बीता हर पल ही अपना था
विरह-वेदना में तपना था
क्या रिश्ता है समझ न पाया
आज पराया कल अपना था
हुई उषा तो टूटा पल में
भोर का मीठा सा सपना था
रुसवाई की हुई इंतहा
नाम हमारा ही छपना था
सजी चिता तपती प्रेमाग्नि
जीवन अपना यूँ खपना था
बैरागी हों या अनुरागी
नाम तुम्हारा ही जपना था
(अनुराग शर्मा)
विरह-वेदना में तपना था
क्या रिश्ता है समझ न पाया
आज पराया कल अपना था
हुई उषा तो टूटा पल में
भोर का मीठा सा सपना था
रुसवाई की हुई इंतहा
नाम हमारा ही छपना था
सजी चिता तपती प्रेमाग्नि
जीवन अपना यूँ खपना था
बैरागी हों या अनुरागी
नाम तुम्हारा ही जपना था
(अनुराग शर्मा)
बैरागी बनकर अनुरागी
ReplyDeleteनाम तुम्हारा जपना था...
खूब कहा..अच्छी रचना.
गुरुप्रकाश पर्व की हार्दिक शुभकामना.
क्या रिश्ता था समझ न पाया
ReplyDeleteकल पराया आज अपना हैऔ
र्बैरागी बनकर अनुरागी
नाम तुम्हारा जपना था... बहुत खूब
धन्यवाद और शुभक्ामनायें
ये उषा कौन है? ;)
ReplyDelete_______________
"
सजी चिता तपती प्रेमाग्नि
जीवन अपना यूं खपना था"
प्रेम, जीवन और मृत्यु - बस खप जाना और फिर चिता तपना तपाना तापना ? भैया क्या कह दिया आप ने ! सोचे ही जा रहा हूँ...
बीता हर पल ही अपना था
ReplyDeleteबिरह-वेदना में तपना था
बढ़िया रचना है!
अच्छा शब्द चयन!
बधाई!
बेहतर...
ReplyDeletebahut sundar..
ReplyDeleteanuraag namaskar
ReplyDelete'Bhore ka sapna'rachna padhi achcha laga badhi.
यही तो जीवन है।
ReplyDeleteबहुत सुंदर रचना, शुभकामनाएं.
ReplyDeleteरामराम.
बहुत सुन्दर रचना है।
ReplyDeleteअकेली पंक्तियाँ अलग-अलग पढने पर एक दो जगह अलग ही भाव देखने को मिले. बढ़िया.
ReplyDeleteबहुत सुंदर लगा आप का यह ोर का सपना.
ReplyDeleteधन्यवाद
क्या रिश्ता है समझ न पाया
ReplyDeleteआज पराया कल अपना था
बहुत सुन्दर है -- बहुत अच्छी रचना
अच्छी रचना है भाई.... साधुवाद..
ReplyDeleteइतना समर्पण ?
ReplyDeleteक्या रिश्ता है समझ न पाया
ReplyDeleteआज पराया कल अपना था
बेहद सुन्दर और यथार्थ वादी पंक्तियाँ....
regards
बड़ी प्यारी अभिव्यक्ति... "क्या रिश्ता है समझ न पाया, आज पराया कल अपना था" कितना कटु सत्य संभवतः हर जीवन में कई रिश्ते ऐसे होंगे... निम्न पंक्तियों ने भी लुभाया..सुन्दर
ReplyDeleteसजी चिता तपती प्रेमाग्नि
जीवन अपना यूं खपना था
बैरागी हों या अनुरागी
नाम तुम्हारा ही जपना था
सधी हुई ,
ReplyDeleteसच्ची बात लिए
कविता पसंद आयी अनुराग भाई
सादर, स स्नेह
- लावण्या
क्या रिश्ता है समझ न पाया
ReplyDeleteआज पराया कल अपना था
हुई उषा तो टूटा पल में
भोर का मीठा सा सपना था
सबकी यही उलझने हैं कल के अपने आज पराये कैसे हो जाते हैं....एक सीधी,सच्ची,मीठी सी कविता
बहुत अच्छी रचना है। बधाई।
ReplyDeleteपीडा मुखरित हो उठी है इस रचना में... ह्रदय के अतल गहराई से निकले भाव भी उतने ही हृदयस्पर्शी हैं...
ReplyDeleteप्रत्येक पद गहन अर्थ लिए...... अतिसुन्दर रचना.......
आभार !!
बैरागी हों या अनुरागी
ReplyDeleteनाम तुम्हारा ही जपना था .....
सुन्दर रचना है ....... शब्द जैसे नगीना जड़े हों ........ और अंतिम पंक्तियाँ तो रचना में घुलती हुयी सी हैं .........
bahut sunder likha hai shubhkaamnayen
ReplyDelete... bahut sundar, badhaai !!!
ReplyDeletebahut behtareen...
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