Friday, September 23, 2011

क्षमा वीरस्य भूषणम् -एक पत्रोत्तर के बहाने ...

कितना ढूंढा हाथ न आया सच का एक क़तरा भी
कहने को उनके खत में बहुत कुछ लिखा था
भारतीय समाज में अनेक खूबियाँ हैं। कुछ अच्छी बातें तो सभी धर्मों में नायकों, संतों और उपदेशकों द्वारा कही और सही गयी हैं। बहुत सी भारतीय संस्कृति की अपनी अनूठी विशेषतायें हैं। लेकिन कई ऐसी भी हैं जिनमें भिन्न उद्गमों से आये विचार गड्डमड्ड से हो गये हैं और इस प्रक्रिया में सद्विचार की मूलभावना की ऐसी-तैसी हो गयी है। बहसबाज़ी के प्रति मेरी स्पष्ट नापसन्द होते हुए भी कई बार यह "ऐसी-तैसी" मुझे भीड़ की मुखालफ़त करने को मजबूर करती है। इसी परम्परा में आज सत्यवादिता और क्षमा पर दो शब्द कहने को बाध्य हुआ हूँ। सत्य पर जहाँ-तहाँ टिप्पणियों या कविताओं के बीच बात होती रही। क्षमा पर काफ़ी पहले एक लघु-आलेख "छोटन को उत्पात" लिख चुका हूँ। मगर अपनी भाषा को लेकर खबरों में बने रहने वाले एक ब्लॉग पर आज मेरा नाम लेकर लिखे गये एक पत्र देखकर इस विषय पर ऐसा कुछ कहना ज़रूरी सा हो गया है जिससे मैं अब तक बचना चाह रहा था। कुछ ज़रूरी यात्राओं पर हूँ। लेकिन फिर भी अपने व्यक्तिगत समय को निचोड़कर आपसे बात करने बैठा हूँ। पत्र तो एक बहाना है क्योंकि पत्रलेखक को तो बस अपनी बात कहनी थी। इस नाते मुझे उत्तर देने की कोई बाध्यता नहीं थी लेकिन मुझ पर विश्वास करने वाले अपने मित्रों और पाठकों के प्रति आदर व्यक्त करने के लिये मैं पत्र में वर्णित बेतुके और झूठे आरोपों के कारण एक बार यहाँ पर अपना उत्तर लिखना एक आवश्यकता और अपनी नैतिक जिम्मेदारी समझता हूँ।

सत्यवादिता का दावा बहुत से लोग करते दिखते हैं। "हम तो खरी कहते हैं", "बिना लाग लपेट के बोलते हैं", और "सच तो कड़वा ही होता है" जैसे वाक्यों का उद्घोष अक्सर सुनाई देता है। सत्यवादिता का झूठा दावा करने वाले लोग यह भूल जाते हैं कि सत्यनिष्ठा सत्य कहने से ज़्यादा सत्य सुनने, सोचने और करने में निहित है। अधिकांश लोग कड़वा इसलिये नहीं बोलते क्योंकि वही सच है बल्कि इसलिये बोलते हैं क्योंकि "सच" का उतना कड़वा भाग ही उस समय के उनके निहित स्वार्थ की सिद्धि में सहायक होता है। सच का ऐसा वीभत्स परचम लहराने वाले अक्सर अन्य समयों पर जाने-अनजाने ही सत्य की हत्या सी करते रहते हैं। सत्यनिष्ठ बनना है तो हमें पहले तो सत्य को बेहतर समझने की शक्ति विकसित करनी पड़ेगी और साथ ही कड़वा कहने की तरह ही सत्य सुनना भी सीखना पड़ेगा।

क्षमा वीरों का आभूषण है। वीर अत्याचार नहीं करते, ग़लतियों से बचते हैं परंतु जहाँ आवश्यक है वहाँ क्षमा मांगने में संकोच नहीं करते। इसके उलट प्रकृति के लोग अपनी हर बेवकूफ़ी को झूठ, उद्दंडता और शेखी से ढंकने और लीपापोती में ही लगे रहते हैं। वीर के लिये अपनी ग़लतियों की क्षमा मांगना जैसा नैसर्गिक और सहज है क्षमादान वैसी सामान्य घटना नहीं है क्योंकि वीरों के लिये क्षमा ऐसा भूषण है जिसको कागज़ के टुकडों जैसे बांटते नहीं फ़िरा जा सकता है। ऐसा भी हुआ है कि किसी ज़िद्दी बच्चे ने हर बार खुद ही ग़लती करके और फ़िर हल्ला मचाकर ज़बर्दस्ती दसरों से माफ़ी मंगवाने की कोशिश की है। भारतीय परिवेश में ऐसा भी देखा गया है जब उस ज़िद्दी बच्चे के माँ-बाप-भाई-बहिन-मित्रों ने दूसरे पक्ष को यह कहकर कन्विंस करने का प्रयास किया है कि, "यह तो पागल है, आप ही मान जाओ।" भले लोग अक्सर इस झांसे में आ जाते हैं पर यह नहीं समझते कि अनुचित माफ़ीनामों की मुण्डमाल अपने गले में लटकाये ये दबंग/बुली बच्चे ही आगे बढ़कर अपनी अनुचित मांग पर समर्पण न करने वाली लड़कियों के चेहरे पर तेज़ाब फ़ेंकने की हद तक पहुँच जाते हैं।

इंसान ग़लतियों का पुतला है। मेरे जीवन में भी ग़लतियाँ हुई हैं। मैंने उन्हें पहचानकर सुधारने का प्रयास किया है और जहाँ आवश्यकता हुयी, क्षमा भी मांगी है। लेकिन बचपन में भी ऐसे उद्दंड बुलीज़ की ज़िद पर अनैतिक समर्पण करने के बजाय उनके माताओं-पिताओं को उनकी ग़लती के लिये आगाह किया है।

जिस पत्र का ज़िक्र ऊपर है वह मैंने आज दिव्या के "ज़ीलज़ेन" ब्लॉग पर अपने नाम लिखा देखा है। टेक्स्ट निम्न है:
अनुराग जी ,
आप मेरे अपनों को मुझसे तोड़कर मुझे कमज़ोर करना चाहते हो । सभी को अपने साथ मिला लेना चाहते हो। सबको मेल लिख-लिख कर और फोन करके तथा उनके घर जाकर उन्हें अपना बनाना चाहते हो? कोई बात नहीं। ईश्वर आपको इतनी शक्ति दे की आप सभी से प्रेम कर सको। दिव्या से नफरत निभाने के फेर में आपने कुछ लोगों के साथ मित्रता करने की सोची, यही ब्लॉगिंग की सबसे बड़ी उपलब्धि समझूंगी।
मुझे तो अकेले ही चलने की आदत है। बस कुछ के साथ आत्माओं का मिलन हो चुका है, वहां फोन आदि की ज़रुरत नहीं पड़ती है। मेरे दुःख में वे रो पड़ते हैं और मुझे खुश देखकर भी उनकी आँखें छलछला पड़तीं हैं।
किसी को फोन कर सकूँ इतना पैसा ही नहीं है मेरे पास। नौकरी नहीं करती हूँ न इसीलिए सरकारी फोन जो मुफ्त में मिलता है बड़े ओहदे वालों को, वह भी सुविधा नहीं है मेरे पास। और फिर सबसे बड़ी मुश्किल तो यह है की मैं 'स्त्री' हूँ । किसी को फोन करुँगी तो वह एक अलग ही समस्या खड़ी कर देगा। लेकिन मेरे पास स्पष्टवादिता और पारदर्शिता है। वही मेरी ताकत है, और वही मेरा गहना।
आपने मुझे 'schizophrenic' और 'paranoid' कहा, फिर भी जाइए आपको माफ़ किया !
Zeal
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ज़ीलज़ेन दिव्या को मेरा उत्तर:

आश्चर्य है कि एक तरफ आप मुझे माफी देने की बात कर रही हैं साथ ही उसी प्रविष्टि में मुझे संबोधित पत्र से ठीक ऊपर समाज की तमाम स्त्रियों की दुर्दशा के लिए मुझे ज़िम्मेदार ठहराते हुए आप आदरणीय भोला जी को मुझे कभी माफ़ न करने की सलाह भी दे रही हैं:
यदि मैं आपकी जगह होती तो बेटी का अपमान करने वाले को कभी माफ़ न करती। इन्हें माफ़ कर दिया जाता है इसीलिए समाज में स्त्रियों की दुर्दशा है।
मुझे यह स्पष्ट नहीं हुआ कि आपकी इन दो परस्पर विरोधाभासी बातों में से कौन सी बात सही है। वैसे भी, इस पत्र में कहे गये शब्दों के बारे में आप कितनी गम्भीर हैं यह इस पोस्ट से नहीं ज़ीलज़ेन पर इसके बाद आने वाली प्रविष्टियों से पता लगेगा।

आपने मुझे माफ़ किया? किस ज़ुर्म के लिये? जी नहीं, ग़लती आपकी है तो माफ़ी भी आप पर ही उधार रहती है, और आपको ही मांगनी चाहिये - मुझसे ही नहीं उन सभी से जिनपर आपने झूठे लांछन लगाये हैं या समय-असमय हैरास या बुली किया है। एक माफ़ी विशेषकर स्वर्गीय डॉ. अमर कुमार से मांगने को बकाया है जिन पर आपने लम्बे समय तक हैरास करने का आरोप लगाया, बैन किया और उनके भयंकर पीड़ा से जूझते हुए होने पर भी उन्हें आपके ब्लॉग पर की गयी अपनी बीसियों टिप्पणियाँ हटाने को बाध्य किया। लगे हाथ एक माफ़ी अपने पितातुल्य भोला जी से भी मांग लीजिये जिनके व्यक्तिगत पत्र को अपने ब्लॉग पर रखकर आपने एक भोले पिता के साथ भयंकर विश्वासघात किया है।

दूसरी बात यह कि मुझे क्षमा करने का अधिकार आपको दिया किसने? सच्चे-झूठे आरोप लगाने वालों को सज़ा या माफ़ी का अधिकार होता तो अदालतों में जजों की आवश्यकता ही न होती और क्षमादान की अर्ज़ी बड़ी अदालतों और राष्ट्रपति आदि के पास न जाकर मुहल्लों (आजकल कतिपय ब्लॉग्स पर भी) के अन्धेरे कोनों में अपनी गुंडागर्दी के क़सीदे पढ रहे भर्हासियों के पास जाया करतीं। कुछ असभ्य समाजों में शायद ऐसा सही भी समझा जाता हो, परंतु मैं ऐसी असभ्यता को सिरे से अस्वीकार करने वालों में से हूँ। पहले आपने समय-समय पर अनेक ब्लॉगरों को अपशब्द कहे, फिर शिष्ट भाषा में लिखी मेरी हालिया टिप्पणी को बदबूदार कहा और मुझे अपशब्द कहे। उसके बाद मेरे ब्लॉग पर रखे एक व्यंग्य को अपना अपमान बताकर स्वयं और कुछ अन्य व्यक्तियों द्वारा अपने ब्लॉग पर पुनः अपशब्द कहे गये और भोले भाले पाठकों की भावनाओं को भड़काया गया। ... और अब पत्र के नाम पर एक नया ड्रामा?

मुझे इस विषय में आप से बात करने की कोई इच्छा नहीं है। फिर भी यदि आप इस मामले को आगे बढाना ही चाहती हैं तो आपके ब्लॉग पर रखी माता-पिताओं की लम्बी सूची में से किसी ज़िम्मेदार और समझदार व्यक्ति को या फ़िर अपने वकील को मुझे सम्पर्क करने को कहें। अन्यथा, आप अपनी ओर से सीधे मुझे सम्बोधित करके कुछ भी कहने से बचें, यही हम सबके लिये ठीक होगा।
मैंने किसी भी पोस्ट या टिप्पणी में आपको 'schizophrenic' और 'paranoid' नहीं कहा है। व्यंग्य, कल्पना और वास्तविकता के अंतर को पहचानिए और मुझपर बिला वजह के दोषारोपण से बचिए।
आपकी एक पिछली पोस्ट में आपने "अपने" ईश्वर द्वारा मुझे शीघ्र ही सज़ा देने का आह्वान किया गया था उसके साथ आपके इस पत्र में व्यक्त मुझे शक्ति देने की प्रार्थना कुछ ठीक बैठ नहीं रही है, कृपया अपने विचारों को थोड़ा ठोंक बजा लें। अनेक लोगों के खिलाफ़ अंट-शंट लिखने के बाद आपने मेरे खिलाफ़ ऊल-जलूल आलेख और टिप्पणियाँ लिखीं तो सब ठीक था और मेरा एक जनरल व्यंग्य पढते ही दुनिया इतनी उलट-पुलट हो गयी कि आपके "प्राइवेट" ईश्वर को दखल देने की आवश्यकता पड़ गयी? आपने इससे पिछली पोस्ट में भी यह आरोप लगाया कि मैं आपके खिलाफ़ षडयंत्र करके आपके मित्रों को अपने खेमे में ले जा रहा हूँ। याद दिला दूँ कि मैं एक व्यस्त व्यक्ति हूँ, मुझे आपके खिलाफ़ षडयंत्र करने की फ़ुर्सत नहीं है क्योंकि यह ब्रह्माण्ड आपका चक्कर नहीं लगाता है। और भी ग़म हैं ज़माने में ...। मैं क्या करता हूँ, यह जानना ही चाहती हैं तो मेरा ब्लॉग ध्यान से पढिये, मेरी आवाज़ में विनोबा भावे के शब्द सुनिये और अगर कुछ हल्का-फुल्का चाहिये तो मेरी पढ़ी हुई कहानियाँ सुनिये। संसार बहुत बड़ा है और इसमें आप और आपके ब्लॉग के आरोप-प्रत्यारोपों के अलावा भी बहुत कुछ है। मसलन, यदि कोई सत्य का दूसरा पहलू जानने को उत्सुक हो तो, गिरिजेश राव की हालिया प्रविष्टि हौं प्रसिद्ध पातकी भी पढी जा सकती है, आँखें खोलने वाली है। वैसे बात माफ़ी की चल रही है तो यह भी याद दिला दूँ कि आपके ब्लॉग पर जिस प्रकार डॉ. अजित गुप्ता जी का नाम माँ की सूची में लिखने के बावजूद तथाकथित भाइयों से उनका अपमान करवाया गया वह दुर्व्यवहार काफ़ी असभ्य और गरिमाहीन था।
माँ शब्द की गरिमा बनाये रखने के लिये यदि आपके ब्लॉग पर अपनी सभ्यता के नमूने दिखाते ये भाई उसी ब्लॉग पर अपनी माँ से लिखित में माफ़ी मांगेंगे तब आपकी उस कागज़ी सूची में कुछ दम अवश्य दिखेगा वरना शब्दों का क्या है, रबड की ज़ुबान और प्लास्टिक के कीबोर्ड का क्या भरोसा ...
और जहाँ तक लोगों से मिलने की बात है, मैं किससे मिलता हूँ, कहाँ जाता हूँ, इसका अधिकार आपने कब से ले लिया? किस नाते से? ज़रूरत नहीं है फिर भी इतना स्पष्ट कर दूँ कि आपकी सूची के जिन लोगों को छीन लेने का आरोप आप लगा रही हैं मैंने उनकी पहल का मित्रवत उत्तर दिया है जो कि एक सभ्य और सहृदय व्यक्ति से अपेक्षित है। यदि आपको यह लगता है कि आपके लम्बे समय के मित्र, भाई और पिता मेरी एक बात से आपका पक्ष छोड़कर मेरी ओर आ गये हैं तो क्या इससे आपको अपने और मेरे विषय में कुछ अंतर पता नहीं लगा? अपने भाइयों और पिताओं की निर्णय-क्षमता पर विश्वास करके उन्हें सम्मान देना सीखिये, सूचियाँ तो धोबी को देने वाले कपड़ों की भी बनती हैं। आपको भले ही न हो पर मुझे यक़ीन है कि ऐसे लोग आपका भला चाहते हैं न कि वे लोग जो झूठी वाहवाहियाँ लिखकर आपको चने के झाड़ पर चढाते रहे हैं। आपके सच्चे शुभचिंतकों को मेरी ओर से हार्दिक शुभकामनायें!

ज़ीलज़ेन पर वह तथाकथित बदबूदार टिप्पणी
बदबूदार टिप्पणी का सुगन्धित जवाब
ज़ीलज़ेन के प्रकरण पर यह मेरी इकलौती पोस्ट है। इस मुद्दे को यहीं समाप्त करते हुए जागरूक मित्रों का हार्दिक धन्यवाद अवश्य देना चाहूँगा। सतह से नीचे जाकर सत्य को पहचानना और सत्य के लिये खड़े होना आज भी उतना ही ज़रूरी है। यदि उन व्यक्तिगत पोस्ट्स को भुला भी दिया जाए जिनमें दिव्या ने कुछ ब्लॉगरों की व्यक्तिगत ईमेल और स्वास्थ्य संबंधी गुप्त जानकारियों को ज़ीलज़ेन ब्लॉग पर लहराया था तो भी याद रहे, बीते कल में श्री ज्ञानदत्त पाण्डेय जी और डॉ. कुमार की बारी थी, आज अजित जी, शिल्पा मेहता और मेरी है, कल आपकी भी हो सकती है, शायद होगी ही।

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सम्बंधित कड़ियाँ
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* हौं प्रसिद्ध पातकी
* 'ओढ़नीया ब्लॉगिंग' चालू आहे ...
* सबका कारण एक है!
* अब कुपोस्ट से आगे क्या?
* सत्यमेव जयते - कविता
* नानृतम् - कविता
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* छोटन को उत्पात
* हमें तुम रोको मत पथ में
* उपेक्षा नहीं, प्रेम और सहानुभूति
* ए ब्यूटिफ़ुल माइन्ड
* टसुए बहाने का हुनर...

Sunday, September 18, 2011

नायक किस मिट्टी से बनते हैं - 4

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आपके सहयोग से एक छोटा सा प्रयास कर रहा हूँ, नायकत्व को पहचानने का। तीन कड़ियाँ हो चुकी हैं, पर बात अभी रहती है। भाग 1; भाग 2; भाग 3; अब आगे:

वीरांगना दुर्गा भाभी
नायकों को सुपर ह्यूमन दर्शाना मेरा उद्देश्य नहीं है। वे भी हमारे-आपके बीच से ही आते हैं लेकिन कुछ अंतर के साथ। जैसा कि हमने पहले देखा कि वे अपनी नहीं दूसरों की सोचते हैं। कार्य कितना भी कठिन हो वे अपनी सोच को कार्यरूप करने का साहस रखते हैं और बाधा कैसी भी आयें, सफल कार्य-निष्पादन की क्षमता और कुशलता रखते हैं। और यह सब काम वे सबको साथ लेकर करते हैं। नायक स्पूनफ़ीड नहीं करते बल्कि समाज को सक्षम बनाते हैं। वे विघ्नसंतोषी नहीं बल्कि सृजनकारी होते हैं। वे न्यायप्रिय होते हैं और सत्यनिष्ठा को अन्य निष्ठाओं के ऊपर रखते हैं। इन सबके साथ उनका चरित्र पारदर्शी होता है क्योंकि वे मन-वचन-कर्म से ईमानदार होते हैं। जो होते हैं, वही दिखते हैं, वही कहते हैं, वही करते हैं। उनका उद्देश्य सत्तारोहण नहीं बल्कि जनसेवा होता है। वे समाज पर अपनी विचारधारा और तानाशाही थोपते नहीं। खलनायकों को उनके चमचे भले ही विश्व का सबसे बड़ा विचारक बताते हों, नायकों का सम्मान जनता स्वयं करती है क्योंकि वे जनसामान्य के सपनों को साकार करने की राह बनाते हैं।
सूरा सोहि सराहिये जो लड़े दीन के हेत, पुरजा-पुरजा कट मरे तऊँ न छाँड़े खेत ~संत कबीर

रानी लक्ष्मीबाई (ब्रिटिश लाइब्रेरी)
झांसी की रानी अबला नहीं थीं। आज़ाद हाथ पर हाथ धरकर नहीं बैठे। भारत के अधिसंख्य क्रांतिकारियों ने जीवन के तीन दशक भी नहीं छुए। हम सब जीवन भर सीखते हैं, फिर भी सर्वस्व न्योछावर करना नहीं सीख पाते। कुछ लोग तो मानो बात-बात पर आहत होने, शिकायत करने की कसम ही खाकर बैठे होते हैं। नायक घुलने वाली मिट्टी के नहीं बनते। वे अपने साथ दूसरों के जीवन को भी आकार देते हैं।  उम्र के साथ हम सभी के अनुभव बढते हैं, परंतु नायक ज्ञानपिपासु होते हैं। ज्ञान महत्वपूर्ण है इसलिये बहुत कुछ जानते हुए भी नायक जीवन भर सीखते हैं। वे हमसे बेहतर सीखते हैं क्योंकि वे परस्पर विरोधी विचारधाराओं में से भी जनोपयोगी बिन्दु चुन पाते हैं। उनके साहस और उदारता जैसे गुण उनसे असम्भव कार्य निष्पादित करा पाते हैं। साहस को पूर्ण करने के लिये नायकों के पास धैर्य भी बहुतायत में होता है और उन्हें इन गुणों का संतुलन भी आता है। नायकों की आँकलन क्षमता उनकी एक विशेषता है। वे अपनी क्षमता का सही आँकलन कर पाते हैं और साथ ही अपने सामने रखी चुनौतियों का भी। ऐसे अनेक उदाहरण हैं जहाँ नायक के कर्म का फल उसके जीवनकाल में समाज को नहीं मिल पाता है। इससे उनका आँकलन ग़लत सिद्ध नहीं होता। वे जानते हैं कि कार्यसिद्धि में समय लगेगा परंतु यदि वे आरम्भिक आहुति न दें तो शायद वह कार्य असम्भव ही रह जाये। कुल मिलाकर नायक असम्भव को सम्भव बनाने की प्रक्रिया जानते हैं।
अष्टादशपुराणानां सारं व्यासेन कीर्तितम् परोपकार: पुण्याय पापाय परपीड़नम्।।
(परोपकार पुण्य है और परपीड़ा पाप है)

कठिन समय = नायक की पहचान
कठिन समय नायक उत्पन्न तो नहीं करता परंतु कठिन समय में एक नायक की परीक्षा आसानी से हो जाती है। भारत का स्वाधीनता संग्राम हो, विभाजन या देश पर कम्युनिस्ट चीन का अक्रमण, जीवन में कठिन समय आते ही हैं। सभ्य समाज को खलनायक अपना ऐसा निकृष्टतम रूप दिखाते हैं कि आम आदमी बेबसी महसूस करता है। ऐसे समय पर नायकों की पहचान आसानी से हो जाती है। जिनकी तैयारी है, जो सक्षम भी हैं और इच्छुक भी, वे ऐसे समय पर स्वतः ही आगे आ जाते हैं। इसके अतिरिक्त, कई बार ऐसे अवसर भी आते हैं जब नायक अपना समय चुनते हैं। वे धैर्य और संयम के साथ सही समय की प्रतीक्षा करते हैं। वे जोश से नहीं होश से संचालित होते हैं। नायक प्रकाश-दाता भी हैं और पथ-निर्माता भी। नायकों के विभिन्न स्तर हो सकते हैं और नायकों के अपने नायक भी होते हैं। हम चाहें तो उनकी इस व्यक्तिगत रुचि में उनसे असहमत भी हो सकते हैं। रामायण से उदाहरण लें तो हनुमान जी अपने आप में एक नायक भी हैं पर उनके नायक श्रीराम हैं। इसी प्रकार गांधी को नायक न मानने वाला कोई व्यक्ति विनोबा भावे या नेताजी सुभाष को अपना नायक मानता रह सकता है, भले ही वे दोनों ही गांधीजी को जीवनपर्यंत अपना नायक मानते रहे।

विद्या विवादाय धनं मदाय शक्ति: परेषां परिपीडनाय खलस्य साधोर्विपरीतमेतज्ज्ञानाय दानाय च रक्षणाय।।
(साधु का ज्ञान, धन व शक्ति जनसामान्य के विकास, समृद्धि व रक्षा के लिये होती है)

जगप्रसिद्ध जननायक महात्मा गांधी
जहाँ खलनायकों के बहुत से गुण आनुवंशिक हो सकते हैं वहीं नायकों के गुणों के पीछे अभी तक ऐसी कोई जानकारी नहीं है। तो भी स्वस्थ शरीर और स्वस्थ मन हमें अपनी छोटी-मोटी चिंताओं से ऊपर उठने का अवसर देता है। जो व्यक्ति हर बात को अपने ऊपर आक्षेप समझेगा, जिसकी दुनिया "मैं" से आगे नहीं हो वह एक साधारण मानव भी बन पाये तो ग़नीमत है। नायक जन-गण के हित के बारे में सोचते हैं । पिछली कडी में हमने देखा कि जब नेताजी अपनी बेटी को छोडकर गये तब वह मात्र चार सप्ताह की थी। अनिता ने अपने पिता को नहीं देखा लेकिन उन्होंने अपने को भाग्यशाली बताते हुए अन्य भारतीयों की पीडा को बड़ा बताया। भगत सिंह के परिवार में उनसे पहले कई क्रांतिकारी हो चुके थे। चन्द्रशेखर आज़ाद का परिवार भूखे रहकर भी अपनी ईमानदारी से कोई समझौता करने को तैयार नहीं हुआ। गांधी जी अपनी जमी-जमाई प्रैक्टिस छोडकर आये परंतु आज़ादी के बाद अपनी संतति के लिये भी कोई पद लेने की आवश्यकता नहीं समझी। इन सब उदाहरणों से नायक के विकास में उसके परिवेश की भूमिका दिखाई देती है।
नाक्षरं मंत्ररहितं नमूलंनौषधिम् अयोग्य पुरूषं नास्ति योजकस्तत्रदुर्लभ:।।
(नायक हर व्यक्ति में छिपी सम्भावना देख सकते हैं)

चिड़ियन ते मैं बाज तुड़ाऊँ
दूसरों का नायकत्व स्वीकार पाना भी सबके बस की बात नहीं है। नायकों में कमी ढूंढना बडा आसान है। वे भी इंसान हैं। वक्र दृष्टि फेंकिये कोई न कोई कमी नज़र आ जायेगी। नायकों को हममें कमी नहीं दिखती, तभी तो वे हमें अंगीकार कर पाते हैं। जहाँ खलनायक अक्सर भेदवादी होते हैं और समाज को बाँटने के लिये नये-नये "वाद" उत्पन्न करते हैं वहीं नायक समन्वय में विश्वास करते हैं। उनके लिये समाज के एक अंग के विकास का अर्थ दूसरे अंग का ह्रास नहीं होता। नायक की क्रांति में नरसंहार नहीं होता है बल्कि उसका उद्देश्य नरसंहार जैसे दानवी कृत्यों को यथासम्भव रोकना होता है। परशुराम ने निरंकुश और निर्दय शासकों की हिंसा को रोका और चन्द्रशेखर आज़ाद और रामप्रसाद बिस्मिल ने ब्रिटिश राज की हिंसा को रोका। गांधी का मार्ग भले ही भगतसिंह से भिन्न रहा हो परंतु अहिंसा के प्रति उनके विचार एकसमान थे। एक आस्तिक के शब्दों में कहूँ तो खलनायक समाज को विभक्त करते हैं जबकि नायक भक्त होते हैं। वे अपने को समाज का अभिन्न अंग मानकर समाज में रहते हुए, उसकी अच्छाइयों का विस्तार करते हुए उसके उत्थान की बात करते हैं। खलनायक असंतोष और विद्वेष भड़काते हैं जबकि नायक दूसरे पक्ष को समझने की दृष्टि प्रदान करते हैं। खलनायक संकीर्ण होते हैं जबकि नायक "सर्वे भवंतु सुखिनः ..." के मार्ग पर चलते हैं।
वीर सावरकर - प्रथम दिवस आवरण

ऐसा लगता है कि नायकों में परोपकार की प्रवृत्ति होती है। लेकिन यह प्रवृत्ति एक सामान्य मानवीय प्रवृत्ति है। अनुकूल वातावरण उत्पन्न करके हम इसे बढावा दे सकते हैं। इसी प्रकार विभिन्न कौशल सीखकर और बच्चों को सिखाकर हम अपनी और उनकी क्षमतायें और आत्मविश्वास बढा सकते हैं।  मुझे लगता है कि नायकत्व के निम्न गुण सीखे जा सकते हैं और उनकी उन्नति और प्रसार के लिये हमें वातावरण बनाना ही चाहिये: स्वास्थ्य, साहस, करुणा, परोपकार, दान, उदारता, समन्वय, सामाजिक ज़िम्मेदारी, विभिन्न कौशल।

इस विषय पर विमर्श के लिये इतना कुछ है कि कभी पूरा न हो परंतु अपनी सीमाओं को ध्यान में रखते हुए मैं अगली दो कड़ियों में इस शृंखला के समापन का वायदा करके यहाँ से विदा लेता हूँ। चलते-चलते बस एक प्रश्न: क्या आपने अपने आस-पास बिखरे नायकत्व को पहचाना है?

[क्रमशः]
[सभी चित्र/स्कैन अनुराग शर्मा द्वारा :: Snapshots by Anurag Sharma]

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सम्बन्धित कड़ियाँ
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* प्रेरणादायक जीवन-चरित्र
* नायक किस मिट्टी से बनते हैं - 1
* नायक किस मिट्टी से बनते हैं - 2
* नायक किस मिट्टी से बनते हैं - 3
* डॉक्टर रैंडी पौष (Randy Pausch)
* महानता के मानक

Friday, September 16, 2011

अब कुपोस्ट से आगे क्या होगा?

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क्या कहा? आपको नई पोस्ट लिखने का आइडिया नहीं मिल रहा? हमें भी नहीं मिल रहा। आइये ब्लॉग भ्रमण पदयात्रा पर निकलते हैं एक से एक नायाब आइडिया लेने। यह पोस्ट "अपोस्ट से आगे - कुपोस्ट तक" का विस्तार ही है। किसी भी ब्लॉग, ब्लॉगर, बेनामी, अनामी, पोस्ट, प्रविष्टि, टिप्पणी, व्यवहार, लक्षण, बीमारी, कविता, कहानी, व्यंग्य आदि से समानता संयोग  मात्र है। आलोचनाओं और आपत्तियों का स्वागत है। हाँ, सोते समय मैं टिप्पणियाँ मॉडरेट नहीं कर सकूंगा। मेरे जागने तक कृपया धैर्य रखें। जो पाठक "सैंस ओफ़ ह्यूमर" को साँप की जाति का प्राणी समझते हों, वे "अपोस्ट से कुपोस्ट तक" के इस सफ़र को न पढें तो उनकी अगली "प्रतिक्रियात्मक" पोस्ट के पाठकों का बहुमूल्य समय नष्ट होने से बच जायेगा।  
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[रश्मि जी, शिल्पा जी के सुझाव और सद्भावना का आदर करते हुए इस पोस्ट पर टिप्पणी का प्रावधान बन्द कर दिया गया है। आपकी असुविधा के लिये खेद है।]

- आज फिर पत्नी ने हमें बेलन से पीटा। हमने भी कह दिया कि अगर एक बार भी और मारा तो हम ... ... ... ... प्यार से फिर पिट लेंगे पर ब्लॉगिंग नहीं छोड़ेंगे।

- हम पागल नहीं हैं। आप लोग हमें पागल न समझें। हमारी नौकरी हमारे पागलपन के कारण नहीं छूटी है।  काम-धाम तो हम अपनी मर्ज़ी से नहीं करते हैं ताकि कीबोर्ड-सेवा कर सकें। वर्ना हम तो पीएचडी हैं, डॉ फ़ुर्सत लाल, ... "आवारा" तो हमारा तखल्लुस है यूँ ही धोखा देने के लिये। कहावत भी है, भूत के लात, लगाने के और, चलाने के और।

- आज हमारी पत्नी ने पूछा, "आज भी खाना खायेंगे क्या?" हमने जवाब नहीं दिया और उनके विरोध में यह पोस्ट लिख दी। आखिर हम अपनी सामाजिक ज़िम्मेदारी तो नहीं छोड़ सकते न!

- आज एक पत्नी ने पति से पूछा, "सुनते हो! आज साड़ी धुला लूँ क्या? मैली हो गयी है।"

- आज एक पति ने पत्नी से पूछा, "सुनती हो! आज दाढी बना लूँ क्या? नाई की दुकान बन्द है।"

- आज एक फलवाले ने ग्राहक से पूछा, "दीदी जी? आखिरी बचा है, मुफ़्त में दे दूंगा। क्या कहती हैं जी?"

- आज एक बिना नहाये गन्धाते टिप्पणीकार ने एक ओवर-पर्फ़्यूम्ड ब्लॉगर से कहा, "कब तक अपना रोना रोते रहोगे? आखिरी टिप्पणी दे तो दी, फिर भी कहते हो, सुधरने का मौका नहीं मिला।"

- एक बोगस साइट ने हमारे ब्लॉग का मूल्य एक मिलियन डॉलर आंका है। अफ़सोस कि अमेरिकी संस्था के प्लैटफॉर्म/सर्वर पर बने इस ब्लॉगर का पैसा भी अमेरिका ही जाता है। क्या हमारे स्विस खाते में नहीं जा सकता?

- यह हमारी सांख्यिकीय पोस्ट है। हमने दो साल में अपने ब्लॉग पर 20 लोगों को 2000 गालियाँ दीं और 200 को बैन किया।

- हिन्दी ब्लॉगिंग में काफ़ी गुटबन्दी है। कुछ सीनियर डॉक्टर ब्लॉगर ऐसा कहते हैं कि हमारा क्लिनिकल डिप्रैशन और बाइपोलर डिसऑर्डर इलाज के बिना ठीक नहीं हो सकता है। हमने भी दृढ प्रतिज्ञा कर ली है कि हम अपनी बीमारियाँ ब्लॉगिंग से ही ठीक करके दिखायेंगे। एक पाठक ने अपना स्कीज़ोफ़्रीनिया भी ऐसे ही ठीक किया था। और फिर हम तो आत्माकल्प वाली मृत-संजीवनी बूटी भी पीते हैं।

- पिछले 250 आलेखों की तरह इस आलेख को भी हमारा अंतिम आलेख समझा जाये। पिछले सौ हफ़्तों की तरह इस हफ़्ते फ़िर हम टंकी पर उछलेंगे। आप मनायेंगे तो हम उतर आयेंगे। किसी ने नहीं मनाया तो हम अपनी बेनामी पहचानों का प्रयोग कर लेंगे।

 - ज़िन्दगी और मौत से लड़ते एक ब्लॉगर से जब हमने हमारे ब्लॉग पर टिप्पणी न करने के लिये कई बार शिकायत की तो उन्होंने यह बात एक पोस्ट में लगा दी। हमेशा की तरह हम यहाँ भी बुरा मान गये। हमने उन्हें कह दिया कि हमारे लिये आप जीते जी मर चुके। वैसे बुज़ुर्गों के लिये हमारे दिल में बड़ा सम्मान है। अगर कभी हम अपनी गुस्से की बीमारी के कारण उनका अपमान करते भी हैं तो दवा खाने पर सामान्य होते ही उनके सम्मान में एक पोस्ट लिखकर माफ़ी भी मांग लेते हैं। दवा का असर निकलते ही फिर से उन्हें बुरी-भली कह देते हैं।

 - हम एक लिस्ट बना रहे हैं जिसमें उन लोगों का नाम लिखेंगे जो कहते हैं कि हम जल्दी और बेबात भड़क जाते हैं। जो हमें गुस्सैल कहते हैं उन सब के खिलाफ़ हम पाँच-पाँच पोस्ट लिखेंगे। इससे हमारी पोस्ट संख्या भी बढ़ जायेगी।

 - किस-किस को बैन करें हम?! हर ब्लॉगर हमसे जलता है? जिसने हमें ब्लॉगिंग सिखाई वह भी, जो हमें अपनी शिक्षा का सदुपयोग करने को कहता है वह भी, और जिसका ईमेल खाता हमने खुलाया वह भी।

 - समाज सेवा के लिये हम अपने ऐक्स मित्र के सम्मान में "गप्पू पसीना खास हो गया" शीर्षक से एक नई पोस्ट लिखेंगे।

 - कुछेक ब्लॉगर मन्दिरों और ऐतिहासिक बिल्डिंगों के अरोचक लेख लिखते हैं। हमने उन्हें आगाह करके वहाँ जाना बन्द कर दिया है। आशा है कि वे अपना अन्दाज़ बदलेंगे।

 - पोस्ट ग्रेजुएट हकीम तो हम पहले से हैं, अब तो नीम चढ़ा करेला भी खाते हैं।

कुत्ता-पालकों की सहायतार्थ
 - एक ब्लॉगर ने "अपने कुत्ते कैसे चरायें" शीर्षक से एक पोस्ट लिखी है। हमें लगता है कि यह हमारे खिलाफ़ एक साज़िश है। इससे पहले हम "अपना ड्रैगन ट्रेन कैसे करें" फ़िल्म पर भी अपनी आपत्ति दर्ज़ करा चुके हैं।

- मेरे ब्लॉग पर हिन्दी की बात न करें, अच्छी हिन्दी पढनी है तो किसी हिन्दी पीएचडी के ब्लॉग पर तशरीफ़ ले जायें। आप भी यहाँ बैन किये जाते हैं। और आप भी ... और आप भी।

- और कोई ब्लॉगर होता तो आपकी टिप्पणी मॉडरेट करके तलने के लिये छोड़ देता लेकिन हम उसका उपयोग रॉंग-इंटरप्रिटेशन करके अपने अति-उत्साही पाठकों को आपके खिलाफ़ भड़काने के लिये करेंगे।

- आजकल हम भाषा की शालीनता पर आलेख लिख रहे हैं, इसी शृंखला में दूसरे गुटों के बदतमीज़, बेहया, बेशर्म, बेग़ैरत, नालायक, नामाकूल, नामुराद ब्लॉगर की शान में मेरा विनम्र आलेख पढिये।

 - " विरोधीपक्ष के प्राणियों को बार्कीकरण करने दीजिये। आप तो अपने आँख-कान बन्द करके हमारी भाषा की तारीफ़ कीजिये वरना ... एक और बैन।

 - क्या कहा? आप राइट थे? तो लैफ़्ट टर्न लेकर निकल लीजिये और अपनी ऊर्जा इस ब्लॉग पर बर्बाद मत कीजिये।

 - हमारे भेजे में बचपन से मियादी डाइबिटीज़ है। हमारे कड़वे लेख पर आयी टिप्पणियों में इतनी मिठास थी कि हमारे बर्दाश्त की क्षमता के बाहर थी। आज हमें इंसुलिन की अतिरिक्त डोज़ लेनी पड़ी। अगली पोस्ट पर हम कमेंट ऑप्शन बन्द करने पर विचार करेंगे।

 - बहुत कम ब्लॉगर हैं जो हमारी तरह सीरियस ब्लॉगिंग करते हैं। हम तो हर टिप्पणी पढकर सीरियस हो जाते हैं और एक जवाबी पोस्ट लिख कर कान के नीचे "झन्नाट" मारते हैं ताकि हिन्दी ब्लॉगिंग का स्तर इसी प्रकार ऊँचा उठता रहे।

 - सारा ब्लॉग जगत सैडिस्टिक हो गया है। जिन्हें हमने रोज़ अपशब्द कहे उनमें से कुछ की हिम्मत बढती जा रही है। सब लोग हमारी व्यथा और अपमान पर व्यंग्यात्मक प्रविष्टियाँ लिखते हैं। उनकी कक्षा शीघ्र ही ली जायेगी।

- हम ब्लॉगिंग का तूफ़ान हैं, कहीं आप भी खुद को आंधी तो नहीं समझ रहे?

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* कहें खेत की सुनैं खलिहान की
* हिन्दी ब्लॉगिंग में विश्वसनीयता का संकट
* अंतर्राष्ट्रीय निर्गुट अद्रोही सर्व-ब्लॉगर संस्था
* अपोस्ट से आगे - कुपोस्ट तक