है। हस्बैंड मैटीरियल है। बेशक मुझे पसन्द है।

एलन
बहुत प्रसन्न हूँ। आजकल मज़े लेकर खाना खाता हूँ। बढ़िया गहरी नीन्द सोता हूँ। सारा दिन किसी नौजवान सी ताज़गी रहती है। मेगन रूपसी न सही सहृदय तो है। पिछ्ले कुछ दिनों से अपनी तरफ से फोन भी करने लगी है। और आज शाम तो मेरे साथ डिनर पर आ रही है।

मेगन
पिछले कुछ दिनों में ही मेरे जीवन में कितना बड़ा बदलाव आ गया है? हम दोनों कितना निकट आ गये हैं। और आज हम डिनर भी साथ ही करेंगे। अगर आज वह मुझे सगाई की अंगूठी भेंट करता है तो मैं एक समझदार लड़की की तरह बिना नानुकर किये स्वीकार कर लूंगी।

एलन
आज की शाम को तो बस एक डिसास्टर कहना ही ठीक रहेगा। शहर का सबसे महंगा होटल। मेगन ने तो ऐसी जगह शायद पहली बार देखी थी। कितनी खुश थी वहाँ आकर। पता नहीं कैसे इतनी सुन्दर शाम खराब हो गयी?

मेगन
वैसे तो वह इतना पढा लिखा और सभ्य है। उसको इतना भी नहीं पता कि एक लडकी को सामने बिठाकर खाने पर इंतज़ार करते हुए बार-बार फोन पर लग जाना या उठकर बाथरूम की ओर चल पडना असभ्यता है।

एलन
पता नहीं कौन बदतमीज़ था जो बार-बार फोन करता रहा। न कुछ बोलता था और न ही कोई सन्देश छोडा। वैसे मैं उठाता भी नहीं लेकिन माँ जिस नर्सिंग होम में गयी है वहाँ से फोन कालर आइडी के बिना ही आता है। और फिर बडी इमारतों में कभी-कभी सिग्नल भी कम हो जाता है। यही सब सोचकर... खैर छोडो भी। लेकिन मेगन तो ऐसी नकचढी नहीं लगती थी। मगर जिस तरह बिना बताये खाना छोडकर चली गयी... और अब फोन भी नहीं उठा रही है। इस सब का क्या अर्थ है?

मेगन
मैं तो इतनी सरल हूं कि अपने आप शायद इस बात को भी नहीं समझ पाती। भगवान भला करे उन बुज़ुर्ग महिला का जो दूर एक टेबल पर बैठकर यह तमाशा देख रही थीं और एक बार जब वह फोन लेकर दूर गया तब अपने आप ही मेरी सहायता के लिये आगे आयीं और चुपचाप एक सन्देश दे गयीं।

जेन
मुझे घर से निकालकर जवान छोकरियों के साथ ऐश कर रहा है। मेरी ज़िन्दगी में आग लगाकर वह चूहा कभी खुश नहीं रह सकता है। मैं जब भी मुँह खोलूंगी, उसके लिये बद्दुआ ही निकलेगी। अगर वह मजनू मेरा फोन पहचान लेता तो एक बार भी उठाता क्या? मैने भी उस छिपकली से कह दिया, "आय ओवरहर्ड हिम। एक साथ कई लैलाओं से गेम खेलता यह लंगूर तुम्हारे लायक नहीं है।"

(अनुराग शर्मा)

Saturday, June 19, 2010

जन्म दिवस की शुभ कामनाएँ





19 जून - इन सब का अपना विशेष दिन - शुभ कामनाएँ

पितृ दिवस की शुभकामना
एँ

(इस पोस्ट के सभी चित्र - इंटरनेट से उठाईगीरीकृत)

माओवादी इंसान नहीं, जानवर से भी बदतर!

शीर्षक पढ़कर शायद आप कहें कि सिर्फ माओवादी या दुसरे आतंकवादी ही क्यों, इंसान को इंसान न समझने वाले, दूसरों के जीवन को दो कौड़ी से कम आंककर सारी दुनिया को मानव रक्त से लाल करने का सपना देख रहा हर वहशी जानवर से बदतर है। मगर ज़रा ठहरिये, यह शीर्षक मेरा नहीं है, यह लिया गया है "डायरी ऑव एन इंडियन" वाले अनिल रघुराज की एक ताज़ा पोस्ट से।

मैं अनिल रघुराज को जानता नहीं मगर हाल ही में मैंने उनका ब्लॉग अर्थकाम देखा था। पूंजीवाद और अर्थतंत्र में मुझे ख़ास रूचि नहीं है तो भी भूतपूर्व बैंकर होने के नाते इन चीज़ों पर नज़र पड़ जाती है। मैं पूंजी निवेश पर आधारित उस ब्लॉग की शैली से प्रभावित हुए बिना न रह सका। इतना प्रभावित हुआ कि मैंने उसे "ज़रा हट के" वाली ब्लॉगलिस्ट में जोड़ा। पहले कभी उनकी एक कहानी भी पढी थी मगर वह सोवियत रूसी प्रचार पत्रिकाओं की उपदेशात्मक, सारहीन, बनावटी और इश्तिहारी कहानियों की याद दिलाती थी इसलिए उस पर उतना ध्यान नहीं गया।

उस पोस्ट पर एक दुखद चित्र लगाया गया है जिसमें सैनिक वर्दी में दो पुरुष निर्विकार भाव से एक महिला की लाश को लेकर जा रहे हैं। उस चित्र को देखना भी दुखद है। अगर यह चित्र चीन, उत्तर कोरिया आदि का होता तो शायद किसी को आश्चर्य नहीं होता क्योंकि तानाशाहों के यहाँ तो जनता हमेशा ही सूली पर टंगी होती है परन्तु भारत के बारे में ऐसा कुछ सुनना, देखना दर्दनाक होने के साथ शर्मनाक भी है। ब्लॉग के अनुसार यह चित्र पश्चिम बंगाल का है। पश्चिम बंगाल जहाँ अत्याधुनिक चीनी हथियार और मिलिशिया से सशस्त्र एक कम्युनिस्ट दल, दशकों से सत्तारूढ़ सरकारी साधन-संपन्न दूसरे कम्युनिस्ट दल के साथ सशस्त्र संघर्ष में लिप्त है। इन दोनों कम्युनिस्ट दलों के बीच पिसते निर्दोष मासूम गरीब रोज़ अकारण ही मारे जा रहे हैं। मगर हिंसक कम्युनिस्ट संघर्षों का झंडा तो सारी दुनिया में निर्दोषों के खून से ही लाल किया गया है तो यहाँ कोई अपवाद क्यों हो?

शहरों में अपने परिवारों के साथ आराम की ज़िंदगी बिताने वाले लोग शायद उन परिस्थितियों के बारे में सोचकर ही सिहर जाएँ जो माओवाद, नक्सलवाद - जहां यह चित्र खींचा गया था - और आतंकवाद के अन्य प्रकारों से प्रभावित क्षेत्रों में दिन रात घट रहे है। मुझे चित्र की घटना, स्थल, समय, परिस्थिति या स्रोत के बारे में कुछ भी निश्चित पता नहीं है इसलिए उस पर कुछ नहीं कह सकता हूँ। आपत्ति तो मुझे इस बात पर है कि जन-भावना भड़काने के उद्देश्य से उस चित्र के साथ जानबूझकर सूअर का शिकार करके डंडे पर बांधकर लाते एक सुविधा-संपन्न पश्चिमी पर्यटक स्त्री-पुरुष का पूर्णतया असम्बद्ध चित्र वहां लगाकर इन दोनों चित्रों की तुलना की गयी है।

सुदूर बीहड़ वनों में माओवादियों द्वारा ज़हरीले कर दिए गए जलस्रोतों के बीच, १२३ अंश फेहरनहाईट के तापमान में तपती टीन और पुराने तम्बुओं के नीचे कई हफ़्तों से पसीने से लिजलिजा रही वर्दी में नहाना तो दूर, दांत मांजने की विलासिता की बात सोचे बिना कई-कई रातों तक बिना सोये, अपनी छः महीने की होंठकटी बिटिया को एक बार भी देखे बिना और इस अभियान पर आने से पहले अपनी अंधी और विधवा माँ के पाँव छूए बिना चल पड़ने की बेबसी लिए जो जवान देश के किसानों और आदिवासियों की जीवनरक्षा के साथ उनकी नदियों, पुलों, सडकों, रेल पटरियों, स्कूलों और गाँवों को आधुनिक विदेशी हथियारों से लैस निर्दय तस्करों, खनिज और वन संपदा के लुटेरों, माओवादियों और दुसरे आतंकवादियों से बचाने के लिए दीवार बन कर खड़े हुए हैं उन्हें अपने कर्म का औचित्य ढूँढने के लिए किसी झूठे, किताबी, स्वार्थी, हत्यारे सत्तालोलुप या धनलोलुप, वाद की ज़रुरत नहीं है।

माओवादियों की बंदूकों से निकलती आसुरी मौत के शिकार बने लोगों के साथ पूरी सहानुभूति और दया होने के बावजूद उनके शवों को ले जाने के लिए दुर्दम्य परिस्थितियों में काम करते वे सिपाही संदर्भित ब्लॉग के लेखकों की तरह मुम्बई के किसी एसी कमरे में बैठकर महंगी विदेशी परफ्यूम से सुवासित रुमाल से अपनी नाक ढंककर स्ट्रेचर मंगवाने का इंतज़ार नहीं कर सकते हैं। उन्हें वहीं जंगल से लकडियाँ तोड़कर या जैसे भी संसाधन हों उन्हें इकट्ठा करके अपना काम करना पडेगा। जिस किसी ने भी वह चित्र लिया है और जिस ने भी अपनी-अपनी पोस्ट पर लगाया है उनसे मेरा अनुरोध है कि अपना मानवीय पक्ष दिखाएँ और लाशों की राजनीति करके शिकायत करने के बजाय एसी कमरे से बाहर निकलें और निष्ठा से अपने काम में लगे उन निर्भीक सिपाहियों के काम में हाथ बंटाएं। नहीं कर सकते हैं तो कम से कम उनकी कार्य-परिस्थितियों के प्रति संवेदनशील हों और प्रयास करें कि ऐसी परिस्थितियां बनने ही न पायें कि मानवता को रोज़ शर्मिन्दा होना पड़े। हमें गर्व है कि हम लोकतंत्र में रह रहे हैं और माओवादियों के कारनामों के साथ-साथ पुलिस की कमियाँ भी उजागर कर सकते हैं। भगवान् न करे माओवाद या तालेबान जैसी कोई आसुरी शक्ति अगर किसी इलाके में सफल हो गयी तो चीन, अफगानिस्तान, चेचन्या, म्यांमार और उत्तर कोरिया की तरह यहाँ भी आप न अपने ब्लॉग पर और न अपनी जुबां से इस देशसेवा का दंभ दिखा पायेंगे।

पुलिस और उस पर सत्ता रखने वाली सरकारें सही हों, यह ज़रूरी नहीं है। सत्ता का दुरुपयोग करने वालों की कमी नहीं है, खासकर तानाशाही "-वादों" वाली दम्भी सरकारों में। मगर उसका बहाना लेकर जान जोखिम में डालते सैनिकों पर बेल्ट के नीचे प्रहार करने के बहाने ढूंढना शर्मनाक है। जिन वीरों ने देशवासियों की सुरक्षा के लिए वर्दी पहनकर कफ़न बांधा है उनके भी मानवाधिकार है, यह बात अगर हम ही नहीं समझेंगे तो कौन समझेगा?

संदर्भित पोस्ट पर एक मृत मानव की एक शिकार किये गए सूअर से की गयी इस असंवेदनशील तुलना से मैं उतना ही व्यथित हूँ जितना माओवाद-प्रभावित क्षेत्रों में चल रही निष्ठुर कुत्ता-घसीटी से। विडम्बना है कि हमारा लोकतंत्र अपना विचार और भावनाएं व्यक्त करने का अधिकार देता है भले ही उससे एक मृतक का और मानव जीवन का घोर अपमान हो रहा हो। चित्र में दिखाई गयी स्त्री से मुझे सहानुभूति है। ईश्वर उसकी आत्मा को शान्ति दें। राज्य एवं केंद्र सरकार उन क्षेत्रों से अराजकता मिटाकर व्यवस्था लाये। हम लोग इंसान बनें और अपनी ब्लॉग पोस्टों या अखबारों में उसकी मृतदेह का भद्दा मज़ाक उड़ाने से बचें।

चलते चलते "दिनकर" की "परशुराम की प्रतीक्षा" से दो पंक्तियाँ

गर्दन पर किसका पाप वीर! ढोते हो?
शोणित से तुम किसका कलंक धोते हो?