Friday, July 23, 2010

सच मेरे यार हैं - कहानी भाग 4

पहली कड़ी में - मेरा खोया हुआ मित्र मुझे फेसबुक पर मिल गया था।
दूसरी कड़ी में - जब मैं तुमसे मिलने और न मिलने की दुविधा के बीच झूल रहा था, तुमने मुझे देख लिया था।
पिछले अंश में - "मेरे एजी, ओजी के बारे में तो कुछ पूछा नहीं तुमने?" तुमने इठलाकर झूठे गुस्से से कहा।

अब आगे की कहानी ...
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"कौन है वह खुशनसीब?" मैने उत्सुकता से पूछा।

"बदनसीब..." तुमने शरारतन मेरी बात काटते हुए कहा।

"खुशनसीब..." मैने तुम्हारे पति का सम्मान बरकरार रखने का प्रयास किया।

"नहीं, बदनसीब! खुशनसीब तो शादी करते ही नहीं।" तुम पहले जैसी ही ज़िद्दी थीं।

"मेरी शादी में क्यों नहीं आये थे?" तुमने शिकवा किया, "... ओह, हाँ! तुमने तो बातचीत ही बन्द कर दी थी।"

मैं मुस्कराये बिना न रह सका। इतने दिन बाद फिर से तुम मुझे सताने का प्रयास कर रही थीं और इस बार भी असफल रहने वाली थीं। यद्यपि, इस बार कारण अलग था। मुझे पता था कि यह हमारी आखिरी मुलाकात थी। और मैं इसे सुखद और विस्मरणीय बनाकर यादों की पिटारी की तलहटी में छुपाकर सदा के लिये भूल जाना चाहता था। मैं यहाँ एक और उलझन लेने नहीं बल्कि पिछ्ली उलझन की गिरह खोलने आया था। मुझे तुमसे और कुछ नहीं केवल मुक्ति चाहिये थी।

थोड़ा सा नाज़ नखरा करने के बाद तुमने बताना शुरू किया। अपनी आदत के अनुसार बीच-बीच में बात बदलकर यहाँ वहाँ भटकाने की कोशिश भी करती रहीं। लेकिन मैंने भी एक सजग नाविक की तरह तुम्हारी नाव को मंझधार में अटकने नहीं दिया। मुझसे हाथ छुड़ाकर उस रात तुम जिस बस में चढ़ी थीं इतने दिनों में वह तुम्हें मुझसे बहुत दूर ले जा चुकी थी।

पता लगा कि तुम्हारे हबी (पति) एक वर्कैहौलिक (कर्मठ) हैं। बातें चलती रहीं तो यह स्पष्ट होने लगा था कि तुम्हारी दुनिया में सब कुछ उतना मनोरम नहीं था जितना कि मैं सोच रहा था। तुम्हारी सास एक रक्त-पिपासु चुड़ैल थी और तुम्हारा पति ममा’ज़ बॉय (माँ की उंगलियों पर नाचने वाला) था। माँ कहे तो उठना, माँ कहे तो बैठना। उसने तो यह शादी भी माँ के आदेश के पालन के लिये ही की थी। ताकि दो पुत्रों को जन्म देकर उन्हें स्वर्ग की अधिकारिणी बना सके।

“बधाई हो, अपनी तो अभी तक शादी भी नहीं हुई और आप दोहरी माँ भी बन गयीं।”

“ऐसी मोम की गुड़िया भी नहीं हूँ मैं कि किसी और की इच्छा पूरी करने के लिये बच्चों की लाइन लगा दूँ। शुरू में बहुत लड़ाइयाँ हुईं” काले रेशमी बाल झटककर तुम ऐसे मुस्कराईं जैसे काली घटा के पीछे से सूरज चमका हो।

“फिर क्या हुआ? वे मान गयीं क्या?”

“नहीं बुद्धू, हमने अलग घर ले लिया है। खानसामा रखना पड़ा, मगर अब रोज़-रोज़ की चख-चख नहीं है... खाना मंगाऊँ तुम्हारे लिये? सुबह के भूखे होगे।”

“माई क’लाल, मेरा मतलब है ममा’ज़ बॉय मान गया?” मैने तुम्हारी मेहमाँनवाज़ी को नज़रन्दाज़ करते हुए बातचीत की नाव आगे बढ़ाई।”

“ससुर का बहुत पैसा है। कई घर पहले से हैं। इस वाले खाली घर पर कुछ लोगों की नज़र थी। बिकने भी नहीं दे रहे थे। मैने कहा, कुछ साल हम रह लेते हैं। खाली रहेगा तो कोई न कोई अन्दर घुस ही जायेगा। लालची ससुर को बात पसन्द आ गयी। सास ने थोड़ा तमाशा किया लेकिन फिर सब ठीक हो गया।”

मैं कल्पना भी नहीं कर सकता था कि तुम इतनी समझदार थीं। लेकिन वह तुम्हारी नई ज़िन्दगी थी, मुझसे और मेरे आदर्शों से बिल्कुल अलग। मेरी पहुँच से दूर। पहली बार मुझे लगा कि अब तुम्हें अपनी समस्यायें सुलझाने के लिये मेरी ज़रूरत नहीं थी। हो सकता है पहले भी न रही हो। अनजाने ही दायाँ हाथ अपने बायें कन्धे पर चला गया। तुमने मुलाकात होने पर गीला होता था, आज बिल्कुल सूखा था।

कहाँ तो बात करने के लिये कुछ भी नहीं था और अब न जाने कितनी बातें कर रही थीं तुम। भले ही तुम्हें मेरे कन्धे की ज़रूरत न रही हो मुझे सुनाने के लिये लम्बी कहानी थी तुम्हारे पास। ससुराल के आरम्भिक दिनों में कितना कुछ सहा था तुमने। दिग्जाम सूटिंग्स के मॉडल जैसा टाल, डार्क, धनी पर औसत शक्ल-सूरत वाला तुम्हारा पति तुम्हारे मोहिनी रूप का दुश्मन हो गया था। किसी से बात करते देख ले तो ईर्ष्या से जल जाता था। और उसके बाद कैसे कैसे आरोप-प्रत्यारोप चलते थे। किस तरह दस-दस दिन तक अबोला रहकर धीरे-धीरे पति को काबू में किया है तुमने। कितनी बार बिना बताये घर से निकलकर तीन-तीन हफ्ते तक मायके जाकर रही हो और उसके हज़ार बार नाक रगड़ने पर ही वापस आयी हो। क्या-क्या गान्धीगिरी नहीं करनी पड़ी थी तुम्हें। एक बार दफ्तर से जल्दी घर आकर उसकी सारी किताबें रद्दी में बेच दी थीं। एक बार अपना गुस्सा दिखाने के लिये रात भर जागकर तुमने शादी की अल्बम के हरेक चित्र में से अपना चेहरा काट कर निकाल दिया था।

“जो हुआ सो हुआ, अब तो सब ठीक है न?”

“पहले से काफी बेहतर है। वैसी लड़ाई नहीं होती है। मैने तो कह रखा है कि अगर अब लड़ाई हुई तो मैं ज़हर खा लूंगी लेकिन उससे पहले चिट्ठी में लिख दूंगी कि ससुराल वाले दहेज़ मांगते हैं। सारा घर फाँसी चढेगा या चक्की पीसेगा।”

तुमसे नज़र बचाकर मैने अपनी चिकोटी काटी। मुझे विश्वास नहीं आ रहा था कि यह सब बातें मैं तुम्हारे मुँह से सुन रहा था। तुम फिर से मुस्कराई थीं। गुलाब की पंखड़ियों के पीछे छिपी मोतियों की माला फिर से चमकने लगी। इस बार मैंने ध्यान से देखा, तुम्हारे साइड के दो दाँत काफी नुकीले थे और बारीक नशीले होठों पर करीने से लगी हुई लाली से मिलकर काफी डरावने से लग रहे थे। क्या समय के साथ लोग इतना बदल जाते हैं? या मैंने शुरू से ही तुम्हें पहचानने में गलती की थी? शायद इतने ध्यान से कभी देखा ही नहीं था।

“कहा था न गुरु, बच गये! अब चुपचाप निकल लो ...” राजा वहाँ नहीं था, केवल मेरा भ्रम था।

“अच्छा, अब मैं चलूँ क्या?” मैने उठने का उपक्रम किया।

“जल्दी क्या है? तुम्हारा कौन घर में इंतज़ार कर रहा है?” तुम व्यंग्य से हँसीं।

“एक दोस्त से मिलना है। सुबह से बाट जोह रहा है।” मैने सफाई सी दी।

“लड़का या लड़की? यहाँ हम बिना बात इतने खुश हो रहे थे। लगा मुझसे मिलने आये हो। जहाँपनाह अपने दोस्त से मिलने आये हैं। जाओ कभी बात नहीं करना अब।” तुम फिर से रूठ गयी थीं। लेकिन इस बार मेरे दिमाग पर कोई बोझ नहीं था।

[क्रमशः]

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मेरी कुछ और कहानियाँ
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Thursday, July 22, 2010

चंद्रशेखर आज़ाद का जन्म दिन

कोई दिन रात मरता है, शहादत कोई पाता है....

२३ जुलाई सन १९०६ - बांस की कुटिया में आज ही के दिन श्रीमती जगरानी देवी ने चन्द्र शेखर तिवारी (आज़ाद) को जन्म दिया था.

सुखदेव, बटुकेश्वर दत्त, राजगुरु, पंडित रामप्रसाद बिस्मिल और सरदार भगत सिंह जैसे वीरों के आदर्श चंद्रशेखर तिवारी ने पंद्रह वर्ष की आयु में गांधी जी के असहयोग आन्दोलन में भाग लेकर "आज़ाद" नाम पाया था. तानाशाहों के विरुद्ध सशस्त्र क्रान्ति के समर्थक आज़ाद "हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन" के संस्थापक सदस्य थे.


२७ फरवरी १९३१ - इलाहाबाद के अल्फ्रेड पार्क (अब चंद्रशेखर आज़ाद पार्क) में मात्र २४ वर्ष के इस वीर ने अपनी ही गोली से प्राणोत्सर्ग करके अपने नाम "आज़ाद" को सार्थक कर दिया.

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सम्बन्धित कड़ियाँ
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* यह सूरज अस्त नहीं होगा!
* श्रद्धांजलि - १०१ साल पहले
* सेनानी कवयित्री की पुण्यतिथि
* महान क्रांतिकारी चन्द्रशेखर "आज़ाद"

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एक असम्बन्धित कड़ी
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* लोकसंघर्ष परिकल्पना सम्मान - श्रेष्ठ कवि

Tuesday, July 20, 2010

सच मेरे यार हैं - भाग 3

पहली कड़ी में - मेरा खोया हुआ मित्र मुझे फेसबुक पर मिल गया था।

पिछले अंश में - जब मैं तुमसे मिलने और न मिलने की दुविधा के बीच झूल रहा था, तुमने मुझे देख लिया था।

अब आगे की कहानी ...

हमारे सम्बन्धों के सिरे उस रात कुछ अजीब तरह से टूटे थे। आज इतने दिन बाद एक दूसरे से मिलकर खुश तो थे मगर यह दोनों को ही समझ नहीं आ रहा था कि बात शुरू कहाँ से की जाये। वैसे तुमने मेरे गायब होने का शिकवा कर दिया था मगर वर्षों पहले टूटे हमारे सम्वाद को उससे कोई सहायता नहीं मिली।

“जिनसे रोज़ मिलते हैं उनसे कितनी बातें होती हैं कुछ दिन न मिलो तो लगता है जैसे बात करने को कुछ बचा ही न हो” कहकर मुस्कराई थीं तुम। मोतियों जैसी दंतपंक्ति आज भी वैसी ही थी। मेरे दाँत तो खराब होने लगे हैं। तुम्हारी मुस्कान के प्रत्युत्तर में खुलते मेरे मुँह को मेरे दाँतो के कारण उपजे हीनताबोध ने वापस बन्द कर दिया था। सब राजा का दोष है। वही रोज़ाना लंच के बाद मेरे मना करते करते ज़बर्दस्ती पान खिला देता है। वैसे दाँत ही अकेला कारण नहीं था। मिलने में देरी का सम्वाद से कोई सम्बन्ध हो सकता है, यह मैं मान ही नहीं सकता। वार्ता के लिये कोई सूत्र तो तब मिलता जब हम बात करने के लिये मानसिक रूप से तैयार होते। मानसिक तैयारी होती तो उस रात भी सम्वाद इस बुरी तरह टूटता नहीं शायद।

आज तुम्हारे सामने बैठकर मुझे बोध हुआ था कि मैं अब तक तुम्हें भूल क्यों नहीं पाया था। मैं अभी भी उस एक घटना का एक तार्किक स्पष्टीकरण ढूंढ रहा था। तुमसे केवल एक बार मिलने की इच्छा मन में कहीं गहराई तक दबी हुई थी क्योंकि मन यह समझ ही नहीं पाता था कि उस रात अकारण ही तुम मुझसे इतनी नाराज़ कैसे हो गयी थीं। मनोवैज्ञानिक शायद इसे मेरा संज्ञानात्मक मतभेद कहेंगे। नाम चाहे जो भी हो, लेकिन यह सत्य नहीं बदलेगा कि तुम्हारी याद की चील मेरे मन-मस्तिष्क के आकाश पर तब तक सदैव मंडराती रहती जब तक मुझे अपने प्रश्न का उत्तर मिल नहीं जाता।

तुम्हारे सामने बैठा मैं तुम्हारी आँखों में देखकर सोच रहा था कि क्या आज मुझे तुम्हारी याद से मुक्ति मिलेगी? या फिर आज भी तुम मुझे किसी नये सवाल में उलझाकर मेरे जीवन से पुन: अदृश्य हो जाओगी। नहीं आज मैं तब तक जमा रहूंगा जब तक कि मुझे अपने प्रश्न का तसल्लीबख्श जवाब नहीं मिल जाता है। लेकिन तब संजय के जन्मदिन का क्या? वह बेचारा तो चुपचाप अपने घर में बैठा मेरी राह देख रहा होगा। लगता है मुझे ही बात शुरू करनी पड़ेगी।

“घर में सब कैसे हैं? बाल-बच्चे ...”

“ठीक ही हैं। इतने दिन बाद मिले हो, मैं कैसी हूँ यह नहीं पूछोगे क्या?”

“चलो, यही बता दो। तुम कैसी हो?”

“सिगरेट तो तुमने छोड़ दी थी। चाय मंगाती हूँ।”

“सिगरेट तो छोड़नी ही थी। तुम्हारा हुक़्म जो था। वैसे भी मैं कोई धुरन्धर चिलमची थोड़े ही था, बस कभी-कभार राजा ज़िद करता था तो पी लेता था।”

चाय आ गयी थी। बातचीत का वर्षों से टूटा सिलसिला भी धीरे-धीरे पटरी पर आने लगा था। तुमने बताया कि चुगली कर कर के सुनील आजकल यूनियन का काफी बड़ा नेता बन गया है। उसकी छत्रछाया में तुम्हें कोई डर नहीं है। बात में से बात निकलती जा रही थी। तुम राजा के अतिरिक्त सभी पुराने साथियों के बारे में उत्सुकता से पूछ रही थीं। राजा तुम्हें शुरू से ही नापसन्द था। मज़े की बात यह थी कि तुमने एक भी साथी का नाम ठीक से नहीं बोला था। सुधीर को रणधीर, नटराजन को पटवर्धन, प्रमोद को विनोद, छाया को माया ... और भी न जाने क्या-क्या? याद आया कि इतने दिनों से तुम्हारे व्यवहार का यह मासूम, लुभावना बचपना भी तो मिस करता रहा था मैं। मैं सबके नाम सही करता रहा और उनके बारे में जितना जानता था वह सब बताता भी रहा।

दोस्तों के बाद बात मेरी शादी की तरफ मुड़ी तो मैंने कभी शादी न करने के अपने निर्णय के बारे में बताया। एक ठण्डी साँस भरकर तुमने भी सहमति सी ही जताई।

“मेरे एजी, ओजी के बारे में तो कुछ पूछा नहीं तुमने?” तुमने इठलाकर झूठे गुस्से से कहा।


[क्रमशः]