नागोबा डुलाय लागला ...
बिल्कुल वही है। खाल के ऊपर रेंगता है। वही है। मैं भी तो वही हूँ। बैठा भी वहीं हूँ आज तक। तुम जबसे गयीं, निपट अकेला हूँ। वही शनिवार, वही तीसरा पहर, वही अड्डा, वही बेंच। वही आवाज़ें: तिकीट, तिकीट, तिकीट ... जवळे, शिर्वळ, सांगळी, खंडाळा ...। वही नारे: पानी घाळा1, दारू सोडा2, जय महाराष्ट्र ...। हज़ारों मील चला हूँ। फिर भी वहीं बैठा हूँ। यह कैसी उलटबांसी है? सनक गया हूँ क्या? मैं ही इक बौराना?3
"पुढ़े सरका शर्मा जी" ममता इसी बेंच पर मुझसे चिपककर बैठ गयी है। मैं सकुचाता हूँ तो शरारत से कोहनी मारकर कहती है, "शर्मा जी मुझसे इतना शर्माते क्यों हैं?"
ममता अभी जाकर बस में बैठ गयी है। मुझे अपलक देखकर मुस्कुरा रही है। बस चल पड़ी है। अब चेहरा स्पष्ट नहीं दिखता। हाथ हिला रही है। वीजे की बस आ गई है। वह उतरा है। बिना इधर उधर देखे चला आ रहा है। केवल एक दिन रुककर कल चला जायेगा। ममता परसों वापस आ जायेगी। इन्होंने एक दूसरे को कभी देखा नहीं। फिर भी एक-दूसरे को अच्छी तरह पहचानते हैं। सुनते हैं मेरी बातें। चुप करूँ तो बारबार मुझसे पूछते हैं। सप्ताह भर ममता की शरारत, और सप्ताहांत भर वीजे की टोकाटाकी। ट्वेंटी फोर सेवन, अराउंड द क्लॉक। लगातार, दिन रात।
"मूँछें कटा लो, बूर्ज्वा, ज़मीन्दार, महंत ..." हमेशा किसी न किसी बात पर टोकता है वीजे।
जाने कहाँ से तुम बीच में आ जाती हो। मंत्रमुग्ध सी कहती हो, "हमेशा ऐसी ही रखना। मैजिस्टिक लगते हो तुम।"
"सफेद हो जायेंगी तब तो कटा लूँ?"
"नहीं, तब तो और भी सुन्दर लगोगे। कटाना मत और रंगना भी मत, नैवर ऐवर!" तुम्हारी अंग्रेज़ी भी तुम्हारे रूप जैसी निर्दोष है।
"मूँछें छोड़, अपनी बता ..." मैं वीजे के कंधे पर धौल जमाता हूँ।
"महानता नहीं है, महानता का क्षुद्र भाव है यह मूँछ ..."
"काका से सुलह हुई क्या?"
"बात मत करो बुड्ढे की। जवान लड़के के बाप को शादी की सूझी है।"
"होता है, होता है, अभी तूने दुनिया देखी कहाँ है।"
"नहीं कटाओगे? अरे, मॉडर्न दिखो। भैया ही रहोगे हमेशा?"
"तू भी भैया ही है ... माया का भैया, भैया जी। बड़ा आया भैया वाला।"
"आय ऐम घाटे, मैनेजर ऑफ दिस ब्रांच। बोले तो ... एचआर को कोई समझ भी है क्या? हिमालय के झरनों से उठाकर आपको सीधा यहाँ सात तारों4 के बंजर घाट में भेज दिया। चार महीने में मेरे जैसे भुजंग हो जायेंगे।"
बिल्कुल वही है। खाल के ऊपर रेंगता है। वही है। मैं भी तो वही हूँ। बैठा भी वहीं हूँ आज तक। तुम जबसे गयीं, निपट अकेला हूँ। वही शनिवार, वही तीसरा पहर, वही अड्डा, वही बेंच। वही आवाज़ें: तिकीट, तिकीट, तिकीट ... जवळे, शिर्वळ, सांगळी, खंडाळा ...। वही नारे: पानी घाळा1, दारू सोडा2, जय महाराष्ट्र ...। हज़ारों मील चला हूँ। फिर भी वहीं बैठा हूँ। यह कैसी उलटबांसी है? सनक गया हूँ क्या? मैं ही इक बौराना?3
"पुढ़े सरका शर्मा जी" ममता इसी बेंच पर मुझसे चिपककर बैठ गयी है। मैं सकुचाता हूँ तो शरारत से कोहनी मारकर कहती है, "शर्मा जी मुझसे इतना शर्माते क्यों हैं?"
ममता अभी जाकर बस में बैठ गयी है। मुझे अपलक देखकर मुस्कुरा रही है। बस चल पड़ी है। अब चेहरा स्पष्ट नहीं दिखता। हाथ हिला रही है। वीजे की बस आ गई है। वह उतरा है। बिना इधर उधर देखे चला आ रहा है। केवल एक दिन रुककर कल चला जायेगा। ममता परसों वापस आ जायेगी। इन्होंने एक दूसरे को कभी देखा नहीं। फिर भी एक-दूसरे को अच्छी तरह पहचानते हैं। सुनते हैं मेरी बातें। चुप करूँ तो बारबार मुझसे पूछते हैं। सप्ताह भर ममता की शरारत, और सप्ताहांत भर वीजे की टोकाटाकी। ट्वेंटी फोर सेवन, अराउंड द क्लॉक। लगातार, दिन रात।
"मूँछें कटा लो, बूर्ज्वा, ज़मीन्दार, महंत ..." हमेशा किसी न किसी बात पर टोकता है वीजे।
जाने कहाँ से तुम बीच में आ जाती हो। मंत्रमुग्ध सी कहती हो, "हमेशा ऐसी ही रखना। मैजिस्टिक लगते हो तुम।"
"सफेद हो जायेंगी तब तो कटा लूँ?"
"नहीं, तब तो और भी सुन्दर लगोगे। कटाना मत और रंगना भी मत, नैवर ऐवर!" तुम्हारी अंग्रेज़ी भी तुम्हारे रूप जैसी निर्दोष है।
"मूँछें छोड़, अपनी बता ..." मैं वीजे के कंधे पर धौल जमाता हूँ।
"महानता नहीं है, महानता का क्षुद्र भाव है यह मूँछ ..."
"काका से सुलह हुई क्या?"
"बात मत करो बुड्ढे की। जवान लड़के के बाप को शादी की सूझी है।"
"होता है, होता है, अभी तूने दुनिया देखी कहाँ है।"
"नहीं कटाओगे? अरे, मॉडर्न दिखो। भैया ही रहोगे हमेशा?"
"तू भी भैया ही है ... माया का भैया, भैया जी। बड़ा आया भैया वाला।"
"आय ऐम घाटे, मैनेजर ऑफ दिस ब्रांच। बोले तो ... एचआर को कोई समझ भी है क्या? हिमालय के झरनों से उठाकर आपको सीधा यहाँ सात तारों4 के बंजर घाट में भेज दिया। चार महीने में मेरे जैसे भुजंग हो जायेंगे।"
मेजेस्टिक मूँछें |
कौन हूँ मैं? भोटिया, रंग, नेवारी, गढ़वाली, कुमायूँनी, घाटी, पठान, मंगोल, कोई भी तो नहीं हूँ। पुरखे तो पहाड़ से ही थे। पर वे पहाड़ दूसरे थे - गर्वोन्नत, असीमित, अनंत। तुम्हारे शब्दों में कहूँ तो मैजेस्टिक! लोहित कुण्ड से कश्यप सागर तक, पुरखों के चिह्न आज भी मौजूद हैं। पुरखों के चिह्न? चिह्न तो सब परायी मिल्कियत हैं अब। बस, पुरखे अभी भी हमारे ही हैं। उनको कौन लेगा? सम्पत्ति की कीमत है, बनाने वाले का क्या? ब्रहमपुत्र तुम्हारी हुई, परशुराम हमारे रहे। रेणुका तीर्थ तुम्हारा, रेणु माँ हमारी। खीर तुम्हारी, भवानी हमारी। च्यवनप्राश, अमीरीप्राश, राजभोगप्राश, कोई नाम रख लो, वह सब तुम्हारा, च्यवन बाबा हमारे। आज़ादी तुम्हारी, फाँसी हमारी। अब तो ज्योतिष भी व्यवसाय हो गया है। हर चैनल पर, अखबार में, ज्योतिष की दुकान तुम्हारी, आस बंधाने का दोष हमारा। मन्दिर का धन, संचालन, नियंत्रण तुम्हारा, पूजा हमारी। दान पेटी तुम्हारी, निर्जला व्रत हमारा।
"जेहि विधि राखे राम ...." दादाजी मगन होकर मन्दिर में भजन गा रहे हैं।
हर किसी को अपना अलग घर चाहिये। पाकिस्तान, बांगलादेश, नागालैंड, गोरखालैंड, खालिस्तान, तमिलनाडु, तेलुगु देशम, तेलंगाना, विदर्भ, हरित प्रदेश। और, पुत्रोहम पृथिव्या? अपने ही घर में बेघर! लेकिन ... क्षीरभवानी को भोग कौन लगायेगा? बमियान बुद्धा को भोग कौन लगाता है मूर्ख? भगवान नहीं, तो भोग भी नहीं। मतलब नास्तिक? नहीं! नास्तिक नहीं! दैत्य नास्तिक नहीं, धर्मद्रोही होते हैं। पहले नास्तिकों का साथ लेकर धर्मात्माओं को मारेंगे। धर्मात्माओं के मिटते ही, अब निर्बल हुए नास्तिकों को भी मिटा देंगे। निश्चिंत धर्मद्रोही फिर अपनी मूर्तियाँ लगायेंगे। मन्दिर विवादित ढांचे हो जायेंगे पर नियंत्रणवादी तानाशाहों की मूर्तियाँ अटल रहेंगी। संघे शक्ति कलयुगे। सेंट पीटर्सबर्ग एक झटके में लेनिनग्राद हो गया, वोल्गोग्राद, स्टालिनग्राद बना! क्या लेनिनग्राद फिर से कभी सेंट पीटर्सबर्ग हो सकता है6? बर्लिन की दीवार अटूट है।7 सद्दाम मामू8 अमर रहें। दानव अजेय हैं9।
शिन्दे आता है, विशालकाय। "अरे आप तो ममता मैडम जैसे नाज़ुक हैं। मुम्बई में एक शर्मा दोस्त था मेरा, मुझे लगा वैसे ही होंगे, लम्बे तगड़े" वह कहता नहीं पर उसकी निराशा सुनाई दे रही है कि यह कल का मुळगा यूपी से आ गया अफसरशाही चलाने। हमेशा से यही होता है। श्रीमंत ने कन्नौज से कोटपाल बुलाया था। तब तो हम कुछ नहीं कर पाये थे लेकिन अब बदला ले रहे हैं। हड़ताल कराते हैं। नाटक भी लिखते हैं उसके खिलाफ। बेकार नहीं हैं नाटक। ये नाटक कल इतिहास बदल देंगे। लोग नाटक को इतिहास और इतिहास को कल्पना कहेंगे। कथ्य रह जायेंगे, पर तथ्य मिटा दिये जायेंगे। लोग कहेंगे कि कोटपाल ज़ालिम था। वे कहेंगे कि मन्दिर कभी नहीं था, राम भी नहीं थे। अयोध्या नहीं थी। बुद्ध भी नहीं थे। बमियान भी नहीं था। है कोई सबूत तुम्हारे पास? खुदाई करो, दिखाओ कुछ। बमियान के मलबे से भगवान बुद्ध का कंकाल निकालकर अदालत के सामने पेश किया जाये। दूर के इतिहासकारों ने सिद्ध कर दिया है कि बमियान में बुद्ध कभी नहीं थे, अगर कभी थे भी तो उन्हें वैदिक हिंसा से उडाया गया था - 5000 साल पहले। तालेबान सर्व-धर्म समभाव सिखाता है। उम्मत बनाता है, वसुधैव कुटुम्बकम सिखाता है। जिहादी धर्मान्धों की बारूदी सुरंगें चीनी कम्युनिस्ट धर्महंताओं से खरीदी जाती हैं। नया इतिहास लिखो। आर्य-द्रविड़ संघर्ष की कल्पना रचो। अहिंसा परमो धर्मः के सत्य में धर्म हिंसा तथैव च का झूठा पुछल्ला चिपका दो। कलम तोड़ो, बारूद और पैसे से नया इतिहास लिखो। परंतु लिखने को पैसा कहाँ से आयेगा? अपहरण करेंगे, जो मिलेगा उसका, स्त्रियों का, बच्चों का, कर्मचारियों का, पूंजीपतियों का। पूंजी का विरोध? पूंजी के अपहरण से? वाह बेटा वाह! भविष्य देख नहीं सकते, वर्तमान छू नहीं सकते, इतिहास ज़रूर लिखेंगे, ये मौकापरस्त कीड़े।
इतिहास का कीड़ा पास आ गया है। सरदारजी बोल रहे हैं, "पुच्छमित्तर छुंग"। ब्लैकबोर्ड पर लिख रहे हैं, "पुष्यमित्र शुंग"। बोलने का इतिहास अलग, लिखने का अलग, भोगने का अलग। घर की ईमानदारी अलग, दफ्तर की अलग। मन्दिर का धर्म दूसरा, दुकान का तीसरा? फिर चौथा, पाँचवाँ ...? पाँव पर किसी के रेंगने का वह चिपचिपा, लिजलिजा अहसास। पानी घाळा नारू टाळा10। घर-घर में नारू का प्रकोप है। नारू का कीड़ा, खाल में घुसकर शरीर भर में घूमता रहता है। कैसा लगता होगा? पानी उबालेंगे तो नारू नहीं आयेगा। पर जो आ गया, वह नहीं जायेगा। पर यह नारू नहीं है। अज़गर है क्या? नहीं, यह नाग है। अज़गर जैसे कसता नहीं, डसता है। नारू के जैसे खाल के अन्दर छिपता नहीं, दबंगई से ऊपर रेंगता है।
भोले-भाले, सरल लोग हैं। कभी भी कहीं भी खाने लगते हैं। कभी भी कहीं भी दाँत मांजने लगते हैं। अभी-अभी रुकी बस में बैठी बहिनी कोयले के चूरे से दाँत साफ कर खिड़की से बाहर थूक रही है। थुंको नका। थुंको नका।
एक सुन्दरी मेरे पास आकर कुछ पूछती है। थोड़ी मराठी समझने लगा हूँ पर वह मराठी नहीं बोलती है। फिर भी उसकी मांग समझ आती है। हाथ बढ़ाता हूँ, वह बोतल ले लेती है। मुँह से छुए बिना, साँस रोककर पूरी बोतल पी जाती है। तृप्त हुई। अमृत अधरों से होकर गर्दन भिगोता हृदय तक आता है। मैं सामान्य क्यों नहीं हूँ? अन्दर तक क्यों दिखता है मुझे? उसकी नज़र बचाकर वीजे मुझे आँख मारता है। अचानक गर्मी का अहसास होता है। लेकिन बोतल अब खाली है। कमाल है, पूरे बस अड्डे पर पानी का इंतज़ाम बिल्कुल नहीं है। लोग प्यासे हैं, बेचैन हैं। उनकी प्यास के लिये प्रशासन नहीं मनु ज़िम्मेदार हैं। यहाँ कैसे हो, पानी तो गंगा, यमुना, कावेरी, कहीं भी नहीं बचा है। सब नदियाँ नाला भईं! उसके लिये चाणक्य ज़िम्मेदार है। उसी ने भरा की जड़ में मट्ठा डाला था। पानी को भूल जाओ, मनु को गाली दो, चाणक्य का पुतला जलाओ। उफ़्फ़, सुई जैसा कुछ चुभा अचानक।
शिन्दे बता रहा है, "पोटनीसांचे वड़गाँव11 आज भी दूर दूर तक मशहूर है। बहुत खुशहाली थी यहाँ। गांधीवध के बाद खड़े खेत जला डाले। गांधीद्रोही, देशद्रोही कहकर उजाड़ दिया ब्राह्मणों के घरों को, तोड़ दिया खलिहानों को।"
ब्राह्मण खत्म हुए। जो बचे वे पुणे, मुम्बई, दिल्ली, लंडन चले गये। पोटनीस अब कभी भी वापस नहीं आयेंगे। उनके बनाये ताल, बांध, सब मिटा दिये गये। 1948 में पहली बार सूखा पड़ा था यहाँ। तब से अब तक सब बर्बाद हो गया है। बस्ती के बाहर उजड़े मन्दिर की दशा आज भी वही दास्ताँ बयान करती है। गाँव के नाम से पोटनीसांचे हटाने का आन्दोलन चल रहा है। नया नाम शायद ज्योतिबाफुलेग्राम होगा। मन्दिर का जलकुंड सूख चुका है। लोग प्यासे हैं। मन्दिर की जगह किसी राजनेता की मूर्ति लगेगी। पुरखों के चिह्न?
पंडितों के दरवाज़ों पर कोयले से निशान लगाये जा रहे हैं। "धर, कल यह घर खाली चाहिये।" 1989 में पहली बार काली बर्फ गिरी थी। बकवास है, बर्फ कभी काली नहीं होती। पण्डित कभी कश्मीर में नहीं रहते थे। पण्डित नेहरू को गौस अली ग़ाज़ी का रिश्तेदार बता दो। बाकी काम अपने आप हो जाएगा। वादी ... मतलब नर्क। भूखे नंगे शरीर गैस चैम्बर में लाये जा रहे हैं। क्या हिटलर कभी हारेगा? यहूदियों को उनका इसराइल वापस मिलेगा? क्या वे शांति से रह पायेंगे? इस्राइल बन भी गया तो क्या यहूदियों से भी अधिक सताये गये रोम12 और डोम13 लोगों को अपना घर मिलेगा? क्या रोम यूरोप में और डोम मध्य-पूर्व में अनंत काल तक भटकेंगे? त्रिशंकु को चैन कब मिलेगा?
कमनीय लड़की चली गयी है। कन्नड़ बोल रही थी। लेकिन, ... कन्नड़ तो मुझे अच्छी तरह आती है। ठीक तो है, तभी तो समझ सका उसकी बात। प्यास को किसी भाषा की ज़रूरत नहीं होती। दोष जल-प्रबन्धन का नहीं है। दोष जाति का है, क्षेत्र का है। दोष भाषा का है। तुम तो अंग्रेज़ी और तमिळ बोलती थीं। हिन्दी का एक शब्द भी नहीं जानती थीं। सीखी भी नहीं। हमारा संवाद फिर भी था। कैसे? संस्कृत वाक्? तमिळ संगम? मौन रागम्? मुझसे क्यों डरती थीं तुम? हम तुम्हारी भाषा, संस्कृति क्यों मिटायेंगे? हमारी तो स्वयम् की भाषा, संस्कृत, संस्कृति सब मिट गयी। अपने ही देश में बेगाने हो गए। हाशिये पर भेजकर धीरे धीरे शांत कर दिये गए। ॐ शांतिः शांतिः शांतिः! यह कोई मामूली सुई नहीं, तीक्ष्ण तीर है। पाँव पर रेंगते नाग ने मुझे डस लिया है शायद। फुफकार तो सुनाई नहीं दी। काल की लाठी बेआवाज़ होती है। क्या यह नाग मेरा काल है?
गीत चल रहा है, "यम के दूत बडे मरदूतैं, यम से पड़ा झमेला... उड़ जायगा... हंस अकेला"।14 वीजे को कुमार गंधर्व पसन्द नहीं हैं। वह मेरे कमरे में खड़ा नाक भौं सिकोड़ रहा है। उसके मूँछ नहीं है।
"हंस अकेला ... ये क्या रोन्दू गाने सुनते रहते हो?" वीजे हमेशा टोकता रहता है।
"हवा हवा, खालेद, पॉप? पाकिस्तान, अरब, अमेरिका? क्या चाहिए?"
"आजकल ग़ज़ल का चलन है" वह कैसेटों के ढेर में छिप सा गया है।
"ये लो ग़ुलाम अली, जगजीत सिंह .... सब तो हैं।"
शिन्दे अपने दोस्त शर्मा के बारे में बताते हुए तैश में आ गया है, "मुम्बई में शर्मा क्यों नहीं होगा? गुजराती, बंगाली, अन्ना, बाबा सब है वहाँ, बस मराठा माणस नहीं है। है भी तो फक्त हम्माली (शारीरिक श्रम) करता है। घाटी (पहाड़ी/मराठी) शब्द तो एक गाली है मुम्बई में।"
देश में कहीं भी चले जाओ, स्थानीय आदमी अबला ही है। सदा का सताया हुआ, सहमा हुआ, शोषित, पद-दलित। घर का जोगी जोगड़ा, ठग बाहर का सिद्ध! सताया हुआ आदमी कोई भी अपराध कर सकता है। उसे सज़ा नहीं होती, उससे वार्ता होती है। उसके लिये पैकेज बनते हैं। पैकेज से समृद्धि आती है। यह विकास का मार्ग है। विकासमार्गी, प्रगतिशील, उन्नत वर्ग की दिशा-दशा। इसीलिये आम आदमी को विद्रोह करने के लिये तैयार करते हैं ये नरभक्षी। उसे सुसाइड बॉमर बनाते हैं। भूसा तैयार है। जिस किसी के पास दियासलाई की एक तीली हो, आ के जला दे। अरे, कोई है?
इस मुल्क ने जिस शख्स को जो काम था सौंपा,
उस शख्स ने उस काम की माचिस जला के छोड़ दी15।
शिन्दे चाय लेने अन्दर चला गया है। दीवार पर भीमराव आम्बेडकर की बड़ी सी तस्वीर है। मैं ध्यान से देखता हूँ। वाद-विवाद में हमेशा प्रथम आता था मैं। नर्सरी से कॉलेज तक, कभी भी लिखा हुआ भाषण नहीं पढ़ा। आम्बेडकर पर प्रतियोगिता थी। भाषण प्रतियोगिता में दस हज़ार रुपये का इनाम? पहले कभी सुना नहीं था। पहली बार स्टेशन जाकर आम्बेडकर पर एक किताब खरीदी थी। कितनी मेहनत करके भाषण की तैयारी की थी। जीवन का सबसे अच्छा भाषण उसी दिन दिया था। मुझे कोई इनाम नहीं मिला। जो जीते वे तो सांत्वना पुरस्कार के लायक भी नहीं थे। एक निर्णायक ने बाद में मुझे बाहर ले जाकर कहा, "एक शर्मा को इनाम देना तो उलटबाँसी हो जाता।" तुम्हें क्या मालूम उलटबाँसी क्या होती है? उलटबाँसी में विरोधाभास नहीं होता है। तुमने कबीर को केवल पढ़ा है। हम तो दिन रात कबीर को जीते हैं। पोथी पढ़-पढ़ जग मुआ ...।
चर्बी का चलता फिरता ढेर अपने झोले में से टॉर्च निकालकर ग़रीब किसान-मज़दूरों को आशा की किरण दिखा रहा है। मज़दूर सम्मोहित से बैठे हैं। मुझे स्पष्ट दिख रहा है कि झोले के अन्दर बंधी हुई आशा छटपटाकर चिल्लाने की कोशिश कर रही है। जब तक मैं कुछ करूँ चर्बी के ढेर ने उसका गला दबा दिया है। मैं बेंच से उठना चाहता हूँ परंतु मेरा दर्द बढ़ता जा रहा है। क्या मेरा दर्द आशा के दर्द से, मज़दूरों की मजबूरी से बड़ा है? मज़दूरों को अभी भी किरण की आशा है। मेरी चुभन और बढ़ गयी है। मुझे लगा था कि नाग अपना ज़हर मुझमें उड़ेलेगा मगर यह तो उलटा मेरा खून पीने लगा है। हवा तेज़ हो गयी है। हवा में उड़ते कूड़े में सुन्दरी की फेंकी खाली बोतल भी है। दर्द असहनीय हो गया है।
"ग़ज़लें तो अच्छी सुना करो, जैसे कि पंकज उद्हास...।"
"देखो वह है तो एक, उधर ..."
"यह उसकी सबसे बेकार ऐलबम है ... अरे कुछ नशा, शराब, मय....पीना, पिलाना ..."
"पीजिये," शिन्दे चाय लेकर आता है, मुझे चित्र देखता पाकर झेंपता हुआ कहता है, "अम्बेडकर की तस्वीर मैंने नहीं लगाई है। वह तो मकानमालिक ने पहले से ही लगाकर रखी थी। ... हम वो नहीं हैं जो आप समझ रहे हैं।"
मैं उठकर चलने का प्रयास करता हूँ मगर हिल भी नहीं पाता। बैंच और मैं एकाकार हो गये हैं। नहीं, यह असम्भव है। नाग ने मुझे जकड़ रखा है। वह मज़े से मेरा खून पी रहा है। ख़बरें आती जा रही हैं, उत्तराखंड अलग हो गया है। नन्द ऋषि की दरगाह अब चरारे-शरीफ़ कहलायेगी। परशुरामपुरी का नया नाम कुल्हाड़ा पीर है। सम्पत्ति तुम्हारी हो गयी तो क्या, पुरखे तो मेरे हैं। उनका नाम मत छीनो। वड़गाँव ले लो, दरगाह ले लो परंतु नन्द ऋषि को मत मारो, धर और पोटनीस को बेघर मत करो।
लोग प्यासे हैं। अब प्लास्टिक की बोतल में पानी है, मगर गन्दा, नाले का पानी। लेबल पर अभी भी अंग्रेज़ी में गैंजेस लिखा है। नाग मुझे छोड़ देता है। वह झूम रहा है। मानो नशे में हो। अब मैं ठीक हूँ। बेंच से उठ भी सकता हूँ शायद। मगर उठता नहीं। तुम जो पास नहीं हो। अलगाव ज़रूरी था क्या?
नाग मदमस्त होकर गा रहा है, "विलांची नागिन निगाली, नागोबा डोलाय लागला16!"
तुम गुस्से में कहती हो, "डोन्ट इम्पोज़ हिन्दी ऑन अस।"
वीजे हँसकर कहता है, "मूँछें कटा लो।"
[समाप्त]
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1 पानी घाळा = पानी उबालो (मराठी)
2 दारु सोडा = शराब छोडो (मराठी)
3 सगरी दुनिया भई सयानी, मैं ही इक बौराना ~ संत कबीर (विप्रमतीसी)
4 तारा = पहाड़ (मराठी); उदाहरण: सातारा = सात+तारा = सात पर्वतों का नगर
5 नर्क = नीची ज़मीन (संस्कृत)
6,7,8,9 तब का सच अब झूठ साबित हो चुका है
10 पानी घाळा नारू टाळा = पानी उबालने से नारू (हुकवर्म) से बच सकते हैं।
11 पोटनीस ब्राह्मणों का वड़गाँव (एक गाँव का नाम)
12 रोम (gypsy जनजातियाँ) = महमूद गज़नबी, मुहम्मद गौरी और तैमूर लंग के हमलों के समय भारत से विस्थापित हुई वे बंजारा जनजातियाँ जो आज तक यूरोप में सताई जा रही हैं। इनकी भाषा रोमानी है।
10 पानी घाळा नारू टाळा = पानी उबालने से नारू (हुकवर्म) से बच सकते हैं।
11 पोटनीस ब्राह्मणों का वड़गाँव (एक गाँव का नाम)
12 रोम (gypsy जनजातियाँ) = महमूद गज़नबी, मुहम्मद गौरी और तैमूर लंग के हमलों के समय भारत से विस्थापित हुई वे बंजारा जनजातियाँ जो आज तक यूरोप में सताई जा रही हैं। इनकी भाषा रोमानी है।
13 डोम = रोम (gypsy जनजातियाँ) की वे शाखाएँ जो मध्य-पूर्व में गन्धार, उज़्बेकिस्तान और ईरान से लेकर फिलिस्तीन, सीरिया और तुर्की तक पाई जाती है। यह शिल्पकार लोग आज भी मौलिक मानवाधिकारों से वंचित हैं। इनकी अपनी बोलियों (डोमरी, चूड़ेवाली, मेहतर, कराची) के शब्द आज की हिन्दी जैसे ही हैं।
14 संत कबीर की एक रचना
15 पीयूष मिश्र का संवाद, गुलाल फिल्म से (इसे फिल्म की सिफारिश न समझें)
16 एक मराठी लोकगीत
15 पीयूष मिश्र का संवाद, गुलाल फिल्म से (इसे फिल्म की सिफारिश न समझें)
16 एक मराठी लोकगीत
दर्द कम कैसे हो. इस दर्द का कोई इलाज कम से कम अभी तो नहीं दिखाई देता. अभी भी एक सम्पूर्ण क्रान्ति जैसी किसी चीज की आवश्यकता है.
ReplyDeleteसरजी,
ReplyDeleteप्रणाम स्वीकार कर लें।
सारी उम्र की बोर्ड पीट कर अगर मैं ऐसी एक पोस्ट लिख सका तो खुद को धन्य मान लेने में कोई उज्र नहीं होगा, सीरियसली।
अलबत्ता, जारी वाला जुल्म न करके एक सिटिंग में इस उथलपुथल को पढ़ने का मौका दिया आपने, इसके लिये धन्यवाद।
मैं संजय के पीछे छुपा हुआ, दुबारा पढ़ रहा हूँ :-(
ReplyDeleteशुभकामनायें !
वर्धा महाराष्ट्र में रहते हुए मुझे यह चित्र कुछ अधिक ही स्पष्ट नज़र आ रहा है। मराठी मानुष की दृष्टि मेरे छोटे-छोटे बच्चों पर भी है।
ReplyDeleteआपका क्लाइडोस्कोप बहुत अच्छा है।
नमस्कार,
ReplyDeleteक्या लेखा जोखा है...तो आपको भी मूंछ पे मूंछ महापुराण सुनना पडा है.....वैसे भी हम-आप जैसे अल्पसंख्यक बचे हैं....लिखने का अंदाज़ सबसे पसंद आया...
@शिन्दे चाय लेकर आता है, झेंपता हुआ कहता है, "अम्बेडकर की तस्वीर मैने नहीं लगाई है। वह तो मकानमालिक ने पहले से ही लगाकर रखी थी। हम वो नहीं हैं जो आप समझ रहे हैं।"
ReplyDeleteचित्रों से ही लोग धारणा बना लेते हैं।
निशब्द हूँ ... क्या कहूँ इस कहानी पर ...बस बाँध के रख दिया है इसने
ReplyDeleteमै भी संजय मोसम जी के पीछे खडी हूँ। लाजवाब कहानी। धन्यवाद
ReplyDeleteअद्भुत ! शानदार लेखन । क्या कहूँ! कहानी कहूँ या समकालीन सामाजिक दंश का संग्रहणीय दस्तावेज!
ReplyDelete..आपकी लेखनी को प्रणाम।
लाजवाब कहानी ....चित्रों का प्रसंग असली ज़िन्दगी में भी देखा है ..... ये सच में खास इमेज बना देते है....
ReplyDeleteअद्भुत,विचार श्रेणी का सजीव चित्रण!!!!
ReplyDeleteहतप्रभ हूँ, किस पंक्ति को कोट करूँ,प्रभाव जताने के लिये। सब समेट लिया आपने, एक यात्रा एक आलेख एक संस्मरण, कम शब्द और सम्पूर्णता लिये प्रवाह!!
बधाई दूँगा नहीं,बधाई लूँगा 'मैने यह आलेख पढा'
शानदार पोस्ट है।
ReplyDeleteमुंबई में रहते रहते अक्सर इस तरह के वाकयों से दो चार होता रहता हूं.....ऐसा लगता है जैसे एक तरह की असुरक्षा की भावना भूसे का रूप ले चुकी है यहां के स्थानीय लोगों में....और स्थानीय भी कहां के.....जो भी हैं ज्यादातर रत्नागिरी, सांगली, नागपुर, नासिक, कोंकण आदि क्षेत्र से आकर बसे लोग हैं।
मूल निवासी के नाम पर पॉलिटीकल चिलगोजई होती है सो अलग।
उफ्फ़, आह , वाह.....
ReplyDeleteचरमोत्कर्ष..
कितनी तेज़ी आँखों के आगे विभिन्न तस्वीरें घूमती रही. कितना सोच कर मध्यम मध्यम लिखा गया होगा..
बेहतरीन लेख के लिए बहुत बहुत बधाई स्वीकार करें.
कहानी के इस दर्द को बड़ी आबादी रोज जी रही है ...
ReplyDeleteअद्भुत लेखन !
पढ़ चुकी ,पर लग रहा है अभी खत्म नहीं हुआ कुछ शेष रहा जा रहा है .
ReplyDeleteअरे वाह एक आख्यान में ही सारा इतिहास पुराण और नीति राजनीति मजहब जेहाद आंतकवाद सब सिमट आया बड़ी संश्लिष्ट रचना मगर क्लिष्ट नहीं ...
ReplyDeleteकमाल का लिखा है...सबके मन का दर्द सिमट आया है
ReplyDeleteबहुत उपयोगी आँकड़े पेश किये हैं आपने
ReplyDeleteइस आलेख में!
कितनी उक्तियां रच डाली है आपने एक साथ. ''बोलने का इतिहास अलग, लिखने का अलग, भोगने का अलग। घर की ईमानदारी अलग, दफ्तर की अलग। मन्दिर का धर्म दूसरा, दुकान का तीसरा? फिर चौथा, पांचवाँ...।'' इस पर बार-बार लौट रहा हूं एक, दो, तीन, चार, पांच ...
ReplyDeleteआम तौर पर टिप्पणी के लिये अवाक् और स्तब्ध करने वाली पोस्ट जैसे शब्दों के सख़्त ख़िलाफ रहा हूँ मैं!! लेकिन आज सचमुच अवाक् हूँ, उस्ताद जी! कभी ऐसा कुछ या इसका शतांश भी लिख पाऊँ तो जीवन सुफल मानूँगा!
ReplyDeleteइसे इतिहास कहूँ, समाजशास्त्र कहूँ या पौराणिक दस्तावेज.. या फिर एक आईना... शायद!!! धन्यवाद!
कहानी की प्रशंसा में सिर्फ इतना ही कहूँगा की यहाँ आज वाया "एक आलसी का चिटठा" आया हूँ और आकर भारतीय टीम की चल रही पिटाई का गम भुला बैठा.
ReplyDeleteनिशब्द, बस झुक कर एक प्रणाम।
ReplyDeleteमन का दर्द सिमट आया
ReplyDeleteबेहतरीन लेख के लिए बधाई स्वीकार करें.
बहुत से एहसासों को समेटे एक खुबसूरत रचना |
ReplyDeleteअंदाज़ लाजवाब |
तब का सच अब झूठ.
ReplyDeleteअब का सच भी कल झूठ साबित हो... !
सौभाग्य है जो यह मास्टर पीस पढने का सुयोग मिला.....
ReplyDeleteएक शब्द नहीं सूझ रहा जो अभी कह पाऊं....
नमन नमन नमन.... आपको...आपकी लेखनी को...
यह पोस्ट एक ऐतिहासिक दस्तावेज लग रही है. इतने सरल और प्रभावी ढंग से इस विषय पर कलम चलाना आसान काम नही है, बहुत शानदार आलेख, शुभकामनाएं.
ReplyDeleteरामराम.
अनुराग जी, बहुत अच्छा था वो दिन जब मैं आपके यहाँ आया था, जिससे ये पढने को मिल सका।
ReplyDeleteस्तब्ध हैं एक और जोड़ी आँखें!!!
धन्यवाद इसे लिखने का।
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ReplyDelete.
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शानदार... दर्द व द्वंद दोनों को उभारता शब्दचित्र... क्या किया जाये ?...
गिरिजेश जी के ब्लॉग से यहाँ आया... आना सार्थक हुआ...
जो लोग यह कहते हैं कि ब्लॉग पर कुछ भी रचनात्मक नहीं रचा जा रहा... उन्हें यह पोस्ट पढ़नी चाहिये...
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भावपूर्ण पोस्ट,आनंद आ गया,आभार.
ReplyDeletejaise muthhi se ret nikal gaya ho....
ReplyDeleteyse hi na jane waqt ki kitne ...... fasle .... fisalte gaye ......
'ek sampoorn rachna'.....anandam.
pranam.
दो दिन से मैं इंटरनेट से दूर था इसलिए यह पोस्ट समय से नहीं पढ़ पाया. अभी भी पूरा नहीं पढ़ा क्योंकि यह चलताऊ नज़र में पढ़ने लायक पोस्ट नहीं है. सुकून से दो तीन बार पढ़ने के बाद ही पूर्णतः ग्रहण कर पाऊंगा. पर फौरी तौर पर दो बातें तो कह ही सकता हूँ-
ReplyDelete1. ब्लॉग एक शक्तिशाली माध्यम है और इसका सदुपयोग कैसे किया जाता है यह आपकी इस पोस्ट से पता चलता है. अब मुझे अहसास हुआ के मैं अब तक यहाँ सिर्फ टाइम पास और मौज मस्ती ही करता रहा हूँ.
2. इस जैसा लेख लिखना तो दूर इस पर टिप्पणी करने लायक भी मैं खुद को नहीं समझता. मैं भी निस्तब्ध और निःशब्द हूँ.
अंदर एक कसक सी महसूस कर रहा हूं इस प्रविष्टि को पढते हुए ! ठीक वो...जिन अनुभूतियों से आप इसे लिखते वक़्त गुजरे होंगे !
ReplyDeleteअपनी जड़ों को ढूंढना और उस पर गर्व करना अलग बात है पर घमंड करना अलग ! मसलन रानी लक्ष्मी बाई को अपना स्वीकारते हुए किस भैय्ये ने सोचा कि वो मराठी मुलगी है ?
लेकिन कितने मराठी मानुष , भैय्यों के बारे में सोच की ऐसी सहजता रख पाये होंगे ?
मराठों के आप्रवास राजनैतिक और आर्थिक दोनों थे
और भैय्यों के ?...पर समय ने प्रतिसाद और प्रतिकार दोनों के मायने बदल दिए हैं ! मुझे ऐसा क्यों लगता है कि आज हम प्रेम से अधिक घृणा में जीवन जीते हैं ! वर्ना सोच की तंगहाली और जातिगत /भाषाई /आंचलिक /धार्मिक खेमेबंदियों वगैरह वगैरह को क्या कहा जाए ?
इधर आप पहाड़ से नाता जोड़ रहे थे उधर मुझे ख्याल आया कि अब वो शिखर कहां होना चाहिए जिसमें मनु और इला ने नाव बांधी होगी ! शायद ये एक जगह है जहां हम एक दूसरे के प्रेम में रह पाते / रह सकते हैं !
बहरहाल आपकी पोस्ट को एक शब्द की प्रतिक्रिया देनी हो तो कहूँगा अदभुत !
ग़ज़ब. भाई आज तो आपने क़लम तोड़ दी.
ReplyDelete@ भारतीय नागरिक जी,
ReplyDeleteअगर हम लोग समग्र क्रांति का इंतज़ार करेंगे तो कुछ भी नहीं बदलेगा। जहाँ हो जैसा हो, थोडा-थोडा करके, छोटे-छोटे किले फतह करने से ही शुरूआत होगी।
सहमत
Delete@सुज्ञ जी,
ReplyDeleteबधाई और धन्यवाद!
@रश्मि जी, सिद्धार्थ जी, पंचम जी,
ReplyDeleteमहाराष्ट्र में रहने वालों उत्तर भारतीयों को निश्चय ही इस पोस्ट की उथलपुथल समझने में आसानी होगी। लेकिन सच यह है कि क्षेत्रवाद, जातिवाद, अलगाववाद और निहित स्वार्थ के नाग हमें देश के हर कोने में डस रहे हैं। मुझे लगता है कि हर हिंसा और द्वेष के पीछे अज्ञान और भय का अन्धकार छिपा है। प्रश्न है कि इस अन्धकार को कैसे मिटाया जाये।
@ मोनिका जी, निर्मला जी, सतीश जी, नचिकेता जी, ललित जी, मनोज जी, शास्त्री जी,
ReplyDeleteआप सबका आभार!
लाजवाब है.....
ReplyDeleteVery nice blog management thank you for sharing.
ReplyDeletespeechless !!
ReplyDeleteकुछ कह पाना कठिन है. हाल तो यह है कि कुछ छाती ठोककर जाति भी बताते हैं और उसके आधार पर अपना अधिकार भी मांगते हैं और कुछ छिपकर संकल्प लेते समय ही शर्मा हैं कह पाते हैं.
ReplyDeleteमैं भी यही मानना चाहूँगी कि बामयन में बुद्ध कभी थे ही नहीं. वे होते तो वे भी कभी अपने वहाँ होने का सच शर्म के मारे छिपा जाते. कौन अपने को वहाँ का पुरखा या अपने शिष्यों को वहाँ का पुरखा कहना चाहेगा?
बहुत गहरी चोट करती पोस्ट है.
घुघूतीबासूती
@ वर्षा जी, शिल्पा जी, घुघूती जी,
ReplyDeleteआपका हार्दिक आभार!
किसी ने हमारी भी कही और खूब तो कही । नमन आपकी लेखनी को ।
ReplyDelete:)
Deleteमुझे तो गाँव में बहुत पहले आने वाला सनेमा का डब्बा, क्या कहते हैं - हाँ बायोस्कोप याद आ गया. अब तो मूंछ मुंड ही गई होगी
ReplyDeleteन जी, वह तो लगता है जान के साथ ही जाएगी ...
Deleteअनुराग जी...शब्द वाक़ई नहीं है तारीफ़ में कुछ कहने को..पर एहसास भर गयी है आपकी क़लम. पूरी कहानी में आधे वक़्त तो बस विस्मय रस ही प्रबल रहा मेरे मन मस्तिष्क पर. कितना वृहद कैनवास है आपके चिंतन-मनन और जीवन-दर्शन का..और वृहद हो के भी खूब समेटा है शब्दों के अभिव्यक्ति से विचारों की सीमा में. बहुत सीखने मिला.
ReplyDeleteधन्यवाद रीतेश!
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