Thursday, September 16, 2010

अनुरागी मन - कहानी भाग 5

चित्र अनुराग शर्मा

अनुरागी मन
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भाग 1
भाग 2
भाग 3
भाग 4
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परी की मुस्कान के उत्तर में वीरसिंह भी मुस्कराये और फिर एक जम्हाई लेकर सोने के लिये जाने का उपक्रम करने लगे। रात वाकई गहराने लगी थी। आगे का किस्सा सुनने की उत्सुकता ईर और फत्ते दोनों को ही थी मगर अगले दिन तीनों को काम पर भी जाना था। सोने से पहले अगले दिन कहानी पूरा करने का वचन वीरसिंह से ले लिया गया। जैसे तैसे अगला दिन कटा। फत्ते घर आते समय शाम का खाना होटल से ले आया ताकि समय बर्बाद किये बिना कथा आगे बढ़ाई जा सके। जल्दी-जल्दी खाना निबटाकर, थाली हटाकर तीनों कथा-कार्यक्रम में बैठ गये।

एक पुरानी हवेली अन्दर से इतनी शानदार हो सकती है इसका वीर को आभास भी नहीं था। वासिफ ने वीर को अपनी दादी और माँ से मिलाया। दोनों ही सौन्दर्य की प्रतिमूर्ति। वासिफ शायद अपने पिता पर गया होगा। उसके पिता और दादा शायद घर में नहीं थे। माँ चाय बनाने चली गयीं और वासिफ वीर को अन्दर एक कमरे में ले गया। कुछ पल तो वे चौंक कर उस कमरे की शान को बारीकी से देखते रहे जैसे कि सब कुछ आंखों में भर लेना चाहते हों। उसके बाद वे उस ओर चले जिधर पूरी दीवार किताबों से भरी आबनूस की अल्मारी के पीछे छिपी हुई थी। अधिकांश किताबें उर्दू या शायद अरबी-फारसी में थीं और चमड़े की ज़िल्द में मढ़ी हुई थीं। उत्सुकतावश एक पुस्तक छूने ही वाले थे कि एक कर्णप्रिय स्वरलहरी गूंजी, “चाय ले लीजिये।”

उन्होंने मुड़कर देखा और जैसी आशा थी, वही अप्सरा वासिफ के ठीक सामने पड़ी सैकडों साल पुरानी शाही मेज़ पर चाय और न जाने क्या-क्या लगा रही थी। रंग-रूप में वह और वासिफ़ एक दूसरे के ध्रुव-विपरीत लग रहे थे। वासिफ वीर की ओर देखकर हँसते हुए बोला, “इतना सब क्या इसके लिये लाई है? देव समझ रखा है क्या?”

“खायेंगे न आप? ... वरना आपके घर आ जाऊंगी खिलाने” अप्सरा वीर की ओर उन्मुख थी। बीच की मांग के दोनों ओर सुनहरे बालों ने उसका माथा ढँक लिया। उसकी हँसी देखकर वीर को मिलियन डॉलर स्माइल का अर्थ पहली बार समझ में आया।

“देव और अप्सरा, क्या संयोग है?” वीरसिंह सोच रहे थे, “नियति बार-बार उन दोनों को मिलाने का यह संयोग क्यों कर रही है?” वे अप्सरा की बात के जवाब में कुछ अच्छा कहना चाहते थे मगर ज़ुबान जैसे तालू से चिपक सी गयी थी। देव और अप्सरा, स्वर्गलोक, इन्द्रसभा। उनके मन में यूँ ही एक ख्याल आया जैसे उस कमरे में वासिफ नहीं था। उसी क्षण बाहर से एक भारी सी आवाज़ सुनाई दी, “वासिफ बेटा... ज़रा इधर को अइयो...”

“बच्चे को बोर मत करना, मैं बाद में आता हूँ ...” कहकर वासिफ तेज़ी से बाहर निकल गया।

“आइ वोंट, यू बैट!” अप्सरा ने उल्लसित होकर कहा, “टेक योर ओन टाइम!”

वासिफ ने कुछ सुना या नहीं, पता नहीं परंतु इतना सुन्दर उच्चारण सुनकर वीर के अन्दर हीन भावना सी आ गयी। ऑक्सफ़ोर्ड उच्चारण की बहुत तारीफ सुनी थी, शायद वही रहा होगा।

“इधर आ जाइये, उधर क्यों खड़े हैं?” परी की मनुहार से पहले ही वीरसिंह उसके सामने विराजमान थे। किताब अभी भी उनके हाथ में थी।

“वासिफ की छोटी बहन हैं आप?” वीर ने लगभग हकलाते हुए पूछा।

“नहीँ” फूल झरे।

“तो बड़ी हैं क्या?” वीर ने आशंकित होकर पूछा।

“नहीँ” फूल फिर झरे।

“अप्सरायें बड़ी-छोटी नहीं होतीं – चिर-युवा होती हैं” दादी की बात याद आयी, “क क क क्या नाम है आपका?”


“झरना... और आपका?”

“झरना यानि जल-प्रपात। और अप्सरा... यानि जल से जन्मी... सत्य है... स्वप्न है...”

“नहीं बतायेंगे अपना नाम? आपकी मर्ज़ी। वैसे आपकी ज़िम्मेदारी मुझे देकर गए हैं वासिफ भाई।

“मैं वीर, वीरसिंह!”

[क्रमशः]

Saturday, September 11, 2010

अनुरागी मन - कहानी भाग 4


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अनुरागी मन - भाग 1
अनुरागी मन - भाग 2
अनुरागी मन - भाग 3
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सुबह उठने पर भी वीरसिंह कल वाली परी के बारे में सोचते रहे। जब तक वे नहा धो कर नाश्ते के लिये बैठे, दादाजी अपना अखबार लिये पहले से ही उपस्थित थे। दादी भी रोज़ की तरह अपनी छात्राओं की संगीत की कक्षा सम्पन्न कर के आ चुकी थीं। दादाजी ने हमेशा की तरह अखबार को कोसा और दादी ने उनके पोहे में ढेर सा घी उड़ेल दिया। वीरसिंह खा-पीकर इन्द्रजाल कॉमिक का नया अंक लेने विरामपुरे की इकलौती “घंटा-ध्वनि न्यूज़ एजेंसी” पहुँच गये। परी का ख्याल अभी भी उनके दिमाग से चिमटा हुआ था। किताबें ढूँढते समय, दुकानदार सक्सेना से बात करते समय उनके मन का एक हिस्सा लगातार यह मना रहा था कि वह अप्सरा सचमुच उन्हें अभी फिर दिख जाये। फिर सोचते कि यदि मनचाहा होता रहता तो कल्पवृक्ष जैसी कल्पनाओं की आवश्यकता ही नहीं होती।

अपने मनपसन्द कॉमिक्स लेकर जब वे बाहर निकले तो उन्होंने बड़ी उत्कंठा से निगाहें सड़क के दोनों ओर दौड़ाईं और हर तरफ उजड्ड देहातियों को पाकर अपनी किस्मत को कोसा। तभी उन्हें आकाश की ओर से एक दिव्य हँसी की खनखनाती आवाज़ सुनाई दी। अब उन्हें एक अप्सरा को नई सराय की टूटी-फ़ूटी सड़कों की गन्दगी के बीच में ढूंढने की अपनी मूर्खता पर हंसी आयी। अप्सरा तो स्वच्छ सुवासित आकाश में ही होगी न कि नारकीय वातावरण में। लेकिन क्या अप्सरायें सचमुच होती हैं? अपने विश्वास-अविश्वास से जद्दोजहद करते हुए उन्होंने तेज़ होती हँसी के स्रोत को देखने के लिये सर उठाया तो उनकी आँखें खुली की खुली रह गयीं। वही कल वाली अप्सरा ऊपर से उन्हें देख रही थी। “घंटा-ध्वनि न्यूज़ एजेंसी” और साथ की दुकान के ऊपर बने घर के छज्जे पर अपनी पार्थिव सी दिखने वाली सखि के साथ खड़ी अप्सरा कनखियों से उनको देख उल्लसित हो रही थी। वीरसिंह ने मुस्कराकर एक नज़र भरकर उधर देखा और उछलते हुए से घर की ओर चल दिये।

उस रात नींद में वे लगातार उसी अप्सरा के साथ थे। कभी नई सराय के खंडहरों में और कभी स्वर्ग के उद्यानों के बीच। सुबह बहुत सुन्दर थी। परी के दिवास्वप्नों के बीच याद आया कि आज उन्हें वासिफ से मिलने जाना था। वासिफ खाँ वीरसिंह का सहपाठी था। उसके दादाजी भी नई सराय में ही रहते थे। उसका नई सराय प्रवास वीरसिंह की तरह नियमित नहीं था परंतु इस बार वह भी आया हुआ था। आज प्रातः नई सराय के कुतुबखाने पर वीरसिंह और वासिफ की मुलाकात होनी थी। वीरसिंह प्रातः अपने घर से निकले तो उनकी दादी द्वारा घर पर ही चलाये जा रहे गन्धर्व विद्यालय की छात्रायें प्रतिदिन की तरह आनी शुरू हो गयी थीं। आज वीरसिंह ने पहली बार उन्हें ध्यान से देखा। भिन्न-भिन्न वेश और विभिन्न रंग-रूप लेकिन सब की सब ठेठ नई सरय्या, यानि के एकदम गँवारू। नहाया धोया मुखारविन्द, साफ सुथरे कपड़े, देसी घी खाकर फूले-फूले गाल और सरसों के तेल से चीकट बाल। एक तेज़-तर्रार लडकी के ज़रा पास से निकलने पर आई तोलकर बिकने वाले साबुन की तेज़ गन्ध ने उनकी नासिका को अन्दर तक चीर दिया।

दोनों मित्र कुतुबखाने पर मिले। स्कूल बन्द होने के बाद आज पहली बार वासिफ को देखा था। मिलकर काफी अच्छा लगा। वह भी उन्हें देखकर प्रसन्न हुआ। वासिफ उन्हें अपना घर दिखाना चाहता था। बातें करते करते वे मस्जिद की ओर चलने लगे। मनिहार गली वाला रास्ता थोड़ा घुमावदार था परंतु कस्साबपुरे वाले रास्ते से कम तंग और बदबूदार था।

वीरसिंह सारे रास्ते वासिफ के साथ थे मगर साथ ही उनका एक समानांतर संसार भी चल रहा था। उनका मन लगातार उसी अप्सरा के सौन्दर्य के काल्पनिक झरने में भीगे जा रहा था। कुछ मिनटों में ही वे वासिफ के दादा की हवेली के सामने खड़े थे। वासिफ लोहे की भारी कुंडी को कोलतार पुती मोटी किवाड़ों पर मारने वाला ही था कि दरवाज़ा अपने आप खुल गया।

वीरसिंह मानो सपना देख रहे हों। उन्हें अपनी खुशकिस्मती पर यकीन ही नहीं हुआ जब दरवाज़ा पकड़े हुए ही उस परी ने मखमली मुस्कान के साथ शर्माते हुए “अन्दर आइये” कहा।


[क्रमशः]

Wednesday, September 8, 2010

पागल – लघु कथा

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पुरुष: “तुम साथ होती हो तो शाम बहुत सुन्दर हो जाती है।”

स्त्री: “जब मैं ध्यान करती हूँ तो क्षण भर में उड़कर दूसरे लोकों में पहुँच जाती हूँ!”

पुरुष: “इसे ध्यान नहीं ख्याली पुलाव कहूंगा मैं। आँखें बंद करते ही बेतुके सपने देखने लगती हो तुम।”

स्त्री: “नहीं! मेरा विश्वास करो, साधना से सब कुछ संभव है। मुझे देखो, मैं यहाँ हूँ, तुम्हारे सामने। और इसी समय अपनी साधना के बल पर मैं हरिद्वार के आश्रम में भी उपस्थित हूँ स्वामी जी के चरणों में।”

पुरुष: “उस बुड्ढे की तो...”

स्त्री: “तुम्हें ईर्ष्या हो रही है स्वामी जी से?”

पुरुष: “मुझे ईर्ष्या क्यों कर होने लगी?”

स्त्री: “क्योंकि तुम मर्द बड़े शक़्क़ी होते हो। याद रहे, शक़ का इलाज़ तो हकीम लुकमान के पास भी नहीं है।”

पुरुष: “ऐसा क्या कह दिया मैंने?”

स्त्री: “इतना कुछ तो कहते रहते हो हर समय। मैं अपना भला-बुरा नहीं समझती। मेरी साधना झूठी है। योग, ध्यान सब बेमतलब की बातें हैं। स्वामीजी लम्पट हैं।”

पुरुष: “सच है इसलिये कहता हूँ। तुम यहाँ साधना के बल पर नहीं हो। तुम यहाँ हो, क्योंकि हम दोनों ने दूतावास जाकर वीसा लिया था। फिर मैंने यहाँ से तुम्हारे लिए टिकट खरीदकर भेजा था। और उसके बाद हवाई अड्डे पर तुम्हें लेने आया था। कल्पना और वास्तविकता में अंतर तो समझना पडेगा न!”

स्त्री: “हाँ, सारी समझ तो जैसे भगवान ने तुम्हें ही दे दी है। यह संसार एक सपना है। पता है?”

पुरुष: “सब पता है मुझे। पागल हो गई हो तुम।”

बालक: “यह आदमी कौन है?”

बालिका: “पता नहीं! रोज़ शाम को इस पार्क में सैर को आता है। हमेशा अपने आप से बातें करता रहता है। पागल है शायद।”