कविता और यात्रा संस्मरण के अलावा जब भी कुछ लिखने बैठता हूँ तो एक बड़ी मुश्किल से गुज़रना पड़ता है। वह है ईमानदारी और सद्भाव के बीच की जंग। लेखन का गुण मुझमें शायद प्राकृतिक नहीं होगा इसलिए मेरी अधिकांश कहानियों में गूढ़ भावपक्ष प्रधान नहीं होता है। सोचता हूँ कि यदि मेरी कहानियाँ, व्यंग्य और लेख विशुद्ध साहित्यिक कृति होते और उनका कथ्य सांकेतिक और अर्थ गूढ़ होता तो शायद इस मुश्किल से बच जाता।
मगर क्या करूँ, साहित्यकार, कवि या कथाकार न होकर किस्सागो ठहरा। मेरी कहानियाँ अक्सर किसी घटना विशेष के चारों ओर घूमती हैं। ज़ाहिर है कि घटना है तो पात्र भी होंगे और एक सत्यवादी के पात्र हैं तो काफी हद तक जैसे के तैसे ही होंगे। जब लोग मेरी कहानियों के संस्मरण होने की आशंका व्यक्त करते हैं तो आश्चर्य नहीं होता है। आश्चर्य तो तब भी नहीं होता है जब लोग मेरे संस्मरणों को भी कहानी कह देते हैं। आश्चर्य तब होता है जब लोग पात्रों को वास्तविक लोगों से मिलाना शुरू करते हैं।
कहानी तो कहानी कई बार तो लोग कविता में भी व्यक्ति विशेष ढूंढ निकालते हैं। यहाँ मैं यह बताना ज़रूरी समझता हूँ कि मेरी कहानियाँ पूर्ण सत्य होने के बावजूद उनका कोई भी पात्र सच्चा नहीं है (हाँ, आत्मकथात्मक उपन्यासों की बात अलग है)। उसके कई कारण हैं। पहला कारण तो यह है कि एक परिपक्व लेखक की यह ज़िम्मेदारी बनती है कि उसके पात्रों की गोपनीयता और आदर बना रहे। आप कहेंगे कि फिर सिर्फ आदर्शवादी कहानियाँ लिखिये। मगर प्रश्न यह नहीं है कि क्या लिखा गया है, प्रश्न है कि उसे कैसे पढ़ा और क्या समझा गया है। पाठक (या बिना पढ़े ही विरोध करने वाले भावाकुल लोग) किस बात का क्या अर्थ लगायेंगे, यह समझ पाना आसान होता तो तसलीमा नसरीन और सलमान रश्दी जैसे अंतर्राष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त लेखकों की जान पर इतना बवाल न होता।
कोई भी लेखक अपने प्रत्येक पाठक की मनस्थिति या परिस्थितियों के लिए ज़िम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता है। परन्तु फिर भी एक अच्छे लेखक में इतनी समझ होनी चाहिए कि वह जो कुछ लिख रहा है वह पाठक के लिये कम से कम तकलीफदेह हो। कठिन है, कुछ स्थितियों में शायद असंभव भी हो मगर यदि किसी लेखक की हर पुस्तक हर जगह जलाई जाती है या फिर इसके उलट उस पुस्तक की वजह से हर देश-काल में कुछ लोग ज़िंदा जलाए जाते हैं तो कहीं न कहीं कोई बड़ी गड़बड़ ज़रूर है।
मेरा प्रयास यह रहता है कि मेरी कहानी सच के जितना भी निकट रह सकती है रहे मगर सभी पात्र काल्पनिक हों। कुछ कहानियाँ आत्मकथ्यात्मक सी होती हैं मगर मेरी कथाओं में ऐसा करने का उद्देश्य सिर्फ एक पात्र की संख्या घटाकर कहानी को सरल करना भर है। इससे अधिक कुछ भी नहीं। इसलिए मेरी कहानियों का मैं "अनुराग शर्मा" तो क्या मेरा जाना-पहचाना-देखा-भाला कोई भी हाड़-मांस का व्यक्ति न होकर अनेकानेक वृत्तियों को कहानी के अनुरूप इकट्ठा करके खड़ा किया गया एक आभासी व्यक्तित्व ही होता है। शायद यही वजह हो कि मैं लघुकथाएँ कम लिखता हूँ क्योंकि दो-एक पैराग्राफ में पात्रों के साथ इतनी छूट नहीं मिल पाती है और वे कहीं न कहीं किसी वास्तविक व्यक्तित्व की छायामात्र रह जाते हैं।
लिखते समय अक्सर ही मैं एक और समस्या से दो-चार होता हूँ। यह समस्या पहले वाली समस्या से बड़ी है। वह है लेखक के सामाजिक दायित्व की समस्या। यह समस्या न सिर्फ कविता, कहानी में आती है बल्कि एक छोटी सी टिप्पणी लिखने में भी मुँह बाये खड़ी रहती है। यकीन मानिए, बहुत बार बहुत सी पोस्ट्स पर मैं सिर्फ इसलिए टिप्पणी नहीं छोड़ता हूँ क्योंकि मैं अपनी बात को इतनी स्पष्टता से नहीं कह पाता हूँ कि उसमें से सामाजिक दायित्व की अनिश्चितता का अंश पूर्णतया निकल जाए। सामाजिक दायित्व की बात सहमति, असहमति से अलग है। कुछ व्यक्तियों से इस विषय पर मेरी बातचीत भी हुई है कि किसी पोस्ट-विशेष पर मैंने टिप्पणी क्यों नहीं की या फिर कुछ अलग सी क्यों की। हाँ इतना ज़रूर है कि यदि कोई पोस्ट ही अपने आप में किसी महत्वपूर्ण मुद्दे को उठा रही है तो बात दूसरी है।
इस दायित्व का उदाहरण कई बड़े-बड़े लोगों के छोटे छोटे कृत्यों से स्पष्ट हो जाता है। उदाहरण के लिये, कुछ लोग एक तरफ तो भगवान् राम के अस्तित्व पर ही प्रश्नचिन्ह लगायेंगे मगर उसके साथ ही जान-बूझकर राम और सीता जी के भाई बहन होने या फिर उनके घोर मांसाहारी होने जैसी ऊल-जलूल बातें उछल-उछलकर फैलायेंगे। जो लोग शायद कभी मंदिर न गए हों मगर सिर्फ दूसरे लोगों को भड़काकर मज़ा लेने के लिए देवी-देवताओं के अश्लील चित्र बार-बार बनाएँ तो यह तय है कि वे जानबूझकर एक परिपक्व नागरिक की अपनी सामाजिक ज़िम्मेदारी से हाथ झाड़कर जन-सामान्य की भावनाओं के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं।
विषय से भटकाव ज़रूरी नहीं था इसलिए मुद्दे पर वापस आते हैं। मेरे ख्याल से एक लेखक के लिए - भले ही वह सिर्फ ब्लॉग-लेखक ही क्यों न हो - लेखक होने से पहले अपने नागरिक होने की ज़िम्मेदारी को ध्यान में रखना अत्यावश्यक है।
जिस तीसरी बात का ध्यान मैं हमेशा रखता हूँ वह है विषय के प्रति ईमानदारी। यह काम मेरे लिए उतना मुश्किल नहीं है जितने कि पहले दोनों। एक आसानी तो यह है कि मैंने अंधी स्वामिभक्ति को सद्गुण नहीं बल्कि दुर्गुण ही समझा है। पहली निष्ठा सत्य के प्रति हो और निस्वार्थ हो तो आपके ज्ञानचक्षु खुले रहने की संभावना बढ़ जाती है। मुझे यह भी फायदा है कि मैं किसी एक देश, धर्म या राजनैतिक विचारधारा से बंधा हुआ नहीं हूँ। जो कहता हूँ वह करने की भी कोशिश करता हूँ तो कोई द्वंद्व पैदा ही नहीं होता। नास्तिक हूँ परन्तु नास्तिक और धर्म-विरोधी का अंतर देख सकता हूँ। इसलिये मुझे दूसरों के धर्म या आस्था को गाली देने की कोई ज़रुरत नहीं लगती है। विषय के प्रति ईमानदारी के मामले में बहुत से लोग मेरे जैसे भाग्यशाली नहीं होते हैं। परिवार, जाति, देश, धर्म, लिंग, संस्कृति, भाषा, राजनैतिक स्वार्थ आदि के बंधनों से छूटना कठिन है।
संक्षेप में, मेरे लेखन के तीन प्रमुख सूत्र:
1. पात्रों की गोपनीयता
2. पाठकों के प्रति संवेदनशीलता
3. विषय के प्रति सत्यनिष्ठा
क्या कहा, एक महत्वपूर्ण सूत्र छूट गया है? बताइये न वह क्या है?
मगर क्या करूँ, साहित्यकार, कवि या कथाकार न होकर किस्सागो ठहरा। मेरी कहानियाँ अक्सर किसी घटना विशेष के चारों ओर घूमती हैं। ज़ाहिर है कि घटना है तो पात्र भी होंगे और एक सत्यवादी के पात्र हैं तो काफी हद तक जैसे के तैसे ही होंगे। जब लोग मेरी कहानियों के संस्मरण होने की आशंका व्यक्त करते हैं तो आश्चर्य नहीं होता है। आश्चर्य तो तब भी नहीं होता है जब लोग मेरे संस्मरणों को भी कहानी कह देते हैं। आश्चर्य तब होता है जब लोग पात्रों को वास्तविक लोगों से मिलाना शुरू करते हैं।
कहानी तो कहानी कई बार तो लोग कविता में भी व्यक्ति विशेष ढूंढ निकालते हैं। यहाँ मैं यह बताना ज़रूरी समझता हूँ कि मेरी कहानियाँ पूर्ण सत्य होने के बावजूद उनका कोई भी पात्र सच्चा नहीं है (हाँ, आत्मकथात्मक उपन्यासों की बात अलग है)। उसके कई कारण हैं। पहला कारण तो यह है कि एक परिपक्व लेखक की यह ज़िम्मेदारी बनती है कि उसके पात्रों की गोपनीयता और आदर बना रहे। आप कहेंगे कि फिर सिर्फ आदर्शवादी कहानियाँ लिखिये। मगर प्रश्न यह नहीं है कि क्या लिखा गया है, प्रश्न है कि उसे कैसे पढ़ा और क्या समझा गया है। पाठक (या बिना पढ़े ही विरोध करने वाले भावाकुल लोग) किस बात का क्या अर्थ लगायेंगे, यह समझ पाना आसान होता तो तसलीमा नसरीन और सलमान रश्दी जैसे अंतर्राष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त लेखकों की जान पर इतना बवाल न होता।
कोई भी लेखक अपने प्रत्येक पाठक की मनस्थिति या परिस्थितियों के लिए ज़िम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता है। परन्तु फिर भी एक अच्छे लेखक में इतनी समझ होनी चाहिए कि वह जो कुछ लिख रहा है वह पाठक के लिये कम से कम तकलीफदेह हो। कठिन है, कुछ स्थितियों में शायद असंभव भी हो मगर यदि किसी लेखक की हर पुस्तक हर जगह जलाई जाती है या फिर इसके उलट उस पुस्तक की वजह से हर देश-काल में कुछ लोग ज़िंदा जलाए जाते हैं तो कहीं न कहीं कोई बड़ी गड़बड़ ज़रूर है।
मेरा प्रयास यह रहता है कि मेरी कहानी सच के जितना भी निकट रह सकती है रहे मगर सभी पात्र काल्पनिक हों। कुछ कहानियाँ आत्मकथ्यात्मक सी होती हैं मगर मेरी कथाओं में ऐसा करने का उद्देश्य सिर्फ एक पात्र की संख्या घटाकर कहानी को सरल करना भर है। इससे अधिक कुछ भी नहीं। इसलिए मेरी कहानियों का मैं "अनुराग शर्मा" तो क्या मेरा जाना-पहचाना-देखा-भाला कोई भी हाड़-मांस का व्यक्ति न होकर अनेकानेक वृत्तियों को कहानी के अनुरूप इकट्ठा करके खड़ा किया गया एक आभासी व्यक्तित्व ही होता है। शायद यही वजह हो कि मैं लघुकथाएँ कम लिखता हूँ क्योंकि दो-एक पैराग्राफ में पात्रों के साथ इतनी छूट नहीं मिल पाती है और वे कहीं न कहीं किसी वास्तविक व्यक्तित्व की छायामात्र रह जाते हैं।
लिखते समय अक्सर ही मैं एक और समस्या से दो-चार होता हूँ। यह समस्या पहले वाली समस्या से बड़ी है। वह है लेखक के सामाजिक दायित्व की समस्या। यह समस्या न सिर्फ कविता, कहानी में आती है बल्कि एक छोटी सी टिप्पणी लिखने में भी मुँह बाये खड़ी रहती है। यकीन मानिए, बहुत बार बहुत सी पोस्ट्स पर मैं सिर्फ इसलिए टिप्पणी नहीं छोड़ता हूँ क्योंकि मैं अपनी बात को इतनी स्पष्टता से नहीं कह पाता हूँ कि उसमें से सामाजिक दायित्व की अनिश्चितता का अंश पूर्णतया निकल जाए। सामाजिक दायित्व की बात सहमति, असहमति से अलग है। कुछ व्यक्तियों से इस विषय पर मेरी बातचीत भी हुई है कि किसी पोस्ट-विशेष पर मैंने टिप्पणी क्यों नहीं की या फिर कुछ अलग सी क्यों की। हाँ इतना ज़रूर है कि यदि कोई पोस्ट ही अपने आप में किसी महत्वपूर्ण मुद्दे को उठा रही है तो बात दूसरी है।
इस दायित्व का उदाहरण कई बड़े-बड़े लोगों के छोटे छोटे कृत्यों से स्पष्ट हो जाता है। उदाहरण के लिये, कुछ लोग एक तरफ तो भगवान् राम के अस्तित्व पर ही प्रश्नचिन्ह लगायेंगे मगर उसके साथ ही जान-बूझकर राम और सीता जी के भाई बहन होने या फिर उनके घोर मांसाहारी होने जैसी ऊल-जलूल बातें उछल-उछलकर फैलायेंगे। जो लोग शायद कभी मंदिर न गए हों मगर सिर्फ दूसरे लोगों को भड़काकर मज़ा लेने के लिए देवी-देवताओं के अश्लील चित्र बार-बार बनाएँ तो यह तय है कि वे जानबूझकर एक परिपक्व नागरिक की अपनी सामाजिक ज़िम्मेदारी से हाथ झाड़कर जन-सामान्य की भावनाओं के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं।
विषय से भटकाव ज़रूरी नहीं था इसलिए मुद्दे पर वापस आते हैं। मेरे ख्याल से एक लेखक के लिए - भले ही वह सिर्फ ब्लॉग-लेखक ही क्यों न हो - लेखक होने से पहले अपने नागरिक होने की ज़िम्मेदारी को ध्यान में रखना अत्यावश्यक है।
जिस तीसरी बात का ध्यान मैं हमेशा रखता हूँ वह है विषय के प्रति ईमानदारी। यह काम मेरे लिए उतना मुश्किल नहीं है जितने कि पहले दोनों। एक आसानी तो यह है कि मैंने अंधी स्वामिभक्ति को सद्गुण नहीं बल्कि दुर्गुण ही समझा है। पहली निष्ठा सत्य के प्रति हो और निस्वार्थ हो तो आपके ज्ञानचक्षु खुले रहने की संभावना बढ़ जाती है। मुझे यह भी फायदा है कि मैं किसी एक देश, धर्म या राजनैतिक विचारधारा से बंधा हुआ नहीं हूँ। जो कहता हूँ वह करने की भी कोशिश करता हूँ तो कोई द्वंद्व पैदा ही नहीं होता। नास्तिक हूँ परन्तु नास्तिक और धर्म-विरोधी का अंतर देख सकता हूँ। इसलिये मुझे दूसरों के धर्म या आस्था को गाली देने की कोई ज़रुरत नहीं लगती है। विषय के प्रति ईमानदारी के मामले में बहुत से लोग मेरे जैसे भाग्यशाली नहीं होते हैं। परिवार, जाति, देश, धर्म, लिंग, संस्कृति, भाषा, राजनैतिक स्वार्थ आदि के बंधनों से छूटना कठिन है।
संक्षेप में, मेरे लेखन के तीन प्रमुख सूत्र:
1. पात्रों की गोपनीयता
2. पाठकों के प्रति संवेदनशीलता
3. विषय के प्रति सत्यनिष्ठा
क्या कहा, एक महत्वपूर्ण सूत्र छूट गया है? बताइये न वह क्या है?
लेखक लिखने के अतिरिक्त
ReplyDeleteऔर कर भी क्या सकता है!
जो छूट गया वो शायद विषयवस्तु में रोचकता का होना है एस आई जी !
ReplyDeleteaksar aise dikte aati rehi hai....
ReplyDeleteकवितायेँ लिखने में भी यह समस्या बार-बार आती है ...क्या कोई कवि ईमानदारी से अपनी कविता के तुम को परिभाषित कर सकता है ...कई कल्पनाये , कई व्यक्तित्व मिलकर एक तुम बनता है ...
ReplyDeleteलेखन से सम्बंधित बहुत जानकारी पूर्ण आलेख के लिए आभार ...!!
विषयवस्तु में रोचकता का होना है
ReplyDeleteशास्त्री जी,
ReplyDeleteलेखक क्या नहीं कर सकता है? उदाहरण के लिए विनोबा ने भूमिहीन होकर भी जितना भूदान किया उतना तो बिल गेट्स और रानी विक्टोरिया ने मिलकर भी नहीं किया होगा. महर्षि वाल्मीकि ने भारत ही नहीं समस्त विश्व को पुरुषोत्तम राम के आदर्शों का ऐसा पाठ पढ़ाया कि गांधी के भारत से लेकर जावा, सुमात्रा और कम्बोडिया तक राम अमर हो गए. लेखक वह सब कर सकता है जो कोई और करे, बल्कि उसके आगे भी बहुत कुछ कर सकता है
अपने ही बांधे बंधनों से छूटना बेहद कठिन है, लेकिन सोच पर कोई बंधन नहीं होता।
ReplyDeleteधर्मवीर भारती ने एक बार 'दोवाहे' (पहली पत्नी के दिवंगत हो जाने पर दूसरी बार विवाहित व्यक्ति। दम्पति में आयु का अंतर अधिक रहता है।) पर कुछ लिखा था। अपने संस्मरण में उन्हों ने बताया कि उन्हें सम्वेदना और आपबीती आदि के इतने पत्र मिले, कुछ ने फोन भी किए कि उन्हें बाकायदा यह घोषित करना पड़ा कि 'लिखित' के वह पात्र नही हैं :)
ReplyDeleteगम्भीर, मौलिक और सीख देता लेख। मैं अधिकतर कविताएँ उस समय रचता हूँ जब बहुआयामी अनेक पहलुओं को समेटे प्रश्नों का साक्षी बनता हूँ।
@ लेखक होने से पहले अपने नागरिक होने की ज़िम्मेदारी को ध्यान में रखना अत्यावश्यक है।
यह तो सनातन कसौटी है। अभिव्यक्ति में व्यक्तिवाद और वैयक्तिक स्वतन्त्रता का आग्रह इस कसौटी से रगड़ खाता है। ... अगुआ जमात हुसैनों के समर्थन में खड़ी दिखती है।
sahi to ye he ki ye bada hi katin or sahas purn kam he
ReplyDeleteबहुत ही सार्थक पोस्ट है। शायद चौथा सूत्र भाव पक्ष है। आप दुनिया को कौन सा भाव देना चाहते हैं? राम के पक्ष को प्रबल करना चाहते हैं या रावण के। वैसे लेखक है तो दुनिया की अमरता है। मुझे लगता है कि यदि वाल्मिकी और वेदव्यास नहीं होते तो शायद राम और कृष्ण का अस्तित्व किस रूप में होता? बहुत लम्बी बहस का विषय है।
ReplyDelete....और सामाजिक उत्तरदायित्व का बोध /निर्वहन ..यही न ?
ReplyDelete"मेरी कहानियों में गूढ़ भावपक्ष प्रधान नहीं होता है.." यही समस्या तो मुझे मारे डाल रही है -लिजलिजी भावुकता/बेफालतू रूमानियत की बातें मुझसे नहीं की जातीं ! मेरे पात्रों की घिग्घी बांध जाती है जबकि कुछ नारी रचनाकार इस पर पन्ने स्याह कर जाते हैं ...बड़ी मुश्किल है ! कोई नुस्खा ? महफूज अली से मुझे सीखना है यह कला ! आपभी उन्ही को गुरू क्यों नहीं मान लेते ?
@ Arvind Mishra said...
ReplyDelete... महफूज अली से मुझे सीखना है यह कला ! आपभी उन्ही को गुरू क्यों नहीं मान लेते ?
गुरु द्रोण के पास एकलव्य जायंगे
दाखला मिलेगा नहीं, अंगूठा गंवाएंगे
हमें नहीं जाना!
एक विशेष बात यह है की अंत तक बँधे रहते है आप अपनी लेखनी में....
ReplyDeleteआपसे पूर्णतया सहमत हूँ । वास्तविकता के निकट ही रहना चाहिये चिन्तन व लेखन । पर जब कुछ वास्तविकतायें परी कथा जैसी हो जायें तो बरबस ध्यान खिंचा चला जाता है, कदाचित उसी को साहित्यिक रोचकता कहते हैं । मुझे तो जीवन का हर दिन रोचक लगता है, यदि नहीं तो मैं सोकर सपने देखना पसन्द करता हूँ ।
ReplyDeleteTurbulence of mind is quite evident in this post. Various reasons are responsible for such mental state. I seriously feel bloggers should not be blamed for for writing anything which doesn't make sense for a while. It's just that the person is not in the right frame of mind to write something worthwhile. Everyone needs an outlet to vent the pent up emotions. After vomiting here on blogs, the author feels relieved and then he observes his own work with peaceful mind.He realizes soon that he/she can do do better. Then he gets the motivation to give his best.Realization comes from within. One can learn after erring only. The way we achieve immunity after suffering from certain diseases.
ReplyDeleteI have witnessed many funny , hostile and meaningless posts by several bloggers. But they do write wonderful posts at times. I just wait for the writer to achieve his equilibrium to deliver his/her best.
And Yes, I agree that an author must have the sense of responsibility while writing.
Divya
.
"कविता और यात्रा संस्मरण के अलावा जब भी कुछ लिखने बैठता हूँ तो एक बड़ी मुश्किल से गुज़रना पड़ता है. वह है ईमानदारी और सद्भाव के बीच की जंग"
ReplyDeleteसर जी, ये जंग क्या सिर्फ़ लिखते समय ही चलती है? जिन्दगी का कौन सा रास्ता ऐसा है जिस पर एक कदम चलने में भी ये जंग न लड़नी पड़े।
आप जो भी लिखें, जिसे जिस अन्दाज में समझना है, समझेगा ही। लाख डिस्क्लेमर लगा लें, लाख स्पष्टीकरण दे दें, लोगों की आंखों पर जो चश्मे चढ़े हैं वो वैसे ही देखेंगे और समझेंगे।
आज तो मुश्किल में डाल दिया है आपने। सोचना विचारना सचमुच बहुत बोझिल काम लगता है, अपने को।
हमें आपका लिखा पसंद है। सच है या कल्पना है, किसी की मनहानि नहीं हो रही इतना पर्याप्त है।
अब इसे ठकुरसुहाती समझें तो बेशक समझ लें, पहले एक जगह ऐसी नसीहत मिल चुकी है मुझे।
इसलिये भावना प्रकटन का मजाक बनाने पर उतना बुरा नहीं लगेगा।
वास्तिविकता के इर्द गिर्द ही लेखन की सार्थकता है..और तो क्या कहें.
ReplyDeleteबढ़िया आलेख!
कुछ छूट भी गया हो तो क्या फ़र्क़ पड़ता है आप अपना रचनाकर्म जारी रखिये (यह अपने आप में संपूर्ण है.)
ReplyDeleteकिसी भी कहानी से अधिक रोचक और सार्थक आलेख.
ReplyDeleteलेखक अगर करने पर आ जाए तो गद्दारों का नमोनिसान मिटा सकता है वो भी सिर्फ कलम से।
ReplyDeleteआपका लेख अच्छा लगा
सादर वन्दे !
ReplyDeleteवह सूत्र है दिल की आवाज !
रत्नेश त्रिपाठी
अपने अनुभव, अपने विचार , अपना अध्ययन रोचक शैली में व्यक्त करना ही लेखन है - ऐसा मैं सोचता हूँ. कुछ लोग ऐसा करने में समर्थ होते हैं, कुछ नहीं. ब्लॉग लेखन में जिस बात से मैं सबसे अधिक कुपित हूँ वह है - कुछ लोगों द्वारा, अशालीन, अशोभनीय भाषा का प्रयोग. आत्मकथ्यात्मक शैली में लिखे लेख या कहानी को लेखक की आपबीती समझ लेना नादानी है. कहानी के पात्र काल्पनिक या अर्ध काल्पनिक हो सकते हैं. जिस चौथे सूत्र की बात अप कह रहे हैं और जिसके बारे में कुछ लोगों ने 'रोचकता' की ओर इंगित किया है , ब्लॉग लेखन के सन्दर्भ में मैं कहूंगा - शालीन भाषा.
ReplyDelete05.06.10 की चिट्ठा चर्चा (सुबह 06 बजे) में शामिल करने के लिए इसका लिंक लिया है।
ReplyDeletehttp://chitthacharcha.blogspot.com/
'जब भी कुछ लिखने बैठता हूँ तो एक बड़ी मुश्किल से गुज़रना पड़ता है. वह है ईमानदारी और सद्भाव के बीच की जंग.'
ReplyDeleteखूब कही।
मेरी एक पोस्ट पर की गई आपकी टिप्पणी से अधिक सटीक टिप्पणी और क्या होगी। आपकी इस पोस्ट पर वही टिप्पणी, जस की तस, अंकित कर रहा हूँ - 'एक लेखक के लिए अपने आसपास के सत्य और पाठकों की संवेदनशीलता के बीच में संतुलन बिठाना कठिन काम है.'
मेरी नजर में चौथा सूत्र है - लेखन में आत्मपरकता।
ReplyDeleteचलिये जी, आज मैं भी आपके मॉडरेटर के दरवाज़े दस्तक दे लूँ ।
हुकुम, मैं स्वयँ ही नहीं जानता कि मैं अब तक क्या लिखता आया, और क्या लिखना चाहता हूँ.. आपको क्या बताऊँगा ?
पच्चीसियों अधूरे ड्राफ़्ट पड़े बिसूर रहे हैं, कुछ तो कथ्य के लिहाज़ से आउटडेटेड कहलायेंगे । समाज के अँधेरे पक्ष के मर्मस्थल पर चोट करके सँतोष मिलता है । रूमानियत से लबरेज़ गद्य तो मैंनें तब भी न लिखा, जब लोग मुझे नौज़वानों में गिना करते थे । कथ्य में सेंधमारी के लिये मुझे गँदगी को कुरेदना बटोरना पड़ा है, फिर भी मैं अपने यथार्थवादी कहलाने से कतराता हूँ । आज का यथार्थ इस कदर असह्य है, कि यदि फ़ैशन के तौर पर भी कोई अपने को यथार्थवादी कहता है, तो मुझे उसकी धूर्तता पर प्यार आता है । ब्लॉगिंग में एक सुविधा यह है कि अपने ड्राफ़्टिया लेखन को कुम्हार की मिट्टी की तरह थोप दो, जिसे जो बनाना आता हो, वो अपनी मर्ज़ी से बना ले । वाहवाही की जड़ता पर खड़े होकर सँवादहीनता का ट्रैफ़िक सँचालन करने वाले पाठको की यह अपेक्षा एक तरह की एकतरफ़ा सँवेदनशीलता है ।
एक अच्छे लेखक का सपना : काश कभी मैं अपने पाठकों जैसा भी बन पाता !
एक अच्छे ब्लॉगर का सपना : काश मैं पोस्ट लेखक को अपने तरीके से घुमा पाता !
लेखन तो ईश्वर प्रद्त्त गुण है . मेरी सम्झ से कोई ऎसी शिक्षा नही जो लेखक तैयार करती हो .
ReplyDeleteलेखन तो ईश्वर प्रद्त्त गुण है . मेरी सम्झ से कोई ऎसी शिक्षा नही जो लेखक तैयार करती हो .
ReplyDeleteआपने तो इतनी अच्छी तरह अपने लेखन को डिफाइन कर दिया....मुझे तो लोगों की टिप्पणियों से पता चलता है कि मेरे लेखन में क्या क्या है...मुझे किसी भी कहानी,उपन्यास या आलेख में फ्लो सबसे ज्यादा जरूरी चीज़ लगती है...और जब लोग कहते हैं ,आपके लेखन का प्रवाह अच्छा है तो लगता है यह चीज़ अनायास ही आ गयी है लेखन में.
ReplyDeleteऔर वास्तविकता के करीब तो लेखन होना ही चाहिए...जरा भी बनावटीपन हो तो पाठक भी पकड़ लेता हैं उसे.
मुझे भी कई बार लोगों को बताना पड़ा है कि सिचुएशन या नायिका बिलकुल ही काल्पनिक पात्र है.मजे की बात तो तब हुई जब मेरे लिखे एक काल्पनिक नाम को गूगल में डाल कर सर्च भी कर डाला और यह बात कमेन्ट में लिख भी दी....पर मुझे लगता है अगर पाठकों को साम्य नज़र आता है तो यह लेखन की सफलता है..(लेखक के लिए परेशानी का सबब जरूर है, पर जब इस कठिन डगर पर कदम रखा है तो सिर्फ फूल ही तो नहीं मिलेंगे)...
कई बार पाठकों को कुछ नागवार भी गुजरता है पर लेखक को अपने विचारों पर दृढ रहना चाहिए,ऐसा मेरा मानना है, वो भी कुछ सोच कर ही लिखता है.और अगर अपने लेखन के प्रति सच्चा नहीं है और वाह वाही के लिए लिखे तो फिर उस लेखन की उम्र बहुत ही कम होती है.
जो भी लिखना सच ही लिखना चाहे बात जरा सी लिखना......... यही अच्छे लेखन की प्रमुख विशेषता है। और किसी को सीखना है तो आपकी इस पोस्ट से सीख सकता है। शब्दों को कैसे जमाकर चित्र खींचा जाता है।
ReplyDeleteअति उत्तभ । लेखन की विशिष्टताएँ शास्त्रीय हैँ ।
ReplyDelete@ एक आसानी तो यह है कि मैंने अंधी स्वामिभक्ति को सद्गुण नहीं बल्कि दुर्गुण ही समझा है. पहली निष्ठा सत्य के प्रति हो और निस्वार्थ हो तो आपके ज्ञानचक्षु खुले रहने की संभावना बढ़ जाती है.
ReplyDeleteandhaa kuchh bhi durgun hi hota hai - chaahe vah swaamibhakti ho, pitrbhakti ho, rashtra bhakti ho, putr prem ho - kuchh bhi ho ...
@ मुझे यह भी फायदा है कि मैं किसी एक देश, धर्म या राजनैतिक विचारधारा से बंधा हुआ नहीं हूँ.
you are fortunate. bandha / thahra hua aksar sadne lagta hai .....
आज गिरिजेश जी के facebook स्टेटस के सिलसिले में अपनी "हिंदूइस्म पर पूछे जाने वाले कुछ सवाल" वाली पोस्ट पढ़ रही थी - तो उसमे आपकी इस पोस्ट का लिंक था । वहां से यहाँ आ गयी ।
ReplyDeleteलेखक बेचारा क्या करे के सम्बन्ध में आपने काफी कुछ कहा । फिर आपने निष्कर्ष में यह कहा
संक्षेप में, मेरे लेखन के तीन प्रमुख सूत्र:
1. पात्रों की गोपनीयता
2. पाठकों के प्रति संवेदनशीलता
3. विषय के प्रति ईमानदारी
क्या कहा, एक महत्वपूर्ण सूत्र छूट गया है? बताइये न वह क्या है?
तो कहती हूँ । वैसे कहते हुए डरती भी हूँ, फिर भी कहती हूँ । कृपया इसे निजी तौर पर न लीजियेगा ।
लेखक और लेखक में भी फर्क होता है ।
जहां पत्रिकाओं आदि में लिखे कहानियों आदि के लेखक अपने पाठकों से निजी तौर पर परिचित नहीं होते, लेखक और पाठक के बीच द्विपक्षीय संवाद नहीं होता अक्सर , वहीँ ब्लॉग लेखन इससे भिन्न है । इसमें live comments and replies की सुविधा है, फिर इमेल आदि से एक दुसरे से जुड़ने की भी सुविधा है । तो यहाँ "पाठक" और "लेखक" दो अलग वर्ग समूह नहीं रह गए हैं , बल्कि एक मिला जुला समाज हो जाते हैं ।
इस ब्लॉग समाज में मित्रताएं भी होती हैं, रिश्ते भी बनते टूटते हैं । इसमें या तो हम अपने आप को बिलकुल अलग रखें किसी को अपना "निजी मित्र" न बनने दें (जैसे कल गिरिजेश जी की ब्लोग्यात्र में बेनामी और उन्मुक्त जी के सम्बन्ध में कहा गया ) । और यदि ऐसा नहीं है, यदि हम मित्रता करते हैं, तो फिर इस दृष्टि से भी लेखक की कुछ जिम्मेदारियां बनती हैं ।
जिस तरह से आप संस्मरणों के असल पात्रों की निजता पर चोट पहुंचाने से बचते हैं, उसी तरह यदि हमने इस ब्लॉग जागत में भी हम सम्बन्ध बनाते हैं, किसी को मित्र, भाई बहन आदि आदि बनाते हैं, तो हमें यह याद रखना आवश्यक है कि कंप्यूटर के स्क्रीन के जरिये जो सन्देश हम ले और दे रहे हैं, वह एक निर्जीव कम्प्यूटर या "आभासी दुनिया" को नहीं, बल्कि असल व्यक्तियों और असल दुनिया के साथ बातचीत हो रही है । आवश्यक है यह ध्यान रखना कि हम सिर्फ एक "लेखक" भर नहीं हैं, एक समाज (जो आभासी कहलाते हुए भी असल है) के हिस्से भी हैं, और असल समाज की ही तरह यहाँ भी असल लोग हैं, भले ही हम उन लोगों से कभी मिले नहीं हैं, उनसे बात नहीं की है , लेकिन हैं वे असली मनुष्य ही ।
तो कुछ सूत्र जो मैं ब्लॉग लेखको / लेखिकाओं को सुझाना चाहूंगी
(यह सब आपके लिए निजी तौर पर नहीं हैं - इस लेख के सन्दर्भ में सभी ब्लॉग लेखको / लेखिकाओं के लिए सुझाव हैं)
*sensitivity to others hurts and requirements of being respected and liked,
*mutual respect,
*avoiding displays of ego, disapproval,
*avoiding trying to prove oneself (and one's beliefs) superior and others inferior,
*trying to hint a lot of things without putting them into real words,
*trying to avoid people while not clearly saying that we wish to break away,
*judging others (and others work) negatively OR positively (expressing opinion is different from judging) ,
*avoiding assuming things about others (which i too have been guilty of very often)
*making decisions about others character by our own definitions, and propagating the same opinions freely as a matter of fact
and many more.
धन्यवाद! हर सिक्के के दो पहलू होते हैं, अक्सर एक पहलू (और कई बार दोनों ही) दृष्टि से ओझल होते हैं। इसे सिक्के का दोष (गुणधर्म) भी कहा जा सकता है और दर्शक का भी। आलेख से ही कुछ पंक्तियां:
Deleteपाठक किस बात का क्या अर्थ लगायेंगे, यह समझ पाना आसान होता तो तसलीमा नसरीन और सलमान रश्दी जैसे अंतर्राष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त लेखकों की जान पर इतना बवाल न होता ... कोई भी लेखक अपने हर पाठक की मनस्थिति या परिस्थितियों के लिए ज़िम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता है. परन्तु फिर भी एक अच्छे लेखक में इतनी बुद्धि होनी चाहिए कि वह जो कुछ लिख रहा है वह कम से कम तकलीफदेह हो. कठिन है, कुछ स्थितियों में शायद असंभव भी हो मगर यदि किसी लेखक की हर पुस्तक हर जगह जलाई जाती है या फिर इसके उलट उस पुस्तक की वजह से हर देश काल में कुछ लोग ज़िंदा जलाए जाते हैं तो कहीं न कहीं कोई बड़ी गड़बड़ ज़रूर है.
haan - baat to theek hi hai aapki | lekin main blg lekhan kee bat par divert ho gayi thee ..
Deleteबहुत सुंदर आलेख पर मेरे लिये चौथा जैसा आपने कहा सिक्के का दूसरा पहलू सच को खोल कर साफ साफ सामने रखने ना रखने का कंनफ्यूजन है :)
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