चोर - कहानी [भाग 1] में आपने पढा कि प्याज़ खाना मेरे लिये ठीक नहीं है। डरावने सपने आते हैं। ऐसे ही एक सपने के बीच जब पत्नी ने मुझे जगाकर बताया कि किसी घुसपैठिये ने हमारे घर का दरवाज़ा खोला है।
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अब आगे की कहानी:
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मैंने तकिये के नीचे से तमंचा उठाया और अन्धेरे में ही बिस्तर से उठकर दबे पाँव अपना कमरा और बैठक पार करके द्वार तक आया। छिपकर अच्छी तरह इधर-उधर देखा। जब कोई नहीं दिखाई दिया तो दरवाज़ा बेआवाज़ बन्द करके वापस आने लगा। इतनी देर में आँखें अन्धेरे में देखने की अभ्यस्त हो चुकी थीं। देखा कि बैठक के एक कोने में कई सूटकेस, अटैचियाँ आदि खुली पड़ी थीं।
काला कुर्ता और काली पतलून पहने एक मोटे-ताज़े पहलवान टाइप महाशय तन्मयता के साथ एक काले थैले में बड़ी सफाई से कुछ स्वर्ण आभूषण, चान्दी के बर्तन और कलाकृति आदि सहेज रहे थे। या तो वे अपने काम में कुछ इस तरह व्यस्त थे कि उन्हें मेरे आने का पता ही न चला या फिर वे बहरे थे। अपने घर में एक अजनबी को इतने आराम से बैठे देखकर एक पल के लिये तो मैं आश्चर्यचकित रह गया। आज के ज़माने में ऐसी कर्मठता? आधी रात की तो बात ही क्या है मेरे ऑफिस के लोगों को पाँच बजे के बाद अगर पाँच मिनट भी रोकना चाहूँ तो असम्भव है। और यहाँ एक यह खुदा का बन्दा बैठा है जो किसी श्रेय की अपेक्षा किये बिना चुपचाप अपने काम में लगा है। लोग तो अपने घर में काम करने से जी चुराते हैं और एक यह समाजसेवी हैं जो शान्ति से हमारा सामान ठिकाने लगा रहे हैं।
अचानक ही मुझे याद आया कि मैं यहाँ उसकी कर्मठता और लगन का प्रमाणपत्र देने नहीं आया हूँ। जब मैंने तमंचा उसकी आँखों के आगे लहराया तो उसने एक क्षण सहमकर मेरी ओर देखा। और फिर अचानक ही खीसें निपोर दीं। सभ्यता का तकाज़ा मानते हुए मैं भी मुस्कराया। दूसरे ही क्षण मुझे अपना कर्तव्य याद आया और मैंने कड़क कर उससे कहा, “मुँह बन्द और दाँत अन्दर। अभी! दरवाज़ा तुमने खोला था?”
“जी जनाब! अब मेरे जैसा लहीम-शहीम आदमी खिड़की से तो अन्दर आ नहीं सकता है।”
“यह बात भी सही है।”
उसकी बात सुनकर मुझे लगा कि मेरा प्रश्न व्यर्थ था। उसके उत्तर से संतुष्ट होकर मैंने उसे इतना मेहनती होने की बधाई दी और वापस अपने कमरे में आ गया। पत्नी ने जब पूछा कि मैं क्या अपने आप से ही बातें कर रहा था तो मैंने सारी बात बताकर आराम से सोने को कहा।
“तुम्हारा दिमाग तो खराब नहीं हो गया है। घर में चोर बैठा है और तुम आराम से सोने की बात कर रहे हो। भगवान जाने किस घड़ी में मैने तुमसे शादी को हाँ की थी।”
“अत्ता मी काय करा?” ये मेरी बचपन की काफी अजीब आदत है। जब मुझे कोई बात समझ नहीं आती है तो अनजाने ही मैं मराठी बोलने लगता हूँ।
“क्या करूँ? अरे उठो और अभी उस नामुराद को बांधकर थाने लेकर जाओ।”
“हाँ यही ठीक है” पत्नी की बात मेरी समझ में आ गयी। एक हाथ में तमंचा लिये दूसरे हाथ में अपने से दुगुने भारी उस चोर का पट्ठा पकड़कर उसे ज़मीन पर गिरा दिया।”
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मैंने तकिये के नीचे से तमंचा उठाया और अन्धेरे में ही बिस्तर से उठकर दबे पाँव अपना कमरा और बैठक पार करके द्वार तक आया। छिपकर अच्छी तरह इधर-उधर देखा। जब कोई नहीं दिखाई दिया तो दरवाज़ा बेआवाज़ बन्द करके वापस आने लगा। इतनी देर में आँखें अन्धेरे में देखने की अभ्यस्त हो चुकी थीं। देखा कि बैठक के एक कोने में कई सूटकेस, अटैचियाँ आदि खुली पड़ी थीं।
काला कुर्ता और काली पतलून पहने एक मोटे-ताज़े पहलवान टाइप महाशय तन्मयता के साथ एक काले थैले में बड़ी सफाई से कुछ स्वर्ण आभूषण, चान्दी के बर्तन और कलाकृति आदि सहेज रहे थे। या तो वे अपने काम में कुछ इस तरह व्यस्त थे कि उन्हें मेरे आने का पता ही न चला या फिर वे बहरे थे। अपने घर में एक अजनबी को इतने आराम से बैठे देखकर एक पल के लिये तो मैं आश्चर्यचकित रह गया। आज के ज़माने में ऐसी कर्मठता? आधी रात की तो बात ही क्या है मेरे ऑफिस के लोगों को पाँच बजे के बाद अगर पाँच मिनट भी रोकना चाहूँ तो असम्भव है। और यहाँ एक यह खुदा का बन्दा बैठा है जो किसी श्रेय की अपेक्षा किये बिना चुपचाप अपने काम में लगा है। लोग तो अपने घर में काम करने से जी चुराते हैं और एक यह समाजसेवी हैं जो शान्ति से हमारा सामान ठिकाने लगा रहे हैं।
अचानक ही मुझे याद आया कि मैं यहाँ उसकी कर्मठता और लगन का प्रमाणपत्र देने नहीं आया हूँ। जब मैंने तमंचा उसकी आँखों के आगे लहराया तो उसने एक क्षण सहमकर मेरी ओर देखा। और फिर अचानक ही खीसें निपोर दीं। सभ्यता का तकाज़ा मानते हुए मैं भी मुस्कराया। दूसरे ही क्षण मुझे अपना कर्तव्य याद आया और मैंने कड़क कर उससे कहा, “मुँह बन्द और दाँत अन्दर। अभी! दरवाज़ा तुमने खोला था?”
“जी जनाब! अब मेरे जैसा लहीम-शहीम आदमी खिड़की से तो अन्दर आ नहीं सकता है।”
“यह बात भी सही है।”
उसकी बात सुनकर मुझे लगा कि मेरा प्रश्न व्यर्थ था। उसके उत्तर से संतुष्ट होकर मैंने उसे इतना मेहनती होने की बधाई दी और वापस अपने कमरे में आ गया। पत्नी ने जब पूछा कि मैं क्या अपने आप से ही बातें कर रहा था तो मैंने सारी बात बताकर आराम से सोने को कहा।
“तुम्हारा दिमाग तो खराब नहीं हो गया है। घर में चोर बैठा है और तुम आराम से सोने की बात कर रहे हो। भगवान जाने किस घड़ी में मैने तुमसे शादी को हाँ की थी।”
“अत्ता मी काय करा?” ये मेरी बचपन की काफी अजीब आदत है। जब मुझे कोई बात समझ नहीं आती है तो अनजाने ही मैं मराठी बोलने लगता हूँ।
“क्या करूँ? अरे उठो और अभी उस नामुराद को बांधकर थाने लेकर जाओ।”
“हाँ यही ठीक है” पत्नी की बात मेरी समझ में आ गयी। एक हाथ में तमंचा लिये दूसरे हाथ में अपने से दुगुने भारी उस चोर का पट्ठा पकड़कर उसे ज़मीन पर गिरा दिया।”
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लेखनी तो आपकी,प्रभावित कर गई।
ReplyDeleteइस सुंदर प्रस्तूति के लिये आभार
अनुराग जी..दूर दराज देश में बैठे हिन्दी के प्रति प्रेम .आपके सहृदयता और देशभक्ति को दर्शाता है.. बहुत अच्छा लिखते है आप प्रस्तुति कमाल की....अगले अंक का इंतज़ार है...धन्यवाद
ReplyDeleteघर में चोर बैठा है और तुम आराम से सोने की बात कर रहे हो।
ReplyDelete" हा हा हा बेहद रोचक अगली कड़ी में देखे क्या होता है"
regards
अरे आप तो बहादुर निकले ..मगर ये बीच बीच में आपका सहज होना ऐसे मौके पर ...कभी तो समझदारी दिखाईये :) ..बहरहाल आगे देखते हैं ..
ReplyDelete@मिश्र जी,
ReplyDeleteअब क्या करें! अपने को बदलने की कोशिश तो कई बार की है मगर दो चार दिन बाद फिर पुराने ढर्रे पर आ जाते हैं!
सुन रहे हैं कहानी ...
ReplyDeleteघर में चोर बैठा है औ आप सोने जा रहे हैं ...
आपका भारतीय राजनीति में स्वागत है ...!
@ स्मार्ट इन्डियन जी ,
ReplyDeleteअहा...तकिये के नीचे तमंचा ! ठेठ उत्तर भारतीय सौंदर्य को उकेरती कथा :)
@ अत्ता मी काय करा ?
कह दीजिए वो कमरा केवल मुम्बईकर के लिए सुरक्षित है , नार्थ इंडियंस आर नाट अलाउड :)
[ मजाक के लिए माफ कीजियेगा कथा सही चल रही है ]
आपका लिखनेका अंदाज़ बहुत अच्छा है
ReplyDeleteओह...घोर रसभंग !!!! कहानी संग बहते रहने नहीं दिया आपने...एकदम धक् से ब्रेक लगा दी...
ReplyDeleteप्लीज जल्दी से फिर से एक्सीलेटर दबाइए...
बढ़िया कहानी है ..आगे की प्रतीक्षा में ...आभार
ReplyDeleteमेरे आजाद भारत को अब देखिए,
ReplyDeleteहो रहे कत्ल हैं बेसबब देखिए,
अब नई नस्ल को बेअदब देखिए,
कैसे आ पायेगा मुल्क में अब अमन।
उन शहीदों को मेरा नमन है नमन।।
मै भी तकिये के नीचे तमंचा [लाईसेंसी] रख कर सोता हूं. अमेरिकन है स्मिथ ऎन्ड बेंसन का .लेकिन चोर से पाला नही पडा
ReplyDeleteअजब रंग हैं सरजी इस कहानी के।
ReplyDeleteपोस्ट का साईज़ बढ़ाइये थोड़ा सा, थोड़े से हमारा गुजारा नहीं होता है जी :)
वाणी गीत जी, अली जी और रंजना जी की टिप्पणी मेरी भी मानी जाय।
ReplyDeleteसमकालीन समस्याओं पर लम्बी कविताओं में जो संकेन्द्रण और अर्थगुरुत्त्व दिखते हैं, वे इस कहानी में दिख रहे हैं। इसे जल्दी से नहीं निपटाइएगा। कागज कलम ले खाका बनाइए। यह अद्भुत होगी।
सस्पेन्स में लाकर छोड़ दिया।
ReplyDeleteसहजता से लिखी हुई कहानी !
ReplyDeleteवाणी जी ने ठीक कहा ! पढ़ रहा हूँ सभी कड़ियाँ !