Thursday, May 30, 2013

माओवादी नक्सली हिंसा हिंसा न भवति*

अज्ञानी, धृष्ट और भ्रष्ट संसद तब होती है जब जनता अज्ञान, धृष्टता और भ्रष्टाचार को बर्दाश्त करती है ~जेम्स गरफील्ड (अमेरिका के 20वें राष्ट्रपति) जुलाई 1877
बस्तर का शेर
25 मई 2013 को छत्तीसगढ़ की दरभा घाटी में 200 माओ-नक्सल आतंकियों द्वारा किए गए नरसँहार की घटना की खबर मिलते ही व्यापक जनविरोध की आशंका के चलते फेसबुक आदि सोशल साइटों पर आतंकवाद समर्थकों का संगठित प्रोपेगेंडा अभियान तेज़ी से चालू हो गया जिसमें इस हत्याकांड में शामिल अङ्ग्रेज़ी और तेलुगुभाषी आतंकवादियों को स्थानीय आदिवासी बताने से लेकर संगठित हत्यारों के "दरअसल" भूखे-नंगे और मजबूर आदिवासी होने जैसे जुमले फिर से दोहराए गए। कई कथाकारों ने नियमित फिरौती वसूलने वाले हत्यारों को रक्तचूषक समाज की देन भी बताया।

कुछ लोग यह भी कहने लगे कि आदिवासी क्षेत्रों में विकास न होना या उसका धरातल तक नहीं पहुँचना, हत्यारे माओवादियों के उत्थान का कारण है। यदि यह बात सच होती तो नक्सली किताबों मे विकास की हर मद पर वसूली के रेट फ़िक्स न किए गए होते। सच यह है कि दुर्गम क्षेत्रों मे होने वाले हर विकासकार्य पर माओवादी माफिया रंगदारी करता है और मनमर्जी मुताबिक अपहरण, हत्या और फिरौती भी अपने तय किए भाव पर वसूलता है। अपने अपराधी स्वार्थ के चलते सड़कमार्ग अवरुद्ध करने से लेकर उन्हें यात्रियों व वाहनों समेत बारूदी सुरंगों से उड़ा देना इन आतंकवादियों के लिए चुटकी बजाने जैसा सामान्य कर्म है। सच यह है कि आदिवासी क्षेत्रों में विकास के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा माओवाद/नक्सलवाद के नाम पर चल रहा हिंसक व्यवसाय ही है। गंदा है, खूँख्वार है, दानवी है लेकिन उनके लिए मुनाफे का धंधा है।

एक बंधु बताने लगे कि आदिवासी मूल के निहत्थे महेंद्र कर्मा के हाथ पीछे बांधकर उन पर डंडे और गोली चलाने के साथ-साथ धारदार हथियार से 78 घातक वार करने वाले "निर्मल हृदय" आतंकियों ने उसी जगह मौजूद एक डॉक्टर को मारने के बजाय मरहम पट्टी करके छोड़ दिया। यह सच है कि आम आदमी को कीड़े-मकौड़े की तरह मसलने को आतुर माओवादी अब तक सामान्यतः स्वस्थ्य कर्मियों - विशेषकर डॉक्टरों - के प्रति क्रूर नहीं दिखते हैं। लेकिन इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि बस इस वजह से वे देवता हो जाएंगे। दुर्गम जंगलों में दिन-रात रक्तपात करने वाले गिरोहों के लिए चिकित्सकीय जानकारी रखने वाले व्यक्ति भगवान से कम नहीं होते। माओवादी जानते हैं कि जिस दिन वे स्वास्थ्यकर्मियों के प्रति अपना पेटेंटेड कमीनापन दिखाएंगे उस दिन उनके आतंक की उम्र आधी रह जाएगी।
नक्सल हमले में बचे डॉक्टर संदीप दवे ने बताया कि नक्सलियों के पास बंदूकें तो थी हीं, लैपटॉप और आईपैड जैसे आधुनिक उपकरण भी थे। वो बोतलबंद पानी पी रहे थे। नक्सली आपस में अंग्रेजी में बात कर रहे थे। इनमें महिला आतंकवादी भी शामिल थीं। ये लोग बातचीत के लिए वॉकी-टॉकी का भी इस्तेमाल कर रहे थे। पिंडारी ठगों की जघन्यता को शर्मिन्दा करने वाले इन दानवों ने शवों पर खड़े होकर डांस किया, मृत शरीरों को गोदा और आंखें निकाल कर अपने साथ ले गए।
माओवादियों को स्थानीय आदिवासी बताने वाले भूल जाते हैं कि उनके बाहर से थोपे जाने के सबूत उनकी हर कार्यवाही में मिलते रहे हैं। इस घटना में भी विद्याचरण शुक्ल के ड्राइवर द्वारा आतंकियों से तेलुगू में संवाद करके उन्हें अतिरिक्त हिंसा से बचा लेना यही दर्शाता है कि यह गिरोह स्थानीय नहीं था। इसी तरह कर्मा व अन्य लोगों द्वारा कर्मा की पहचान करने के बावजूद वे 200 आतंकवादी देर तक तय नहीं कर पा रहे थे कि नेताओं के दल में कर्मा कौन है। आदिवासी क्षेत्र में पीढ़ियों से स्थापित प्रसिद्ध आदिवासी नेता को पहचान तक न पाना इस गिरोह के बाहर से आए होने का एक और सबूत है। बाहर से आने पर भी उन लोगों को अपने निशाने की पहचान समाचार पत्रों आदि के माध्यम से कराये जाना कोई कठिन बात नहीं लगती। लेकिन तानाशाही व्यवस्थायेँ अपने दासों के हाथ में रेडियो, अखबार आदि नहीं पहुँचने देती हैं। उन्हें केवल वही खबर मिलती है जो आधिकारिक प्रोपेगेंडा मशीनरी बनाती है।

माओवाद का प्रोपेगेंडा सुनने वालों को जानना होगा कि पकड़े गए आतंकवादियों के अनुसार पिछले पांच वर्षों में माओ-नक्सली पूंजी का वार्षिक कारोबार 1400 करोड़ रुपए से बढ़कर लगभग चार हजार करोड़ रुपए हो गया है। फिरौती, अपहरण और उगाही की दरें हर वर्ष बढ़ाई जाती रही हैं। माओवादियों के आश्रय तले ठेकेदार वर्ग फल-फूल रहा है और छत्तीसगढ़ में भ्रष्टाचार और शोषण में बाधक बनने वाले आदिवासियों को माओवादियों द्वारा मौत के घाट उतारा जाता रहा है। आदिवासियों को सशक्त करने का कोई भी प्रयास चाहे जन-जागृति के रूप में हो चाहे सलवा-जुड़ूम जैसे हो, माओवादियों को अपने धंधे के लिए सबसे बड़ा खतरा महसूस होता है।

निहत्थे निर्दोष आदिवासी परिवारों पर नियमित रूप से हो रही माओवादी हिंसा का जवाब था सलवा जुड़ूम जिसके तहत चुने हुए ग्रामों के आदिवासियों को सशस्त्र किया गया था और यह आंदोलन आतंकियों की आँख की किरकिरी बन गया। जिन्हें वे निर्बल समझकर जब चाहे भून डालते थे जब वे उनके सामने खड़े होकर मुक़ाबला करने लगे तो आतंकियों की बौखलाहट स्वाभाविक ही थी। मैं यह नहीं कहता कि सलवा जुड़ूम आतंकी समस्या का सम्पूर्ण हल था क्योंकि आतंकी समस्या के सम्पूर्ण हल में प्रशासनिक व्यवस्था की वह स्थिति होनी चाहिए जिसमें हर नागरिक निर्भय हो और किसी को भी व्यक्तिगत सुरक्षा की आवश्यकता न पड़े। लेकिन ऐसी स्थिति के अभाव में आदिवासियों को माओवादियों से आत्मरक्षा करने का अवसर और अधिकार मिलना ही चाहिए था, वह चाहे सलवा जूडूम के रूप में होता या किसी अन्य बेहतर रूप में। चूंकि महेंद्र कर्मा कम्युनिस्ट विचारधारा छोड़ चुके थे और अब आदिवासी सशक्तीकरण से जुड़े थे, माओवादियों की हिटलिस्ट में उनका नाम सबसे ऊपर था। उनके आदिवासी परिवार के अनेक सदस्य पहले ही माओवादियों की क्रूर जनविनाशकारी पद्धतियों के शिकार बन चुके थे।

माओवाद के कुछ लाभार्थी, स्वार्थी या/और भयभीत लोग इन आतंकवादियों के पक्ष में खड़े होकर फुसफुसाते हैं कि "माओवाद एक मजबूरी है" या फिर, "नक्सली भी हमारे में से ही भटके हुए लोग हैं"। क्या ऐसे लोग यही कुतर्क अपने बीच के भटके हुए अन्य चोरों, बलात्कारियों, हत्यारों, रंगदारों, बस-ट्रेन में बम फोड़ने वाले हलकट आतंकवादियों के पक्ष में भी देते हैं? यदि हाँ, तो आप अपना भय लोभ, लाभ और स्वार्थ अपनी जेब में रखिए। सच यह है कि वर्तमान माओवाद/नक्सलवाद कोई क्रांतिकारी विचारधारा नहीं बल्कि आतंकवाद और क्रूर हिंसा के दम पर चलने वाली शोषक और निरंकुश तानाशाही है जो कि दुर्गम क्षेत्रों के निहत्थे आदिवासियों का खून चूसकर वहाँ की अराजकता, प्रशासनिक अव्यवस्था और भ्रष्टाचार का सहारा लेकर विषबेल की तरह फलफूल रही है।
लोकतन्त्र का एक ही विकल्प है - बेहतर लोकतन्त्र
माओवाद में दो धाराओं का सम्मिश्रण दिखता है, आतंकवाद और कम्यूनिज़्म। इसलिए माओवाद की हक़ीक़त पर एक नज़र डालते समय इन दोनों को ही परखना पड़ेगा।

संसार की हर समस्या के लिए पूंजीवाद की आड़ लेकर लोकतन्त्र को कोसते हुए माओवादी आतंक का समर्थन करने वाले भूल जाते हैं उधार की विचारधारा, बारूद और फिरौती के दम पर आदिवासियों को गुलाम बनाकर उनकी ज़मीन और जीवन पर जबरिया कब्जा करने वाले माओवादियों के पूंजीवाद से अधिक शोषक रूप पूंजीवाद कभी ले नहीं पाएगा। जिस लोकतन्त्र व्यवस्था को पूंजीवाद का नाम देकर माओवादी और उनके भोंपू रक्तचूषक बता रहे हैं, वह लोकतान्त्रिक व्यवस्था न केवल जीवन के प्रति सम्मान, बराबरी, शिक्षा और अन्य मूल मानवाधिकारों की समर्थक है बल्कि अधिकांश जगह व्यवस्था बनाए रखने का प्रयास भी करती है। जबकि माओवाद, नक्सलवाद और दूसरे सभी तरह के आतंकवाद हत्या, लूट, जमाखोरी और प्रोपेगंडा के अलावा कुछ भी रचनात्मक नहीं करते। लोकतन्त्र के मूलभूत अधिकारों का लाभ उठाते हुए कुछ लोग माओवादियों की अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता की बात भी करते हैं। लेकिन ऐसी मक्कारी दिखाते समय वे यह तथ्य छिपा लेते हैं कि व्यक्तिगत स्वतन्त्रता, जीवन और अभिव्यक्ति का सम्मान तभी तक टिकेगा जब तक लोकतन्त्र बचेगा। माओवाद सहित कम्युनिज़्म की सभी असहिष्णु विचारधाराओं में इलीट शासकवर्ग की बंदूक और टैंकों के सामने निरीह जनता को व्यक्तिगत संपत्ति और अभिव्यक्ति दोनों का ही अधिकार नहीं रहता।

यहाँ यह याद दिलाना ज़रूरी है कि नेपाल के सबसे बड़े नव-धनिकों में आज सबसे ऊपर के नाम माओवादी नेताओं के ही हैं। पूंजीवाद को दिन में सौ बार गाली निकालने वाले माओवादी काठमाण्डू के सबसे महंगे आवासों में तो रहते ही हैं, देश-विदेश में उनका निवेश चल रहा है और व्यवसाय पनप रहे हैं। उनके परिजनों का भ्रष्टाचार जगज़ाहिर है। भारत में भी कम्युनिस्टों सहित अधिकांश सांसदों की पूंजी लाखों में नहीं करोड़ों में है। बेशक, भारतीय माओवाद के सबसे ऊपर के लाभान्वित वर्ग के नाम अभी भी एक रहस्य हैं, लेकिन इतना साफ है कि ये लोग जो भी हैं, इनका हित आतंक, हिंसा, दमन, भ्रष्टाचार और अव्यवस्था में निहित है और ये पीड़ित क्षेत्रों में हर कीमत पर यथास्थिति बनाए रखना चाहेंगे।
माओ-नक्सल आतंकवाद के रूप में भारत के आदिवासी क्षेत्र के मजबूर नागरिक कम्यूनिज़्म के क्रूर चेहरे से रोजाना दो-चार हो रहे हैं। कम्यूनिज़्म पूंजीवाद का निकृष्टतम रूप है जिसमें एक चांडाल चौकड़ी देश भर के संसाधनों की बंदरबाँट करती है और आम आदमी से व्यक्तिगत धन-संपत्ति तो क्या व्यक्तिगत विश्वास रखने का अधिकार तक छीन लिया जाता है। एक बार लोकतन्त्र का स्वाद चख चुकी जनता किसी भी तानाशाही को बर्दाश्त नहीं करेगी, चाहे वह राजतंत्र, साम्यवाद, धार्मिक, सैनिक तानाशाही या किसी अन्य रूप में हो।
येन-केन प्रकारेण सत्ता हथियाने की जुगत में लगे रहकर लाल चश्मे से बारूदी स्वर्ग के ख्वाब देखने-दिखाने वाले खलनायक अपनी असलियत कब तक छिपाएंगे? असली कम्यूनिज़्म के चार हाथ हैं - आतंक, दमन, जमाखोरी और प्रोपेगेंडा। जनता की व्यक्तिगत स्वतन्त्रता, संपत्ति, विश्वास, अधिकार छीनने वाली अमानवीय (अ)व्यवस्था कभी टिक नहीं सकती। जहां-जहां भी जबरिया थोपी गई वहीं के किसान-मजदूरों ने उसे उखाड़ फेंका। आतंक के बल पर गिनती के तीन देश अभी बचे हैं, बाकी जगह माओवाद, नक्सलवाद या मार्क्सवाद के नाम पर पैसा वसूली और आतंक फैलाने का काम ज़ोरशोर से चल रहा है। वर्तमान कम्युनिस्ट शासनों की त्वरित झलकियाँ:
  • चीन - साम्राज्यवाद और पूंजीवाद का निकृष्टतम रूप, भ्रष्टाचार का बोलबाला, किसान-मजदूर के लिए दमनकारी
  • नक्सलवाद/माओवाद - क्रूर हिंसा, फिरौती, अपहरण, तस्करी, यौन-शोषण, सत्ता-मद और आतंकवाद में गले तक डूबा
  • क्यूबा - जनता के लिए गरीबी, रोग,हताशा और सत्ताधारी कम्युनिस्टों के लिए वंशवादी राजतंत्र
  • उत्तर कोरिया - कम्युनिस्ट शासकों के लिए वंशवादी राजतंत्र, पड़ोसियों के लिए गुंडागर्दी, जनता को भुखमरी व मौत
अंडरवर्ड आज नए रूपों में एवोल्व हुआ है जिसमें तस्करी और हत्या के पुराने तरीकों के साथ दास-व्यापार, यौन-शोषण, फिरौती और आतंकवाद समाहित हुआ है। कश्मीर में कार्यरत मुजाहिदीन हों या श्रीलंका के टाइगर, दक्षिण का तस्कर वीरप्पन हो या पश्चिम का दाऊद इब्रहीम, नृशंसता से मुनाफाखोरी में रत इन दानवों का किसी भी विचारधारा से कोई संबंध नहीं है। विचारधाराएँ इनके लिए आड़ से अधिक महत्व नहीं रखतीं ताकि तात्कालिक लाभ देखने वाले स्वार्थी मूर्ख इनके दुष्कृत्यों का समर्थन करते रहे हैं। दुर्भाग्य से देश में तात्कालिक लाभ देखने वाले स्वार्थी मूर्खों की कोई कमी नहीं है। लेकिन जिस प्रकार कश्मीर में मुजाहिदों ने हिंदुओं से अधिक हत्यायेँ मुसलमानों की की हैं और खलिस्तानियों ने सिखों को लगातार अपना निशाना बनाया उसी प्रकार माओवादी भी आदिवासियों के नाम का प्रयोग अपने आतंक की आड़ के लिए कर रहे हैं। सब जानते हैं कि उनके कुकर्मों से सबसे अधिक प्रभावित तो आदिवासी वर्ग ही हुआ है।

लाभ और लोभ के लिए कत्ल करने, इंसान खरीदने, बेचने और अपना ज़मीर खुद बेचने वाले हर देश-काल में थोक में मिलते रहे हैं। जरूरत है इस प्रवृत्ति पर लगाम लगाने की, और उसके लिए ज़रूरत है सक्षम प्रशासन की जो कि हमारे देश में - खासकर दुर्गम क्षेत्रों में - लगभग नापैद है। आतंकवादियों के साथ तो कड़ाई ज़रूरी है ही, बारूदी सपने से सम्मोहित और लाभान्वित लोग जो आम जनता के बीच रहते हुए भी दानवी विचारधारा के प्रचार-प्रसार में लगे हैं और आतंक को आश्रय भी दे रहे हैं। अर्थ-बल-सत्ता के इन लोभियों पर भी समुचित कार्यवाही होनी चाहिए ताकि कोई भी इन समाजविरोधी हिंसक अत्याचारों का वाहक न बने।

दरभा घाटी की घटना के बाद काँग्रेस दल की सुरक्षा में चूक के मद्देनजर पुलिस अधिकारियों के विरुद्ध कार्रवाई कि खबरें आने से एक और बात साफ होती है। वह है सरकार की संकीर्ण दृष्टि और अदूरदर्शिता। यह सच है कि इन क्षेत्रों में स्थानीय प्रशासन का अभाव है इसलिए दल को सुरक्षा की ज़रूरत थी। लेकिन लोकतन्त्र में सरकार जनता की प्रतिनिधि होती है और हमारे नेताओं को समझना चाहिए कि यहाँ की जनता को भी प्रशासन और सुरक्षा की ज़रूरत है। जब तक आम आदमी सुरक्षित महसूस नहीं करेगा, आतंकवाद का नासूर पनपता रहेगा। अपनी प्रतिनिधि सरकार चुनते समय जनता यह अपेक्षा करती है कि वे उसके हित की बात करेंगे, उसे प्रशासन, व्यवस्था, मूल अधिकार और निर्भयता और स्वतन्त्रता से जीने का वातावरण प्रदान करेंगे न कि केवल वहाँ सुरक्षा भेजेंगे जहां नेताओं कि टोली अपना प्रचार करने निकले।

महेंद्र कर्मा की हत्या आतंकवादियों द्वारा आदिवासी समुदाय के गौरव और आत्मविश्वास पर एक गहरी चोट तो है ही, एक बड़ी प्रशासनिक असफलता को भी उजागर करती है। इसके साथ ही यह जनता द्वारा अपने प्रतिनिधि आप चुनने के अधिकार पर बड़ा कुठराघात है। कम से कम इस घटना के बाद सरकारें जागें और नागरिकों की सुरक्षा सुनिश्चित करने को अपनी प्राथमिकता मानें। यदि उनके वर्तमान कर्मचारी इस कार्य में उपायुक्त या सक्षम नहीं हैं तो अनुभवी और सक्षम सलाहकारों की नियुक्ति की जाये।

माओवाद प्रभावित राज्यों को भारत में आतंकवाद के सफल मुक़ाबले के लिए प्रसिद्ध केपीएस गिल जैसे व्यक्तियों के अनुभव का पूरा लाभ उठाना चाहिए। देश में यदि उच्चस्तरीय रणनीतिकारों की कमी है तो जैसे सरकार ने पहले सैम पित्रोड़ा जैसे विशेषज्ञों को विशिष्ट कार्यों के लिए बुलाया था उसी प्रकार इस क्षेत्र में विख्यात विशेषज्ञों को आमंत्रित करके समयबद्ध कार्यक्रम चलाया जाए। कई लोग चीन जैसी तानाशाही के क्रूर तरीके अपनाने की दुहाई देते हैं, उन्हें याद रखना चाहिए कि एक लोकतान्त्रिक परंपरा में कम्युनिस्ट देशों द्वारा अपनाई गई दमनकारी और जनविरोधी नीतियों के लिए कोई स्थान नहीं है। जब छोटा सा लोकतन्त्र श्रीलंका अपने उत्तरी क्षेत्रों में दुर्दांत एलटीटीई का सफाया कर सकता है तो भारत इन माओवादियों से क्यों नहीं निबट सकता?

केंद्रीय बलों को जंगलों के बीच वर्षों से जमे माओवादियों का मुक़ाबला करने के लिए निपट अनजान जगहों पर भेजने से पहले स्थानीय पुलिस को जिम्मेदार, सक्षम और चपल बनाने के गंभीर प्रयास होने चाहिए। राजनेता, पुलिस, प्रशासन, और जनता के काइयाँ वर्ग की मिलीभगत से पनप रहे भ्रष्टाचार का कड़ाई से मुक़ाबला हो और (कम से कम) आपराधिक मामलों में न्याय व्यवस्था को सस्ता और त्वरित बनाया जाए। ऐसी समस्याओं के पूर्णनिदान में थानों और अदालतों के नैतिक पुनर्निर्माण के महत्व को नकारा नहीं जा सकता है।

देखा गया है कि नरसँहार की जगहों पर माओवादी अक्सर बड़ी संख्या में मौजूद होते हैं, ऊंची पहाड़ियाँ आदि सामरिक स्थलों पर होते हैं और बारूदी सुरंगों से लेकर अन्य मारक हथियारों समेत मौजूद होते हैं। यह सारी बातें स्थानीय प्रशासन की पूर्ण अनुपस्थिति दर्शाती हैं। सैकड़ों के झुंड में माओवादी दल अपने हथियारों के साथ सामरिक स्थलों पर बार-बार कैसे इकट्ठे हो सकते हैं? इतने सालों में अब तक प्रशासन ऐसे स्थल चिन्हित करके उन पर नियंत्रण भी नहीं बना सका, इनके मूवमेंट को पकड़ नहीं सका, यह समझना कठिन है। जनता तो पहले ही माओवादी आतंक से त्राहि कर रही है। उनके खात्मे के लिए आमजन थोड़ी असुविधा सहने के लिए आराम से तैयार हो जाएँगे। जिन अपराधियों के धंधे माओवाद की सरपरस्ती में हो रहे हैं, उनकी बात और है, पर उन्हें भी चिन्हित करके कानून के हवाले किया जाना चाहिए। पीड़ित जनता को सरकार की ओर से इच्छाशक्ति की अपेक्षा है।

खूनखराबे में जीने-मरने वाले आतंकियों को मरहम-पट्टी, इलाज, अस्पताल की ज़रूरत रोज़ ही पड़ती होगी। नेपाली माओवादी अपने इलाज के लिए बरेली, दिल्ली आदि आया करते थे। झारखंड के माओवादी कहाँ जाते हैं इसकी जानकारी बड़े काम की साबित हो सकती है। आतंकवाद और अन्य अपराधों की रोकथाम के लिए जिस प्रकार होटलों में क्लोज्ड सर्किट कैमरे आदि से संदिग्ध गतिविधियों पर नज़र रखी जाती है उसी तरह आतंकवाद प्रभावित और निकटवर्ती क्षेत्रों के अस्पतालों की मॉनिटरिंग की व्यवस्था की जानी चाहिए।
नक्सलवाद के बारे में एक आम धारणा है कि ये आदिवासियों को हक दिलाने की लड़ाई है. लेकिन आजतक ने यहां आकर पाया कि नक्सलवाद का स्वरूप बदल चुका है. नक्सलवाद के नाम पर इलाके से गुजरने वाली बसों, जंगल में काम करने वाले मजदूरों और खदान मालिकों से वसूली हो रही है. इलाके में मैगनीज और तांबे का भंडार है. लेकिन, खदान मालिकों से मोटा पैसा लेकर नक्सली आदिवासी हकों से आंख मूंदे हुए हैं. यहां बेरोजगारों की समस्या बहुत है. यहां ताम्बा की मात्रा बहुत है, यहां इंडस्ट्री लग सकती है. लेकिन नक्सली उद्योगपतियों को डरा धमका कर यहां विकास नहीं होने दे रहे हैं. यही वजह है कि एक बड़ा तबका नक्सलियों को आतंकवादी मानने लगा है. ~आज तक ब्‍यूरो
संसार के सबसे खतरनाक आतंकवादी ओसामा बिन लादेन को उसके घर में घुसकर मारने से पहले अमेरिका ने उसके धंधे की कमर तोड़ी थी। 911 की आतंकी घटना के बाद से अमेरिका ने बहुत से काम किए थे जिनमें एक था आतंकियों की अर्थव्यवस्था को तबाह करना। आतंक के व्यवसाय में आने-जाने वाले हर डॉलर की लकीर का दुनिया भर में पीछा करते हुए एक-एक कर के उसके धंधेबाजों को कानून का मार्ग दिखाया था। उनके तस्करी और हवाला रैकेट आदि अवैधानिक मार्ग तो बंद किए ही गए साथ ही गरीब देशों में जनसेवा कार्य और ज़कात आदि के बहाने से अमेरिका में पैसा इकट्ठा कर रही संस्थाओं को भी पड़ताल करके बंद किया गया और आतंकियों से किसी भी प्रकार का संबंध रखने वालों को समुचित सजाएँ दी गईं।

माओवादियों का मुक़ाबला करने के लिए भी ऐसी ही इच्छाशक्ति और योजना की ज़रूरत पड़ेगी। सत्ता की कामना और उसके लिए आतंक फैलाकर दोनों हाथ से पैसा बटोरना, माओवाद के ये दो बड़े प्रेरक तत्व "अर्थ" और "काम" है। माओवाद रोकने के लिए यह दोनों ही नसें पकड़ना ज़रूरी है। प्रभावित क्षेत्रों में व्याप्त रंगदारी रोकी जाये। देश-विदेश से एनजीओ संस्थाओं द्वारा आदिवासी सेवा, धर्मप्रचार या किसी भी बहाने से आने वाली पूंजी, वाहकों और संचालकों की पूरी जांच हो और साथ ही यह पहचान हो कि माओ-आतंकवाद का पैसा किन लोगों द्वारा कहाँ निवेश हो रहा है और अंततः किसके उपयोग में लाया जा रहा है।

पूंजी किसी भी तंत्र की रक्त-संचार व्यवस्था होती है। यह व्यवस्था बंद होते ही तंत्र अपने आप टूट जाते हैं। ईमानदार जांच में कई चौंकानेवाले तथ्य सामने आएंगे, बहुत से मुखौटे हटेंगे लेकिन देशहित में यह खुलासे होने ही चाहिए। सौ बात की एक बात कि एक समयबद्ध कार्यक्रम बनाकर इन अपराधियों को इनकी औकात दिखाना किसी भी गंभीर सरकार के लिए कोई असंभव कार्य नहीं है। सच ये है कि देश ने आतंकवाद पहले भी खूब देखा है और मिज़ोरम, नागालैंड जैसे दुर्गम इलाकों से लेकर पंजाब जैसी सघन बस्तियों तक सभी जगह उनका सफाया किया है। और सफाया तो इस बार भी होगा ही, ढुलमुल सरकारों के रहते राजनीतिक इच्छाशक्ति, प्रशासनिक कुशलता और आर्थिक-पारदर्शिता की कमी के कारण कुछ देर भले ही हो जाय। क्या कहते हैं आप?

*शीर्षक के लिए आचार्य रामपलट दास का आभार
संबन्धित कड़ियाँ
* नक्सलियों ने बढ़ाई उगाही की दरें
* वे आदिवासियों के हितैषी नहीं
* Human rights of Naxals
* The rise and fall of Mahendra Karma – the Bastar Tiger
* माओवादी इंसान नहीं, जानवर से भी बदतर!
* शेर को,घेर के करी दुर्दशा, कुत्ते करते जिंदाबाद -सतीश सक्सेना

माओवाद पर एक वृत्तचित्र (चेतावनी: कुछ चित्र आपको विचलित कर सकते हैं)

Wednesday, May 29, 2013

दूरभाष वार्ता मुखौटों से

चेहरे पर चेहरा

- ट्रिङ्ग ट्रिङ्ग 

- हॅलो?

- नमस्ते जी!

- नमस्ते की ऐसी-तैसी! बात करने की तमीज़ है कि नहीं?

- जी?

- फोन करते समय इतना तो सोचना चाहिए कि भोजन का समय है

- क्षमा कीजिये, मुझे पता नहीं था

- पता को मारिए गोली। पता तो चले कि आप हैं कौन?

- जी ... मैं ... अमर अकबर एंथनी, ट्रिपल ए डॉट कॉम लिटरेरी ग्रुप से ...

- ओह, सॉरी जी, आपने तो हमें पुरस्कृत किया था ... हैलो! आप पहले बता देते, तो कोई ग़लतफ़हमी नहीं होती,  हे हे हे!

- जी, वो मैं ... आपके तेवर देखकर ज़रा घबरा गया था

- अजी, जब से आपने सम्मानित किया, अपनी तो किस्मत ही खुल गई। उस साल जब आपके समारोह गया तो वहाँ कुछ ऐसा नेटवर्क बना कि पिछले दो साल में 12 जगह से सम्मानपत्र मिल चुके हैं, दो प्रकाशक भी तैयार हो गये हैं, अभी - मैंने अग्रिम नहीं दिया है बस ...

- यह तो बड़ी खुशी की बात है। मैं यह कहना चाह रहा था कि ...

- इस साल के कार्यक्रम की सूची बन गई?

- जी, बात ऐसी है कि ...

- मेरा नाम तो इस बार और बड़े राष्ट्रीय सम्मान के लिये होगा न? इसीलिये कॉल किया न आपने?

- जी, इस बार मैं राष्ट्रीय पुरस्कार समिति में नहीं हूँ ...

- ठीक तो है, आप इस लायक हैं ही नहीं ...

- जी?

- रत्ती भर तमीज़ तो है नहीं, भद्रजनों को लंच के समय डिस्टर्ब करते हैं आप?

- लेकिन मैंने तो क्षमा मांगी थी

- मांगना छोड़िए, अब थोड़ा शिष्टाचार सीखिये

- हैलो, हैलो!

- कट, कट!

- लगता है कट गया। बता ही नहीं पाया कि इस बार मैं अंतरराष्ट्रीय सम्मान समिति (अमेरिका) का जज हूँ। अच्छा हुआ इनका नखरीलापन पहले ही दिख गया। अब किसी सुयोग्य पात्र को सम्मानित कर देंगे।

Thursday, May 23, 2013

सच्चे फांसी चढ़दे वेक्खे - कहानी

ग्राहक: कोई नई किताब दिखाओ भाई
विक्रेता: यह ले जाइये, मंत्री जी की आत्मकथा, आधे दाम में दे दूंगा
ग्राहक: अरे, ये आत्मकथाएँ सब झूठी होती हैं
विक्रेता: ऐसा ज़रूरी नहीं, इसमें 25% सच है, 25% झूठ
ग्राहक: तो बाकी 50% कहाँ गया?
विक्रेता: उसी के लिये 50% की छूट दे रहा हूँ भाई...
बैंक में हड़बड़ी मची हुई थी। संसद में सवाल उठ गए थे। मामा-भांजावाद के जमाने में नेताओं पर आरोप लगाना तो कोई नई बात नहीं है लेकिन इस बार आरोप ऐसे वित्तमंत्री पर लगा था जो अपनी शफ़्फाक वेषभूषा के कारण मिस्टर "आलमोस्ट" क्लीन कहलाता था। आलमोस्ट शब्द कुछ मतकटे पत्रकारों ने जोड़ा था जिनकी छुट्टी के निर्देश उनके अखबार के मालिकों को पहुँच चुके थे। बाकी सारा देश मिस्टर शफ़्फाक की सुपर रिन सफेदी की चमकार बचाने में जुट गया था।

सरकारी बैंक था सो सामाजिक बैंकिंग की ज़िम्मेदारी में गर्दन तक डूबा हुआ था। सरकारी महकमों और प्रसिद्धि को आतुर राजनेताओं द्वारा जल्दबाज़ी में बनाई गई किस्म-किस्म की अधकचरी योजनाओं को अंजाम तक पहुँचाने की ज़िम्मेदारी ऐसे बैंकों पर ही थी। एक रहस्य की बात बताऊँ, चुनावों के नतीजे उम्मीदवार के बाहुबल, सांप्रदायिक भावना-भड़काव, पार्टी की दारू-पत्ती वितरण क्षमता के साथ-साथ इस बात पर भी निर्भर करते थे कि इलाके की बैंक शाखा ने कितने छुटभइयों को खुश किया है।

पैसे बाँटने की नीति सरकारी अधिकारी और नेता बनाते थे लेकिन उसे वापस वसूलने की ज़िम्मेदारी तो बैंक के शाखा स्तर के कर्मचारियों (भारतीय बैंकिंग की भाषा के विपरीत इस कथा में "कर्मचारी" शब्द में अधिकारी भी शामिल हैं) के सिर पर टूटती थी। पुराने वित्तमंत्री आस्तिक थे सो जब कोई त्योहार आता था, अपने लगाए लोन-मेले में अपनी पार्टी और अपनी जाति के अमीरों में बांटे गए पैसे को लोन-माफी-मेला लगाकर वापसी की परेशानी से मुक्त करा देते थे। लेकिन "आस्तिक" दिखना नए मंत्री जी के गतिमान व्यक्तित्व और शफ़्फाक वेषभूषा के विपरीत था। उनके मंत्रित्व कल में बैंक-कर्मियों की मुसीबतें कई गुना बढ़ गईं क्योंकि नए लोन-मेलों के बाद की नियमित लोन-माफी की घोषणा होना बंद हो गया। बेचारे बैंककर्मियों को इतनी तनख्वाह भी नहीं मिलती थी कि चन्दा करके देश के ऋण-धनी उद्योगपतियों के कर्जे खुद ही चुका दें।

बैंकर दुखी थे। मामला गड़बड़ था। वित्तमंत्री ने न जाने किस धुन में आकर सरकारी बैंकों  की घाटे में जाने की प्रवृत्ति पर एक धांसू बयान दिया था और लगातार हो रहे घाटे पर कड़ाई से पेश आने की घोषणा कर डाली। जोश में उन्होने घाटे वाले खाते बंद करने पर बैंकरों को पुरस्कृत करने की स्कीम भी घोषित कर दी। इधर नेता का मुस्कराता हुआ चेहरा टीवी पर दिखा और उधर कुछ सरफिरे पत्रकारों की टोली ने बैंक का पैसा डकारकर कान में तेल डालकर सो जाने वाले उस नगरसेठ के उन दो खातों की जानकारी अपने अखबार में छाप दी जो संयोग से नेताजी का मौसेरा भाई होता था।

विदेश में अर्थशास्त्र पढे मंत्री जी को बैंकों के घाटे के कारणों जैसे कि बैंकों की सामाजिक-ज़िम्मेदारी, उन पर लादी गई सरकारी योजनाओं की अपरिपक्वता, नेताओं और शाखाओं की अधिकता, स्टाफ और संसाधनों की कमी, क़ानूनों की ढिलाई और बहुबलियों का दबदबा आदि के बारे में जानकारी तो रही होगी लेकिन शायद उन्हें अपने भाई भतीजों के स्थानीय अखबारों पर असर की कमी के बारे में पूरी जानकारी नहीं थी। अखबार का मामला सुलट तो गया लेकिन साढ़े चार  साल से हाशिये पर बैठे विपक्ष के हाथ ऐसा ब्रह्मास्त्र लग गया जिसका फूटना ज़रूरी था।
 
संसद में प्रश्न उठा। सरकारी अमला हरकत में आ गया। पत्रकारों की नौकरी चली गई। एक के अध्यापक पिता नगर पालिका के प्राइमरी स्कूल में गबन करने के आरोप में स्थानीय चौकी में धर लिए गए। दूसरे की पत्नी पर अज्ञात गुंडों ने तेज़ाब फेंक दिया। नेताजी के भाई ने उसी अखबार में अपने देशप्रेम और वित्तीय प्रतिबद्धता के बारे में पूरे पेज का विज्ञापन एक हफ्ते तक 50% छूट पर छपवाया।

बैंक के ऊपर भाईसाहब के घाटे में गए दोनों ऋणों को तीन दिन में बंद करने का आदेश आ गया। जब बैंक-प्रमुख की झाड़ फोन के कान से टपकी तो शाखा प्रमुख अपने केबिन में सावधान मुद्रा में खड़े होकर रोने लगे। उसी वक़्त प्रभु जी प्रकट हुए। बेशकीमती सूट में अंदर आए भाईसाहब के साथ आए सभी लोग महंगी वेषभूषा में थे। उनके दल के पीछे एक और दल था जो इस बैंक के कर्मियों जैसा ही सहमा और थका-हारा दीख रहा था।

डील तय हो चुकी थी। भाईसाहब ने एक खाता तो मूल-सूद-जुर्माना-हर्जाना मिलाकर फुल पेमेंट करके ऑन द स्पॉट ही बंद करा दिया। इस मेहरबानी के बदले में बैंक ने उनका दूसरा खाता बैंक प्रमुख और वित्त मंत्रालय प्रमुख के मूक समझौते के अनुसार सरकारी बट्टे-खाते में डालकर माफ करने की ज़िम्मेदारी निभाई। शाखा-प्रमुख को बैंक के दो बड़े नॉन-परफोरमिंग असेट्स के कुशल प्रबंधन के बदले में प्रोन्नति का उपहार मिला और अन्य कर्मियों को मंत्रालय की ताज़ा मॉरल-बूस्टर योजना के तहत सर्वश्रेष्ठ कर्मचारी का नकद पुरस्कार। मौसेरे भाई के तथाकथित अनियमितताओं वाले दोनों खातों के बंद हो जाने के बाद मंत्री जी ने भरी संसद में सिर उठाकर बयान देते हुए विपक्ष को निरुत्तर कर दिया।

एक मिनट, इस कहानी का सबसे प्रमुख भाग तो छूट ही गया। दरअसल एक और व्यक्ति को भी प्रोन्नति पुरस्कार मिला। भाईसाहब के साथ बैंक में पहुँचे थके-हारे दल का प्रमुख नगर के ही एक दूसरे सरकारी बैंक का शाखा-प्रमुख था। उसे नगर में उद्योग-विकास के लिए ऋण शिरोमणि का पुरस्कार मिला। भाई साहब के बंद हुए खाते का पूरा भुगतान करने के लिए उसकी शाखा ने ही उन्हें एक नया लोन दिया था।
[समाप्त]