Tuesday, January 17, 2012

कितने सवाल हैं लाजवाब?

हर सवाल लाजवाब
भारत एक महान राष्ट्र है। यहाँ का हर व्यक्ति महान है। हर कोई देश-सेवा, भाषा-सेवा, जाति-सेवा, धर्म-सेवा, ये सेवा, वो सेवा आदि के बोझ से कुचला जा रहा है। लेकिन देश है कि फिर भी समस्याओं से घिरा है। दहेज और रिश्वत जैसी परम्परायें हर ओर कुंडली मारे बैठी हैं मगर हमने कसम खा ली है कि भ्रष्टाचार को मिटाकर ही मानेंगे। कोई भ्रष्टाचार मिटाने के लिये सारे टैक्स हटाने की सलाह दे रहा है और कोई सारे राजनीतिक दलों पर प्रतिबन्ध लगाकर दो दलीय परम्परा आरम्भ करने के पक्ष में है। जन्मतिथि ग़लत लिखाने वाला भी भ्रष्टाचार मिटा रहा है और कैपिटेशन फ़ी देकर शिक्षा पाने वाला भी, आरक्षण से प्रमोशन पाने वाला भी और आरक्षण के लिए थोक में रेलें रोकने वाला भी। मज़ेदार वाकया तब देखने को मिला जब बलात्कार के आरोपी को मौत की सज़ा दिलाने की वकालत करने वाले व्यक्ति का अनशन तुड़ाने आये लोगों में वे भी दिखे जिन पर देश-विदेश में कम से कम तीन बलात्कार के आरोप लगे हैं।

जिनकी सात पीढियों में एक व्यक्ति भी सेना में नहीं गया वे धर्म, देश, जनसेवा के लिये दनादन ये सेना, वो सेना बनाये जा रहे हैं मगर किसी प्रकार के सकारात्मक परिवर्तन की बात में साथ न आ पाने के लिये उनके पास ठोस कारण हैं।  एक मित्र की दीवार पर बड़ा रोचक सन्देश देखने को मिला

अन्ना जी मै देश हित के लिए आपका साथ भी दे देता. पर क्या करूँ हमारे सिलसिले भगत और सुभाष से मिलते है. हम हमारी मांगो के लिए अनशन नहीं करते ... 

न चाहते हुए भी याद दिलाना पड़ा कि आपके सिलसिले जिन हुतात्माओं से मिलते हैं उनके बारे में पढेंगे तो पता चलेगा कि वे दोनों आपके जन्म से पहले ही अनशन पर बैठ चुके हैं। भगत सिंह ने मियाँवाली जेल में 1929 में अनशन किया था और सुभाषचन्द्र बोस ने 1939-40 में नज़रबन्दी से पहले अनशन किया था। भगत सिंह ने तो साथियों के साथ 116 दिन के अनशन का रिकार्ड स्थापित किया था। "बाघा जतिन" जतिन दास की मृत्यु इसी अनशन में हुई थी। मगर किया क्या जाये? संतोषः परमो धर्मः के देश में असंतोष तो बढ ही रहा है, भोली-भाली जनता के असंतोष को भड़काकर उसका राजनीतिक लाभ लेने वाले ठग भी बढते जा रहे हैं। और हम भी एक ऑटो में पढी अनाम कवि की सामयिक शायरी की निम्न पंक्तियों को कृतार्थ करने में लगे हैं:

कितने कमजर्फ हैं गुब्बारे चंद साँसों में फूल जाते हैं 
थोड़ा ऊपर उठ जायें तो अपनी औकात भूल जाते हैं

कुछ जगह यह चिंता भी प्रकट की जा रही है कि सिगरेट जैसे आविष्कारों से भारतीय युवा पीढी पश्चिमी बुराइयों की ओर धकेली जा रही है। मासूम चिंतक जी को नहीं पता कि हुक्का भारत में आविष्कृत हुआ था। उन्हें यह जानकारी भी नहीं है कि चिलम-गांजे-भांग की भारतीय परम्परा इतनी देसी है कि साधुजनों के पास भी मिल जायेगी।

फरवरी का महीना आ रहा है। अंग्रेज़ी पतलून वाले नौजवानों के बिना जनेऊ-चोटी वाले झुंड के झुंड भारतीय संस्कृति के रक्षार्थ अबलाओं को लतिया कर वैलेंटाइंस डे की अपसंस्कृति के विरोध में कानून हाथ में लेने के लिये उस रास्ते पर निकलने वाले हैं जो तालेबान-टाइप अराजक तत्वों ने बुर्क़ा न पहनने वाली लड़कियों के मुख पर तेज़ाब फ़ेंककर दिखाया है।

किसी को विश्व बंधुत्व, सहिष्णुता और धर्म-निरपेक्षता खतरे में दिख रही है और किसी को गाय, धर्म, भाषा, और संस्कृति। हर बन्दा भयभीत है। और भयातुर आदमी जो भी करे जायज़ होता है। वह दूसरे लोगों की, या राज्य की सम्पत्ति जला सकता है, अपनी मातृभाषा के अतिरिक्त किसी भी भाषा में लिखे साइनबोर्ड पर कालिख पोत सकता है, तोड़फ़ोड, हत्या आदि कुछ भी कर सकता है। समाजहित में सब जायज़ है।

इधर धुर वामपंथी विचारधारा के कुछ मित्र लम्बे समय से डफली पीटकर भगत सिंह को कम्युनिस्ट और अन्य क्रांतिकारियों को साम्प्रदायिक साबित करने में लगे हुए हैं वहीं उनके मुकाबले में स्वाभिमानवादी भी अपना शंख बजा रहे हैं। हाल में एक विडियो-महानायक को कहते सुना कि इस्कॉन (ISKCON) नामक अमेरिकी संस्था भारत में मन्दिर बनाकर हर साल भारी मुनाफ़ा विदेश ले जा रही है। ज्ञातव्य है कि इस्क़ॉन का मुख्यालय चैतन्य महाप्रभु की जन्मस्थली मायापुर, भारत में है। प्रवचनकर्ता ने भावुक होकर यह भी बताया कि उसने तात्या टोपे के वंशजों को कानपुर में चाय बेचते देखा था। न किसी ने यह पूछा न किसी ने बताया कि यदि टोपे परिवार का वर्तमान व्यवसाय बुरा है तो उनके उत्थान के लिये वे भाषणवीर क्या करने वाले हैं। इससे पहले कई मित्र दुर्गा भाभी की तथाकथित "दुर्दशा" के बारे में यही लगभग यही (और पूर्णतः असत्य) कहानी सुना चुके हैं। तात्या टोपे के वंशजों की जानकारी उनकी वेबसाइट पर उपलब्ध है।

विकास की बात चलने पर चीनी तानाशाही के साथ हिटलर महान के गुणगान भी अक्सर कान में पड़ जाते हैं। साथ ही सारी दुनिया, विशेषकर जर्मनी पर भारतीय संस्कृति के प्रभाव के बारे में अक्सर सुनने को मिलता है। परिचितों की एक बैठक में एक आगंतुक जर्मन वायुसेवा के नाम "लुफ़्तहंसा" के आधार पर यह सिद्ध कर रहे थे कि जर्मनी पर भारत का कितना प्रभाव था। बताने लगे कि जहाज़ किसी हंस की तरह आकाश में जाकर लुप्त सा हो जाता था इसलिये लुफ़्तहंसा (= लुप्त + हंस) कहलाया गया। वास्तविक हंसा की जानकारी अंग्रेज़ी में यहाँ है

बची-खुची कसर चेन-ईमेलों द्वारा निकाली जा रही है। कहीं हिटलर को शाकाहारी बताया जा रहा है और कहीं चालीस साल की उम्र में बाज़ों का पुनर्जन्म हो रहा है। एक और दोस्त हैं, जिन्हें वैज्ञानिक धमाचौकड़ी मचाने का बड़ा शौक है। बताने लगे ऐतिहासिक मस्जिद के उस जादुई कुएँ के बारे में जिस पर मांगी गयी हर मन्नत पूरी होती है। एक शरारती बच्चे ने पूछ लिया, "अगर मैं मन्नत मांगूँ कि अब तक की सारी मन्नतें झूठी साबित हो जायें तो क्या होगा?" यह सवाल भी रह गया लाजवाब!
सम्बन्धित कड़ियाँ
* विश्वसनीयता का संकट
* दूर के इतिहासकार
* मैजस्टिक मूंछें
नायक किस मिट्टी से बनते हैं?
क्रोध कमज़ोरी है, मन्यु शक्ति है
* तात्या टोपे के वंशज

Saturday, January 14, 2012

मकर संक्रांति की शुभकामनायें!

पिट्सबर्ग में उत्तरायण की सुबह के कुछ दृश्य और बचपन में जम्मू के लोहड़ी समारोहों में सुना एक गीत, जैसा, जितना याद रहा ...
हुल्ले नी माइ हुल्ले
दो बेरी पत्ता झुल्ले
दो झुल्ल पयीं खजूराँ
खजूराँ सुट्ट्या मेवा
एस मुंडे कर मगेवा
मुंडे दी वोटी निक्कदी
ओ खान्दी चूरी कुटदी
कुट कुट भरया थाल
वोटी बावे ननदना नाल
निन्नाँ ते वड़ी परजायी
ओ कुड़मा दे कर आयी


खिड़की से बाहर उत्तरायणी प्रभात
पिछले वर्ष की लोहड़ी पर मैं भारत में था। लोहड़ी 2011 की शाम कुछ प्यारे-प्यारे बच्चों के साथ

Thursday, January 12, 2012

सीमा - कविता

कैसा होता है प्यार? जीत के सब बस हार
सीमा तुम जकड़े थीं मुझको 
अपनी कोमल बाँहों में 
भूल के सुधबुध खोया था मैं 
सपनीली राहों में 
छल कैसा सच्चा सा था वह 
जाने कैसे उबर सका 
सत्य अनावृत देखा मैंने 
अब तक था जो दबा ढंका 
सीमा में सिमटा मैं अब तक 
था कितना संकीर्ण हुआ 
अज्ञ रहा जब तक असीम ने 
मुझको नहीं छुआ।