अरे भाई, इसमें इतना आश्चर्यचकित होने की क्या बात है? जब दूर के रिश्तेदार हो सकते हैं, दूर की नमस्ते हो सकती है, दूर के ढोल सुहावने हो सकते हैं तो फ़िर दूर के इतिहासकार क्यों नहीं हो सकते भला?
साहित्य नया हो सकता है, विज्ञान भी नया हो सकता है। दरअसल, कोई भी विषय नया हो सकता है मगर इतिहास के साथ यह त्रासदी है कि इतिहास नया नहीं हो सकता। इतिहास की इसी कमी को सुधारने के लिए आपकी सेवा में हाज़िर हुए हैं "दूर के इतिहासकार"। यह एकदम खालिस नया आइटम है। पहले नहीं होते थे।
पुराने ज़माने में अगर कोई इतिहासकार दूर का इतिहास लिखना चाहता भी था तो उसे पानी के जहाज़ की तलहटी में ठण्ड में ठिठुरते हुए तीन महीने की बासी रसद पर गुज़ारा करते हुए दूर देश जाना पड़ता था। सो वे सभी निकट की इतिहासकारी करने में ही भलाई समझते थे।
अब, आज के ज़माने की बात ही और है। कंप्यूटर, इन्टरनेट, विकिपीडिया, सभी कुछ तो मौजूद है आपकी मेज़ पर। कंप्युटर ऑन किया, कुछ अंग्रेजी में पढा, कुछ अनुवाद किया, कुछ विवाद किया - लो जी तैयार हो गया "दूर का इतिहास"। फ़िर भी पन्ना खाली रह गया तो थोड़ा समाजवाद-साम्यवाद भी कर लिया। समाजवाद मिलाने से इतिहास ज़्यादा कागजी हो जाता है, बिल्कुल कागजी बादाम की तरह। वरना इतिहास और पुराण में कोई ख़ास अंतर नहीं रह जाता है।
जहाँ एक कार्टून बनाना तक किसी मासूम की हत्या का कारण बन जाता हो वहाँ दूर का इतिहास लिखने का एक बड़ा फायदा यह भी है कि जान बची रहती है. बुजुर्गो ने कहा भी है -
देखिये आपके टोकने से हम ख़ास मुद्दे से भटक गए। मैं यह कह रहा था कि अपने आसपास की बात लिखने में जान का ख़तरा है इसलिए "दूर के इतिहासकार" दूर-दराज़ की, मतलब-बेमतलब की बात लिखते हैं। कभी-कभी दूर-दराज़ की बात में भी ख़तरा हो सकता है अगर वह आज की बात है। इसलिए हर दूर का इतिहासकार न सिर्फ़ किलोमीटर में दूर की बात लिखता है बल्कि घंटे और मिनट में भी दूर की बात ही लिखता है।
दूर के इतिहासकार होने के कई फायदे और भी हैं। जैसे कि आपकी गिनती बुद्धिजीविओं में होने लगती है. आप हर बात पर भाषण दे सकते है। चमकते रहें तो हो सकता है पत्रकार बन जाएँ। और अगर न बन सके तो कलाकार बन सकते हैं। और अगर वहाँ भी फिसड्डी रह गए तो असरदार बन जाईये। असरदार यानी कि बिना पोर्टफोलियो का वह नेता जिसकी छत्रछाया में सारे मंत्री पलते है।
तो फ़िर कब से शुरू कर रहे हैं अपना नया करियर?
साहित्य नया हो सकता है, विज्ञान भी नया हो सकता है। दरअसल, कोई भी विषय नया हो सकता है मगर इतिहास के साथ यह त्रासदी है कि इतिहास नया नहीं हो सकता। इतिहास की इसी कमी को सुधारने के लिए आपकी सेवा में हाज़िर हुए हैं "दूर के इतिहासकार"। यह एकदम खालिस नया आइटम है। पहले नहीं होते थे।
पुराने ज़माने में अगर कोई इतिहासकार दूर का इतिहास लिखना चाहता भी था तो उसे पानी के जहाज़ की तलहटी में ठण्ड में ठिठुरते हुए तीन महीने की बासी रसद पर गुज़ारा करते हुए दूर देश जाना पड़ता था। सो वे सभी निकट की इतिहासकारी करने में ही भलाई समझते थे।
अब, आज के ज़माने की बात ही और है। कंप्यूटर, इन्टरनेट, विकिपीडिया, सभी कुछ तो मौजूद है आपकी मेज़ पर। कंप्युटर ऑन किया, कुछ अंग्रेजी में पढा, कुछ अनुवाद किया, कुछ विवाद किया - लो जी तैयार हो गया "दूर का इतिहास"। फ़िर भी पन्ना खाली रह गया तो थोड़ा समाजवाद-साम्यवाद भी कर लिया। समाजवाद मिलाने से इतिहास ज़्यादा कागजी हो जाता है, बिल्कुल कागजी बादाम की तरह। वरना इतिहास और पुराण में कोई ख़ास अंतर नहीं रह जाता है।
जहाँ एक कार्टून बनाना तक किसी मासूम की हत्या का कारण बन जाता हो वहाँ दूर का इतिहास लिखने का एक बड़ा फायदा यह भी है कि जान बची रहती है. बुजुर्गो ने कहा भी है -
जान है तो दुकान है,नहीं समझ आया? अगर आसानी से समझ आ जाए तो सभी लोग नेतागिरी छोड़कर इतिहासकार ही न बन जाएँ? चलिए मैं समझाता हूँ, माना आप आसपास का इतिहास लिख रहे हैं और आपने लिख दिया कि पाकिस्तान एक अप्राकृतिक रूप से काट कर बनाया हुआ राष्ट्र है तो क्या हो सकता है? हो सकता है कि आप ऐके ४७ के निशाने पर आ जाएँ। दूर का इतिहासकार अपनी जान खतरे में नहीं डालता। वह पास की बात ही नहीं करता। वह तो ईरान-तूरान सब पार करके लिखेगा कि इस्राइल नाम की झील अप्राकृतिक है। अच्छा जी! इस्रायल एक झील नहीं समुद्र है? इतिहासकार मैं हूँ कि आप? यही तो समस्या है हम लोगों की कि किसी भी बात में एकमत नहीं होते हैं। अरे आज आप राजी-खुशी से मेरी बात मान लीजिये, कल तो मैं बयानबाजी, त्यागपत्र, धरना, पिकेटिंग, सम्मान-वापसी कर के ख़ुद ही मनवा लूँगा।
वरना सब वीरान है.
देखिये आपके टोकने से हम ख़ास मुद्दे से भटक गए। मैं यह कह रहा था कि अपने आसपास की बात लिखने में जान का ख़तरा है इसलिए "दूर के इतिहासकार" दूर-दराज़ की, मतलब-बेमतलब की बात लिखते हैं। कभी-कभी दूर-दराज़ की बात में भी ख़तरा हो सकता है अगर वह आज की बात है। इसलिए हर दूर का इतिहासकार न सिर्फ़ किलोमीटर में दूर की बात लिखता है बल्कि घंटे और मिनट में भी दूर की बात ही लिखता है।
दूर के इतिहासकार होने के कई फायदे और भी हैं। जैसे कि आपकी गिनती बुद्धिजीविओं में होने लगती है. आप हर बात पर भाषण दे सकते है। चमकते रहें तो हो सकता है पत्रकार बन जाएँ। और अगर न बन सके तो कलाकार बन सकते हैं। और अगर वहाँ भी फिसड्डी रह गए तो असरदार बन जाईये। असरदार यानी कि बिना पोर्टफोलियो का वह नेता जिसकी छत्रछाया में सारे मंत्री पलते है।
तो फ़िर कब से शुरू कर रहे हैं अपना नया करियर?
समाजवाद को इतिहास में कैसे मिलाते हैं? सोवियत संघ की तरह?
ReplyDeletewat n idea sir ji
ReplyDeleteनेक विचार हैं ..सोच विचार करते हैं इस पर ..:)
ReplyDeleteदूर के इतिहासकार होने के कई फायदे और भी हैं. जैसे कि आपकी गिनती बुद्धिजीविओं में होने लगती है. आप हर बात पर भाषण दे सकते है. चमकते रहें तो हो सकता है पत्रकार बन जाएँ.
ReplyDelete" hmm what a wonderful thought and sugegstion.... try kiya ja sekta hai"
Regards
history को तो mystery बना दिया आपने। जवाब नहीं आपका।
ReplyDeleteतो फ़िर कब से शुरू कर रहे हैं अपना नया करियर?
ReplyDelete-------
मैं तो केवल आगाह ही कर सकता हूं। इस फील्ड में बड़ा कम्पीटीशन है। बड़ी गोलबन्दी। आप अगर कोई लाइन टो नहीं करते तो अपनी इज्जत हाथ पर रख कर वेंचर करें इस प्रकार के क्षेत्र में। :-)
aaj hi se
ReplyDeleteअरे आज आप राजी-खुशी से मेरी बात मान लीजिये, कल तो मैं धरना, पिकेटिंग कर के ख़ुद ही मनवा लूँगा.
ReplyDeleteअभी कुछ दिन पहले ही आ.शिवकुमारजी मिश्रा ने कुछ एजेंडे शामिल किए थे ! और मैंने उनसे निवेदन किया था की आपके
एजेंडे में ताऊ की भैंस और लट्ठ छुट गया है ! एक बार आप इसको एजेंडे में शामिल करवा दीजिये ! बाक़ी हम संभाल लेंगे !
और इससे हमारे दादागुरु आ. पाण्डेय जी भी सहमत थे की लट्ठ और भैंस को शामिल किया जाना चाहिए !
( यह उनके ब्लॉग पर ४ सितम्बर की "बहस" नामक पोस्ट थी ! एक बार आप जरुर देखे " बहुत गजब का लेखन था )
उसी तरह आपने भी कमाल की रफ़्तार पकडी है ! मुझे इतना आनंद आया की मैं आपकी इस पोस्ट पर कुछ भी टिपणी
करूंगा वह कमजोर पड़ेगी ! मेरी इधर की पसंदीदा पोस्ट "बहस" रही है और आज दूसरी आपकी हो गई ! बहुत बधाई !
शीर्षक तो बहुत ही रोचक है,लेकिन अपननी मोटी अक्ल पर पूरा जोर लगाकर विषय के सार तक पहुँचने के प्रयासके बावजूद भी ठीक ठाक समझ नही आया कि आपने क्या इंगित करना चाहा है.थोड़ा प्रकाश डालें तो बड़ा अच्छा रहेगा.
ReplyDeleteरंजना जी, बहुत धन्यवाद!
ReplyDeleteमैं देख रहा हूँ कि कुछ लोग अंग्रेजी सूत्रों से नक़ल टीपकर बुद्धिजीवी पोस्ट बना रहे हैं और उसमे भी तथ्यों को अपने स्वार्थ-सिद्धि के लिए तोड़-मरोड़ कर पेश कर रहे हैं. एक आम पाठक को ज़्यादा जानकारी भी नहीं है कि वह ऐसे लेखों की असलियत समझ सके. ऐसे लोग दूर-दूर के बेमतलब मुद्दों पर बहस में उलझाकर अपने आसपास की ज्वलंत समस्याओं के चिंतन से ध्यान भी हटा रहे हैं और इस प्रक्रिया में आम-जन और देश का काफी अहित कर रहे हैं. मैंने बस इसी मुद्दे को एक व्यंग्य की तरह रखने की कोशिश की है. व्यंग्य लिखने का तजुर्बा नहीं है, शायद इसलिए बात साफ़ नहीं कह पाया.
धन्यवाद!
बहुत सुंदर विचारात्मक लेख लिखा है. अच्छा लगा. बधाई.
ReplyDeleteजब हमारे देश के टी वी अंट शंट बक सकते हे तो हम क्यो नही दुर ओर आप के इतिहास कार बन सकते, बस आप जेसे मार्ग दर्शक होना चाहिये.
ReplyDeleteधन्यवाद
तुमने कही और मैने मानी ॥
ReplyDeleteदोनो परम ग्यानी ॥
"इतिहास अपने को दोहराता है "यह स्लोगन सबको पता हो गया है इसिलिये अपन सबसे पहले ये लिखेंगे -- इतिहास हमे यह बताता है कि हमने इतिहास से कुछ नही सीखा "
@ताऊ रामपुरिया जी,
ReplyDeleteध्यान दिलाने के लिए धन्यवाद. मैंने शिवकुमार जी की बहस पढी और बहुत आनंद भी आया.
"मैं तो केवल आगाह ही कर सकता हूं। इस फील्ड में बड़ा कम्पीटीशन है। बड़ी गोलबन्दी। आप अगर कोई लाइन टो नहीं करते तो अपनी इज्जत हाथ पर रख कर वेंचर करें इस प्रकार के क्षेत्र में। :-)"
ReplyDeleteज्ञानदत्त पाण्डेय जी, अपने इस भतीजे के आलसी-जीवन के बारे में तो कबीर काका ने लिखा था, "मैं बूढा आपुन डरा, रहा किनारे बैठ ..." बस जिस गाँव जाना नहीं वहां के भी कोस गिन लेते हैं किनारे बैठे बैठे.
अनिल जी बात दुहराता हूँ.....wat n idea sir ji
ReplyDeleteबहुत अच्छा व्यंग है। दुष्यंत कुमार के शब्दों में:-
ReplyDeleteलहू-लुहान नज़ारों का ज़िक्र आया तो,
शरीफ़ लोग उठे दूर जा के बैठ गये।
लोग कहें न कहें... मैं मानने को तैयार हूँ, विकिपीडिया वाला दूर का इतिहासकार तो थोड़ा बहुत मैं भी हूँ. विकिपीडिया का कीडा बहुत पहले काट लिया था.... इतिहास पढता तो हूँ ही.
ReplyDeleteनयी सूझ है !
ReplyDeleteये नया करियर जल्द ही शुरू करना पड़ेगा :)...बहुत ही रोचक पोस्ट है !!!
ReplyDeleteअरे! आपने तो बैठे-ठाले एक नया आईडिया पकडा दिया. क्या कमाल का आईडिया है.
ReplyDeleteभई मज़ा आ गया आपकी ये पोस्ट पढ़ कर
अरे! आपने तो बैठे-ठाले एक नया आईडिया पकडा दिया. क्या कमाल का आईडिया है.
ReplyDeleteभई मज़ा आ गया आपकी ये पोस्ट पढ़ कर
maza aaya. aapme sachche itihaskar banne ke sare lakshan hain. aap dur or nazdik donon jagah k itihaskar ban sakten hain
ReplyDeleteजल्दी कोशिश करनी पड़ेगी भैय्या
ReplyDeleteवरना यहीं के यहीं रह जाएंगें
इस लिस्ट में पत्रकार-कलाकार-असरदार के साथ-साथ ब्लॉगकार को भी जोड़ सकते हैं। बढ़िया लिखा।
ReplyDeleteव्यंग लिखने का तजुर्बा नही ये बात नही. कई व्यंग ज़रा सटल होते है, मगर तंज़ बड़ा तीखा. आप अच्छे तंज - निगार है इसमें कोई शक नहीं.
ReplyDeleteकिसी कारणवश मैं यहाँ गैर हाज़िर रहा तो आपने यह नया रास्ता इख़तियार कर लिया?
ओ दूर के मुसाफिर, हमको भी साथ ले ले ,
हमको भी साथ ले ले, हम रह गए अकेले...
बढ़िया व्यंग्य :)
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