Wednesday, January 9, 2013

इंडिया बनाम भारत बनाम महाभारत ...

मशरिक़, भारत, इंडिया, और हिंदुस्तान
ये पूरब है पूरब वाले हर जान की कीमत जानते हैं ...
अपराध इतना शर्मनाक था कि कुछ बोलते नहीं बन रहा था। इस घटना ने लोगों को ऐसी गहरी चोट पहुँचाई कि कभी न बोलने वाले भी कराह उठे। सारा देश तो मुखरित हुआ ही देश के बाहर भी लोगों ने इस घटना का सार्वजनिक विरोध किया। फिर भी कई लोग ऐसा बोले कि सुन कर तन बदन में आग लग गई।

राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत ने दिल्ली मे "निर्भया" के विरुद्ध हुए दानवी कृत्य को "भारत बनाम इंडिया" का परिणाम बताया तो समाजवादी पार्टी के अबू आजमी भी फटाफट उनके समर्थन में आ खड़े हुए। अबू आजमी ने कहा कि महिलाओं को कुछ ज्यादा ही आजादी दे दी गई है। ऐसी आजादी शहरों में ज्यादा है। इसी वजह से यौन-अपराध की घटनाएँ बढ़ रही हैं। उन्होंने कहा कि भारतीय संस्कृति अविवाहित महिलाओं को गैर मर्दो के साथ घूमने की अनुमति नहीं देती है। अबू आजमी ने कहा कि जहाँ वेस्टर्न कल्चर का प्रभाव कम है वहाँ ऐसे मामले भी कम हैं।

ये हैं देश के राष्ट्रपति के सपूत!
इससे पहले राष्ट्रपति के पुत्र एवं कॉंग्रेस के सांसद अभिजीत मुखर्जी ने राजधानी दिल्ली के सामूहिक बलात्कार के खिलाफ होने वाले प्रदर्शनों में शामिल महिलाओं को अत्यधिक रंगी पुती बताकर विवाद खड़ा कर दिया। जनता की तीव्र प्रतिक्रिया के बाद अभिजीत ने अपनी टिप्पणी वापस ले ली। इसी प्रकार मध्य प्रदेश सरकार में मंत्री कैलाश विजयवर्गीय पहले बेतुके और संवेदनहीन बयान देकर फिर उनके लिए माफी भी मांग चुके हैं। विश्व हिंदू परिषद के अंतरराष्ट्रीय सलाहकार अशोक सिंघल ने भी अपराध का ठीकरा महिलाओं के सिर फोड़ते हुए पाश्चात्य जीवन शैली को ही दुष्कर्म और यौन उत्पीड़न का जिम्मेदार ठहराकर अमेरिका की नकल पर अपनाए गए रहन-सहन को खतरे की घंटी बताया।

इंडिया कहें, हिंदुस्तान कहें या भारत, सच्चाई यह है कि ये अपराध इसलिए होते हैं कि भारत भर में प्रशासन जैसी कोई चीज़ नहीं है। हर तरफ रिश्वतखोरी, लालच, दुश्चरित्र और अव्यवस्था का बोलबाला है। जिस पश्चिमी संस्कृति को हमारे नेता गाली देते नहीं थकते वहाँ एक आम आदमी अपना पूरा जीवन भ्रष्टाचार को छूए बिना आराम से गुज़ार सकता है। उन देशों में अकेली लड़कियाँ आधी रात में भी घर से बाहर निकलने से नहीं डरतीं जबकि सीता-सावित्री (और नूरजहाँ?) के देश में लड़कियाँ दिन में भी सुरक्षित नहीं हैं। मैंने गाँव और शहर दोनों खूब देखे हैं और मेरा व्यक्तिगत अनुभव भी यही है कि ग्रामीण क्षेत्रों में तो कानून नाम का जीव उतना भी नहीं दिखता जितना शहरों में। वर्ष 1983 से 2009 के बीच बलात्कार के दोषी पाये गए दुष्कर्म-आरोपियों में तीन-चौथाई मामले ग्रामीण क्षेत्र के थे। देश भर में केवल बलात्कार के ही हजारों मामले अभी भी न्याय के इंतज़ार में लटके हुए हैं।
अहल्या द्रौपदी तारा सीता मंदोदरी तथा
पंचकन्‍या स्‍मरेन्नित्‍यं महापातकनाशनम्‌
भारत में राजनीति तो पहले ही इतनी बदनाम है कि विभिन्न राजनीतिक विचारधाराओं के नमूनों में से किसी से भी संतुलित कथन की कोई उम्मीद शायद ही किसी को रही हो। ऐसे संजीदा मौके पर भी ऐसी बातें करने वालों को न तो भारत के बारे में पता है न पश्चिम के बारे में, न नारियों के बारे में, न अपराधियों के, और न ही व्यवस्था के बारे में कोई अंदाज़ा है। तानाशाही प्रवृत्ति के राजनेताओं से महिलाओं या पुरुषों की आज़ादी की बात की तो अपेक्षा भी करना एक घटिया मज़ाक जैसा है। व्यक्तिगत स्वतन्त्रता, विशेषकर महिलाओं के प्रति ऐसी सोच इन लोगों की मानसिकता के पिछड़ेपन के अलावा क्या दर्शा सकती है? लेकिन जले पर सबसे ज़्यादा नमक छिड़का अपने को भारतीय संस्कृति का प्रचारक बताने वाले बाबा आसाराम ने। आसाराम ने एक हाथ से ताली न बजने की बात कहकर मृतका का अपमान तो किया ही, बलात्‍कारियों के लिए कड़े कानून का भी इस आधार पर विरोध किया कि कानून का दुरुपयोग हो सकता है। आधुनिक बाबाओं का पक्षधर तो मैं कभी नहीं था लेकिन इस निर्दय और बचकाने बयान के बाद तो उनके भक्तों की आँखें भी खुल जानी चाहिए।
घटना के लिए वे शराबी पाँच-छह लोग ही दोषी नहीं थे। ताली दोनों हाथों से बजती है। छात्रा अपने आप को बचाने के लिए किसी को भाई बना लेती, पैर पड़ती और बचने की कोशिश करती। ~आसाराम बापू
पश्चिम, मग़रिब, या वैस्ट
पश्चिमी संस्कृति में रिश्वत लेकर गलत पता लिखाकर बसों के परमिट नहीं बनते, न ही पुलिस नियमित रूप से हफ्ता वसूलकर इन हत्यारों को सड़क पर ऑटो या बस लेकर बेफिक्री से घूमने देती है। न तो वहाँ लड़कियों को घर से बाहर कदम रखते हुए सहमना पड़ता हैं और न ही उनके प्रति अपराध होने पर राजनीतिक और धार्मिक नेता अपराध रोकने के बजाय उल्टे उन्हें ही सीख देने निकल पड़ते हैं। लेकिन बात इतने पर ही नहीं रुकती। पश्चिमी देशों के कानून के अनुसार सड़क पर दुर्घटनाग्रस्त व्यक्ति दिखने पर पुलिस को सूचना न देना गंभीर अपराध है। कई राज्यों में पीड़ित की यथासंभव सहायता करना भी अपेक्षित है। इसके उलट भारत में अधिकांश दुर्घटनाग्रस्त लोग दुर्घटना से कम बल्कि दूसरे लोगों की बेशर्मी और पुलिस के निकम्मेपन के कारण ही मरते हैं। खुदा न खास्ता पुलिस घटनास्थल पर पीड़ित के जीवित रहते हुए पहुँच भी जाये तो अव्वल तो वह आपातस्थिति के लिए प्रशिक्षित और तैयार ही नहीं होती है, ऊपर से उसके पास "हमारे क्षेत्र में नहीं" का बहाना तैयार रहता है। किसी व्यक्ति को आपातकालीन सहायता देने वाले व्यक्ति को कोई कानूनी अडचन या खतरा नहीं हो यह तय करने के लिए भारत या इंडिया के कानून और कानून के रखवालों का पता नहीं लेकिन पश्चिमी देशों में "गुड समैरिटन लॉं" के नियम उनके सम्मान और सुरक्षा का पूरा ख्याल रखते हैं।

भारत की तारीफ में कसीदे पढ़ने वाले अक्सर हमारी पारिवारिक व्यवस्था और बड़ों के सम्मान का उदाहरण ज़रूर देते हैं। अपने से बड़ों के पाँव पड़ना भारतीय संस्कृति की विशेषता है। अब ये बड़े किसी भी रूप में हो सकते हैं। उत्तर प्रदेश, बंगाल या तमिलनाडु के मुख्यमंत्री हों या कॉंग्रेस की अध्यक्षा, पाँव पड़नेवालों की कतार देखी जा सकती है। बड़े-बड़े बाबा गुरुपूर्णिमा पर अपने गुरु के पाँव पड़े रहने का पुण्य त्यागकर अपने शिष्यों को अपना चरणामृत उपलब्ध कराने में जुट जाते हैं। बच्चे बचपन से यही देखकर बड़े होते हैं कि बड़े के पाँव पड़ना और छोटे का कान मरोड़ना सहज-स्वीकार्य है। ताकतवर के सामने निर्बल का झुकना सामान्य बात बन जाती है। पश्चिम में इस प्रकार की हिरार्की को चुनौती मिलना सामान्य बात है। मेरे कई अध्यापक मुझे इसलिए नापसंद करते थे क्योंकि मैं वह सवाल पूछ लेता था जिसके लिए वे पहले से तैयार नहीं होते थे। यकीन मानिए भारत में यह आसान नहीं था। लेकिन यहां पश्चिम में यह हर कक्षा में होता है और व्यक्तिगत स्वतन्त्रता यहाँ सहज स्वीकार्य है, ठीक उसी रूप में जिसमें हमारे मनीषियों ने कल्पना की थी। सच पूछिए तो जो प्राचीन गौरवमय भारतीय संस्कृति हमारे यहाँ मुझे सिर्फ किताबों में मिली वह यहाँ हर ओर बिखरी हुई है। आश्चर्य नहीं कि पश्चिम में स्वतन्त्रता का अर्थ उच्छृंखलता नहीं होता। किसी की आँखें ही बंद हों तो कोई क्या करे?
दण्डः शास्ति प्रजाः सर्वा दण्ड एवाभिरक्षति।
दण्डः सुप्तेषु जागर्ति दण्डं धर्मं विदुर्बुधाः।।
दंड ही शासन करता है। दंड ही रक्षा करता है। जब सब सोते रहते हैं तो दंड ही जागता है। बुद्धिमानों ने दंड को ही धर्म कहा है। (अनुवाद आभार: अजित वडनेरकर)

पश्चिमी संस्कृति बच्चों की सुरक्षा पर कितनी गंभीर है इसकी झलक हम लोग पिछले दिनों देख ही चुके हैं जब नॉर्वे में दो भारतीय दम्पति अपने बच्चों के साथ समुचित व्यवहार न करने के आरोप में चर्चा में थे। रोज़ सुबह दफ्तर जाते हुए देखता हूँ कि चुंगी स्कूल में पढ़ने वाले बच्चों की स्कूल बस खड़ी हो तो सड़क के दोनों ओर का ट्रैफिक तब तक पूर्णतया रुका रहता है जब तक कि सभी बच्चे सुरक्षित चढ़-उतर न जाएँ। लेकिन इसी "पश्चिमी" संस्कृति की दण्ड व्यवस्था में कई गुनाह ऐसे भी हैं जिनके साबित होने पर नाबालिग अपराधियों को बालिग मानकर भी मुकदमा चलाया जा सकता है और बहुत सी स्थितियों में ऐसा हुआ भी है। बच्चे जल्दी बड़े हो रहे हैं, शताब्दी पुराने क़ानूनों मे बदलाव की ज़रूरत है। वोट देने की उम्र बदलवाने को तो राजनेता फटाफट आगे आते हैं, बाकी क्षेत्रों मे वय-सुधार क्यों नहीं? चिंतन हो, वार्ता हो, सुधार भी हो। निर्भया के प्रति हुए अपराध के बाद तो ऐसे सुधारों कि आवश्यकता को नकारने का कोई बहाना नहीं बचता है।

मैंने शायद पहले कभी लिखा होगा कि विनम्रता क्या होती है इसे पूर्व के "पश्चिमी" देश जापान गए बिना समझना कठिन है। उसी जापान में जब मैंने अपनी एक अति विनम्र सहयोगी से यह जानना चाहा कि एक पूरा का पूरा राष्ट्र विनम्रता के सागर में किस तरह डूब सका तो उसने उसी विनम्रता के साथ बताया, "हम लोग तो एकदम जंगली थे ..."

"फिर?"

"फिर भारत से धर्म और सभ्यता यहाँ पहुँची और हम बदल गए।"

मैं यही सोच रहा था कि भारतीय सभ्यता के प्रति इतना आदर रखने वाले व्यक्ति जब दिल्ली हवाई अड्डे से बाहर आकर एक टैक्सी में बैठते होंगे तब जो सच्चाई उनके सामने आती होगी ... आगे कल्पना नहीं कर सका।
हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितंमुखं
तत्‌ त्वं पूषन् अपावृणु सत्यधर्माय द्रृष्टये
सत्य का मुख स्वर्णिम पात्र से ढँका है, कृपया सत्य को उजागर करें।

आँख मूंदकर अपनी हर कमी, हर अपराध का दोष अंग्रेजों या पश्चिम को देने वालों ... बख्श दो इस महान देश को!

* संबन्धित कड़ियाँ *
- अहिसा परमो धर्मः
- कितने सवाल हैं लाजवाब?
- 2013 में आशा की किरण?
- बलात्कार, धर्म और भय

[आभार: चित्र व सूचनाएँ विभिन्न समाचार स्रोतों से]

Sunday, December 30, 2012

2013 में आशा की किरण?

हमें खबर है खबीसों के हर ठिकाने की
शरीके जुर्म न होते तो मुखबिरी करते
 (~ हसन निसार?)

विगत सप्ताह कठिनाई भरे कहे जा सकते हैं। पहले एक व्यक्तिगत क्षति हुई। उसके बाद तो बुरी खबरों की जैसे बाढ़ ही आ गई। न्यूटाउन, कनेटीकट निवासी एक 20 वर्षीय असंतुलित युवा ने पहले अपनी माँ की क्रूर हत्या की और फिर उन्हीं की मारक राइफलें लेकर नन्हें बच्चों के "सैंडी हुक एलीमेंट्री" स्कूल पहुँचकर 20 बच्चों और 6 वयस्कों की निर्मम हत्या कर दी।

जब तक सँभल पाते दिल्ली बलात्कार कांड की वहशियत की परतें उघड़नी आरंभ हो गईं। परिवहन प्राधिकरण और दिल्ली पुलिस के भ्रष्टाचारी गँठजोड़ से शायद ही कोई दिल्ली वाला अपरिचित हो। प्राइवेट बसें हों या ऑटो रिक्शा, हाल बुरा ही है क्योंकि देश में अपराधी हर जगह निर्भय होकर घूमते हैं। बची-खुची कसर पूरी होती है हर कोने पर खुली "सरकारी" शराब की दुकान और हर फुटपाथ पर लगे अंडे-चिकन-सिरी-पाये के ठेलों पर जमी अड्डेबाजी से। समझना कठिन नहीं है कि संस्कारहीन परिवारों के बिगड़े नौजवानों के लिए यह माहौल कल्पवृक्ष की तरह काम करता है। क्या कोई भी कभी भी पकड़ा नहीं जाता? इस बात का जवाब काका हाथरसी के शब्दों में - रिश्वत लेते पकड़ा गया तो रिश्वत देकर छूट जा।

दर्द की जो इंतहा इस समय हुई है, इससे पहले उसका अहसास सन 2006 में निठारी कांड के समय हुआ था जब स्थानीय महिला थानेदार को उपहार में एक कार देने वाले एक अरबपति की कोठी में दिन दहाड़े मासूम बच्चों का यौन शोषण, प्रताड़न, करने के बाद हत्या और मांसभक्षण नियमित रूप से होता रहा, और मृतावशेष घर के नजदीकी नाले में फेंके जाते रहे। शीशे की तरह स्पष्ट कांड में भी आरोपियों के मुकदमे आज भी चल रहे हैं। कुछ पीड़ितों के साथ यौन संसर्ग करने वाले धनिक के खिलाफ अभी तक कोई सज़ा सुनाये जाने की खबर मुझे नहीं है बल्कि एक मुकदमे में एक पीड़िता के मजदूर पिता के विरुद्ध समय पर गवाही के लिए अदालत न पहुँच पाने के आरोप में कानूनी कार्यवाही अवश्य हुई है। देश की मौजूदा कानून व्यवस्था और उसके सुधार के लिए किए जा रहे प्रयत्नों की झलक दिखने के लिए वह एक कांड ही काफी है।

हर ज़िम्मेदारी सरकार पर डाल देने की हमारी प्रवृत्ति पर भी काफी कुछ पढ़ने को मिला। व्यक्ति एक दूसरे से मिलकर समाज, समुदाय या सरकार इसीलिए बनाते हैं कि उन्हें हर समय अपना काम छोडकर अपने सर की रक्षा करने के लिए न बैठे रहना पड़े। मैं बार-बार कहता रहा हूँ कि कानून-व्यवस्था बनाना सरकार की पहली जिम्मेदारियों में से एक है और सभी उन्नत राष्ट्रों की सरकारें यह काम बखूबी करती रही हैं, तभी वे राष्ट्र उन्नति कर सके। आईपीएस-आईएएस अधिकारियों के सबसे महंगे जाल के बावजूद, भारत में न केवल व्यवस्था का, बल्कि सरकार और प्रशासन का ही पूर्णाभाव दिखाता है। जनता की गाढ़ी कमाई पर ऐश करने वाले नेता (जन-प्रतिनिधि?) तो आने के तीन मिलते हैं लेकिन प्रशासन अलोप है। समय आ गया है जब व्यवस्था बनाने की बात हो। न्याय और प्रशासन होगा तो रिश्वतखोरी, हफ्ता वसूली, पुलिस दमन से लेकर राजनीतिज्ञों की बद-दिमागी और माओवादियों की रंगदारी जैसी समस्याएँ भी भस्मासुर बनाने से पहले ही नियंत्रित की जा सकेंगी।

रही बात सरकार से उम्मीद रखने की, तो यह बात हम सबको, खासकर उन लोगों को समझनी चाहिए जो भूत, भविष्य या वर्तमान में सरकार का भाग हैं - कि सरकार से आशा रखना जायज़ ही नहीं अपेक्षित भी है। सरकारें देश के दुर्लभ संसाधनों से चलती हैं ताकि हर व्यक्ति को हर रोज़ हर जगह की बाधाओं और उनके प्रबंधन के बंधन से मुक्ति मिल सके। सरकार के दो आधारभूत लक्षण भारत में लापता हैं -
1. सरकार दिग्दर्शन के साथ न्याय, प्रशासन, व्यवस्था भी संभालती है|
2. कम से कम लोकतन्त्र में, सरकार अपने काम में जनता को भी साथ लेकर चलती है।

सरकार में बैठे लोग - नेता और नौकरशाह, दोनों - अपने अधकचरे और स्वार्थी निर्णय जनता पर थोपना रोककर यह जानने का प्रयास करें कि जनहित कहां है। व्यवस्था में दैनंदिन प्रशासन के साथ त्वरित न्याय-व्यवस्था भी शामिल है यह याद दिलाने के लिए ही निठारी का ज़िक्र किया था लेकिन कानून के एक भारी-भरकम खंभे के ज़िक्र के बिना शायद यह बात अधूरी रह जाये इसलिए एक सुपर-वकील का ज़िक्र ज़रूरी है।

भगवान राम के जन्मस्थान पर मंदिर बनाने का दावा करने वाले दल में कानून मंत्री रहे जेठमलानी पिछले दिनों मर्यादा पुरुषोत्तम "राम" पर अपनी टिप्पणी के कारण एक बार फिर चर्चा में आए थे। वैसे इसी शख्स ने पाकिस्तान से आए हैवानी आतंकवादियों की २६ नवम्बर की कारगुजारी (मुम्बई ऑपरेशन) के दौरान ही बिना किसी जांच के पकिस्तान को आरोप-मुक्त भी कर दिया था। लेकिन मैं इस आदमी का एक दीगर बयान कभी नहीं भूल पाता जो भारत में चर्चा के लायक नहीं समझा गया था।
आप जानते हैं कि आपके मुवक्किल ने हत्या की है वो अपराधी है लेकिन आपको तो उसे बचाना ही पड़ेगा. फ़र्ज़ करो कि मुझे मालूम है कि मेरे मुवक्किल ने अपराध किया है. मैं अदालत से कहूँगा कि साहब मेरे मुवक्किल को सज़ा देने के लिए ये सबूत काफ़ी नहीं हैं. मैं ऐसा नहीं कहूँगा कि मेरा मुवक्किल कहता है कि उसने ऐसा नहीं किया इसलिए वो निर्दोष है.ये हमारे पेशे की पाबंदी है. अगर मैं ऐसा करूँगा तो बार काउंसिल मेरे ख़िलाफ़ अनुशासनात्मक कार्रवाई कर सकता है. मुझे मालूम है कि मेरे मुवक्किल ने ऐसा किया है तो तो उसे बचाने के लिए मैं ऐसा नहीं कहूँगा कि किसी दूसरे ने अपराध किया है. आप झूठ नहीं बोल सकते बल्कि न्यायाधीश के सामने ये सिद्ध करने की कोशिश करेंगे कि सबूत पर्याप्त नहीं हैं. इस पेशे की भी अपनी सीमा है.
(~राम जेठमलानी)
सुपर-वकील साहब, अगर कानून में इतनी बड़ी खामी है तो उसका शोषण करने के बजाय उसे पाटने की दिशा में काम कीजिये। नियमपालक जनता के पक्ष में खड़े होइए। अब, सुपर-वकील की बात आई है तो एक सुपर-कॉप की याद भी स्वाभाविक ही है। जहां अधिकांश केंद्रीय कर्मचारी कश्मीर, पंजाब, असम और नागालैंड के दुष्कर क्षेत्रों में विपरीत परिस्थितियों में चुपचाप जान दे रहे थे, उन दिनों में भी अपने पूरे पुलिस करीयर में अधिकांश समय देश की राजधानी में बसे रहने वाली एक सुपर-कॉप अल्पकाल के लिए पूर्वोत्तर राज्य में गईं तभी "संयोग से" उनकी संतान का दाखिला दिल्ली के एक उच्च शिक्षा संस्थान में पूर्वोत्तर के कोटा में हो गया था। उसके बाद जब अगली बार उनके तबादले की बात चली तो वे अपने को पीड़ित बताकर अपनी "अखिल भारतीय ज़िम्मेदारी" के पद से तुरंत इस्तीफा देकर चली गईं और तब एक बार फिर खबर में आईं जब पता लगा कि उनकी अपनी जनसेवी संस्था उनके हवाई जहाज़ के किरायों के लिए दान में लिए जानेवाले पैसे में "मामूली" हेराफेरी करती रही है। दशकों तक दिल्ली पुलिस में रहते हुए, अपने ऊपर अनेक फिल्में बनवाने और कई पुरस्कार जीतने के बावजूद दिल्ली पुलिस का चरित्र बदलने में अक्षम रहने वाली इस अधिकारी को अचानक शायद कोई जादू का चिराग मिल गया है कि अब वे बाहर रहते हुए भी (अपनी उसी संस्था के द्वारा?) 90 दिनों में पुलिस का चरित्र बदल डालने का दावा कर रही हैं।

उदासी और विषाद के क्षणों में अलग-अलग तरह की बातें सुनने में आईं। कुछ अदरणीय मित्रों ने तो देश के वर्तमान हालात पर व्यथित होते हुए भ्रूण हत्या को भी जायज़ ठहरा दिया। लेकिन ऐसी बातें कहना भी उसी बेबसी (या कायरता) का एक रूप है जिसका दूसरा पक्ष पीड़ित से नज़रें बचाने से लेकर उसी को डांटने, दुतकारने या गलत ठहराने की ओर जाता है। जीवन में जीत ही सब कुछ नहीं है। अच्छे लोग भी चोट खाते हैं, बुद्धिमान भी असफल होते हैं। दुनिया में अन्याय है, ... और, कई बार वह जीतता हुआ भी लगता है। वही एहसास तो बदलना है। गिलास आधा खाली है या आधा भरा हुआ, इस दुविधा से बाहर निकालना है तो गिलास को पूरा भरने का प्रयास होना चाहिए। आगे बढ़ना ही है, ऊपर उठना ही होगा, एक बेहतर समाज की ओर, एक व्यवस्थित प्रशासन की ओर जहाँ "सर्वे भवन्तु सुखिना" का उद्घोष धरातलीय यथार्थ बन सके। सभ्यता का कोई विकल्प नहीं है।

मित्र ब्लॉगर गिरिजेश राव सर्वोच्च न्यायालय में "त्वरित न्याय" अदालतों के लिए याचिका बना रहे हैं। काजल कुमार जी ने इस बाबत एक ग्राफिक बनाया है जो इस पोस्ट में भी लगा हुआ है। अन्य मित्र भी अपने अपने तरीके से कुछ न कुछ कर ही रहे हैं। आपका श्रम सफल हो, कुछ बदले, कुछ बेहतर हो।

24 दिसंबर को बॉन (जर्मनी) में दो लोगों ने एक भारतीय युवक की ज़ुबान इसलिए काट ली कि वह मुसलमान नहीं था। पिछले गुरुवार को न्यूयॉर्क में एक युवती ने 46 वर्षीय सुनंदों सेन को चलती ट्रेन के आगे इसलिए धक्का दे दिया क्योंकि वह युवती हिन्दू और मुसलमानों से नफरत करती थी। विस्थापित देशभक्ति (मिसप्लेस्ड पैट्रियटिज्म) भी अहंकार जैसी ही एक बड़ी बुराई है। अपने को छोटे-छोटे गुटों में मत बाँटिये। बड़े उद्देश्य पर नज़र रखते हुए भी भले लोगों को छोटे-मोटे कन्सेशन देने में कोई गुरेज न करें, नफरत को मन में न आने दें, हिंसा से बचें। दल, मज़हब, विचारधारा, जाति आदि की स्वामिभक्ति की जगह सत्यनिष्ठा अपनाने का प्रयास चलता रहे तो काम शायद आसान बने और हमारा सम्मिलित दर्द भी कम हो!

निर्भया, दामिनी या (शिल्पा मेहता के शब्दों में) "अभिमन्यु" को मेरी विनम्र श्रद्धांजलि! उसकी पीड़ा हम मिटा न सके इसकी टीस मरते दम तक रहेगी लेकिन उस टीस को समूचे राष्ट्र ने महसूस किया है, यह भी कोई छोटी बात नहीं है। उस वीर नायिका के दुखद अवसान से इस निर्मम कांड का पटाक्षेप नहीं हुआ है। पूरा देश चिंतित है, शोकाकुल है लेकिन सुखद पक्ष यह है कि राष्ट्र चिंतन में भी लीन है। परिवर्तन अवश्य आयेगा, अपने आदर्श का अवमूल्यन मत कीजिये।

प्रथम विश्व युद्ध की हार से हतोत्साहित जर्मनों ने कम्युनिस्टों की गुंडागर्दी से परेशान होकर हिटलर जैसे दानव को अपना "फ्यूहरर" चुन लिया था। "हिन्दू" लोकतन्त्र से बचने के लिए पूर्वी बंगाल के मुसलमानों ने जिन्ना के पाकिस्तान को चुनने की गलती करके अपनी पीढ़ियाँ तबाह कर डालीं। हम भारतीय भी साँपनाथ से बचने को नागनाथ पालने की गलतियाँ बार-बार करते रहे हैं। वक़्त बुरा है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि एक बुराई मिटाने की आशा में हम दूसरी बुराइयों को न्योतते रहें। दुर्भाग्य से इस देश के जयचंदों ने अक्सर ऐसा किया। खुद भी उन्नत होइए और अपने आदर्शों में भी केवल उन्नत और विचारवान लोगों को ही जगह दीजिये। सम्पूर्ण क्रान्ति की आशा उस व्यक्ति से मत बांधिये जिसे यह भी नहीं पता कि देश का भूखा गरीब शीतलहर के दिन कैसे काटता है या बाढ़ में बांधों का पानी छोड़ने से कितने जान-माल की हानि हर साल होती है। लिखने को बहुत कुछ है, शायद बाद में लिखता भी रहूँ, फिलहाल इतना ही क्योंकि पहले ही इतना कुछ कहा जा चुका है कि किसी व्यक्ति विशेष के लिए कहने को कुछ खास बचता नहीं।
अल्लाह करे मीर का जन्नत में मकाँ हो
मरहूम ने हर बात हमारी ही बयाँ की (~इब्ने इंशा)
यहाँ लिखी किसी भी बात का उद्देश्य आपका दिल दुखाना नहीं है। यदि भूलवश ऐसा हुआ भी हो तो मुझे अवगत अवश्य कराएँ और भूल-सुधार का अवसर दें। नव वर्ष हम सबके लिए नई आशा किरण लेकर आए ...

* संबन्धित कड़ियाँ *
बलात्कार के विरुद्ध त्वरित न्यायपीठों हेतु गिरिजेश राव की जनहित याचिका
लड़कियों को कराते और लड़कों को तमीज
खूब लड़ी मर्दानी...
नव वर्ष का संकल्प

Tuesday, December 25, 2012

दुखी मन से

कवि नहीं हूँ पर आहत तो हूँ। यूं ही कुछ बिखरे से विचार
(अनुराग शर्मा
लिखा परदेस क़िस्मत में वतन को याद क्या करना
जहाँ बेदर्द हो हाकिम वहाँ फ़रियाद क्या करना
(~ अज्ञात)
(चित्र आभार: काजल कुमार)
गाँव छोड़कर क्यों जाते हैं
शहर की हैवानियत झेलने
हँसा मेरे गाँव का साहूकार
खेत हथियाने के बाद

अपनी इज्ज़त अपने हाथ
हमें तो कुछ नहीं हुआ
कपड़े उघड़े रहे होंगे बोले
मुर्दा खाल उघाड़ते क़स्साब

नज़र नीची रखो, पाँव की जूती
हया, नकाब, बुर्का और हिजाब
थोपकर ही खैरख्वाह बनते हैं
चेहरों पर तेज़ाब फेंकने वाले

घर से निकली ही क्यों
कहता है सौदागर हवस का
भारी छूट पर खरीदते हुए
एक नाबालिग को

दुर्योधन और रावण महान
विदेशी प्रथा है नारी अपमान
भाषण देता देसी पव्वा
सुन रहा है तंबाकू का पान

तुम्हें कर मिले तो कर लो
हमें तो देखना है, देख रहे हैं
देखते रहेंगे, कुछ न करेंगे
खाने कमाने आए थे, खाने दो

बसों में क्यों चढ़ते हैं लोग
मासूमियत से पूछते हैं
ज़ैड सिक्योरिटी पर इतराते
बुलेटप्रूफ शीशों के धृतराष्ट्र

अपनी हिफाज़त खुद करें
यही लिखा था उस बस में
जो अव्यवस्था के जंगल में
चलती है हफ्ते के ईंधन से

मानवता की गली लाशों के बीच
अट्टहास कर रहे हैं कुछ लोग
डॉक्टर ने मोटी रकम लेकर
जन्म से पहले ही कर दिया काम
सारे देश की शुभकामनाओं के बाद भी शनिवार 29 दिसंबर प्रातः हमने उसे खो दिया
सोया देश जागा है। आप भी न्यायमूर्ति जे एस वर्मा समिति को यौन-अपराध में त्वरित न्याय के लिए अपने सुझाव निम्न पते पर भेज सकते हैं:
फैक्स: 011 2309 2675
ईमेल: justice.verma@nic.in