Saturday, July 30, 2016

हुतात्मा ऊधमसिंह उर्फ सरदार शेरसिंह

अमर शहीद ऊधमसिंह का जन्म सन् 26 दिसम्बर, 1899 में पंजाब के संगरूर जिले के सुनाम ग्राम में हुआ था। उनके पिता सरदार टहल सिंह निकट के उपाल गाँव के रेलवे क्रासिंग पर चौकीदारी करते थे। उनका जन्म का नाम शेरसिंह था। उनके जन्म के दो वर्ष बाद ही उनकी माँ और फिर सन् 1907 में उनके पिता दिवंगत हो गए। अनाथ शेरसिंह को लेकर उनके बड़े भाई मुक्ता सिंह उर्फ साधू सिंह ने अमृतसर के खालसा अनाथालय में शरण ली। अनाथालय में रहते हुए सन् 1917 में बड़े भाई साधुसिंह के देहांत के बाद सरदार शेरसिंह अपनी पारिवारिक बंधनों से पूर्णतया स्वतन्त्र हो गए। शेरसिंह ने 1918 में मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण की।

शेरसिंह के बाल्यकाल और किशोरावस्था के समय में भारतीय मानस में स्वतन्त्रता की आग तेज़ी से धधक रही थी। जिसे अंग्रेजों की क्रूरता बारंबार हवा दे रही थी। 13 अप्रैल 1919 में जलियाँवाला बाग़ के वैशाखी समारोह में खालसा अनाथालय के अन्य बच्चों के साथ शेरसिंह भी सेवा करने गए थे। उसी दिन बाद में जनरल डायर (Brigadier General Reginald Edward Harry Dyer) द्वारा निहत्थे निर्दोषों को गोलियों से भून दिया गया था। जालियाँवाला बाग के जघन्य हत्याकांड के बाद रात में शेरसिंह पुनः घटनास्थल पर गये और वहाँ की रक्तरंजित मिट्टी माथे से लगाकर इस काण्ड का बदला लेने की प्रतिज्ञा की।

क्रांतिकारी आन्दोलन अपने चरम पर था। सन् 1920 में शेरसिंह अफ्रीका पहुँचे और 1921 में नैरोबी के रास्ते संयुक्त राज्य अमेरिका जाने का प्रयास किया परंतु असफल होने पर वापस भारत लौट आये और विदेश जाने का प्रयास करते रहे। 1924 में वे अमरीका पहुँच गए और वहाँ सक्रिय ग़दर पार्टी में शामिल हो गए। 1927 में वे 25 साथियों और असलाह के साथ चन्द्रशेखर आज़ाद और भगत सिंह का साथ देने भारत आये। भारत लौटने के कुछ समय बाद उन्हें शस्त्र अधिनियम के उल्लंघन के लिए गिरफ्तार कर लिया गया। अक्तूबर सन् 1931 में वे अमृतसर जेल से छूटे। इस बीच में भारत के क्रांतिकारी परिदृश्य में एक बड़ा भूचाल आ चुका था। उस समय तक स्वाधीनता आंदोलन के कई बड़े नाम चन्द्रशेखर आज़ाद, भाई भगवतीचरण, भगतसिंह, राजगुरु, सुखदेव आदि मृत्यु का वरण कर चुके थे। अमृतसर इस घटना के बाद उन्होंने अमृतसर में साईन बोर्ड पेंट करने की दुकान चलायी जब पहली बार उन्होने अपना नाम "राम मोहम्मद सिंह आजाद" लिखवाया। एक धर्मनिरपेक्ष भारत की भावना का यह एक क्रांतिकारी उद्गार था।

31 जुलाई 1992 को जारी टिकट 
शेरसिंह के नाम से पुलिस रिकार्ड होने के कारण सन् 1933 में अपने नए नाम ऊधमसिंह के साथ आव्रजन का पुनर्प्रयास करके वे जर्मनी गये। फिर इटली, फ़्रांस, स्विट्ज़रलैंड और आस्ट्रिया होते हुए 1934 में इंग्लैंड पहुँच गए। जनरल डायर से बदला लेने का उनका सपना अधूरा ही रहा क्योंकि वह 23 जुलाई, 1927 को आत्महत्या कर चुका था। लेकिन जलियाँवाला हत्याकांड का आदेश देने वाला, पंजाब का तत्कालीन लेफ़्टीनेंट गवर्नर माइकेल ओड्वायर (Lieutenent Governor Michael O' Dwyer) अभी जीवित था। 1912 से 1919 तक पंजाब के गवर्नर रहे ओड्वायर ने जालियाँवाला हत्याकांड को सही ठहराया था। कुछ इतिहासकारों का मानना है कि जालियाँवाला हत्याकांड ओड्वायर के क्रूर मस्तिष्क की उपज था जिसके लिए उसने डायर को नियुक्त किया था।

ब्रिटेन जाकर वे लंडन में किराये पर रहते हुए माइकल ओड्वायर को मारने का अवसर ढूँढने लगे जो उन्हें 13 अप्रैल 1940 में मिला। कैक्सटन हाल में ईस्ट इंडिया एसोसिएशन और रायल सेंट्रल एशियन सोसायटी के संयुक्त समारोह में ओड्वायर को बोलने आना था। इस सभा में ऊधम सिंह एक पिस्तौल को किताब में छुपाकर पहुँच गए और मंच पर उपस्थित ओड्वायर और उसके साथ उपस्थित सर लूइस, लार्ड लेमिंगटन और भारत के तत्कालीन सचिव लार्ड जेटलैंड पर गोलियां चलाईं। ओड्वायर घटनास्थल पर ही मारा गया जबकि लुईस, लेमिंगटन और जेटलैंड घायल हुये। ऊधमसिंह भागे नहीं, उन्हें घटनास्थल पर ही गिरफ्तार कर लिया गया।

1 अप्रैल 1940 को ऊधमसिंह पर औपचारिक रूप से हत्या का अभियोग लगाया गया। ऊधमसिंह ने आरोपों को सहर्ष स्वीकार किया। उन्होने कहा मैं अपनी मातृभूमि के लिए मरूँ, इससे बढ़कर मेरा सौभाग्य क्या होगा। इस स्पष्ट अभियोग में ऊधमसिंह को मृत्युदंड सुनाया गया और 31 जुलाई 1940 को पेण्टनविल जेल में फांसी दे दी गयी। उन्हें उसी दिन जेल के अहाते में ही दफना दिया गया।

सत्तर के दशक में ऊधमसिंह के अवशेषों को भारत वापस लाने की मुहिम शुरू हुई। भारत सरकार के विशेष दूत के रूप में सुल्तानपुर लोधी के विधायक सरदार साधू सिंह थिंड ब्रिटेन गए। 19 जुलाई, 1974 को ऊधमसिंह के भस्मावशेषों को भारत लाया गया। पाँच दिन उन्हें सुनाम ग्राम में जनता के दर्शनार्थ रखने के बाद उनका दाह संस्कार हुआ और राख को सम्मान सहित सतलज और हरिद्वार की गंगा में प्रवाहित कर दिया गया।

31 जुलाई 1992 को भारत सरकार ने उनके सम्मान में एक डाकटिकट भी जारी किया।


Saturday, July 23, 2016

23 जुलाई लोकमान्य बाल गंगाधर टिळक

लोकमान्य के नाम से प्रसिद्ध नेता बाल गंगाधर टिळक का जन्म 23 जुलाई, 1856 को महाराष्ट्र के रत्नागिरि जिले में हुआ था. वे एक विद्वान गणितज्ञ और दर्शन शास्त्री होने के साथ-साथ महान देशभक्त भी थे. ब्रिटेन से भारत की स्वतंत्रता की नींव रखने वाले महापुरुषों में वे अग्रगण्य थे.

उनके व्याकरणशास्त्री पिता को पुणे में शिक्षणकार्य मिलने पर वे बचपन में ही पुणे आ गये जो बाद में उनकी कर्मभूमि बना.

सन् 1876 में उन्होंने डेकन कॉलेज से गणित और संस्कृत में स्नातक की डिग्री ली और 1879 में वे मुम्बई विश्वविद्यालय से कानून के स्नातक हुए. पश्चिमी शिक्षा पद्धति से शिक्षित लोकमान्य टिळक  पश्चिम के अंधे अनुकरण के विरोधी थे.

उन्होंने पुणे में एक स्कूल आरम्भ किया जो बाद में डिग्री कॉलेज तक विकसित भी हुआ और उनकी राजनीतिक गतिविधियों का केंद्र भी बना. 1884 में उन्होंने लोकशिक्षा के उद्देश्य से  डेकन एजूकेशन सोसायटी (Deccan Education Society) की स्थापना की. अंग्रेज़ी के महत्व को पहचानकर उन्होंने भारतीयों के अंग्रेज़ी सीखने पर भी विशेष ज़ोर दिया.

जनजागरण के उद्देश्य से उन्होंने मराठी में "केसरी" तथा अंग्रेज़ी में  "मराठा" शीर्षक से समाचारपत्र निकाले. दोनों अखबारों ने जनता को जागृत करते हुए देश में आज़ादी की भावना को प्रखर किया. ब्रिटिश सरकार ने उन्हें अपने लिये खतरनाक मानते हुए 1897 में पहली बार गिरफ़्तार कर 18 मास जेल में रखा.

टिळक ने 1805 के बंग-भंग का डटकर विरोध किया. विदेशी उत्पादों के बहिष्कार का उनका आंदोलन जल्दी ही राष्ट्रव्यापी हो गया. उनके सविनय अवज्ञा के सिद्धांत को गांधीजी ने भी अपनाया और इस प्रकार सत्याग्रह के बीज पनपे.  

लोकमान्य टिळक एक सजग और तार्किक व्यक्ति थे. कोई भी बात हो वे तर्क नहीं छोडते थे. वे हिंदू-मुस्लिम एकता के पक्षधर थे परंतु धार्मिक हिंदू जुलूसों पर मुस्लिम हमले के बारे में उन्होंने 10 सितम्बर 1898 को लिखा:

अगर मुस्लिम नमाज़ के समय हिंदुओं के भजन आदि बर्दाश्त नहीं कर सकते हैं तो वे ट्रेन, जहाज़ और दुकानों में नमाज़ कैसे पढते हैं? यह कहना गलत है कि नमाज़ के समय मस्जिद के सामने से भजन आदि गाते हुए निकलना अधार्मिक है.

लोकमान्य टिळक का शवदाह पद्मासन में हुआ 
दंगे-फ़साद से पहले हिंदूजन मुहर्रम जैसे उत्सवों में बढ-चढकर भाग लेते थे परंतु हिंदू उत्सवों को अपने घरों में ही सीमित रखते थे. शिवरात्रि, जन्माष्टमी, रामनवमी, रक्षा बंधन हों या गणेश चतुर्थी, हिंदू समाज उन्हें अपने अपने घरों में व्यक्तिगत उत्सव जैसे ही मनाते थे. टिळक ने गणेशोत्सव को भी एक सामाजिक रूप देने का आह्वान किया जिसकी परम्परा आज पूरे महाराष्ट्र में ही नहीं बल्कि बाहर भी एक सुदृढ रूप ले चुकी है.

1895 में पुणे की एक सार्वजनिक सभा में उन्होंने रायगढ में शिवाजी के स्मारक के पुनर्निर्माण के लिये एक स्मारक कोष की घोषणा की. लेकिन धार्मिक तनाव देखते हुए यह भी याद दिलाया कि समय बदल गया है और तत्कालीन राजनीतिक परिस्थितियों में हिंदू और मुसलमान दोनों ही पिछड रहे हैं. सन् 1916 में  हिंदू मुस्लिम एकता बनाने और अंग्रेज़ों के विरुद्ध साझा संघर्ष चलाने के उद्देश्य से उन्होंने  मुहम्मद अली जिन्नाह के साथ लखनऊ समझौते (Lucknow Pact) पर हस्ताक्षर किये.

लोकमान्य टिळक के हस्ताक्षर

सन् 1907 में अंग्रेज़ सरकार ने उन्हें एक बार फिर गिरफ़्तार कर छह वर्ष तक म्यानमार की माण्डले जेल में रखा जहाँ उन्होंने अपने प्रसिद्ध ग्रंथ श्रीमद्भग्वद्गीतारहस्य का लेखन किया. सन् 1893 में उनकी द ओरायन (The Orion; or, Researches into the Antiquity of the Vedas), तथा 1903 में आर्कटिक होम इन द वेदाज़ (The Arctic Home in the Vedas) नामक पुस्तकें प्रकाशित हुईं.

सन् 1914 में उन्होंने भारतीय स्वराज्य समिति (Indian Home Rule League) की स्थापना की और 1916 में उनका प्रसिद्ध नारा "स्वराज्य मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है और मैं इसे लेकर रहूंगा" प्रसिद्ध हुआ. 1918 में वे लेबर पार्टी से भारत की स्वतंत्रता के लिये सहयोग लेने ब्रिटेन गये.

लोकमान्य टिळक ने आज़ादी की किरण नहीं देखी. उनका देहावसान 1 अगस्त सन् 1920 को मुम्बई में हुआ. महात्मा गांधी ने उन्हें कहा "नव भारत का निर्माता" और नेहरू जी ने उन्हें "भारतीय स्वाधीनता संग्राम का जनक" बताया.