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Saturday, July 30, 2016

हुतात्मा ऊधमसिंह उर्फ सरदार शेरसिंह

अमर शहीद ऊधमसिंह का जन्म सन् 26 दिसम्बर, 1899 में पंजाब के संगरूर जिले के सुनाम ग्राम में हुआ था। उनके पिता सरदार टहल सिंह निकट के उपाल गाँव के रेलवे क्रासिंग पर चौकीदारी करते थे। उनका जन्म का नाम शेरसिंह था। उनके जन्म के दो वर्ष बाद ही उनकी माँ और फिर सन् 1907 में उनके पिता दिवंगत हो गए। अनाथ शेरसिंह को लेकर उनके बड़े भाई मुक्ता सिंह उर्फ साधू सिंह ने अमृतसर के खालसा अनाथालय में शरण ली। अनाथालय में रहते हुए सन् 1917 में बड़े भाई साधुसिंह के देहांत के बाद सरदार शेरसिंह अपनी पारिवारिक बंधनों से पूर्णतया स्वतन्त्र हो गए। शेरसिंह ने 1918 में मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण की।

शेरसिंह के बाल्यकाल और किशोरावस्था के समय में भारतीय मानस में स्वतन्त्रता की आग तेज़ी से धधक रही थी। जिसे अंग्रेजों की क्रूरता बारंबार हवा दे रही थी। 13 अप्रैल 1919 में जलियाँवाला बाग़ के वैशाखी समारोह में खालसा अनाथालय के अन्य बच्चों के साथ शेरसिंह भी सेवा करने गए थे। उसी दिन बाद में जनरल डायर (Brigadier General Reginald Edward Harry Dyer) द्वारा निहत्थे निर्दोषों को गोलियों से भून दिया गया था। जालियाँवाला बाग के जघन्य हत्याकांड के बाद रात में शेरसिंह पुनः घटनास्थल पर गये और वहाँ की रक्तरंजित मिट्टी माथे से लगाकर इस काण्ड का बदला लेने की प्रतिज्ञा की।

क्रांतिकारी आन्दोलन अपने चरम पर था। सन् 1920 में शेरसिंह अफ्रीका पहुँचे और 1921 में नैरोबी के रास्ते संयुक्त राज्य अमेरिका जाने का प्रयास किया परंतु असफल होने पर वापस भारत लौट आये और विदेश जाने का प्रयास करते रहे। 1924 में वे अमरीका पहुँच गए और वहाँ सक्रिय ग़दर पार्टी में शामिल हो गए। 1927 में वे 25 साथियों और असलाह के साथ चन्द्रशेखर आज़ाद और भगत सिंह का साथ देने भारत आये। भारत लौटने के कुछ समय बाद उन्हें शस्त्र अधिनियम के उल्लंघन के लिए गिरफ्तार कर लिया गया। अक्तूबर सन् 1931 में वे अमृतसर जेल से छूटे। इस बीच में भारत के क्रांतिकारी परिदृश्य में एक बड़ा भूचाल आ चुका था। उस समय तक स्वाधीनता आंदोलन के कई बड़े नाम चन्द्रशेखर आज़ाद, भाई भगवतीचरण, भगतसिंह, राजगुरु, सुखदेव आदि मृत्यु का वरण कर चुके थे। अमृतसर इस घटना के बाद उन्होंने अमृतसर में साईन बोर्ड पेंट करने की दुकान चलायी जब पहली बार उन्होने अपना नाम "राम मोहम्मद सिंह आजाद" लिखवाया। एक धर्मनिरपेक्ष भारत की भावना का यह एक क्रांतिकारी उद्गार था।

31 जुलाई 1992 को जारी टिकट 
शेरसिंह के नाम से पुलिस रिकार्ड होने के कारण सन् 1933 में अपने नए नाम ऊधमसिंह के साथ आव्रजन का पुनर्प्रयास करके वे जर्मनी गये। फिर इटली, फ़्रांस, स्विट्ज़रलैंड और आस्ट्रिया होते हुए 1934 में इंग्लैंड पहुँच गए। जनरल डायर से बदला लेने का उनका सपना अधूरा ही रहा क्योंकि वह 23 जुलाई, 1927 को आत्महत्या कर चुका था। लेकिन जलियाँवाला हत्याकांड का आदेश देने वाला, पंजाब का तत्कालीन लेफ़्टीनेंट गवर्नर माइकेल ओड्वायर (Lieutenent Governor Michael O' Dwyer) अभी जीवित था। 1912 से 1919 तक पंजाब के गवर्नर रहे ओड्वायर ने जालियाँवाला हत्याकांड को सही ठहराया था। कुछ इतिहासकारों का मानना है कि जालियाँवाला हत्याकांड ओड्वायर के क्रूर मस्तिष्क की उपज था जिसके लिए उसने डायर को नियुक्त किया था।

ब्रिटेन जाकर वे लंडन में किराये पर रहते हुए माइकल ओड्वायर को मारने का अवसर ढूँढने लगे जो उन्हें 13 अप्रैल 1940 में मिला। कैक्सटन हाल में ईस्ट इंडिया एसोसिएशन और रायल सेंट्रल एशियन सोसायटी के संयुक्त समारोह में ओड्वायर को बोलने आना था। इस सभा में ऊधम सिंह एक पिस्तौल को किताब में छुपाकर पहुँच गए और मंच पर उपस्थित ओड्वायर और उसके साथ उपस्थित सर लूइस, लार्ड लेमिंगटन और भारत के तत्कालीन सचिव लार्ड जेटलैंड पर गोलियां चलाईं। ओड्वायर घटनास्थल पर ही मारा गया जबकि लुईस, लेमिंगटन और जेटलैंड घायल हुये। ऊधमसिंह भागे नहीं, उन्हें घटनास्थल पर ही गिरफ्तार कर लिया गया।

1 अप्रैल 1940 को ऊधमसिंह पर औपचारिक रूप से हत्या का अभियोग लगाया गया। ऊधमसिंह ने आरोपों को सहर्ष स्वीकार किया। उन्होने कहा मैं अपनी मातृभूमि के लिए मरूँ, इससे बढ़कर मेरा सौभाग्य क्या होगा। इस स्पष्ट अभियोग में ऊधमसिंह को मृत्युदंड सुनाया गया और 31 जुलाई 1940 को पेण्टनविल जेल में फांसी दे दी गयी। उन्हें उसी दिन जेल के अहाते में ही दफना दिया गया।

सत्तर के दशक में ऊधमसिंह के अवशेषों को भारत वापस लाने की मुहिम शुरू हुई। भारत सरकार के विशेष दूत के रूप में सुल्तानपुर लोधी के विधायक सरदार साधू सिंह थिंड ब्रिटेन गए। 19 जुलाई, 1974 को ऊधमसिंह के भस्मावशेषों को भारत लाया गया। पाँच दिन उन्हें सुनाम ग्राम में जनता के दर्शनार्थ रखने के बाद उनका दाह संस्कार हुआ और राख को सम्मान सहित सतलज और हरिद्वार की गंगा में प्रवाहित कर दिया गया।

31 जुलाई 1992 को भारत सरकार ने उनके सम्मान में एक डाकटिकट भी जारी किया।


Saturday, June 11, 2016

बिस्मिल का पत्र अशफ़ाक़ के नाम - इतिहास के भूले पन्ने

सताये तुझ को जो कोई बेवफ़ा बिस्मिल।
तो मुँह से कुछ न कहना आह कर लेना।।
हम शहीदाने-वफा का दीनो ईमां और है।
सिजदा करते हैं हमेशा पांव पर जल्लाद।।


मैंने इस अभियोग में जो भाग लिया अथवा जिनको जिन्दगी की जिम्मेदारी मेरे सिर पर थी, उन में से सब से ज्यादा हिस्सा श्रीयुत अशफाकउल्ला खां वारसी का है। मैं अपनी कलम से उन के लिये भी अन्तिम समय में दो शब्द लिख देना अपना कर्तव्य समझता हूं।

अशफ़ाक,

मुझे भली भांति याद है कि मैं बादशाही एलान के बाद शाहजहाँपुर आया था, तो तुम से स्कूल में भेंट हुई थी। तुम्हारी मुझसे मिलने की बड़ी हार्दिक इच्छा थी। तुम ने मुझ से मैनपुरी षडयन्त्र के सम्बन्ध में कुछ बातचीत करना चाही थी। मैंने यह समझा कि एक स्कूल का मुसलमान विद्यार्थी मुझ से इस प्रकार की बातचीत क्यों करता है, तुम्हारी बातों का उत्तर उपेक्षा की दृष्टि से दिया था। तुम्हें उस समय बड़ा खेद हुआ था। तुम्हारे मुख से हार्दिक भावों का प्रकाश हो रहा था।

तुम ने अपने इरादे को यों ही नहीं छोड़ दिया, अपने इरादे पर डटे रहे। जिस प्रकार हो सका कांग्रेस में बातचीत की। अपने इष्ट मित्रों द्वारा इस बात का वि्श्वास दिलाने की कोशिश की कि तुम बनावटी आदमी नही, तुम्हारे दिल में मुल्क की खिदमत करने की ख्वाहि्श थी। अन्त में तुम्हारी विजय हुई। तुम्हारी कोशिशों ने मेरे दिल में जगह पैदा कर ली। तुम्हारे बड़े भाई मेरे उर्दू मिडिल के सहपाठी तथा मित्र थे। यह जान कर मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई। थोड़े दिनों में ही तुम मेरे छोटे भाई के समान हो गये थे, किन्तु छोटे भाई बन कर तुम्हें संतोष न हुआ।

तुम समानता के अधिकार चाहते थे, तुम मित्र की श्रेणी में अपनी गणना चाहते थे। वही हुआ? तुम मेरे सच्चे मित्र थे। सब को आश्चर्य था कि एक कटटर आर्य समाजी और मुसलमान का मेल कैसा? मैं मुसलमानों की शुद्धि करता था। आर्यसमाज मन्दिर में मेरा निवास था, किन्तु तुम इन बातों की किंचितमात्र चिन्ता न करते थे। मेरे कुछ साथी तुम्हें मुसलमान होने के कारण कुछ घृणा की दृष्टि से देखते थे, किन्तु तुम अपने निश्चय में दृढ़ थे। मेरे पास आर्यसमाज मन्दिर में आते-जाते थे। हिंदू-मुसलिम झगड़ा होने पर तुम्हारे मुहल्ले के सब कोई तुम्हें खुल्लम खुल्ला गालियां देते थे, काफिर के नाम से पुकारते थे, पर तुम कभी भी उन के विचारों से सहमत न हुये।

सदैव हिन्दू मुसलिम ऐक्य के पक्षपाती रहे। तुम एक सच्चे मुसलमान तथा सच्चे स्वदेश भक्त थे। तुम्हें यदि जीवन में कोई विचार था, तो यही था कि मुसलमानों को खुदा अकल देता कि वे हिन्दुओं के साथ मेल कर के हिन्दोस्तान की भलाई करते। जब मैं हिन्दी में कोई लेख या पुस्तक लिखता तो तुम सदैव यही अनुरोध करते कि उर्दू में क्यों नहीं लिखते, जो मुसलमान भी पढ़ सकें ?

तुमने स्वदेश भक्ति के भावों को भी भली भांति समझाने के लिये ही हिन्दी का अच्छा अध्ययन किया। अपने घर पर जब माता जी तथा भ्राता जी से बातचीत करते थे, तो तुम्हारे मुँह से हिन्दी शब्द निकल जाते थे, जिससे सबको बड़ा आश्चर्य होता था। तुम्हारी इस प्रकार की प्रकृति देख कर बहुतों को संदेह होता था, कि कहीं इस्लाम-धर्म त्याग कर शुद्धि न करा ले। पर तुम्हारा हृदय तो किसी प्रकार से अशुद्ध न था, फिर तुम शुद्धि किस वस्तु की कराते ? तुम्हारी इस प्रकार की प्रगति ने मेरे हृदय पर पूर्ण विजय पा ली। बहुधा मित्र मण्डली में बात छिड़ती कि कहीं मुसलमान पर विश्वास करके धोखा न खाना।

तुम्हारी जीत हुई, मुझ में तुम में कोई भेद न था। बहुधा मैंने तुमने एक थाली में भोजन किये। मेरे हृदय से यह विचार ही जाता रहा कि हिन्दू मुसलमान में कोई भेद है। तुम मुझ पर अटल विश्वास तथा अगाध प्रीति रखते थे, हां ! तुम मेरा नाम लेकर नहीं पुकार सकते थे। तुम तो सदैव राम कहा करते थे। एक समय जब तुम्हें हृदय-कम्प का दौरा हुआ, तुम अचेत थे, तुम्हारे मुँह से बारम्बार राम, हाय राम! के शब्द निकल रहे थे। पास खड़े हुए भाई बान्धवों को आश्चर्य था कि राम, राम कहता है।

कहते थे कि अल्लाह, अल्लाह कहो, पर तुम्हारी राम-राम की रट थी। उसी समय किसी मित्र का आगमन हुआ, जो राम के भेद को जानते थे। तुरन्त मैं बुलाया गया। मुझसे मिलने पर तुम्हें शान्ति हुई,  तब सब लोग राम-राम के भेद को समझे। अन्त में इस प्रेम, प्रीति तथा मित्रता का परिणाम क्या हुआ ? मेरे विचारों के रंग में तुम भी रंग गये। तुम भी एक कट्टर क्रान्तिकारी बन गये।  अब तो तुम्हारा दिन-रात प्रयत्न यही था, कि जिस प्रकार हो सके मुसलमान नवयुवकों मंस भी क्रान्तिकारी भावों का प्रवेष हो सके। वे भी क्रान्तिकारी आन्दोलन में योग दे।

जितने तुम्हारे बन्धु तथा मित्र थे, सब पर तुमने अपने विचारों का प्रभाव डालने का प्रयत्न किया। बहुधा क्रान्तिकारी सदस्यों को भी बड़ा आश्चर्य होता कि मैने कैसे एक मुसलमान को क्रान्तिकारी दल का प्रतिष्ठित सदस्य बना लिया। मेरे साथ तुमने जो कार्य किये, वे सराहनीय हैं! तुम ने कभी भी मेरी आज्ञा की अवहेलना न की। एक आज्ञाकारी भक्त के समान मेरी आज्ञा पालन में तत्पर रहते थे। तुम्हारा हृदय बड़ा विशाल था। तुम्हारे भाव बड़े उच्च थे।

मुझे यदि शान्ति है तो यही कि तुमने संसार में मेरा मुँह उज्जवल कर दिया। भारत के इतिहास में यह घटना भी उल्लेखनीय हो गई, कि अशफाकउल्ला ख़ाँ ने क्रान्तिकारी आन्दोलन में योग दिया। अपने भाई बन्धु तथा सम्बन्धियों के समझाने पर कुछ भी ध्यान न दिया। गिरफतार हो जाने पर भी अपने विचारों में दृढ़ रहा ! जैसे तुम शारीरिक बलशाली थे, वैसे ही मानसिक वीर तथा आत्मा से उच्च सिद्ध हुए। इन सबके परिणाम स्वरूप अदालत में तुमको मेरा सहकारी ठहराया गया, और जज ने हमारे मुकदमें का फैसला लिखते समय तुम्हारे गले में भी जयमाल फांसी की रस्सी पहना दी।

प्यारे भाई तुम्हे यह समझ कर सन्तोष होगा कि जिसने अपने माता-पिता की धन-सम्पत्ति को देश-सेवा में अर्पण करके उन्हें भिखारी बना दिया, जिसने अपने सहोदर के भावी भाग्य को भी देश सेवा की भेंट कर दिया, जिसने अपना तन मन धन सर्वस्व मातृसेवा में अर्पण करके अपना अन्तिम बलिदान भी दे दिया, उसने अपने प्रिय सखा अशफाक को भी उसी मातृभूमि की भेंट चढ़ा दिया।

असगर हरीम इश्क में हस्ती ही जुर्म है।
रखना कभी न पांव, यहां सर लिये हुये।।

सहायक काकोरी शडयन्त्र का भी फैसला जज साहब की अदालत से हो गया। श्री अशफाकउल्ला खां वारसी को तीन फांसी और दो काले पानी की आज्ञायें हुईं। श्रीयुत शचीन्द्रनाथ बख़्शी को पांच काले पानी की आज्ञायें हुई।

- राम

[Content courtesy: Dr. Amar Kumar; इस प्रामाणिक पत्र के लिये स्वर्गीय डॉ. अमर कुमार का आभार]

Monday, May 4, 2015

5 मई - क्रांतिकारी प्रीतिलता वादेदार का जन्मदिन


प्रीतिलता वादेदार (5 मई 1911 – 23 सितम्बर 1932)
5 मई को महान क्रांतिकारी व प्रतिभाशाली छात्रा प्रीतिलता वादेदार का जन्मदिन है। आइये इस दिन याद करें उन हुतात्माओं को जिन्होने अपने वर्तमान की परवाह किए बिना हमारे स्वतंत्र भविष्य की कामना में अपना सर्वस्व नोछावर कर दिया।

प्रीतिलता वादेदार का जन्म 5 मई 1911 चटगाँव (अब बंगला देश) में हुआ था। उन्होने सन् 1928 में चटगाँव के डॉ खस्तागिर शासकीय कन्या विद्यालय से मैट्रिक की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उतीर्ण की और सन् 1929 में ढाका के इडेन कॉलेज में प्रवेश लेकर इण्टरमीडिएट परीक्षा में पूरे ढाका बोर्ड में पाँचवें स्थान पर आयीं। दो वर्ष बाद प्रीतिलता ने कोलकाता के बेथुन कॉलेज से दर्शनशास्त्र से स्नातक परीक्षा उत्तीर्ण की। कोलकाता विश्वविद्यालय के ब्रितानी अधिकारियों ने उनकी डिग्री को रोक दिया था जो उन्हें 80 वर्ष बाद मरणोपरान्त प्रदान की गयी।

उन्होने निर्मल सेन से युद्ध का प्रशिक्षण लिया था। प्रसिद्ध क्रांतिकारी सूर्यसेन के दल की सक्रिय सदस्य प्रीतिलता ने 23 सितम्बर 1932 को एक क्रांतिकारी घटना में अंतिम समय तक अंग्रेजो से लड़ते हुए स्वयं ही मृत्यु का वरण किया था। अनेक भारतीय क्रांतिकारियों की तरह प्रीतिलता ने एक बार फिर यह सिद्ध किया किया कि त्याग और निर्भयता की प्रतिमूर्तियों के लिए मात्र 21 वर्ष के जीवन में भी अपनी स्थाई पहचान छोड़ कर जाना एक मामूली सी बात है।

प्रीतिलता वादेदार, विकीपीडिया पर

Saturday, August 30, 2014

ठेसियत की ठोसियत

मिच्छामि दुक्खड़म
जैसे ऋषि-मुनियों का ज़माना पुण्य करने का था वैसे आजकल का ज़माना आहत होने का है। ठेस आजकल ऐसे लगती है जैसे हमारे जमाने में दिसंबर में ठंड और जून में गर्मी लगती थी। अखबार उठाओ तो कोई न कोई आहत पड़ा है। रेडियो पर खबर सुनो तो वहाँ आहत होने की गंध बिखरी पड़ी है। टेलीविज़न ऑन करो तो वहाँ तो हर तरफ आहत लोग लाइन लगाकर खड़े हैं।

ये सब आहत टाइप के, सताये गए, असंतुष्ट प्राणी संसार के आत्मसंतुष्ट वर्ग से खासतौर से नाराज़ लगते हैं। कोई इसलिए आहत है कि जिस दिन उसका रोज़ा था उस दिन मैंने अपने घर में अपने लिए चाय क्यों बनाई। कोई इसलिए आहत है कि जब आतंकी हत्यारे के मजहब या विचारधारा के अनुसार सारे पाप जायज़ थे तो उसे क्षमादान देने के उद्देश्य से कानून में ज़रूरी बदलाव क्यों नहीं दिया गया। कोई किसी के कविता लिखने से आहत है, कोई कार्टून बनाने से, तो कोई बयान देने से। किसी को किसी की किताब प्रतिबंधित करानी है तो कोई किताब के अपमान से आहत है।

भारत से निरामिष ब्लॉग पर अब न आने वाले एक भाई साहब तो इसी बात से आहत थे कि ये पशुप्रेमी लोग मांसाहार क्यों नहीं करते। अमेरिका में कई लोग इस बात पर आहत हैं कि हर मास किलिंग के बाद बंदूक जैसी आवश्यकता को कार जैसी अनावश्यक विलासिता की तरह नियमबद्ध करने की बात क्यों उठती है। जहाँ, धर्मातमा किस्म के लोग विधर्मियों और अधर्मियों से आहत हैं वहीं व्यवस्थाहीन देशों में आतंक और मानव तस्करी जैसे धंधे चलाने वाले गैंग, धर्मपालकों से आहत हैं क्योंकि धर्म के बचे रहते उनकी दूकानदारी वैसे ही आहत हो जाती है, जैसे जैनमुनियों के अहिंसक आचरण से किसी कसाई का धंधा।  

चित्र इन्टरनेट से साभार, मूल स्रोत अज्ञात
गरज यह है कि आप कुछ भी करें, कहीं भी करें, किसी न किसी की भावना को ठेस पहुँचने ही वाली है। लेकिन क्या कभी कोई इस ठेसियत की ठोसियत की बात भी करेगा? किसी को लगी ठेस के पीछे कोई ठोस कारण है भी या केवल भावनात्मक अपरिपक्वता है। आहत होने और आहत करने में न मानसिक परिपक्वता है, न मानवता, और न ही बुद्धिमता। आयु, अनुभव और मानसिक परिपक्वता बढ़ने के साथ-साथ हमारे विवेक का भी विकास होना चाहिए। ताकि हम तेरा-मेरा के बजाय सही-गलत के आधार पर निर्णय लें और फिजूल में आहत होने और आहत करने से बचें। कभी सोचा है कि सदा दूसरों को चोट देते रहने वाले भी खुद को ठेस लगाने के शिकवे के नीचे क्यों दबे रहते हैं? क्या रात की शिकायत के चलते सूर्योदय प्रतिबंधित किया जाना चाहिए? साथ ही यह भी याद रहे कि भावनाओं का ख्याल रखने जैसे व्यावहारिक सत्कर्म की आशा उनसे होती है जिन्हें समझदार समझा जाता है। और समझदार अक्सर निराश नहीं करते हैं। आग लगाने, भावनाएं भड़काने, आहत रहने या करने के लिए समझ की कमी एक अनिवार्य तत्व जैसा ही है

न जाने कब से ठेस लगने-लगाने पर बात करना चाहता था लेकिन संशय यही था कि इससे भी किसी न किसी की भावना आहत न हो जाये। लेकिन आज तो पर्युषण पर्व का आरंभ है सो ठोस-अठोस सभी ठेसाकुल सज्जनों, सज्जनियों से क्षमा मांगने के इस शुभ अवसर का लाभ उठाते हुए इस आलेख को हमारी ओर से हमारे सभी आहतों के प्रति आधिकारिक क्षमायाचना माना जाय। हमारी इस क्षमा से आपके ठेसित होते रहने के अधिकार पर कोई आंच नहीं आएगी।
शुभकामनाएँ!
अपराधसहस्त्राणि क्रियन्ते अहर्निशं मया। दासोयमिति मां मत्वा क्षमस्व परमेश्वर।।
गतं पापं गतं दु:खं गतं दारिद्रयमेव च। आगता: सुख-संपत्ति पुण्योहं तव दर्शनात्।।
* संबन्धित कड़ियाँ * 

Tuesday, December 24, 2013

संगीता रिचर्ड बनाम देवयानी खोबरागड़े बनाम भावुक भारतीय

शहीद सूबेदार कुंवर पाल
दिसंबर 2013: मेरठ के सूबेदार कुँवर पाल गुरुवार को भारतीय शांति सैनिकों के शिविर पर हुए हमले में मारे गए। दक्षिणी सूडान से उनके शव को लाने में हो रही देरी पर उनके परिवार और गाँव में बहुत रोष है। उनकी पत्नी के भाई कहते हैं, "कोई नेता होता तो दो घंटे में इंतज़ाम हो जाता. यहाँ सेना के जवान के लिए कोई सुविधा नहीं है?"

दिसंबर 2013: न्यूयॉर्क में अपनी नौकरानी के शोषण और प्रताड़ना तथा अमेरिकी वीसा प्रक्रिया के साथ धोखाधड़ी के आरोप में न्यूयॉर्क में पकड़ी गई देवयानी खोबरागड़े को सस्पेंड करने के बजाय भारत सरकार अमेरिका के खिलाफ हर तरह के विरोध दर्ज़ करने के बाद देवयानी को राजनीतिक प्रतिरक्षा का लाभ पहुँचाने के उद्देश्य से उसे संयुक्त राष्ट्र के स्थाई प्रतिनिधि के रूप में प्रोन्नत करती है। खबरें देखने पर पता लगता है कि देवयानी खोबरागड़े ने वीसा प्रक्रिया में तो धोखाधड़ी की ही थी, साथ ही नौकरानी द्वारा कानूनी सहायता लेने पर उसके परिवार के खिलाफ भारत में धोखाधड़ी का मुकदमा दर्ज़ कराकर उसके पति को भी गिरफ्तार कराया था। बात यहीं नहीं रुकी, देवयानी ने नौकरानी का पासपोर्ट रद्द कराया और फिर पासपोर्टविहीन होने के कारण उसे अवैध आप्रवासी बताकर अमेरिकी सरकार पर दिल्ली स्थित अमेरिकी दूतावास द्वारा उसकी गिरफ्तारी के लिए दवाब डाला। एक ओर एक निम्न-मध्यवर्गीय घरेलू नौकरानी और दूसरी ओर एक शक्तिशाली नौकरशाह परिवार। दवाब बढ़ता गया और अंततः बात यहाँ तक पहुँची कि अमेरिकी सरकार को संगीता के परिवार को दमन से बचाने के लिए अमेरिका लाना पड़ा।

दोनों परिस्थितियों की तुलना करने पर न केवल शहीद सूबेदार के परिजनों के शब्द सही साबित होते हैं बल्कि हमारे महान राष्ट्र के आदर्श वाक्य "सत्यमेव जयते" को भी गहरी चोट पहुँचती है और मेरे जैसा सामान्य बुद्धि वाला एक भारतीय यह सोचने को बाध्य होता है कि देश की वर्तमान व्यवस्था किस किस्म के लोगों को लाभ पहुँचाने में लगी है और एक गरीब भारतीय नागरिक के दमन के लिए उसके लिए हमारी मशीनरी कितना दूर तक जा सकती है।

एक ओर निहित स्वार्थ के लिए कानून को नचाने वाले नेता और नौकरशाह हैं और दूसरी ओर वे सैनिक हैं जिनके सिर आतंकवादी काट लेते हैं, जिनके शरीर को पड़ोसी देश की सेना अपमानजनक रूप से क्षत-विक्षत करती है। जिनकी विधवाओं को देने के नाम पर बने "आदर्श" के फ्लैट कुछ भ्रष्ट नेता और नौकरशाह मिलकर बाँट लेते हैं।

एक ओर पूरा भारतीय नौकरशाही तंत्र है और दूसरी ओर एक घरेलू सहायिका संगीता रिचर्ड है जो अपने घर-परिवार से दूर एक समृद्ध राजनयिक के परिवार की सेवा में लगी है और जब अपने पैसे या समय के बारे में कानूनन जायज़ शिकायत करती है तो उसकी मालकिन अपने प्रभाव का प्रयोग करके एक ऐसे इकरारनामे के आधार उसके पति को भारत में चार सौ बीसी के आरोप में गिरफ्तार करवाती है,जो आगे चलकर मालकिन देवयानी के खुद के अपराध का प्रमाण बनता है। देवयानी को इतने पर भी तसल्ली नहीं होती तो अपने रसूख का प्रयोग कर अमेरिकी प्रशासन और दिल्ली स्थित अमेरिकी दूतावास पर दवाब डलवाती है कि पासपोर्ट रद्द होने के बावजूद भी अमेरिका में रुकी हुई सहायिका को गिरफ्तार करके सज़ा काटने के लिए भारत क्यों नहीं भेजा जा रहा है। जबकि वह पासपोर्ट तो संगीता की मर्ज़ी और जानकारी के बिना (संभवतः देवयानी की पहल पर) रद्द किया गया था। इस जोश में वह अमेरिकी दूतावास को गलती से यह भी बता बैठती है कि भारत में संगीता और उसके पति के खिलाफ कोर्ट और पुलिस के जोश का आधार देवयानी का तैयार किया गया एक ऐसा दूसरा इकरारनामा (25,000 रुपये मासिक का) है जो उसने संगीता को नौकरी देते समय लिखवाया था और घरेलू नौकरानी का वीसा दाखिल कराते समय, अमेरिकी कानून की प्रतिबद्धता (न्यूयॉर्क में 9.75 डॉलर प्रति घंटा या अधिक) की बात पर हस्ताक्षर करते समय उनके शोषण-विरोधी श्रम क़ानूनों की काट के लिए उन्हीं के विरुद्ध बनाए गए इस इकरारनामे की बात छिपा ली गई थी। वीसा अर्ज़ी में घोषित और अमेरिका में रहते हुए न्यूनतम वेतन या उससे अधिक वेतन देने के वादे वाले इकरारामे से इतर (कम पैसे वाला) कोई भी इकरारनामा अमेरिका में कार्य के नियमों का खुला उल्लंघन है, और 25,000 रुपये मासिक के ऐसे छिपे हुए और समांतर समझौते का उद्देश्य सिर्फ इतना ही हो सकता है कि संगीता को नियम से कम वेतन दिया जाय और यदि कभी वह अपने अधिकारों के बारे में जान जाये और उनकी मांग करे तो उसे भारत में कानूनी कार्यवाही के नाम से धमकाया जा सके। क्या ऐसा इकरारनामा भारतीय संविधान के तहत कानूनी माना जाएगा? मुझे इसमें शक है लेकिन कानूनी विशेषज्ञों की राय जानना चाहूँगा।

देवयानी सरकारी सुविधाओं का पूर्ण लाभ उठा रही थीं। खबरें हैं कि वे अमेरिका के सबसे महंगे इलाकों में से एक मैनहेटन में चार बेडरूम के निवास में रह रही थीं जहां पति और दो बच्चों के परिवार और नौकरानी के साथ एक राजनयिक के रहने योग्य घर का किराया मात्र ही एक भारतीय राजनयिक के तथाकथित "मामूली" वेतन से कहीं अधिक होगा। उनकी न्यूयोर्क पोस्टिंग का एक आधार उसी नगर में जन्मे उनके अमेरिकी पति आकाश सिंह राठोर का निवास भी था। इससे पहले 1999 में जब आकाश सिंह राठोर बर्लिन में थे तब देवयानी को बर्लिन पोस्टिंग दिलाने के लिए उनसे दो रैंक ऊपर रहे महावीर सिंघवी की उपस्थिति को नकार कर नियमों में बदलाव किया गया था, यह बात महावीर सिंघवी द्वारा भारत सरकार के विरुद्ध दायर मुकदमे का निर्णय सिंघवी के पक्ष में करते समय भारतीय सर्वोच्च न्यायालय ने भी मानी थी। सिंघवी को नौकरी से सस्पेंड किया गया था। खबर है कि उन्हें बहाल कराते हुए सुप्रीम कोर्ट ने भारत सरकार पर 25,000 रुपये का जुर्माना भी लगाया। आप समझ ही गए होंगे कि यह खबर कहीं नहीं है कि जिम्मेदार अधिकारियों के खिलाफ कोई कार्यवाही होगी या नहीं।

शहीदों की विधवाओं के पुनर्वास के नाम पर मुंबई में हुए आदर्श सोसाइटी फ्लैट घोटाले की जांच करने वाले न्यायिक जांच आयोग ने देवयानी खोबरागड़े को उन 25 आवंटियों की सूची में रखा है जिन्होने आवंटन के अयोग्य होते हुए भी सोसाइटी में फ्लैट प्राप्त किया था। हाईकोर्ट के रिटायर्ड जज जे ए पाटिल की अगुवाई वाले दो सदस्यीय आयोग की रपट में देवयानी के सेवानिवृत्त आईएएस पिता और बेस्ट (BEST) के तत्कालीन महाप्रबंधक उत्तम खोबरागड़े पर आरोप है कि उन्होंने आदर्श सोसाइटी का फ्लोर एरिया बढ़ाने के लिए बेस्ट का नजदीकी प्लॉट हस्तांतरित कर दिया था। इस काण्ड में भी जिम्मेदार अधिकारियों के खिलाफ कोई कार्यवाही होने की खबर नहीं है, बल्कि महाराष्ट्र विधानसभा ने तो रिपोर्ट में राज्य के तीन पूर्व मुख्यमंत्रियों विलाराव देशमुख, सुशील कुमार शिंदे और अशोक चव्हाण का नाम होने के कारण रिपोर्ट को ही अमान्य कर दिया है। अमेरिका में काम कर रही नौकरानी को अमेरिका में निर्धारित न्यूनतम वेतन देने की बात पर राजनयिकों के कम वेतन का रोना रोने वालों को यह ध्यान रखना चाहिए कि देवयानी द्वारा इस फ्लैट के लिए दिये गए एक करोड़ दस लाख रुपये के लिए किसी बैंक लोन का कोई रिकार्ड जांच समिति को नहीं मिला है।

देवयानी से संबन्धित पिछली तीन घटनाएँ तो सत्तासीन हठधर्मी के बाइप्रोडक्ट के रूप में प्रकाश में आ गईं। लेकिन हमारे आसपास हर रोज़ न जाने ऐसी कितनी घटनाएँ हो रही हैं जहाँ भ्रष्ट नेता-नौकरशाह-अपराधी गठबंधन आम भारतीय नागरिकों के अधिकारों का हनन करता रहता है और उन्हीं को नेतृत्व प्रदान करने का ढोंग भी रचता है। दुख की बात यह है कि इस मामले के सामने आने तक देवयानी ने महिला अधिकारों की रक्षक की छवि बनाकर रखी थी। भारत में रहते हुए अपने सम्बन्धों, बाहुबल और सत्ता के मद में चूर लोग कई बार यह बात भूल जाते हैं कि (भारत के बाहर) अधिकांश विकसित देशों के विकास के मूल में एक सुदृढ़ कानूनी व्यवस्था है। वे देश तरक्की इसलिए कर सके क्योंकि वहाँ सामंतों द्वारा अधीनस्थों के खिलाफ कानून-पुलिस-नियम आदि का दुरुपयोग कर पाना आसान नहीं है।

नौकरों के मानवाधिकार का हनन भारत में आम है लेकिन अमेरिका में पहले भी कई भारतीय धनाढ़्यों का नाम इस अपराध में सामने आया है। मई 2007 में न्यूयॉर्क के धनपति व्यापारी महेंद्र मुरलीधर सभनानी और उनकी पत्नी वर्षा सभनानी को अपने लॉन्ग आइलैंड (न्यूयॉर्क) स्थित घर में इंडोनेशियाई मूल की दो महिलाओं को कई सालों से गुलामों की तरह रखने और निरंतर प्रताड़ित करने के आरोप में गिरफ़्तार किया गया था।

सन 2001 में बर्कले कैलिफोर्निया में एक गर्भवती किशोरी की मृत्यु की जांच जब आगे बढ़ी तो भारत में इंजीनियरिंग कॉलेज और धर्मार्थ संस्था चलाने वाले एक परोपकारी भारतीय व्यवसाई का नाम सामने आया जिसने बर्कले से अभियांत्रिकी में स्नातकोत्तर किया था। जांच आगे बढ़ी तो पता लगा कि अमेरिका में नौकरी दिलाने के बहाने भारतीय लड़कियों को अमेरिका लाकर उनके शोषण का बड़ा रैकेट चल रहा था। अंत में वीसा फ्रॉड, करचोरी और मानव तस्करी के आरोप में लकी रेड्डी को 97 महीने कारावास, बीस लाख डॉलर के जुर्माने की सज़ा तो मिली ही, अदालत के आदेश पर उसने पीडिताओं को 89 लाख डॉलर का भुगतान भी किया।

इस साल के आरंभ में न्यूयॉर्क राज्य में ही 30,000 वर्ग फुट के 34 कमरों वाले घर में रहने वाली भारतीय मूल की एनी जॉर्ज को अपनी घरेलू नौकरानी के शोषण के अपराध में सजा हुई थी। इस कांड में नौकरानी भी भारतीय मूल की (केरल से लाई गई) थी। सुबह साढ़े पाँच से रात के 11 बजे तक बिना छुट्टी लगातार काम करने के बाद एक बड़ी अलमारी में ज़मीन पर सोने वाली परिचारिका अङ्ग्रेज़ी नहीं बोल सकती थी।

देवयानी से पहले के कई मामलों में भारतीय प्रशासनिक अधिकारियों की भूमिका भी रही है। 2011 में न्यूयॉर्क उपदूतावास के ही कॉन्सुलर प्रभु दयाल पर उनकी भारत से लाई गई घरेलू नौकरानी संतोष भारद्वाज ने मिलते जुलते आरोप लगाए थे। खोबरागड़े की तरह प्रभुदयाल ने भी अमेरिका से मांग की थी कि संतोष को पकड़कर भारत भेज दिया जाये। उस मुकदमे में भी भारत सरकार अपने अधिकारी की ओर से लड़ी और गरीब भारतीय नागरिक के जायज़ अधिकारों के लिए आवाज़ उठाने का काम अमेरिकी सरकार ने किया। बाद में ऐसी खबरें आईं कि प्रभुदयाल ने अदालती व्यवस्था के बाहर समझौता कर लिया था।

2010 में इसी उपदूतावास की प्रेस सचिव डॉ नीना मल्होत्रा भी अपनी घरेलू नौकरानी शांति गुरुङ्ग के साथ इसी स्थिति का सामना कर चुकी हैं जिन पर फरवरी 2012 में अपनी नौकरानी को देने के लिए 15 लाख डॉलर का हर्जाना लगाया गया था। इस केस में नीना और उनके पति ने दिल्ली हाईकोर्ट से शांति को भारत के बाहर कोई कानूनी कार्यवाही न करने देने का आदेश दिलाया था।

हाँ, यह पहली बार हुआ है जब बात इतनी आगे पहुँच गई कि आरोपी को गिरफ्तार करने की नौबत आ गई। यदि खोबरागड़े की पहल पर भारतीय व्यवस्था द्वारा संगीता के परिवार को भारत में प्रताड़ित करने और अमेरिका पर उसकी गिरफ्तारी और वापसी का ऐसा गहरा दवाब नहीं बनाया जाता तो शायद मामला ऐसे टकराव तक नहीं पहुँचता।

दुख की बात है कि जैसे ही ऐसी कोई भी खबर आती है हमारे राष्ट्रीय प्रेम की केतली में ज्वार आ जाता है और हम सही-गलत सब भूलकर अमेरिका को लतियाने बैठ जाते हैं। इतना भी याद नहीं रहता कि दूसरा पक्ष अमेरिका नहीं है, एक अन्य भारतीय नागरिक है जो भारतीय न्याय व्यवस्था में केवल जेल जाने के लिए अभिशप्त है। भारतीय कानून के कागज के सहारे जब शक्तिशाली नेता या राजनयिक एक घरेलू नौकर को "मेरी मानो या जेल जाओ" की धमकी देते हैं तो यह भी उसी राष्ट्रव्यापी भ्रष्टाचार का ही एक भयानक चेहरा है जिसे हम नकार नहीं सकते। अपने शोषण का विरोध करने वाली घरेलू नौकरानियों को अमेरिकी वीसा उल्लंघन के लिए भारत में गिरफ्तार करवाने की मांग करने वाले भारतीय राजनयिकों को अपनी कानूनी ज़िम्मेदारी याद रहे तो देश की छवि चकनाचूर होते रहने से बचेगी।
कुछ लोग अपने अपराध का नहीं, अपने प्रति हुई कानूनी कार्यवाही का प्रायश्चित करते हैं
अब बातें उन भावनात्मक सवालों की जिन्हें सोशल मीडिया में भोले-भारतीयों द्वारा बारंबार उठाया जा रहा है। इनमें से अधिकांश का स्रोत देवयानी, उसके परिवारजनों और कुछ नेताओं से जुड़ा है।

1. अमेरिका जिस तरह संगीता को बचा रहा है उसके जासूस होने की संभावना है।
- संगीता को बचाने का प्रयास अमेरिकी मानवाधिकार प्रतिबद्धता के एकदम अनुकूल है। यदि भारत में ऐसी प्रतिबद्धता दिख जाये तो हमारी वंचित और दरिद्र जनता के न जाने कितने सपने साकार हो जाएँ। देवयानी का तो पति ही अमेरिकी नागरिक है, क्या इतने भर से आप देवयानी और उसके पति पर भी जासूस होने का आरोप लगाने का साहस करेंगे? कमजोर को लतियाने और दबंग से डर जाने की आदतें छोड़िए और कभी कभी दिमाग पर ज़ोर डालने की कोशिश भी कीजिये। अमेरिकी कानून में यह प्रयास है कि अवैध आप्रवासियो को भी अपने या परिवार के इलाज या शिक्षा आदि में कोई बाधा न पहुँचे और उनके मानवाधिकारों की रक्षा हो। अपनी शरणागत-वत्सल परंपरा तेज़ी से भूलने वाले देश को आज के अमेरिका से काफी कुछ सीखने की ज़रूरत है

2. देवयानी दलित है, यह केस उच्चजातियों की साजिश है।
- देवयानी का परिवार भारत के बड़े धनिक और राजनीतिक शक्ति-सम्पन्न परिवारों में से एक है। उसे मेडिकल कॉलेज और नौकरी में कानून के तहत आरक्षण भले ही मिला हो लेकिन इस मामले में दलित कार्ड का प्रयोग करना भी वंचितों और दलितों का मखौल उड़ाने जैसा है। इस केस में यदि कोई दलित है तो वह संगीता है।

3. यह अमेरिका की हिन्दू विरोधी साजिश है
- संगीता के नाम में रिचर्ड देखते ही आपको हिन्दू याद आ गए? इससे पहले शांति गुरुङ्ग और संतोष भारद्वाज को बचाने में तो अमेरिका हिन्दू विरोधी नहीं था। वैसे, मीडिया में जितनी सामग्री उपलब्ध है उसके अनुसार देवयानी का परिवार हिन्दू नहीं नव-बौद्ध (माइनस हिन्दू) लगता है। सच यह है कि अमेरिका एक धर्म-निरपेक्ष राष्ट्र है और ऐसे कयास बड़े बचकाने हैं।

4. भारत में अमेरिकी राजनयिकों को गिरफ्तार किया जाये क्योंकि उनमें से कोई भी अमेरिका के हिसाब से न्यूनतम वेतन नहीं देता होगा।
- कुतर्क का यह एक उत्तम उदाहरण है। हमें तो यह भी नहीं पता कि उनमें से कितनों के घर में नौकर हैं। और फिर आप भारत में भारत के कानून के पक्षधर हैं कि अमेरिका के? यह सच है कि भारत में भी न्यूनतम वेतन आदि के क़ानूनों के निर्माण और अनुपालन की ज़रूरत है और इस दिशा में प्रयास होना चाहिए। अमेरिका में हर कार्यालय में न्यूनतम वेतन के सरकारी निर्देश बुलेटिन बोर्ड पर किसी दर्शनीय स्थल पर लगाए जाने का प्रावधान भी है। हम भी कानून बनाने और उसे लागू करने के बाद इस प्रकार की छोटी-छोटी बातों पर ध्यान दे सकते हैं।
जिस तेज़ी से न्यूयॉर्क में भारतीय राजनयिक नौकरों के दमन और शोषण के मामलों में फंस रहे हैं भारतीय उप-दूतावास को अपने ही परिसर में उच्च-स्तरीय स्कैन सुविधाओं से लेस एक भारतीय-कामगार-शोषण-जेल-सेल खोलने के मामले पर विचार करना चाहिए ताकि अधिकारियों को शारीरिक जांच से न गुज़रना पड़े।
5. अमेरिकी दूतावास के समलैंगिक कर्मचारियों को भारतीय कानून के तहत गिरफ्तार किया जाये
- पुनः, क्या आपको पता है कि देश भर के सारे समलैंगिक अमेरिकी दूतावास में ही रहते हैं? आज़ादी के छः दशक बाद भी जिस देश की राजधानी तक को विकास छू भी नहीं गया है, वहाँ अमेरिकी समलैंगिकों को पकड़ने को प्राथमिकता बनाना, साफ दिखा रहा है कि हमारे नेता देश की जनता की जरूरतों के बारे में कितने जागरूक हैं।    

6. पासपोर्ट रद्द होने के बाद संगीता रिचर्ड फ्यूजिटिव (भगोड़ी अपराधी) है, उसके अमेरिका रुकने का कोई कानूनी आधार नहीं है, उसे गिरफ्तार करके भारत भेजा जाये
- संगीता को भारत से राजनयिक पासपोर्ट बनवाने के बाद उसके वीसा के कागजों पर झूठ लिखकर अमेरिका लाकर कानून से अधिक काम और कम वेतन देने के बाद उसका पासपोर्ट रद्द कराकर उसे अवैध बनाने वाली जब देवयानी है तो फिर संगीता गिरफ्तार क्यों हो? बल्कि भारतीय कानून उसे किस आधार पर फ्यूजिटिव कह सकता है? और अगर वह फ्यूजिटिव है तो उसे विदेश ले जाकर फ्यूजिटिव बनाने वाले के प्रति भारतीय कानून के तहत क्या कार्यवाही की जा रही है? संगीता कानूनी तरीके से वैध वीसा और पासपोर्ट पर अमेरिका आई है और यहाँ रहते हुए किसी गैरकानूनी गतिविधि में लिप्त नहीं है। उसके खिलाफ कोई पुराना आपराधिक रिकॉर्ड भी नहीं है। पासपोर्ट न होना कोई अपराध नहीं है। वह इस कांड की मूल पीड़िता है, उसके खिलाफ कोई भी कानूनी आधार नहीं बनता, न यहाँ, न भारत में।

7. भारतीय राजनयिकों का वेतन इतना कम है कि वे अमेरिका के न्यूनतम वेतन के नियमों का पालन नहीं कर सकते
- इससे लचर तर्क कोई हो सकता है क्या? आप सिविल सरवेंट हैं, भारत से नौकरानी लाना आपकी कानूनी बाध्यता नहीं है। पैर उतने ही पसारिए जितनी चादर है। वैसे वेतन कम होने की बात पूरी तरह से सही नहीं है क्योंकि अधिकारियों को मूल वेतन के अलावा अनेक मोटे भत्ते भी मिलते हैं। शशि थरूर ने तो एक टीवी कार्यक्रम में यह भी कहा है कि राजनयिकों को नौकरानी के वेतन का भी आंशिक भुगतान मिलता है। वैसे, भारत में करोड़ों की संपत्ति की स्वामिनी, मैनहेटन में रहने वाली देवयानी के केस में तो वेतन कोई मायने ही नहीं रखता। फिर भी अगर सरकार को इस मुद्दे पर अपने अधिकारियों से इतनी ही सहानुभूति है और वह नौकरानी रखने की परंपरा का पोषण करना चाहती है तो अमेरिका स्थित राजनयिकों के घरेलू सहायकों के लिए कानून-सम्मत वेतन और सभी ज़रूरी सुख-सुविधाओं की पक्की व्यवस्था करे और उल्लंघन करने वाले राजनयिकों को कड़ी सज़ा का प्रावधान करे।

8. देवयानी को बेटी के सामने हथकड़ी लगाई गई
- जहां इतने झूठ वहाँ एक और सही। भारत से इतर अमेरिका के कानून में पकड़े जाने पर हथकड़ी लगाना सामान्य कानूनी प्रक्रिया है। फिर भी देवयानी के केस में ऐसा कुछ भी नहीं हुआ था यह बात अब स्पष्ट हो चुकी है। न उसे बेटी के सामने पकड़ा गया और न ही हथकड़ी लगाई गई।

9. देवयानी को नशेड़ियों, यौनकर्मियों और अपराधियों के साथ रखा गया
- यह बचकाना आरोप पढ़कर ऐसा लगता है जैसे कि देवयानी का साथ देने के लिए अमेरिकी सरकार ने नशेड़ियों, यौनकर्मियों और अपराधियों की विशेष व्यवस्था की थी। अव्वल तो देवयानी के पास यह जानने का कोई आधार नहीं है कि वहाँ उपस्थित अन्य लोग कौन थे। दूसरे, वे भी आरोपी ही रहे होंगे। अपने आपको निरपराध घोषित करने वाले व्यक्ति दूसरों को एक जनरल स्टेटमेंट देकर नशेड़ी, यौनकर्मी और अपराधी कैसे कह देते हैं यह बात समझ आ जाये तो इस केस की अन्य बातें समझना भी आसान हो जाएगा। लगता है कि कुछ लोग सोचते हैं कि जैसे वे अपने घरेलू नौकर भी अपने साथ विदेश ले जाते हैं वैसे ही अदालत/थाने में अपनी विशेष सेल भी साथ लेकर चलेंगे।

10. देवयानी को राजनयिक सुरक्षा मिलनी चाहिए थी
- जहां तक मैं समझता हूँ, राजनयिक कारण से ही पकड़े जाने में देर हुई। देवयानी को आधिकारिक मामलों में सीमित राजनयिक सुरक्षा उपलब्ध है जो व्यक्तिगत नौकर के लिए किए गए वीसा फ्रॉड या वेतन अपराध पर लागू नहीं होती है। अगर वे संगीता के खिलाफ बदले की कार्यवाही को अति की हद तक नहीं बढ़ातीं तो अमेरिकी सरकार को न तो झूठे इकरारनामे का पता लगता और न ही संगीता के परिवार की सुरक्षा की चिंता करनी होती। देवयानी, उसके पिता और भारत-सरकार के सहयोग से संगीता पर हो रहे सरकारी दमन ने यह सिद्ध कर दिया कि शोषण की बात न केवल सच्ची है बल्कि यदि समय पर एक्शन न लिया गया तो संगीता और उसका परिवार सुरक्षित नहीं है। यदि यह अति न की जाती तो यह मामला केवल न्यूनतम वेतन न देने का ही रहता और शायद प्रभुदयाल मामले की तरह ही समुचित हरजाना देने पर निबट भी जाता।

11. देवयानी की जांच का उद्देश्य उसे अपमानित करना था
- कानूनरहित वातावरण में रहने का एक बड़ा खामियाजा यह है कि लोग टिकट खिड़की पर पंक्ति भी तब तक नहीं लगा सकते जब तक कि लाठीचार्ज न हो जाये। जिस देश में रेल में काली और बाहर खाकी वर्दी पहनकर कोई भी उगाही कर सकता हो वहाँ व्यवस्था के मुद्दों को समझ पाना थोड़ा कठिन तो हो ही जाता है। भारत में पिछले दिनों निर्भया कांड के मुख्य आरोपी ने कड़ी सुरक्षा वाली सेल में आत्महत्या कर ली तो मीडिया पर काफी हल्ला हुआ। इसके पहले उत्तर प्रदेश के मुख्य सर्जन के हत्याकांड केस में अभियुक्त पुलिस कस्टडी में संदिग्ध परिस्थितियों में मर गए। एक प्रमुख आतंकवादी कस्टडी से भाग गया। हर साल न जाने कितने आरोपी पुलिस कस्टडी में मारे जाते हैं जिनकी ज़िम्मेदारी किसी पर नहीं आती क्योंकि अधिकांश परिस्थितियों में यह तय ही नहीं हो पाता है कि मृत्यु का कारक क्या था, शस्त्र कैसे अंदर पहुँचा आदि। कितने मामलों में तो यह भी सिद्ध नहीं हो पाता कि पुलिस ने मृतक को पकड़ा भी था कि नहीं क्योंकि देश में कोई सिद्ध प्रणाली ही नहीं है। हर ज़िम्मेदारी को "सब कुछ चलता है" और "जुगाड़" के नियमान्तर्गत निबटाया जा रहा है। भारत के भाग्य-विधाता तो भ्रष्टाचार और लोकपाल पर चर्चा में व्यस्त हैं लेकिन विकसित देशों में सरकारी न्याय-कारागार-पुलिस व्यवस्था के अंदर लाये गए सभी व्यक्तियों के बारे में व्यवस्थित कार्यक्रम है जिसे उन्नत बनाने के प्रयास चलते रहते हैं। इस प्रणाली के तहत न केवल हर आने जाने वाले की पुख्ता जानकारी हर समय मौजूद रहती है बल्कि इस बात का भी अतिसंभव प्रयत्न रहता है कि किसी प्रकार के गैरकानूनी पदार्थ की आवाजाही न हो सके। इन्हीं नियमों के अंतर्गत कुछ स्थानों में शारीरिक जांच का प्रबंध भी है। ऐसी जगह पर एक विदेशी नागरिक ही नहीं, उस व्यवस्था का निर्माता भी आरोपी के तौर पर जाएगा तो उसकी भी वैसी ही जांच होगी।
अमेरिकी प्रशासन की यह व्यवस्था आज देवयानी के लिए नहीं बनी, बल्कि लंबे समय से स्थापित है और इसका उद्देश्य बिना किसी भेदभाव के पुलिस, न्याय, गवाह, आरोपी, मुजरिम, मुलजिम आदि सबकी सुरक्षा निश्चित करना है। शारीरिक जांच में लगाए गए सुरक्षाकर्मी (महिलाओं के केस में महिला, पुरुषों के केस में पुरुष) को जांच से गुज़र रहे व्यक्ति का स्पर्श करने की मनाही है।

सीधी-सच्ची बात यह है कि इतने सारे आपराधिक मामलों के सामने आने के बावज़ूद भी भारत सरकार घरेलू नौकरानी साथ ले जाने की प्रवृत्ति को बढ़ावा ही क्यों देती है? क्या अमेरिका में रहने वाले सभी आप्रवासी अपनी-अपनी नौकरानियाँ लेकर आते हैं? बेहतर हो कि इस बार कुछ सबक लिया जाय और राजनयिकों को भी श्रम, मानवाधिकार और कानून का सम्मान करने की शिक्षा दी जाये। वीसा अर्जियों पर झूठ लिखने के प्रति उन्हें सख्त चेतावनी दी जाये और सरकार का स्टैंड ऐसे किसी भी झूठ के साथ खड़े न होने का रहे। उन्हें यह भी याद दिलाया जाये कि वे जनसेवक (सिविल सेरवेंट्स) हैं दासस्वामी (स्लेव मास्टर्स/मालिक) नहीं। उन्हें कड़े शब्दों में बताया जाये कि व्यक्तिगत खुंदक के चलते वे दूसरों के पासपोर्ट रद्द करने/कराने से बचें। साथ ही घरेलू नौकरानियों सहित सभी भारतीय नागरिकों के अधिकारों की रक्षा का वचन दिया जाये और उनके खिलाफ बदले की कार्यवाही करने वाले अधिकारियों के खिलाफ कड़ी कानूनी कार्यवाही का विधान हो। सरकारी दमन का शिकार बने ऐसे नागरिकों के विरुद्ध लगाए गए सभी आरोपों की जांच हो और झूठे मुक़द्दमे वापस लिए जाएँ।

इस मुद्दे को अमेरिका की "चौधराहट" या "दादागिरी" समझने वाले मित्रों से मेरा यही अनुरोध है कि अगर अपनी धरती पर हो रहे अन्याय के विरुद्ध खड़े होना चौधराहट है तो भारत के लिए भी चौधरी बनाने का एक ज़बरदस्त मौका है। और वह है एक आम भारतीय नागरिक संगीता रिचर्ड और उस जैसी अनेक शोषित और पीड़ित भारतीय महिलाओं के शोषण के खिलाफ प्रतिबद्धता दिखाना। शर्म की बात है कि विदेश हमारे नागरिक के अधिकार के लिए खड़ा है और हम उनसे कुछ सीखने के बजाय अपने ही नागरिक के असंवैधानिक दमन में पार्टी बने हुए हैं।

यद्यपि इस मामले में आर्थिक भ्रष्टाचार भी सामने आया है लेकिन भ्रष्टाचार केवल पैसे के लेनदेन तक सीमित नहीं होता है। सत्ता के दुरुपयोग के उपरोक्त सारे कृत्य भी मेरी नज़र में भ्रष्टाचार के ही उदाहरण हैं। विदेशों में पोस्टेड राजनयिक भारत का प्रतिनिधित्व करते हैं इसलिए उन पर महती ज़िम्मेदारी है। ऐसे पदों के लिए ऐसे लोग चुने जाने चाहिए जिनकी न्याय-निष्ठा, निष्पक्षता और ईमानदारी अटूट और विश्वसनीय हो। बस एक बात मेरी समझ में नहीं आती है कि "सत्यमेव जयते" के देश में भ्रष्टाचार का झण्डा ऐसी बुलंदी के साथ कैसे रह रहा है? और फिर जब अमेरिका ने अपनी धरती पर "एक भारतीय के विरुद्ध" हुए मानवाधिकार उल्लंघन के एक अपराध को रोकने की कोशिश की तो हमने इसका इतना कडा विरोध क्यों किया? हमारे नेताओं और नौकरशाहों को तय करना चाहिए कि वे भारत के "सत्यमेव जयते" के आग्रह के रक्षक हैं कि भक्षक। और साथ ही हमारी जनता को हर बार एक नई तरह से भावनात्मक मूर्ख बनते रहने का भोलापन छोड़ने का प्रयास करना चाहिए।
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देवयानी और उत्तम खोबरागड़े पर सीबीआई चार्जशीट
देवयानी पर लगाए अदालती आरोप की प्रति
देवयानी खोबरागड़े की स्वघोषित संपत्ति
देवयानी खोबरगड़े कांड फेसबुक पृष्ठ
Multi-Millionaire Devyani – Slave Wage Payer?
The Other Side of the Story
अहिसा परमो धर्मः
नकद धर्म - स्वामी रामतीर्थ के शब्दों में
[नोट: मैं कोई सरकारी अधिकारी नहीं हूँ, न ही इस केस से संबन्धित कागजातों की मूलप्रतियाँ मुझे दिखाई गई हैं। पूरा आलेख विश्वसनीय और सार्वजनिक सूत्रों में प्रकाशित समाचारों, अपनी सहज बुद्धि और भारत व अमेरिका में नौकरशाहों के साथ हुए अनुभवों के साथ-साथ भारत भर में आसानी से देखे जा सकने वाले घरेलू नौकरों तथा दबंग नौकरशाहों के व्यवहार और प्रवृत्तियों पर आधारित है।]

Saturday, November 2, 2013

कुबेर ऐडविड (कुबेर वैश्रवण) उत्तर के दिक्पाल

कुबेर का चित्र: विकिपीडिया के सौजन्य से
वयं यक्षाम: का मंत्र देने वाले यक्षराज कुबेर देवताओं के कोषाध्यक्ष हैं। उनकी राजधानी हिमालय क्षेत्र के अलकापुरी में स्थित है। यक्ष समुदाय जलस्रोतों और धन संपत्ति का संरक्षक है। विश्रवस्‌ ऋषि और उनकी पत्नी इळविळा के पुत्र कुबेर की पत्नी हारिति है। भारत में हर पूजा से पहले दिक्पालों की पूजा का विधान है जिसमें उत्तर के दिक्पाल होने के कारण कुबेर की पूजा भी होती है। गहन तपस्या के बाद मरुद्गणों ने उन्हें यक्षों का अध्यक्ष बनाया और पुष्पक विमान भेंट किया। तपस्या का वास्तविक अर्थ क्या है?

निधिपति कुबेर के गण यक्ष हैं जो कि संस्कृत साहित्य में मनुष्यों से अधिक शक्तिशाली, ज्ञान की परीक्षा लेते हुए, निर्मम प्राणी हैं। जैन साहित्य में इन्हें शासनदेव व शासनदेवी भी कहा गया है। महाभारत के यक्षप्रश्न की याद तो हम सब को है। कुबेर की सम्मिलित प्रजा का नाम पुण्यजन है जिसमें यक्ष तथा रक्ष दोनों ही शामिल हैं। ।

महर्षि पुलस्त्य के पुत्र महामुनि विश्रवा ने भारद्वाज जी की कन्या इळविळा का पाणिग्रहण किया। उन्हीं से कुबेर की उत्पत्ति हुई। इसलिये उनका पूरा नाम कुबेर ऐडविड और कुबेर वैश्रवण है। विश्रवा की दूसरी पत्नी, दैत्यराज माली की पुत्री कैकसी के रावण, कुंभकर्ण और विभीषण हुए जो कुबेर के सौतेले भाई थे। विश्रवा की पुत्रों में कुबेर सबसे बड़े थे। रावण ने अपनी मां और नाना से प्रेरणा पाकर कुबेर का पुष्पक विमान और उनकी स्वर्णनगरी लंकापुरी तथा समस्त संपत्ति पर कब्जा करने के हिंसक प्रयास किए।

रावण के अत्याचारों से चिंतित कुबेर ने जब अपने एक दूत को रावण के पास क्रूरता त्यागने के संदेश के साथ भेजा तो रावण ने क्रुद्ध होकर उस दूत को मार-काटकर अपने सेवक राक्षसों को खिला दिया। यह घटनाक्रम जानकर कुबेर को दुख हुआ। अंततः यक्षों और राक्षसों में युद्ध हुआ। बलवान परंतु सरल यक्ष, मायावी, नृशंस राक्षसों के आगे टिक न सके, राक्षस विजयी हुए। रावण ने माया से कुबेर को घायल करके उनका पुष्पक विमान ले लिया। कुबेर अपने पितामह पुलत्स्य के पास गये। पितामह की सलाह पर कुबेर ने गौतमी के तट पर शिवाराधना की। फलस्वरूप उन्हें 'धनपाल' की पदवी, पत्नी और पुत्र का लाभ हुआ। कुछ जनश्रुतियों के अनुसार कुबेर का एक नेत्र पार्वती के तेज से नष्ट हो गया, अत: वे एकाक्षीपिंगल भी कहलाए। तपस्थली का वह स्थल कुबेरतीर्थ और धनदतीर्थ नाम से विख्यात है। ब्रजक्षेत्र में स्थित माना जाने वाला यह तीर्थ कहाँ है?

धनार्थियों के लिए कुबेर पूजा का विशेष महत्व है। परंपरा के अनुसार लक्ष्मी जी चंचला हैं, कभी भी कृपा बरसा देती हैं। लेकिन कुबेर संसार की समस्त संपदा के रक्षक हैं। उनकी अनिच्छा होते ही धन-संपदा अपना स्थान बदल लेती है। समस्त धन के संरक्षक कुबेर की मर्जी न हो तो लक्ष्मी चली जाती हैं। दीपावली पर बहीखाता पूजन के साथ कुबेर पूजन, तुला पूजन तथा दीपमाला पूजन का भी रिवाज है। महाराज कुबेर के कुछ मंत्र:
आह्वान मंत्र: आवाहयामि देव त्वामिहायाहि कृपां कुरु। कोशं वर्धय नित्यं त्वं परिरक्ष सुरेश्वर।।
कुबेर मंत्र: ॐ कुबेराय नम:
कुबेर मंत्र: धनदाय नमस्तुभ्यं निधिपद्माधिपाय च। भगवान् त्वत्प्रसादेन धनधान्यादिसम्पद:।।
अष्टाक्षर कुबेर मंत्र: ॐ वैश्रवणाय स्वाहा।
षोडशाक्षर कुबेर मंत्र: ॐ श्रीं ॐ ह्रीं श्रीं ह्रीं क्लीं श्रीं क्लीं वित्तेश्वराय नम:
पंच्चात्रिशदक्षर कुबेर मंत्र - ॐ यक्षाय कुबेराय वैश्रवणाय धनधान्याधिपतये धनधान्यसमृद्धिं मे देहि दापय स्वाहा।


और हाँ, भारतीय रिज़र्व बैंक के आगे कुबेर की नहीं, यक्ष और यक्षी/यक्षिणी की मूर्ति है। और हँसता हुआ चीनी लाफिंग बुद्धा भी बुद्ध नहीं बल्कि शायद एक यक्ष है। और हाँ, बाबा शोभन सरकार को शायद कुबेर पूजन की ज़रूरत है।
तमसो मा ज्योतिर्गमय
दीपावली की शुभकामनायें। आपका जीवन ज्योतिर्मय हो!

दिग्दर्शक मिलता नहीं खुद राह गढ़ने चल पड़े
सूरज नहीं चंदा नहीं कुछ दीप मिलकर जल पड़े

Friday, October 4, 2013

पितृ पक्ष - महालय

साल के ये दो सप्ताह - इस पखवाड़े में हज़ारों की संख्या में वानप्रस्थी मिशनरी पितर वापस आते थे अपने अपने बच्चों से मिलने, उनको खुश देखकर खुशी बाँटने, आशीष देने. साथ ही अपने वानप्रस्थ और संन्यास के अनुभवों से सिंचित करने। दूर-देश की अनूठी संस्कृतियों की रहस्यमयी कथाएँ सुनाने। रास्ते के हर ग्राम में सम्मानित होते थे। जो पितर ग्राम से गुज़रते वे भी और जो संसार से गुज़र चुके होते वे भी, क्योंकि मिलन की आशा तो सबको रहती थी। कितने ही पूर्वज जीवित होते हुए भी अन्यान्य कारणों से न आ पाते होंगे, कुछ जोड़ सूनी आँखें उन्हें ढूँढती रहती होंगी शायद।

साल भर चलने वाले अन्य उत्सवों में ग्रामवासी गृहस्थ और बच्चे ही उपस्थित होते थे क्योंकि 50+ वाले तो संन्यासी और वानप्रस्थी थे। सो उल्लास ही छलका पड़ता था, जबकि इस उत्सव में गाम्भीर्य का मिश्रण भी उल्लास जितना ही रहता था। समाज से वानप्रस्थ गया, संन्यास और सेवा की भावना गयी, तो पितृपक्ष का मूल तत्व - सेवा, आदर, आद्रता और उल्लास भी चला गया।

भारतीय संस्कृति में ग्रामवासियों के लिए उत्सवों की कमी नहीं थी। लेकिन वानप्रस्थों के लिए तो यही एक उत्सव था, सबसे बड़ा, पितरों का मेला। ज़ाहिर है ग्रामवासी जहाँ पितृपूजन करते थे वहीं पितृ और संतति दोनों मिलकर देवपूजन भी करते थे। विशेषकर उस देव का पूजन जो पितरों को अगले वर्ष के उत्सव में सशरीर आने से रोक सकता था। यम के विभिन्न रूपों को याद करना, जीवन की नश्वरता पर विचार करते हुए समाजसेवा की ओर कदम बढ़ाना इस पक्ष की विशेषता है। अपने पूर्वजों के साथ अन्य राष्ट्रनायकों को याद करना पितृ पक्ष का अभिन्न अंग है। मृत्यु की स्वीकृति, और उसका आदर -
मालिन आवत देखि करि, कलियाँ करीं पुकार। फूले फूले चुन लिए, काल्हि हमारी बार।। ~ कबीर

केवल अपनी वंशरेखा के पितर ही नहीं, बल्कि परिवार में निःसंतान मरे लोगों के साथ-साथ गुरु. मित्र, सास, ससुर आदि के श्राद्ध की परम्परा याद दिलाती है कि कृतज्ञता भारतीय सभ्यता के केंद्र में है। अविवाहित और निःसंतान रहे भीष्म पितामह का श्राद्ध सभी वर्णों द्वारा किया जाना भी अपने रक्त सम्बंध और जाति-वर्ण आदि से मुक्त होकर हुतात्माओं को याद करने की रीति से जोड़ता है। मैं और मेरे के भौतिक स्वार्थ से ऊपर उठकर, आज और अभी के लाभ को भूलकर, हमारे और सबके, बीते हुए कल के सत्कृत्यों और उपकार को श्रद्धापूर्वक स्मरण करने का प्रतीक है श्राद्ध।

आज पितृविसर्जनी अमावस्या को अपने पूर्वजों को विदा करते समय उनके सत्कर्मों को याद करने का, उनके अधूरे छूटे सत्संकल्पों को पूरा करने का निर्णय लेने का दिन है।

क्षमा प्रार्थना
अपराधसहस्राणि क्रियन्तेऽहर्निशं मया। दासोऽयमिति मां मत्वा क्षमस्व परमेश्वर।।
गतं पापं गतं दु:खं गतं दारिद्रयमेव च। आगता: सुख-संपत्ति पुण्योऽहं तव दर्शनात्।

पिण्ड विसर्जन मन्त्र
ॐ देवा गातुविदोगातुं, वित्त्वा गातुमित। मनसस्पतऽइमं देव, यज्ञ स्वाहा वाते धाः॥

पितर विसर्जन मन्त्र - तिलाक्षत छोड़ते हुए
ॐ यान्तु पितृगणाः सर्वे, यतः स्थानादुपागताः ।। सर्वे ते हृष्टमनसः, सवार्न् कामान् ददन्तु मे॥ ये लोकाः दानशीलानां, ये लोकाः पुण्यकर्मणां ।। सम्पूर्णान् सवर्भोगैस्तु, तान् व्रजध्वं सुपुष्कलान ॥ इहास्माकं शिवं शान्तिः, आयुरारोगयसम्पदः ।। वृद्धिः सन्तानवगर्स्य, जायतामुत्तरोत्तरा ॥

देव विसजर्न मन्त्र - पुष्पाक्षत छोड़ते हुए
ॐ यान्तु देवगणाः सर्वे, पूजामादाय मामकीम्। इष्ट कामसमृद्ध्यर्थ, पुनरागमनाय च॥

सभी को नवरात्रि पर्व पर हार्दिक बधाई और मंगलकामनाएँ!

Sunday, April 21, 2013

नकद धर्म - स्वामी रामतीर्थ के शब्दों में

इंडिया बनाम भारत जैसी गरमागरम बहसों के बीच एक भारतीय धार्मिक विचारक के एक शताब्दी से अधिक पुराने शब्दों पर एक नज़र
यह कथन असंगत है कि अमेरिकावासी डालर (लक्ष्मी) के दास हैं। सच तो यह है कि लक्ष्मी स्वयं सरस्वती के पीछे लगी रहती है। जो लोग यह आरोप मढ़ते हैं कि अमेरिकनों का धर्म नक़द धर्म नहीं वरन नक़दी धर्म है, वे या तो अमरीका की सही स्थिति का ज्ञान नहीं रखते अथवा वे घोर अन्यायी हैं, और ‘अंगूर न मिलें तो खट्टे’ वाली कहावत उन पर चरितार्थ होती है।
कैलीफोर्निया में एक नारी ने अठारह करोड़ रुपया अर्पित कर एक विश्वविद्यालय की स्थापना की। इसी प्रकार उस देश में विद्या की उन्नति और प्रसार के लिये प्रतिवर्ष करोड़ों का दान दिया जाता है। भारत की ब्रह्मविद्या की वहाँ कदर इसी से प्रकट है, कि जैसा ‘व्यावहारिक वेदांत’ अमेरिका में इस समय व्यवहृत हो रहा है। वैसा भारत में आज नहीं है। उन लोगों ने यद्यपि भारत के वेदांत को अपने में पचा लिया है और मनसा कर्मणा गृहण कर लिया है, फिर भी वे हिन्दू नहीं बन गये हैं।

वैसे ही हम भी उनके ज्ञान कला कौशल को अपने में पचा लेने पर भी अपनी राष्ट्रीयता को कायम रख सकते हैं। वृक्ष बाहर से खाद संग्रह करते हैं, स्वयं खाद नहीं बन जाते। बाहर की मिट्टी, जल वायु प्रकाश आदि ग्रहण करती और अपने में पचा लेती है, किन्तु वह स्वयं जल, वायु और प्रकाश नहीं हो जाती।

जापानियों ने अमेरिका और योरोप के विज्ञानशास्त्र और नाना कला कौशल को अपने में पचा लिया, फिर भी जापानी ही बने रहे। देवों ने अपने यहाँ से कुछ को असुरों के पास भेजकर उनकी जीवन तुल्य संजीवनी विद्या, सीख ली, परंतु वे असुर नहीं हो गये। इसी प्रकार तुम लोग भी अमेरिका, यूरोप आदि जाकर वहाँ से ज्ञान विज्ञान कला कौशल प्राप्त करो और इससे तुम्हारे धर्म और राष्ट्रीयता में धब्बा न आयेगा। जो लोग विद्या और ज्ञान, को भौगोलिक सीमा में परिसीमित करते हैं, जिनका कथन है, कि विदेशियों का ज्ञान हमारे यहां आने से अधर्म होगा और हम अपने ज्ञान को स्वदेश की सीमा से बाहर दूसरों के कल्याण के लिये क्यों जाने दें, और इस प्रकार जो लोग अपना ज्ञान पराया ज्ञान कहकर ज्ञान में विभाजन करते हैं, वे अपने ज्ञान को अज्ञान में बदलते हैं

इस कमरे में प्रकाश फैला है। यह प्रकाश अत्यंत लुभावना और सुहावना है ! यदि हम कहें कि यह प्रकाश हमारा है, एकमात्र हमारा है, हाय, यह कहीं बाहर के प्रकाश से मिलकर अपवित्र न हो जाय; और इस भय से हम अपने प्रकाश को सुरक्षित रखने के लिये, कमरे की खिड़कियाँ रौशनदान कपाट सब बंद कर दें; चिकें, परदे गिरा दें, तो परिणाम यह होगा कि वह स्वयं प्रकाश ही लुप्त हो जायगा। नहीं-नहीं कस्तूरी के समान काला नितांत अंधकार छा जायगा। हाय, हम लोगों ने भारत में इस भ्रान्तिमूलक धारणा और चलन को क्या अपना लिया।
हब्बुलवतन अज मुल्के सुलेमाँ खुश्तर।
खारे-वतन अज संबुले-रेहाँ खुश्तर।। 
इसे भूलकर स्वयं काँटा बन जाना और स्वदेश को काँटों का वन बना देना, यह कैसी देशभक्ति है? साधारण तौर पर एक ही प्रकार के वृक्ष जब गुन्जान समूहों में इकट्ठा उगते हैं, तो सब कमजोर रहते हैं। इनमें से किसी को उस झुण्ड से अलग ले जाकर कहीं बो दें तो वही बढ़कर बड़ा और अति पुष्ट हो जाता है। यही स्थिति राष्ट्रों और जातियों की है। कश्मीर के संबंध में कहा जाता है-
गर फिरदौस ब-रु-ए ज़मींनस्त, हमींनस्त हमींनस्त हमींनस्त!!
किन्तु यही कश्मीरी लोग, जो अपने स्वर्ग अर्थात् कश्मीर से बाहर निकलना पाप समझते हैं, अपनी कमजोरी नादानी और गरीबी लिये प्रख्यात हैं। और वह पुरुषार्थी कश्मीरी पण्डित जो उस फिरदौस से बाहर निकलकर आये, उन्होंने अन्य भारतवासियों को हर बात में मात कर दिया। वे सब ऊँचे-ऊँचे ओहदों पर विराजमान हैं। जापानी जब तक जापान में बन्द रहे, वे कमजोर और पस्त रहे। जब वे विदेशों को जाने लगे, वहाँ की हवा लगी, वे सशक्त हो गये। योरोप के गरीब धनहीन और प्रायः निम्न स्तर के लोग जहाजों पर सवार होकर अमरीका जा बसे और आज उनकी जमात संसार की सबसे शक्तिशाली कौम है। कुछ भारत वासियों ने भी विदेश का मुँह देखा। जब तक स्वदेश में रहे उनकी कोई पूछ-गछ न थी। विदेशों में गये तो उन उन्नत कौमों में प्रथम श्रेणी के समझे गये और उन्होंने ख्याति प्राप्त की।
पानी न बहे तो उसमें बू आये, खञ्जर न चले तो मोरचा खाये।
गर्दिश से बढ़ा लिहर व मह का पाया, गर्दिश से फ़लक ने औज़ पाया।
वृक्ष सारी रुकावटों को काटकर अपनी जड़ों को वहाँ प्रविष्ट कर देते हैं जहाँ जल प्राप्त हो। इसी प्रकार अमेरिका, जर्मनी, जापान, इँगलैण्ड के लोग सागरों को चीरकर, पर्वतों को काटकर धन खर्च करके, सभी प्रकार की विपत्तियों और कष्टों को झेलकर वहाँ-वहाँ पहुँचे, जहाँ से उन्हें कम या ज्यादा, किसी भी प्रकार का ज्ञान हो सका। यह तो है एक कारण उनकी उन्नति का।
(~ स्वामी रामतीर्थ)

Wednesday, April 17, 2013

किसी की जान जाये, शर्म हमको मगर नहीं आती

घर दिल्ली की पश्चिमी सीमा पर  बहादुरगढ़ के पास और दफ्तर यमुना के पूर्व में उत्तर प्रदेश के अंदर। जीवन की पहली नौकरी, सीखने के लिए रोज़ एक नई बात। सुबह सात बजे घर से निकलने पर भी यह तय नहीं होता था कि दस बजे अपनी सीट पर पहुँचूंगा कि नहीं। मो सम जी वाली किस्मत भी नहीं कि सफर ताश खेलते हुए कट जाये। अव्वल तो किसी भी बस में सीट नहीं मिलती थी। कुछ बसें तो ऐसी भी थीं जिनमें से ज़िंदा बाहर आना भी भाग्य की बात थी। तय किया कि घर से सुबह छः बजे निकल लिया जाये।

दक्षिण भारतीय बैंक था सो कर्मचारी वर्ग उत्तर का और अधिकारी वर्ग दक्षिण का होता था। संस्कृति का अंतर भी स्पष्ट दिखता था। अधिकारी वर्ग के लोग झिझकते हुए हल्की आवाज़ में बात करने वाले, विनम्र, कामकाजी और धार्मिक से लगते थे। कर्मचारी  वर्ग के अधिकांश लोग - सब नहीं - वैसे थे जिन्हें हिन्दी में "लाउड" कहा जा सकता है। शाखा के वरिष्ठ प्रबन्धक एक अपवाद थे। दूध सा गोरा रंग, छोटा कद, हल्के बाल, पंजाबी भाषी। पहले दिन ही लंबा-चौड़ा इंटरव्यू कर डाला। छिपे शब्दों में नई नौकरी के खतरों से आगाह भी कर दिया। उसके बाद तो सुबह को रोजाना ही कुछ देर बात करने का नियम सा हो गया क्योंकि हम दो लोग ही सबसे पहले आते थे। पौने दस बजे अपनी घड़ी सामने रखकर हर आने वाले कर्मचारी को देखकर फिर अपनी घड़ी देखने वाले व्यक्ति ने जब मुझे यह सुझाया कि इतना जल्दी आने की ज़रूरत नहीं है तो कइयों को  झटका लगा।

तय यह हुआ कि मैं घर से यदि सात बजे निकलूँ तो नोएडा मोड़ पर लगभग उसी  समय पहुँचूंगा जब बड़े साहब की कार पहुँचती है। वहाँ से आगे बस और रिक्शे के झंझट से बचने भर से ही मेरी 40-45 मिनट की बचत हो जाएगी। फिर तो यह रोज़ का नियम हो गया। बड़े साहब के साथ छोटे साहब यानी शाखा प्रबन्धक जी भी आते थे। बैंक की अधिकारी परंपरा के वाहक, विनम्र, नफीस, टाल, डार्क, हैंडसम। शाखा में बड़ी इज्ज़त थी उनकी। कर्मचारी ही नहीं, ग्राहक भी सम्मान करते थे।  

बड़े साहब से पहचान बढ़ती गई मगर प्रबन्धक जी ने  "बेबी ऑफ द ब्रांच" की उपाधि देकर भी पद की गरिमा का सम्मान रखते हुए संवाद सीमित ही रखा। मेरे जॉइन करने के कुछ ही हफ्तों में दो-चार रिलीविंग पार्टियां हो गईं। बड़े साहब ने जहां हिन्दी और पंजाबी गीत सुनाये, प्रबन्धक जी ने मातृभाषा न होते हुए भी नफासत से भरी गज़लें सुनाकर शाखा भर को प्रभावित कर लिया। 

उस दिन जब हम तीनों कार में बातें करते आ रहे थे बड़े साहब बिना किसी संदर्भ के बोले, "लोग यह कैसे भूल जाते हैं कि उनके साथ भी यह हो सकता है।" जब तक मैं कुछ समझ पाता, बैंक की सफ़ेद अंबेसडर कार सड़क के बीच डिवाइडर के पास वहाँ खड़ी थी जहां एक स्कूटर पड़ा हुआ था। उसका चालक डिवाइडर पर चित्त बेहोश पड़ा था। सर फटा हुआ था पर खून जम चुका था। सर पर आर्टिफेक्ट की तरह रखा हुआ बिना फीतों का हैलमेट कुछ दूर पड़ा था। कोई बेहया वाहन उसे टक्कर मारकर मरने के लिए छोड़ गया था। दिल्ली-नोएडा मार्ग, थोक में आते जाते वाहन। किसी ने भी उसे न देखा हो, यह सोचना तुच्छ कोटि की मासूमियत होती। मैंने और बड़े साहब ने मिलकर उसका त्वरित निरीक्षण किया और जैसा कि स्वाभाविक था उसे कार की पिछली सीट पर बिठा दिया। 

इस सारी प्रक्रिया में ऐसे बहुत से व्यवसायियों की गाडियाँ वहाँ से गुज़रीं जो बैंक में रोजाना आते तो थे ही, हमारी एक नज़र पर अपनी दुनिया कुर्बान कर देने की बात करते थे। फिलहाल वे सभी हमारी नज़र से बचने की पूरी कोशिश में थे। दुर्घटनाग्रस्त व्यक्ति को कार में सुरक्षित करने के बाद जब मैंने इधर-उधर देखा तो पाया कि हमारे रुकते ही सड़क पार करके फुटपाथ पर चले जाने वाले नफीस प्रबन्धक जी शाखा के समय से खुलने की ज़िम्मेदारी के चलते एक पार्टी के वाहन में शाखा की ओर चले गए थे। हमारे वहाँ से चलने से पहले ही एक पुलिस कार आकर उस व्यक्ति को अस्पताल ले गई। एक अन्य पुलिस वाहन ने रुककर हमसे कुछ सवाल-जवाब किए और नाम-पता लेकर वे भी चले गए। भला हो मोटरसाइकिल से गुजरने वाले उस लड़के का जो हमें देखकर पास के बीट-बॉक्स में पुलिस को सूचना देने चला गया था।     

हम तो जी उन बड़े साहब के वो मुरीद हुए कि आज तक हैं। रास्ते में बड़े साहब ने यह आशंका भी व्यक्त की कि दुर्घटनाग्रस्त को बचाने में खतरा तभी है जब उसकी जान बच न पाये। तब से अब तक काफी कुछ बदला है। दूसरों को बचाने वालों पर छाया संशय का खतरा टला है। क़ानूनों में ज़रूरी परिवर्तन हुए हैं ताकि लोग सड़क पर मरतों को बचाने में न डरें। फिर भी जयपुर की हाल की घटना यही बता रही है कि इंसान बनने में अभी भी काफी दिक्कतें हैं। एक माँ बेटी की जान सिर्फ इसलिए चली गई कि सड़क से गुजरे अनेक लोगों में से किसी के सीने में भी दिल नहीं धड़का। 27 साल पहले कही उनकी बात आज भी वैसी ही कानों में गूंज रही है,  "लोग यह कैसे भूल जाते हैं कि उनके साथ भी यह हो सकता है।"       
   

Saturday, March 24, 2012

अफ़वाहों का गणित

पुरानी घटना है। आस पड़ोस के सब लोग गणेश जी को दूध पिलाने के लिये दौड़ रहे थे। हमारी पड़ोसन भी आयीं ताकि वे माँ के साथ निकट के मन्दिर में जा सकें। माँ ने पहले तो समझाने का प्रयास किया फिर अचानक ही साथ चलने को तैयार हो गयीं। दूध के लोटे-गिलास के बजाय एक खाली चम्मच लिया और वहाँ जाकर संगेमरमर की मूर्ति की गर्दन से लगा दिया। पल भर में ही चम्मच दूध से भर गया। पड़ोसन को भी दिख गया कि मूर्ति दूध पी नहीं रही थी बल्कि दुग्ध-स्नान कर रही थी।

आजकल अफ़वाहें भी तकनीक की बेल के सहारे काफ़ी ऊँची उठ चुकी हैं। एक एस एम एस आता है या कोई ईमेल मिलती है और हम आश्चर्य से भर जाते हैं। सब कुछ अनोखा, इतना अनूठा कि संयोग शब्द कुछ हल्का लगने लगे। हम इतने प्रभावित हो जाते हैं कि जो मिलता है उसे उस ईमेल का विषय फ़टाफ़ट विस्तार के साथ बताने लगते हैं। कभी उस संदेश को आगे दो चार मित्रों को फ़ॉरवर्ड करते हैं और कभी ब्लॉग पोस्ट भी बना देते हैं। उत्साह के बीच ये बात दिमाग़ में आती ही नहीं कि वह सन्देश अफ़वाह भी हो सकता है। पहले किसी अफ़वाह के फैलने की रफ़्तार धीमी थी परंतु आजकल तो बस्स ...

क्या आपने कभी जानने का प्रयास किया है कि इन अफ़वाहों के पीछे कौन छिपा है? कौन हमारे भोले विश्वास का लाभ उठाकर अपना उल्लू सिद्ध करना चाहता है? अपने अभिनेता बेटे की हाई प्रोफ़ाइल फ़िल्म के विश्व-व्यापी उद्घाटन के समय भारत के एक फ़िल्म निर्माता को अंडरवर्ल्ड से पैसा देने की धमकी मिलती है। वह पुलिस में जाता है। पुलिस उसकी सुरक्षा में लग जाती है। तभी पड़ोसी देश का एक केबल नेटवर्क उस अभिनेता द्वारा उस देश का अपमान करने की खबर देता है। देशभक्ति की भावना से भरे भोले-भाले लोग उस अभिनेता के विरोध में घरों से बाहर निकल आते हैं। अभिनेता बेचारा सफ़ाई ही देता रह जाता है।

सम्बन्ध व्यवसायिक हों या पारिवारिक, वे तभी टिकते हैं जब उनमें दोनों पक्ष या तो लाभ में रहते हों या कम से कम एक पक्ष का लाभ हो रहा हो या कम से कम एक पक्ष इस सम्बन्ध के प्रति या तो निरपेक्ष हो या हानि भी सहने को तैयार हो। इसी प्रकार कुछ लोग कोई भी काम करते समय सबका भला देखते हैं। कुछ लोग केवल अपना भला देखते हैं। लेकिन इस सब से आगे बढकर कुछ लोग, देश या संस्थायें केवल इतना देखते हैं कि उनके काम से दूसरे व्यक्ति, संस्था या देश की हानि हो। उनके लिये यह दूसरा कोई व्यक्ति, संस्था या देश नहीं होता, वह होता है केवल एक प्रतिद्वन्द्वी बल्कि एक शत्रु, जिसे किसी भी कीमत पर नीचा दिखाना है, हराना है या नष्ट करना है।

मुझे याद पड़ता है कि एक अन्य पड़ोसी देश के एक प्रधानमंत्री ने कहा था कि हम हिन्दुस्तान से हज़ार साल तक लड़ेंगे, भले ही उसके लिये हमें घास खाना पड़े। पता नहीं उनके देश ने घास खाई या नहीं मगर पहले तो उस देश का एक बड़ा भूभाग अलग हुआ और फिर बचे हुए लोगों ने उस प्रधानमंत्री को फ़ाँसी पर लटका दिया। देश का चरित्र फिर भी काफ़ी हद तक वैसा ही रहा जैसा इन घटनाओं से पहले था। अपना इतिहास छिपाने और पड़ोसियों के विरुद्ध अफ़वाहें फैलाने का चलन वहाँ आज भी है और उस देश के पतन का एक बड़ा कारण है।

लेकिन ये अफ़वाहें फैलती क्यों हैं? पड़ोसी देश की समस्या तो ये है कि वहाँ इस्लाम के नाम पर कुछ भी कराया जा सकता है। हिन्दी, हिन्दू, हिन्दुस्तान के विरोध के नाम पर इंसानियत का खून आसानी से किया जा सकता है। उनके स्कूलों की किताबें हों या मदरसों के सबक, सबका एक छिपा एजेंडा है। वे भूल गये हैं कि नफ़रत की आग जब एक बार जलनी शुरू होती है फिर समदर्शी होकर अपना पराया नहीं देखती। वे अन्धे हों तो हों मगर वैविध्य, उदारता और सहिष्णुता की अति-प्राचीन परम्परा वाले हम लोग अफ़वाहों के चक्र को तोड़ने के बजाय उसे हवा क्यों देते हैं? शायद इसलिये कि अफ़वाह फैलाने वाले आपके मन की घुटन पहचानते हैं। वे जानते हैं कि आपके मन में क्या चल रहा हैं? अफ़वाहें अक्सर ऐसी भावनाओं का शोषण करती हैं जिनसे एक बड़े समूह को आसानी से चलायमान किया जा सके। ये भावनायें धर्म, देशप्रेम, ग़रीबी, अन्याय, असमानता आदि कुछ भी हो सकती हैं लेकिन अक्सर इनके द्वारा एक बड़े समूह को पीड़ित बताया जाता है।

अब्राहम लिंकन 
अफ़वाहों के कुछ विशेषज्ञ भी होते हैं। पहले सीधी-सच्ची जैसी लगने वाली अफवाहें फैलाकर जनता का रुख और उनकी परिपक्वता का स्तर पहचाना जाता है। समय के साथ अफ़वाहों को बदला या हटाया जाता है। कई बार ये अफ़वाहें प्रत्यक्ष होती हैं जबकि कई बार परोक्ष भी होती हैं। शीतल पेयों में पशु-उत्पाद होना, नेहरू जी का मुसलमान होना, जिन्ना का सैकुलर होना जैसी सामान्य प्रचलित अफ़वाहों का परिणाम समझ आ जाये तो उनका उद्देश्य और उद्गम पहचानना आसान हो जायेगा। साथ ही यदि हम अफ़वाह पर एक सरसरी नज़र डालें तो उसका झूठ एकदम सामने आ जायेगा।

आइये केवल विश्लेषण के उद्देश्य से एक ब्लॉग पर ताज़ा छपी एक पुरानी अफ़वाह का नया संस्करण देखें। मैंने जानकर इस अफ़वाह को इसलिये चुना है क्योंकि यह एक विख्यात परंतु सरल सी अफ़वाह है और इसका हमारे देश, धर्म, राजनीति, राष्ट्रनायक या  परिस्थितियों से भी कोई लेना-देना नहीं है। अफ़वाह लम्बी है, कृपया धैर्य रखिये।

1. प्रेसिडेंट लिंकन 1860 मे राष्ट्रपति चुने गये थे, केनेडी का चुनाव 1960 मे हुआ था।
2. लिंकन के सेक्रेटरी का नाम केनेडी तथा केनेडी के सेक्रेटरी का नाम लिंकन था।
3. दोनों राष्ट्रपतियों का कत्ल शुक्रवार को अपनी पत्नियों की उपस्थिति मे हुआ था।
4. लिंकन के हत्यारे बूथ ने थियेटर मे लिंकन पर गोली चला कर एक स्टोर मे शरण ली थी और केनेडी का हत्यारा ओस्वाल्ड, एक स्टोर मे केनेडी को गोली मार कर एक थियेटर मे जा छुपा था।
5. बूथ का जन्म 1839 मे तथा ओस्वाल्ड का 1939 मे हुआ था।
6. दोनों हत्यारों की हत्या मुकद्दमा चलने के पहले ही कर दी गयी थी।
7. दोनों राष्ट्रपतियों के उत्तराधिकारियों का नाम जानसन था। एन्ड्रयु जानसन का जन्म 1808 मे तथा लिंडन जानसन का जन्म 1908 मे हुआ था।
8. लिंकन और केनेडी दोनों के नाम मे सात अक्षर हैं।
9. दोनों का संबंध नागरिक अधिकारों से जुडा हुआ था।
10. लिंकन की हत्या फ़ोर्ड के थियेटर में हुई थी, जबकी केनेडी फ़ोर्ड कम्पनी की कार मे सवार थे।

आश्चर्य है कि इसकी काट बहुत पहले प्रकाशित हो जाने के बाद भी यह दंतकथा आज तक सर्कुलेशन में है। आइये बिन्दुवार देखें इस विचित्र से सत्य में सत्य का प्रतिशत कितना है:

1. अमेरिका में राष्ट्रपति का चुनाव हर 4 वर्ष में होता है। इसलिये किन्हीं भी दो राष्ट्रपतियों के बीच का अंतर 4 से विभाज्य होगा। यह हम पर निर्भर है कि हम जो दो राष्ट्रपति चुनें उनके बीच का अंतर 56, 96, 100, 104 या 200 वर्ष है या कुछ और। यहाँ दो ऐसे राष्ट्रपति लिये गये हैं जिनकी हत्या हुई और उनके राष्ट्रपति बनने के वर्षों में सौ वर्ष का अंतर था।

2. यह पक्की बात है कि लिंकन के अनेक सचिवों में से किसी का उपनाम भी कैनेडी नहीं था।

3. सप्ताह के सात दिनों में से एक के होने की सम्भावना कितनी जटिल है। वैसे लिंकन की हत्या के समय उनकी पत्नी साथ नहीं थीं और उनकी मृत्यु शनिवार को हुई थी।

4. भागने के बाद बूथ ने अलग-अलग जगहों यथा घर, खेत, कुठार आदि में शरण ली थी परंतु स्टोर में नहीं।

5. इन दो राष्ट्रपतियों में एक दूसरे से एक शताब्दी का अंतर था, सो उनके हत्यारों के जन्म में भी 100 साल का अंतर कोई बड़ी बात नहीं है। मगर अफ़वाह का यह बिन्दु भी ग़लत है। बूथ का जन्म 1839 में नहीं बल्कि 1838 में हुआ था। वैसे, ओसवाल्ड केनेडी का हत्यारा था - इस बात पर आज भी बहुत से लोगों को विश्वास नहीं है।

6. चलिये एक बिन्दु तो सच है, वैसे राष्ट्रपति के हत्यारों का घटनास्थल पर ही मारा जाना एक सामान्य सम्भावना है।

7. दोनों राष्ट्रपतियों के उत्तराधिकारियों का कुलनाम जॉंन्सन होना सचमुच एक सन्योग है। जॉंन्सन अमेरिका का एक सामान्य नाम है। यदि दोनों जॉंन्सन के नाम भी समान होते तब ज़रूर आश्चर्य होता। या फिर उत्तराधिकारियों के नाम क्रमशः कैनेडी व लिंकन होते तब तो मैं भी इस अफ़वाह पर पूर्ण विश्वास करता। दोनों राष्ट्रपतियों में एक दूसरे से एक शताब्दी का अंतर उनके उत्तराधिकारियों के समान अंतर को ही साबित करता है। यदि उत्तराधिकारियों का अंतर 75 या 125 साल भी होता तो क्या फ़र्क पड़ना था?

8. यूरोपीय मूल के नामों में 7 अक्षर होना अनोखी बात नहीं है। वैसे कैनेडी के नाम "जॉन" में 7 नहीं चार अक्षर थे।

9. आश्चर्य? अमेरिका के हर राष्ट्रपति का नाम मानव अधिकारों से जुड़ा है, कइयों को नोबल शांति पुरस्कार भी मिल चुके हैं।

10. कैनेडी लिंकन कम्पनी द्वारा बनाई हुई लिंकन कॉंटिनेंटल लिमुज़िन में सवार थे। हाँ, लिंकन कम्पनी फ़ोर्ड कम्पनी के स्वामित्व में अवश्य है लेकिन क्या स्टेट बैंक ऑफ़ ट्रावनकोर को स्टेट बैंक ऑफ़ इंडिया कहा जा सकता है? दूसरी बात यह कि लिंकन कार का नाम ही राष्ट्रपति लिंकन के सम्मान में रखा गया था। इसलिये एक शताब्दी बाद आये कैनेडी की कार का नाम लिंकन होना आसान सी बात है। अनोखी बात तब होती जब लिंकन की कार का नाम कैनेडी होता।

क्या मैं कुछ अधिक ही विद्रोही हो रहा हूँ? शायद ऐसा हो क्योंकि किसी भी सन्देश को बिना विचारे दोहराते हुए देखना मुझे अजीब लगता है। वह भी तब जब अफ़वाह की तथ्यात्मक काट लम्बे समय पहले प्रकाशित हो चुकी हो। यदि अफ़वाहें राष्ट्र को उद्वेलित करके समुदायों के बीच नफ़रत पैदा करके राष्ट्रीय नागरिकों, सेवाओं या सम्पत्ति की हानि करने लगें तब तो हमारी ज़िम्मेदारी और भी बढ जाती है। ध्यान रखिये कि राष्ट्र की हानि कराने वाले राष्ट्रभक्ति का मुखौटा भले ही ओढ लें, वे रहेंगे राष्ट्रद्रोही ही। मेरा तो सभी मित्रों से यही अनुरोध है कि कुछ भी पढते सुनते वक़्त दिमाग का प्रयोग कीजिये, खुलकर सवाल पूछिये। सम्पादक के नाम आपका पत्र या किसी ब्लॉग पर आपकी टिप्पणी यदि प्रकाशित न हो तो अपनी बात अपने ब्लॉग पर कहिये। कुछ भी करिये मगर अनुसरण सत्य का ही कीजिये। याद रहे कि पाकिस्तान कभी भी हमारा आदर्श नहीं हो सकता। हाँ यदि पाकिस्तान फिर से भारतीय परम्परा अपनाये तो उनकी काफ़ी समस्यायें अपने आप हल हो सकती हैं। क्या कहते हैं आप?

Friday, March 2, 2012

एक शाम भारत के नाम - इस्पात नगरी से 56

एक भारतीय भारत के बाहर बस सकता है परंतु उस भारतीय के हृदय में एक भारत सदा बसता है। जब पिट्सबर्ग में एक भारतीय प्रदर्शनी लगे तो फिर सामान्य सी बात है कि पिट्सबर्ग के एक भारतीय का दिल फिर ज़ोर-ज़ोर से धड़केगा ही।
नगर के एक मार्ग पर प्रदर्शनी का विज्ञापन

कुछ जानकारी (क्या है, आप जानें, अंग्रेज़ी में है सो हमने पढी नहीं)

अंत:पुर

भारत हो तो सुघड़ भारतीय हाथी तो होगा ही

यह बाग ही मुख्य प्रदर्शनी स्थल है

भारतीय मसाले दुनिया भर में भोजन महकाते हैं 

एक भारतीय कुटिया

तुलसी - पौधे और जानकारी

भारतीय वनों से कई वृक्षों के जीवित नमूने वहाँ थे

भारतीय शास्त्रीय नृत्य का क्या मुकाबला है?

अच्छा, व्याघ्र अभी बाकी हैं!

हर मर्ज़ की दवा, अमलतास की फली, न नीम का पेड़

औषधि कुटीर उद्योग

भारत की एक ग्रामीण पगडंडी

बोधिवृक्ष की जानकारी

भारत है रंगोली है, उत्सव है तो होली है

प्रदर्शनी स्थल के बाहर एक बैनर


कमल तो भारतीय संस्कृति का प्रतीक है


स्वागतम शुभ स्वागतम्

मसाले की दुकान

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[प्रदर्शनी के सभी चित्र अनुराग शर्मा द्वारा :: India Beckons Exhibition pictures captured by Anurag Sharma]

सम्बन्धित कड़ियाँ
* इस्पात नगरी से - श्रृंखला

Wednesday, October 5, 2011

श्रद्धेय वीरांगना दुर्गा भाभी के जन्मदिन पर

आप सभी को दशहरा के अवसर पर हार्दिक मंगलकामनायें!
एक शताब्दी से थोडा पहले जब 7 अक्टूबर 1907 को इलाहाबाद कलक्ट्रेट के नाज़िर पण्डित बांके बिहारी नागर के शहजादपुर ग्राम ज़िला कौशाम्बी स्थित घर में एक सुकुमार कन्या का जन्म हुआ तब किसी ने शायद ही सोचा होगा कि वह बडी होकर भारत में ब्रिटिश राज की ईंट से ईंट बजाने का साहस करेगी और क्रांतिकारियों के बीच आयरन लेडी के नाम से पहचान बनायेगी। बच्ची का नाम दुर्गावती रखा गया। नन्ही दुर्गावती के नाना पं. महेश प्रसाद भट्ट जालौन में थानेदार और दादा पं. शिवशंकर शहजादपुर के जमींदार थे। दस महीने में ही उनकी माँ की असमय मृत्यु हो जाने के बाद वैराग्‍योन्‍मुख पिता ने उन्हें आगरा में उनके चाचा-चाची को सौंपकर सन्यास की राह ली।

1918 में आगरा निवासी श्री शिवचरण नागर वोहरा के पुत्र श्री भगवती चरण वोहरा के साथ परिणय के समय 11 वर्षीया दुर्गा पाँचवीं कक्षा उत्तीर्ण कर चुकी थीं। समस्त वोहरा परिवार स्वतंत्र भारत के सपने में पूर्णतया सराबोर था। जन-जागृति और शिक्षा के महत्व को समझने वाली दुर्गा ने खादी अपनाते हुए अपनी पढाई जारी रखी और समय आने पर प्रभाकर की परीक्षा उत्तीर्ण की। 1925 में उन्हें एक पुत्ररत्न की प्राप्ति हुई जिसका नाम शचीन्द्रनाथ रखा गया।

(7 अक्टूबर सन् 1907 -15 अक्टूबर सन् 1999) 
चौरी-चौरा काण्ड के बाद असहयोग आन्दोलन की वापसी हुई और देशभक्तों के एक वर्ग ने 1857 के स्वाधीनता संग्राम के साथ-साथ फ़्रांस, अमेरिका और रूस की क्रांति से प्रेरणा लेकर सशस्त्र क्रांति का स्वप्न देखा। उन दिनों विदेश में रहकर हिन्दुस्तान को स्वतन्त्र कराने की रणनीति बनाने में जुटे सुप्रसिद्ध क्रान्तिकारी लाला हरदयाल ने क्रांतिकारी पण्डित राम प्रसाद बिस्मिल को पत्र लिखकर शचीन्द्र नाथ सान्याल व यदु गोपाल मुखर्जी से मिलकर नयी पार्टी तैयार करने की सलाह दी। पण्डित रामप्रसाद बिस्मिल ने इलाहाबाद में शचीन्द्र नाथ सान्याल के घर पर पार्टी का प्रारूप बनाया और इस प्रकार मिलकर आइरिश रिपब्लिकन आर्मी की तर्ज़ पर हिन्दुस्तान रिपब्लिकन आर्मी (एचआरए) का गठन हुया जिसकी प्रथम कार्यकारिणी सभा 3 अक्तूबर 1924 को कानपुर में हुई जिसमें "बिस्मिल" के नेतृत्व में शचीन्द्र नाथ सान्याल, योगेन्द्र शुक्ल, योगेश चन्द्र चटर्जी, ठाकुर रोशन सिंह तथा राजेन्द्र सिंह लाहिड़ी आदि कई प्रमुख सदस्य शामिल हुए। कुछ ही समय में अशफ़ाक़ उल्लाह खाँ, चन्द्रशेखर आज़ाद, मन्मथनाथ गुप्त जैसे नामचीन एचआरए से जुड गये। काकोरी काण्ड के बाद एच.आर.ए. के अनेक प्रमुख कार्यकर्ताओं के पकडे जाने के बाद चन्द्रशेखर आज़ाद के नेतृत्व में एच.आर.ए. अपने नये नाम एच.ऐस.आर.ए. (हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन ऐसोसिएशन/आर्मी) से पुनरुज्जीवित हुई। दुर्गाभाभी, सुशीला दीदी, भगतसिंह, राजगुरू, सुखदेव, भगवतीचरण वोहरा का सम्बन्ध भी इस संस्था से रहा।

माता-पिता के साथ शचीन्द्रनाथ
मेरठ षडयंत्र काण्ड में भगवतीचरण वोहरा के नाम वारंट निकलने पर वे पत्नी दुर्गादेवी के साथ लाहौर चले गये जहाँ वे दोनों ही भारत नौजवान सभा में सम्मिलित रहे। यहीं पर भारत नौजवान सभा ने तत्वावधान में भगवतीचरण वोहरा की बहन सुशीला देवी "दीदी" तथा अब तक "भाभी" नाम से प्रसिद्ध दुर्गादेवी ने करतार सिंह के शहीदी दिवस पर अपने खून से एक चित्र बनाया था।

सॉंडर्स की हत्या के अगले दिन 18 दिसम्बर 1928 को वे ही लाहौर स्टेशन पर उपस्थित 500 पुलिसकर्मियों को चकमा देकर हैट पहने भगत सिंह को अपने साथ रेलमार्ग से सुरक्षित कलकत्ता लेकर गयीं। राजगुरू ने उनके नौकर का वेश धरा और कोई मुसीबत आने पर रक्षा हेतु चन्द्रशेखर आज़ाद तृतीय श्रेणी के डब्बे में साधु बनकर भजन गाते चले। लखनऊ स्टेशन से राजगुरू ने वोहरा जी को उनके आगमन का तार भेजा जो कि सुशीला दीदी के साथ कलकत्ता में स्टेशन पर आ गये। वहाँ भगतसिंह अपने नये वेश में कॉंग्रेस के अधिवेशन में गये और गांधी, नेहरू और बोस जैसे नेताओं को निकट से देखा। भगतसिंह का सबसे प्रसिद्ध (हैट वाला) चित्र उन्हीं दिनों कलकत्ता में लिया गया।

भगतसिंह की गिरफ़्तारी के बाद आज़ाद के पास उस स्तर का कोई साथी नहीं रहा गया था जो उनकी कमी को पूरा कर सके। यह अभाव आज़ाद को हर कदम पर खल रहा था। अब आज़ाद और भगवतीचरण एक दूसरे के पूरक बन गए। ~शिव वर्मा
महान क्रांतिकारी दुर्गाभाभी
वोहरा दम्पत्ति लाहौर में क्रांतिकारियों के संरक्षक जैसे थे। जहाँ भगवतीचरण एक पिता की तरह उनके खर्च और दिशानिर्देश का ख्याल रखते थे वहीं दुर्गा भाभी एक नेत्री और माँ की तरह उनका निर्देशन करतीं और अनिर्णय की स्थिति में उनके लिये राह चुनतीं।

भगवतीचरण वोहरा की सहायता से चन्द्रशेखर आज़ाद ने पब्लिक सेफ्टी और ट्रेड डिस्प्यूट बिल के विरोध में हुए सेंट्रल असेम्बली बम काण्ड में क़ैद क्रांतिकारियों को छुडाने के लिये जेल को बम से उडाने की योजना पर काम आरम्भ किया। इसी बम की तैयारी और परीक्षण के समय रावी नदी के तट पर सुखदेवराज और विश्वनाथ वैशम्पायन की आंखों के सामने 28 मई 1930 को वोहरा जी की अकालमृत्यु हो गयी। उस आसन्न मृत्यु के समय मुस्कुराते हुए उन्होंने विश्वनाथ से कहा कि अगर मेरी जगह तुम दोनों को कुछ हो जाता तो मैं भैया (आज़ाद) को क्या मुँह दिखाता?

शहीदत्रयी की फ़ांसी की घोषणा के विरोधस्वरूप दुर्गा भाभी ने स्वामीराम, सुखदेवराज और एक अन्य साथी के साथ मिलकर एक कार में मुम्बई के लेमिंगटन रोड थाने पर हमला करके कई गोरे पुलिस अधिकारियों को ढेर कर दिया। पुलिस को यह कल्पना भी न थी कि ऐसे आक्रमण में एक महिला भी शामिल थी। उनके धोखे में मुम्बई पुलिस ने बडे बाल वाले बहुत से युवकों को पूछताछ के लिये बन्दी बनाया था। बाद में मुम्बई गोलीकांड में उनको तीन वर्ष की सजा भी हुई थी।

भगवती चरण (नागर) वोहरा
4 जुलाई 1904 - 28 मई 1930
अडयार (तमिलनाडु) में मॉंटेसरी पद्धति का प्रशिक्षण लेने के बाद से ही वे भारत में इस पद्धति के प्रवर्तकों में से एक थीं। सन 1940 से ही उन्होंने उत्तर भारत के पहले मॉंटेसरी स्कूल की स्थापना के प्रयास आरम्भ किये और लखनऊ छावनी स्थित एक घर में पाँच छात्रों के साथ इसका श्रीगणेश किया। उनके इस विनम्र प्रयास की परिणति के रूप में आजादी के बाद 7 फ़रवरी 1957 को पण्डित नेहरू ने लखनऊ मॉंटेसरी सोसाइटी के अपने भवन की नीँव रखी। संस्था की प्रबन्ध समिति में कुछ राजनीतिकों के साथ आचार्य नरेन्द्र देव, यशपाल, और शिव वर्मा भी थे। 1983 तक दुर्गा भाभी इस संस्था की मुख्य प्रबन्धक रहीं। तत्पश्चात वे मृत्युपर्यंत अपने पुत्र शचीन्द्रनाथ के साथ गाजियाबाद में रहीं और शिक्षणकार्य करती रहीं। त्याग की परम्परा की संरक्षक दुर्गा भाभी ने लखनऊ छोडते समय अपना निवास-स्थल भी संस्थान को दान कर दिया।

स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद कुछ राजनीतिज्ञों द्वारा राजनीति में आने के अनुरोध को उन्होंने विनम्रता से अस्वीकार कर दिया। पंजाब सरकार द्वारा 51 हजार रुपए भेंट किए जाने पर भाभी ने उन्हें अस्वीकार करते हुए अनुरोध किया कि उस पैसे से शहीदों का एक बड़ा स्मारक बनाया जाए जिससे भारत की स्वतंत्रता के क्रांतिकारी आंदोलन के इतिहास का अध्ययन और अध्यापन हो सके क्योंकि नई पीढ़ी को अपने गौरवशाली इतिहास से परिचय की आवश्यकता है।

92 वर्ष की आयु में 15 अक्टूबर सन् 1999 को गाजियाबाद में में रहते हुए उनका देहावसान हुआ। वोहरा दम्पत्ति जैसे क्रांतिकारियों ने अपना सर्वस्व हमारे राष्ट्र पर, हम पर न्योछावर करते हुए एक क्षण को भी कुछ विचारा नहीं। आज जब उनके पुत्र शचीन्द्रनाथ वोहरा भी हमारे बीच नहीं हैं, हमें यह अवश्य सोचना चाहिये कि हमने उन देशभक्तों के लिये, उनके सपनों के लिये, और अपने देश के लिये अब तक क्या किया है और आगे क्या करने की योजना है ।

सात अक्टूबर को दुर्गा भाभी के जन्मदिन पर उन्हें शत-शत नमन!

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सम्बन्धित कड़ियाँ
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* आजादी का अनोखा सपना बुना था दुर्गा भाभी ने
* Durga bhabhi: A forgotten revolutionary
* अमर क्रांतिकारी भगवतीचरण वोहरा
* हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोशिएशन का घोषणा पत्र
शहीदों को तो बख्श दो
* महान क्रांतिकारी थे भगवती चरण वोहरा
जेल में गीता मांगी थी भगतसिंह ने
महान क्रांतिकारी चन्द्रशेखर "आज़ाद"
जिन्होंने समाजवादी गणतंत्र का स्वप्न देखा
काकोरी काण्ड
* Lucknow Montessori Inter College
Revolutionary movement for Indian independence