Saturday, March 26, 2011

शिक्षा और ईमानदारी

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पहले सोचा था कि आज लखनऊ विकास प्राधिकरण में ईमानदारी के साथ मेरे प्रयोग के बारे में लिखूंगा परंतु फिर पांडेय जी की पोस्ट
डिसऑनेस्टतम समय – क्या कर सकते हैं हम? पर भारतीय नागरिक की टिप्पणी पर ध्यान चला गया। इसमें और बातों के साथ एक विचारणीय मुद्दा शिक्षा का भी था:

"हम सब व्यापारी बन गये हैं. आजादी इसलिये मिल सकी कि लोग कम पढ़े-लिखे थे, एक आवाज पर निकल पड़ते थे. आज सब पढ़ गये हैं, सबने अपने स्वार्थमय लक्ष्य निर्धारित कर लिये हैं."

हम सभी अमूमन यह मानते हैं कि स्कूली शिक्षा हमें बुराइयों से बाहर निकालेगी। भारतीय नागरिक का अनुभव ऐसा नहीं लगता। मेरा अनुभव तो निश्चित रूप से ऐसा नहीं है। देश के प्रशासन में बेईमानी इस तरह रमी हुई है कि इससे गुज़रे बिना एक आम भारतीय का जीना असम्भव सा ही लगता है। प्रशासन की ज़िम्मेदारी पढे लिखे लोगों पर ही है। अगर शिक्षा ईमानदार बनाती तो यह शिक्षित वर्ग रोज़ ईमानदारी के नये उदाहरण सामने रख रहा होता और बेईमानी हमारे लिये विचार-विमर्श का विषय नहीं होती। कई लोग कहते हैं कि देश की जडें काटने का काम पढे लिखे लोगों ने सबसे अधिक किया है। अपने निहित स्वार्थ और सत्ता, पद और धन की लोलुपता के लिये देश का बंटवारा करके अलग पाकिस्तान बनाने की हिमायत करने वाले अनपढ लोग नहीं बल्कि बडे-बडे बैरिस्टर, शिक्षाविद, और साहित्यकार आदि थे। बस मैं गवर्नर-जनरल बन जाऊँ, चाहे इसके लिये मुझे "सारे जहाँ से अच्छा" वतन काटना पडे और इस विभाजन में चाहे दसियों लाख लोगों को अमानवीय स्थितियों से गुज़रना पडे। केवल स्कूली शिक्षा इस आसुरी विचार को काबू नहीं कर सकती है।

कुछ स्कूलों के पाठ्यक्रम में नैतिक शिक्षा भले ही जोड दी गयी हो मगर "जिन बातों को खुद नहीं समझे, औरों को समझाया है..." का शायराना विचार वास्तविक जीवन में चलता नहीं है। बच्चे बडों को देखकर सीखते हैं। जब तक हम बडे मनसः वाचः कर्मणः ईमानदार होने का प्रयास नहीं करेंगे तब तक हम यह मूल्य अपने बच्चों तक नहीं पहुँचा सकते हैं। "कैसे कैसे शिक्षक" में मैने "तुम भी खर्चो तो तुम भी कर लेना" वाले शिक्षक का उदाहरण दिया था। उन्हीं के एक सहकर्मी थे एमकेऐस। भावुकहृदय कवि, चित्रकार, अभिनेता और अध्यापक। मैने इन कलाकार को अपने एक मित्र से कहते सुना, "एक नागरिक के रूप में मैं यह अवश्य चाहता हूँ कि मेरा बेटा ईमानदार बने परंतु एक पिता के रूप में मैं जानता हूँ कि दुनिया उसे ईमानदारी से जीने नहीं देगी इसलिये मैं उसे दुनियादारी (बेईमानी?) सिखाता हूँ। एक और अध्यापक जी अपने वेतन के बारे में शिकायत करते हुए कह रहे थे, "उन्होने हमें पैसे नहीं दिये, हमने उन्हें संस्कार नहीं दिये।" ये शिक्षक अपने छात्रों (और बच्चों) को डंके की चोट पर बेईमानी सिखा रहे हैं। शिक्षा व्यवस्था में से ऐसे लोगों की छँटाई की गहन आवश्यकता है।

अक्टूबर 2010 में टाटा समूह ने अमेरिका के प्रतिष्ठित हारवर्ड बिज़नैस स्कूल को पाँच करोड डॉलर (225 करोड रुपये) दान किये। ज़रा सोचिये कि इतने पैसे से गरीबी रेखा के नीचे रह रहे कितने भारतीयों की किस्मत बदली जा सकती थी। उनसे पहले इसी संस्था को महिन्द्रा समूह भी एक बडा दान दे चुका था। हारवर्ड की तरह ही एक और प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय है, येल। 1861 में अमेरिका की पहली पीऐचडी सनद येल विश्वविद्यालय ने ही दी थी। 1718 में येल कॉलेज का नामकरण हुआ था इसके सबसे बडे दानदाता (500 पौंड) ईलाइहू येल के नाम पर। ईलाइहू येल भारत (मद्रास) में ईस्ट इंडिया कम्पनी का गवर्नर था। अधिकांश अंग्रेज़ अधिकारियों की तरह येल भी सिर से पैर तक भ्रष्ट था। उसके समय में मद्रास में बच्चों की चोरी और उन्हें गुलाम बनाकर बेचने की समस्या अचानक से बढ गयी थी। वैसे तो ईस्ट इंडिया कम्पनी में भ्रष्टाचार को पूरी सामाजिक मान्यता मिली हुई थी लेकिन येल इतना भ्रष्ट थी कि भ्रष्ट कम्पनी ने भी उसे भ्रष्टाचार के आरोप में नौकरी से निकाल दिया।

जिन्होने श्रीसूक्त पढा होगा वे लक्ष्मी और अलक्ष्मी शब्दों से परिचित होंगे। धन अच्छा या बुरा होता है। मगर शिक्षा? ईशोपनिषद का वाक्य है:

अन्धंतमः प्रविशंति येविद्यामुपासते, ततो भूय इव ते तमो य उ विद्यायाम् रताः

अविद्या के उपासक तो घोर अन्धकार में जाते ही हैं, विद्या के उपासक उससे भी गहरे अन्धकार में जाते हैं।

ईमानदारी किसी स्कूल में पढाई नहीं जाती, हालांकि पढाई जानी चाहिये। गुरुर्देवो भव: से पहले यह मातृदेव और पितृदेव की भी ज़िम्मेदारी है। ईमानदारी सृजन की, उत्पादन की, सक्षमता की बात है न कि कामचोरी, सीनाज़ोरी, पराक्रमण, कब्ज़ेदारी, या गुंडागर्दी की। हम जो काम करें उसमें अपना सर्वस्व लगायें, बिना यह गिने कि बदले में क्या मिला। जितना पाया, उससे अधिक देने की इच्छा ईमानदारी है न कि "जितना पैसा उतना (या कम) काम" की बात। भारतीय नागरिक की बात पर वापस आयें तो दैनन्दिन जीवन में लाभ-हानि की भावना से ऊपर उठे बिना ईमानदार होना असम्भव नहीं तो कठिन सा तो है ही। दुर्भाग्य से आज शिक्षा भी एक व्यवसाय बन गयी है जिसमें अंततः लाभ की बात आ ही जाती है। जहाँ लाभ सामने है वहाँ लोभ भी पीछे नहीं रहता। फिर शिक्षा ईमानदारी कैसे बरते और कैसे सिखाये? धन के बिना संस्थान चल नहीं सकता और धन का प्रश्न हटाये बिना ईमानदारी कैसे आयेगी? यही मुख्य प्रश्न है। हम सब को इसके बारे में सोचना है कि ईमानदारी एक आर्थिक मुद्दा है या व्यवहारिक? मेरी नज़र में ऐसी समस्यायें अति-आदर्शवाद से पैदा होती हैं जहाँ हम सांसारिकता और अध्यात्मिकता को दो विपरीत ध्रुवों पर रख देते हैं। जनजीवन में ईमानदारी लानी है तो इस अव्यवहारिकता से निपटना होगा। मुद्दा काफी स्थान मांगता है इसलिये अभी इतना ही कहकर आगे कहीं विस्तार देने का प्रयास करूंगा। इस विषय पर आपके विचारों का सदा स्वागत है।

अरविन्द मिश्र जी ने मेरी एक पिछली पोस्ट में टिप्पणी करते हुए कहा,

ईमानदारी बेईमानी व्यक्ति सापेक्ष है -हम सब किसी न किसी डिग्री में बेईमान हैं! क्या सरकारी सेवा में रहकर ज्ञानदत्त जी खुद की ईमानदारी का स्व-सार्टीफिकेट दे सकते हैं - यहाँ चाहकर भी इमानदार बने रह पाना मुश्किल हो गया है और अनचाहे भ्रष्ट होना एक नियति ..... इमानदारी एक निजी आचरण का मामला है -दूसरों के बजाय अपनी पर ज्यादा ध्यान दिया जाना उचित है और दंड विधान को कठोर करना होगा जिससे बेईमानी कदापि पुरस्कृत न हो जैसा कि आपने एक दो उदहारण दिये हैं!

दंड विधान की कठोरता, निजी आचरण और व्यक्ति सापेक्षता की बात एक नज़र में ठीक लगती है। जहाँ तक ईमानदार बने रहने की मुश्किलों की बात है, यह सच है कि ईमानदारी कमज़ोरों का खेल नहीं है, बहुत दम चाहिये। किसी व्यक्ति विशेष का नाम लेना तो शायद अविनय हो मगर मैं इस बात से घोर असहमति रखता हूँ कि सरकारी सेवा में रहना भर ही किसी इंसान को बेईमान करने के लिये काफी है। ऐसा कर्मी यदि प्राइवेट नौकरी में हो और स्वामी लोभी हो तब? ईस्ट इंडिया कम्पनी में ईलाइहू येल? तब तो बेईमानी का बहाना और भी आसान हो जायेगा। अगर कई नौकरपेशाओं के लिये ईमानदारी एक बडी समस्या बन रही है तो इसका हल खोजने में अधिक समय, श्रम और संसाधन लगाये जाने चाहिये। मगर असम्भव कुछ भी नहीं है। इस विषय पर आगे विस्तार से बात होगी। तो भी यहाँ दोहराना चाहूंगा कि ईमानदारी वह शय है जिसके बिना बडे-बडे बेईमानों का गुज़ारा एक दिन भी नहीं चल सकता है। ईमानदारी बडे दिल वालों का काम है, भले ही वे सरकारी नौकरी में हों या असरकारी पद पर हों।

[एक ईमानदार भारतीय ने लखनऊ विकास प्राधिकरण के बेईमानों के गिरोह का सामना कैसे किया, इस बारे में फिर कभी किसी अगली कडी में।]

Wednesday, March 23, 2011

ईमानदारी - जैसी मैने देखी

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कोई खास नहीं, कोई अनोखी नहीं, एक आम ईमानदार भारतीय परिवार की ईमानदार दास्ताँ, जो कभी गायी नहीं गयी, जिस पर कोई महाकाव्य नहीं लिखा गया। इस गाथा पर कोई फिल्म भी नहीं बनी, हिन्दी, अंग्रेज़ी या क्षेत्रीय। शायद इसकी याद भी नहीं आती अगर ज्ञानदत्त पांडेय जी ईमानदारी पर चर्चा को एक बार कर चुकने के बाद दोबारा आगे न बढाते। याद रहे, यह ऐसा साधारण और ईमानदार भारतीय परिवार है जहाँ ईमानदारी कभी भी असाधारण नहीं थी। छोटी-छोटी बहुतेरी मुठभेडें हैं, सुखद भी दुखद भी। यह यादें चाहे रुलायें चाहे होठों पर स्मिति लायें, वे मुझे गर्व का अनुभव अवश्य कराती हैं। कोई नियमित क्रम नहीं, जो याद आता जायेगा, लिखता रहूंगा। आशा है आप असुविधा के लिये क्षमा करेंगे।

बात काफी पुरानी है। अब तो कथा नायक को दिवंगत हुए भी कई दशक हो चुके हैं। जीवन भर अपने सिद्धांतों से समझौता नहीं किया। उनके कुनबे के अयोध्या से स्वयं-निर्वासन लेकर उत्तर-पांचाल आने की भी एक अजब दंतकथा है लेकिन वह फिर कभी। उनके पिताजी के औसत साथियों की कोठियाँ खडी हो गयीं मगर उनके लिये पैतृक घर को बनाए रखना भी कठिन था। काम लायक पढाई पूरी करके नौकरी ढूंढने की मुहिम आरम्भ हुई। बदायूँ छूटने के बाद ईमानदारी के चलते बीसियों नौकरियाँ छूटने और बीसियों छोडने के बाद अब वे गाज़ियाबाद के एक स्कूल में पढा रहे थे। वेतन भी ठीक-ठाक मिल रहा था। शरणार्थियों के इलाके में एक सस्ता सा घर लेकर पति-पत्नी दोनों पितृऋण चुकाने के लिये तैयार थे। विलासिता का आलम यह था कि यदि कभी खाने बनाने का मन न हो तब तन्दूर पर आटा भेजकर रोटी बनवा ली जाती थी।

पति स्कूल चले जाते और पास पडोस की महिलायें मिलकर बातचीत, कामकाज करते हुए अपने सामाजिक दायित्व भी निभाती रहतीं। सखियों से बातचीत करके पत्नी को एक दिन पता लगा कि राष्ट्रपति भवन में एक अद्वितीय उपवन है जिसे केवल बडे-बडे राष्ट्राध्यक्ष ही देख सकते हैं। लेकिन अब गरीबों की किस्मत जगी है और राष्ट्रपति ने यह उपवन एक महीने के लिये भारत की समस्त जनता के लिये खोल दिया है। पत्नी का बहुत मन था कि वे दोनों भी एक बार जाकर उस उद्यान को निहार लें। एक बार देखकर उसकी सुन्दरता को आंखों में इस प्रकार भर लेंगे कि जीवन भर याद रख सकें। बदायूँ में रहते हुए तो वहाँ की बात पता ही नहीं चलती, गाज़ियाबाद से तो जाने की बात सोची जा सकती है। वे घर आयें तो पूछें, न जाने बस का टिकट कितना होगा। कई दिन के प्रयास के बाद एक शाम दिल की बात पति को बता दी। वे रविवार को चलने के लिये तैयार हो गये। तैयार होकर घर से निकलकर जब उन्होने साइकल उठाई तो पत्नी ने सुझाया कि वे बस अड्डे तक पैदल जा सकते हैं। पति ने मुस्कुराकर उन्हें साइकल के करीयर पर बैठने को कहा और पैडल मारना शुरू किया तो सीधे राष्ट्रपति भवन आकर ही रुके।

पत्नी को मुगल गार्डैन भेजकर वे साइकल स्टैंड की तरफ चले गये। पत्नी ने इतना सुन्दर उद्यान पहले कभी नहीं देखा था। उन्हें अपने निर्णय पर प्रसन्नता हुई। कुछ तो उद्यान बडा था और कुछ भीड के कारण पति पत्नी बाग में एक दूसरे से मिल नहीं सके। सब कुछ अच्छी प्रकार देखकर जब वे प्रसन्नमना बाहर आईं तो चतुर पति पहले से ही साइकल लाकर द्वार पर उनका इंतज़ार कर रहे थे। साइकल पर दिल्ली से गाज़ियाबाद वापस आते समय हवा में ठंड और बढ गयी थी। मौसम से बेखबर दोनों लोग मगन होकर उस अनुपम उद्यान की बातें कर रहे थे और उसके बाद भी बहुत दिनों तक करते रहे। बेटी की शादी के बाद पत्नी को पता लगा कि जब वे उद्यान का आनन्द ले रही थीं तब पति बाग के बाहर खडे साइकल की रखवाली कर रहे थे क्योंकि तब भी एक ईमानदार भारतीय साइकल स्टैंड का खर्च नहीं उठा सकता था। लेकिन उस ईमानदार भारतीय परिवार को तब भी अपनी सामर्थ्य पर विश्वास और अपनी ईमानदारी पर गर्व था और उनके बच्चों को आज भी है।

Saturday, March 19, 2011

अक्षर अक्षर - एक कविता

[अनुराग शर्मा]

कागज़ी खानापूरी से
दिमागी हिसाब-किताब से
या वाक्चातुर्य से
परिवर्तन नहीं आता
क्योंकि
क्रांति का खाजा है
त्याग, साहस
इच्छा-शक्ति, पसीना
और मानव रक्त

कफन बांधकर
निकल पडते हैं
प्रयाण पर
शुभाकांक्षी वीर
जबकि
सुरक्षित घर में
छिपकर
कलम तोड़ते हैं
ठलुआ शायर

जान जाती है
बयार आती है
क्रांति हो जाती है
युग परिवर्तन होता है
खेत रहते हैं वीर
बिसर जाते हैं
वीर, त्यागी और हुतात्मा
कर्म विस्मृत हो जाते हैं
लिखा अमिट रहता है
अलंकरण पाते हैं
डरपोक कवि
क्योंकि
अक्षर अक्षर है।
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