Sunday, March 16, 2014

कालचक्र - कविता

(अनुराग शर्मा)

बनी रेत पर थीं पदचापें धारा आकर मिटा गई
बने सहारा जो स्तम्भ, आंधी आकर लिटा गई

बीहड़ वन में राह बनाते, कर्ता धरती लीन हुए
कूप खोदते प्यास मिटाने स्वयं पंक की मीन हुए

कली खिलीं जो फूल बनीं सबमें खुशी बिखेर गईं
कितनी गिरीं अन्य से पहले कितनी देर सबेर गईं

छूटा हाथ हुआ मन सूना खालीपन और लाचारी है
आगे आगे गुरु चले अब कल शिष्यों की बारी है

मिट्टी में मिट्टी मिलती अब जली राख़ की ढेर हुई
हो गहराई रसातली या शिला हिमालय सुमेर हुई

कालचक्र ये चलता रहता कभी कहीं न थम पाया
आँख पनीली धुंधली दृष्टि, सत्य लपेटे भ्रम पाया

Sunday, March 9, 2014

शब्दों के टुकड़े - भाग 5

(आलेख: अनुराग शर्मा)
विभिन्न परिस्थितियों में कुछ बातें मन में आयीं और वहीं ठहर गयीं। जब ज़्यादा घुमडीं तो डायरी में लिख लीं। कई बार कोई प्रचलित वाक्य इतना खला कि उसका दूसरा पक्ष सामने रखने का मन किया। ऐसे अधिकांश वाक्य अंग्रेज़ी में थे और भाषा क्रिस्प थी। हिन्दी अनुवाद यहाँ प्रस्तुत है। अनुवाद करने में भाषा की चटख शायद वैसी नहीं रही, परंतु भाव लगभग वही हैं। कुछ वाक्य पहले चार आलेखों में लिख चुका हूँ, कुछ यहाँ प्रस्तुत हैं।

1. जित्ता बड़ा दिल, उत्ता बड़ा बिल
2. किसी फिक्र का ज़िक्र करने वालों को अक्सर उस ज़िक्र की फिक्र करनी पड़ती है।
3. दोस्ती दो दिलों की सहमति से ही हो सकती है, असहयोग के लिए एक ही काफी है।
4. उदारता की एक किरण उदासी की कालिमा हर लेती है।
5. हर किसी का पक्षधर अक्सर किसी का भी पक्षधर नहीं होता, खासकर तब जब वह खुद भी दौड़ में शामिल हो।
6. अच्छी कहानियाँ पात्रों से नहीं, लेखकों से होती हैं। सर्वश्रेष्ठ कहानियाँ पात्रों या लेखकों से नहीं, पाठकों से होती हैं।
7. सूमो विरोधी का बलपूर्वक सामना करता है लेकिन जूडोका विरोधी की शक्ति से ही काम चलाता है।
8. जो कुछ नहीं करते, वे गज़ब करते हैं।
9. बहरूपिये के मुखौटे के पीछे छिपे चेहरे को न पहचानकर उसे समर्थन देने वाले एक दिन खुद अपनी नज़रों में तो गिरते ही हैं, लेकिन तब तक समाज के बड़े अहित के साझीदार बन चुके होते हैं।
10. दुनिया का आधा कबाड़ा इंसानी गलतियों से हुआ। गलतियाँ सुधारने के अधकचरे, कमअक्ल और स्वार्थी प्रयासों ने बची-खुची उम्मीद का बेड़ा गर्क किया है।
11. तानाशाहों की वैचारिकी उनके हथियारबंद गिरोहों द्वारा मनवा ली जाती है, विचारकों की तानाशाही को तो उनकी अपनी संतति भी घास नहीं डालती।

आज आपके लिये कुछ कथन जिसका अनुवाद मुझसे नहीं हो सका। कृपया अच्छे से हिन्दी अनुवाद सुझायें:
  • You are not frugal until you use coupons at a dollar store
  • Don't act, just act!
  • visibility enables trust, familiarity means comfort
मुकेश निर्मित और अभिनीत "अनुराग"


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सम्बंधित कड़ियाँ
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* शब्दों के टुकड़े - भाग 1भाग 2भाग 3भाग 4भाग 5भाग 6
मैं हूँ ना! - विष्णु बैरागी
* कच्ची धूप, भोला बछड़ा और सयाने कौव्वे
* सत्य के टुकड़े - कविता
* खिली-कम-ग़मगीन तबियत (भाग २) - अभिषेक ओझा
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Monday, February 3, 2014

हिमपातकाले [इस्पात नगरी से 67]

कहाँ से आए बदरा

वीरों के पदचिन्ह
एक अकेला इस शहर में
बादल पे चलके आ
सूरज रे, जलते रहना
आसमां गा रहा है 
सूरज की गर्मी से पिघलकर फिर जमी बर्फ पानी का धोखा देकर वाहनों के लिए घातक सिद्ध होती है   
चम्बे दा गाँव, गाँव में दो प्रेमी रहते हैं 
ये कौन चित्रकार है 
रुक जाना नहीं तू कहीं हार के 
आज रपट जाएँ तो हमें न उठइयो 
ये वादियाँ, ये फिज़ाएँ बुला रही हैं मुझे 
सीधे सीधे रास्तों को हल्का सा मोड दे दो   
तुम निडर हटो नहीं, तुम निडर डटो वहीं 
वादियाँ मेरा दामन
ये कहाँ आ गए हम 
पत्ता पत्ता बूटा बूटा 
गोरी चलो न हंस की चाल ज़माना दुश्मन है 
नीले गगन के तले
हर तरफ अब यही अफसाने हैं ... 


[सभी चित्र: अनुराग शर्मा :: Photos by Anurag Sharma]