छिपाए नहीं छिपते
न ही छिपते हैं
रक्तरंजित हाथ।
असलियत मिटती
नहीं है।
बहुत देर तक
नहीं छिपा सकोगे
बगल में छुरी।
भले ही
दिखावे के लिए
जपने लगो राम,
कुशलता से ढँककर
माओ, स्टालिन, पोलपोट
बारूदी सुरंग और
कलाश्निकोव को ...
अंततः टूटेंगे बुत तुम्हारे
और सुनोगे-देखोगे
सत्यमेव जयते
(अनुराग शर्मा)
सच कहा है आज नहीं तो कल इतिहास खोज ही लेता है रक्त-रंजित हाथ ... फिर मिट जाते हैं अवशेष भी उनके ...
ReplyDeleteसत्यमेव जयते। :)
ReplyDeleteवाह ...सत्य वचन.
ReplyDeleteआपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन परमवीर - धन सिंह थापा और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।
ReplyDeleteधन्यवाद हर्ष!
Deleteअसली चेहरा एक दिन नकाब से बाहर आ ही जाता है
ReplyDeleteबहुत सही
सुंदर।
ReplyDeleteआपकी इस प्रस्तुति का लिंक 13-04-2017 को चर्चा मंच पर चर्चा - 2618 (http://charchamanch.blogspot.com/2017/04/2618.html) में दिया जाएगा
ReplyDeleteधन्यवाद
प्रभावशाली प्रस्तुति...
ReplyDeleteमेरे ब्लॉग की नई प्रस्तुति पर आपके विचारों का स्वागत।
बहुत अच्छी कविता। असलियत नहीं छुपती कभी।
ReplyDeleteदमदार प्रस्तुति
ReplyDeleteअंतः सच सामने आ कर ही रहता है.
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