Friday, September 23, 2011

क्षमा वीरस्य भूषणम् -एक पत्रोत्तर के बहाने ...

कितना ढूंढा हाथ न आया सच का एक क़तरा भी
कहने को उनके खत में बहुत कुछ लिखा था
भारतीय समाज में अनेक खूबियाँ हैं। कुछ अच्छी बातें तो सभी धर्मों में नायकों, संतों और उपदेशकों द्वारा कही और सही गयी हैं। बहुत सी भारतीय संस्कृति की अपनी अनूठी विशेषतायें हैं। लेकिन कई ऐसी भी हैं जिनमें भिन्न उद्गमों से आये विचार गड्डमड्ड से हो गये हैं और इस प्रक्रिया में सद्विचार की मूलभावना की ऐसी-तैसी हो गयी है। बहसबाज़ी के प्रति मेरी स्पष्ट नापसन्द होते हुए भी कई बार यह "ऐसी-तैसी" मुझे भीड़ की मुखालफ़त करने को मजबूर करती है। इसी परम्परा में आज सत्यवादिता और क्षमा पर दो शब्द कहने को बाध्य हुआ हूँ। सत्य पर जहाँ-तहाँ टिप्पणियों या कविताओं के बीच बात होती रही। क्षमा पर काफ़ी पहले एक लघु-आलेख "छोटन को उत्पात" लिख चुका हूँ। मगर अपनी भाषा को लेकर खबरों में बने रहने वाले एक ब्लॉग पर आज मेरा नाम लेकर लिखे गये एक पत्र देखकर इस विषय पर ऐसा कुछ कहना ज़रूरी सा हो गया है जिससे मैं अब तक बचना चाह रहा था। कुछ ज़रूरी यात्राओं पर हूँ। लेकिन फिर भी अपने व्यक्तिगत समय को निचोड़कर आपसे बात करने बैठा हूँ। पत्र तो एक बहाना है क्योंकि पत्रलेखक को तो बस अपनी बात कहनी थी। इस नाते मुझे उत्तर देने की कोई बाध्यता नहीं थी लेकिन मुझ पर विश्वास करने वाले अपने मित्रों और पाठकों के प्रति आदर व्यक्त करने के लिये मैं पत्र में वर्णित बेतुके और झूठे आरोपों के कारण एक बार यहाँ पर अपना उत्तर लिखना एक आवश्यकता और अपनी नैतिक जिम्मेदारी समझता हूँ।

सत्यवादिता का दावा बहुत से लोग करते दिखते हैं। "हम तो खरी कहते हैं", "बिना लाग लपेट के बोलते हैं", और "सच तो कड़वा ही होता है" जैसे वाक्यों का उद्घोष अक्सर सुनाई देता है। सत्यवादिता का झूठा दावा करने वाले लोग यह भूल जाते हैं कि सत्यनिष्ठा सत्य कहने से ज़्यादा सत्य सुनने, सोचने और करने में निहित है। अधिकांश लोग कड़वा इसलिये नहीं बोलते क्योंकि वही सच है बल्कि इसलिये बोलते हैं क्योंकि "सच" का उतना कड़वा भाग ही उस समय के उनके निहित स्वार्थ की सिद्धि में सहायक होता है। सच का ऐसा वीभत्स परचम लहराने वाले अक्सर अन्य समयों पर जाने-अनजाने ही सत्य की हत्या सी करते रहते हैं। सत्यनिष्ठ बनना है तो हमें पहले तो सत्य को बेहतर समझने की शक्ति विकसित करनी पड़ेगी और साथ ही कड़वा कहने की तरह ही सत्य सुनना भी सीखना पड़ेगा।

क्षमा वीरों का आभूषण है। वीर अत्याचार नहीं करते, ग़लतियों से बचते हैं परंतु जहाँ आवश्यक है वहाँ क्षमा मांगने में संकोच नहीं करते। इसके उलट प्रकृति के लोग अपनी हर बेवकूफ़ी को झूठ, उद्दंडता और शेखी से ढंकने और लीपापोती में ही लगे रहते हैं। वीर के लिये अपनी ग़लतियों की क्षमा मांगना जैसा नैसर्गिक और सहज है क्षमादान वैसी सामान्य घटना नहीं है क्योंकि वीरों के लिये क्षमा ऐसा भूषण है जिसको कागज़ के टुकडों जैसे बांटते नहीं फ़िरा जा सकता है। ऐसा भी हुआ है कि किसी ज़िद्दी बच्चे ने हर बार खुद ही ग़लती करके और फ़िर हल्ला मचाकर ज़बर्दस्ती दसरों से माफ़ी मंगवाने की कोशिश की है। भारतीय परिवेश में ऐसा भी देखा गया है जब उस ज़िद्दी बच्चे के माँ-बाप-भाई-बहिन-मित्रों ने दूसरे पक्ष को यह कहकर कन्विंस करने का प्रयास किया है कि, "यह तो पागल है, आप ही मान जाओ।" भले लोग अक्सर इस झांसे में आ जाते हैं पर यह नहीं समझते कि अनुचित माफ़ीनामों की मुण्डमाल अपने गले में लटकाये ये दबंग/बुली बच्चे ही आगे बढ़कर अपनी अनुचित मांग पर समर्पण न करने वाली लड़कियों के चेहरे पर तेज़ाब फ़ेंकने की हद तक पहुँच जाते हैं।

इंसान ग़लतियों का पुतला है। मेरे जीवन में भी ग़लतियाँ हुई हैं। मैंने उन्हें पहचानकर सुधारने का प्रयास किया है और जहाँ आवश्यकता हुयी, क्षमा भी मांगी है। लेकिन बचपन में भी ऐसे उद्दंड बुलीज़ की ज़िद पर अनैतिक समर्पण करने के बजाय उनके माताओं-पिताओं को उनकी ग़लती के लिये आगाह किया है।

जिस पत्र का ज़िक्र ऊपर है वह मैंने आज दिव्या के "ज़ीलज़ेन" ब्लॉग पर अपने नाम लिखा देखा है। टेक्स्ट निम्न है:
अनुराग जी ,
आप मेरे अपनों को मुझसे तोड़कर मुझे कमज़ोर करना चाहते हो । सभी को अपने साथ मिला लेना चाहते हो। सबको मेल लिख-लिख कर और फोन करके तथा उनके घर जाकर उन्हें अपना बनाना चाहते हो? कोई बात नहीं। ईश्वर आपको इतनी शक्ति दे की आप सभी से प्रेम कर सको। दिव्या से नफरत निभाने के फेर में आपने कुछ लोगों के साथ मित्रता करने की सोची, यही ब्लॉगिंग की सबसे बड़ी उपलब्धि समझूंगी।
मुझे तो अकेले ही चलने की आदत है। बस कुछ के साथ आत्माओं का मिलन हो चुका है, वहां फोन आदि की ज़रुरत नहीं पड़ती है। मेरे दुःख में वे रो पड़ते हैं और मुझे खुश देखकर भी उनकी आँखें छलछला पड़तीं हैं।
किसी को फोन कर सकूँ इतना पैसा ही नहीं है मेरे पास। नौकरी नहीं करती हूँ न इसीलिए सरकारी फोन जो मुफ्त में मिलता है बड़े ओहदे वालों को, वह भी सुविधा नहीं है मेरे पास। और फिर सबसे बड़ी मुश्किल तो यह है की मैं 'स्त्री' हूँ । किसी को फोन करुँगी तो वह एक अलग ही समस्या खड़ी कर देगा। लेकिन मेरे पास स्पष्टवादिता और पारदर्शिता है। वही मेरी ताकत है, और वही मेरा गहना।
आपने मुझे 'schizophrenic' और 'paranoid' कहा, फिर भी जाइए आपको माफ़ किया !
Zeal
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ज़ीलज़ेन दिव्या को मेरा उत्तर:

आश्चर्य है कि एक तरफ आप मुझे माफी देने की बात कर रही हैं साथ ही उसी प्रविष्टि में मुझे संबोधित पत्र से ठीक ऊपर समाज की तमाम स्त्रियों की दुर्दशा के लिए मुझे ज़िम्मेदार ठहराते हुए आप आदरणीय भोला जी को मुझे कभी माफ़ न करने की सलाह भी दे रही हैं:
यदि मैं आपकी जगह होती तो बेटी का अपमान करने वाले को कभी माफ़ न करती। इन्हें माफ़ कर दिया जाता है इसीलिए समाज में स्त्रियों की दुर्दशा है।
मुझे यह स्पष्ट नहीं हुआ कि आपकी इन दो परस्पर विरोधाभासी बातों में से कौन सी बात सही है। वैसे भी, इस पत्र में कहे गये शब्दों के बारे में आप कितनी गम्भीर हैं यह इस पोस्ट से नहीं ज़ीलज़ेन पर इसके बाद आने वाली प्रविष्टियों से पता लगेगा।

आपने मुझे माफ़ किया? किस ज़ुर्म के लिये? जी नहीं, ग़लती आपकी है तो माफ़ी भी आप पर ही उधार रहती है, और आपको ही मांगनी चाहिये - मुझसे ही नहीं उन सभी से जिनपर आपने झूठे लांछन लगाये हैं या समय-असमय हैरास या बुली किया है। एक माफ़ी विशेषकर स्वर्गीय डॉ. अमर कुमार से मांगने को बकाया है जिन पर आपने लम्बे समय तक हैरास करने का आरोप लगाया, बैन किया और उनके भयंकर पीड़ा से जूझते हुए होने पर भी उन्हें आपके ब्लॉग पर की गयी अपनी बीसियों टिप्पणियाँ हटाने को बाध्य किया। लगे हाथ एक माफ़ी अपने पितातुल्य भोला जी से भी मांग लीजिये जिनके व्यक्तिगत पत्र को अपने ब्लॉग पर रखकर आपने एक भोले पिता के साथ भयंकर विश्वासघात किया है।

दूसरी बात यह कि मुझे क्षमा करने का अधिकार आपको दिया किसने? सच्चे-झूठे आरोप लगाने वालों को सज़ा या माफ़ी का अधिकार होता तो अदालतों में जजों की आवश्यकता ही न होती और क्षमादान की अर्ज़ी बड़ी अदालतों और राष्ट्रपति आदि के पास न जाकर मुहल्लों (आजकल कतिपय ब्लॉग्स पर भी) के अन्धेरे कोनों में अपनी गुंडागर्दी के क़सीदे पढ रहे भर्हासियों के पास जाया करतीं। कुछ असभ्य समाजों में शायद ऐसा सही भी समझा जाता हो, परंतु मैं ऐसी असभ्यता को सिरे से अस्वीकार करने वालों में से हूँ। पहले आपने समय-समय पर अनेक ब्लॉगरों को अपशब्द कहे, फिर शिष्ट भाषा में लिखी मेरी हालिया टिप्पणी को बदबूदार कहा और मुझे अपशब्द कहे। उसके बाद मेरे ब्लॉग पर रखे एक व्यंग्य को अपना अपमान बताकर स्वयं और कुछ अन्य व्यक्तियों द्वारा अपने ब्लॉग पर पुनः अपशब्द कहे गये और भोले भाले पाठकों की भावनाओं को भड़काया गया। ... और अब पत्र के नाम पर एक नया ड्रामा?

मुझे इस विषय में आप से बात करने की कोई इच्छा नहीं है। फिर भी यदि आप इस मामले को आगे बढाना ही चाहती हैं तो आपके ब्लॉग पर रखी माता-पिताओं की लम्बी सूची में से किसी ज़िम्मेदार और समझदार व्यक्ति को या फ़िर अपने वकील को मुझे सम्पर्क करने को कहें। अन्यथा, आप अपनी ओर से सीधे मुझे सम्बोधित करके कुछ भी कहने से बचें, यही हम सबके लिये ठीक होगा।
मैंने किसी भी पोस्ट या टिप्पणी में आपको 'schizophrenic' और 'paranoid' नहीं कहा है। व्यंग्य, कल्पना और वास्तविकता के अंतर को पहचानिए और मुझपर बिला वजह के दोषारोपण से बचिए।
आपकी एक पिछली पोस्ट में आपने "अपने" ईश्वर द्वारा मुझे शीघ्र ही सज़ा देने का आह्वान किया गया था उसके साथ आपके इस पत्र में व्यक्त मुझे शक्ति देने की प्रार्थना कुछ ठीक बैठ नहीं रही है, कृपया अपने विचारों को थोड़ा ठोंक बजा लें। अनेक लोगों के खिलाफ़ अंट-शंट लिखने के बाद आपने मेरे खिलाफ़ ऊल-जलूल आलेख और टिप्पणियाँ लिखीं तो सब ठीक था और मेरा एक जनरल व्यंग्य पढते ही दुनिया इतनी उलट-पुलट हो गयी कि आपके "प्राइवेट" ईश्वर को दखल देने की आवश्यकता पड़ गयी? आपने इससे पिछली पोस्ट में भी यह आरोप लगाया कि मैं आपके खिलाफ़ षडयंत्र करके आपके मित्रों को अपने खेमे में ले जा रहा हूँ। याद दिला दूँ कि मैं एक व्यस्त व्यक्ति हूँ, मुझे आपके खिलाफ़ षडयंत्र करने की फ़ुर्सत नहीं है क्योंकि यह ब्रह्माण्ड आपका चक्कर नहीं लगाता है। और भी ग़म हैं ज़माने में ...। मैं क्या करता हूँ, यह जानना ही चाहती हैं तो मेरा ब्लॉग ध्यान से पढिये, मेरी आवाज़ में विनोबा भावे के शब्द सुनिये और अगर कुछ हल्का-फुल्का चाहिये तो मेरी पढ़ी हुई कहानियाँ सुनिये। संसार बहुत बड़ा है और इसमें आप और आपके ब्लॉग के आरोप-प्रत्यारोपों के अलावा भी बहुत कुछ है। मसलन, यदि कोई सत्य का दूसरा पहलू जानने को उत्सुक हो तो, गिरिजेश राव की हालिया प्रविष्टि हौं प्रसिद्ध पातकी भी पढी जा सकती है, आँखें खोलने वाली है। वैसे बात माफ़ी की चल रही है तो यह भी याद दिला दूँ कि आपके ब्लॉग पर जिस प्रकार डॉ. अजित गुप्ता जी का नाम माँ की सूची में लिखने के बावजूद तथाकथित भाइयों से उनका अपमान करवाया गया वह दुर्व्यवहार काफ़ी असभ्य और गरिमाहीन था।
माँ शब्द की गरिमा बनाये रखने के लिये यदि आपके ब्लॉग पर अपनी सभ्यता के नमूने दिखाते ये भाई उसी ब्लॉग पर अपनी माँ से लिखित में माफ़ी मांगेंगे तब आपकी उस कागज़ी सूची में कुछ दम अवश्य दिखेगा वरना शब्दों का क्या है, रबड की ज़ुबान और प्लास्टिक के कीबोर्ड का क्या भरोसा ...
और जहाँ तक लोगों से मिलने की बात है, मैं किससे मिलता हूँ, कहाँ जाता हूँ, इसका अधिकार आपने कब से ले लिया? किस नाते से? ज़रूरत नहीं है फिर भी इतना स्पष्ट कर दूँ कि आपकी सूची के जिन लोगों को छीन लेने का आरोप आप लगा रही हैं मैंने उनकी पहल का मित्रवत उत्तर दिया है जो कि एक सभ्य और सहृदय व्यक्ति से अपेक्षित है। यदि आपको यह लगता है कि आपके लम्बे समय के मित्र, भाई और पिता मेरी एक बात से आपका पक्ष छोड़कर मेरी ओर आ गये हैं तो क्या इससे आपको अपने और मेरे विषय में कुछ अंतर पता नहीं लगा? अपने भाइयों और पिताओं की निर्णय-क्षमता पर विश्वास करके उन्हें सम्मान देना सीखिये, सूचियाँ तो धोबी को देने वाले कपड़ों की भी बनती हैं। आपको भले ही न हो पर मुझे यक़ीन है कि ऐसे लोग आपका भला चाहते हैं न कि वे लोग जो झूठी वाहवाहियाँ लिखकर आपको चने के झाड़ पर चढाते रहे हैं। आपके सच्चे शुभचिंतकों को मेरी ओर से हार्दिक शुभकामनायें!

ज़ीलज़ेन पर वह तथाकथित बदबूदार टिप्पणी
बदबूदार टिप्पणी का सुगन्धित जवाब
ज़ीलज़ेन के प्रकरण पर यह मेरी इकलौती पोस्ट है। इस मुद्दे को यहीं समाप्त करते हुए जागरूक मित्रों का हार्दिक धन्यवाद अवश्य देना चाहूँगा। सतह से नीचे जाकर सत्य को पहचानना और सत्य के लिये खड़े होना आज भी उतना ही ज़रूरी है। यदि उन व्यक्तिगत पोस्ट्स को भुला भी दिया जाए जिनमें दिव्या ने कुछ ब्लॉगरों की व्यक्तिगत ईमेल और स्वास्थ्य संबंधी गुप्त जानकारियों को ज़ीलज़ेन ब्लॉग पर लहराया था तो भी याद रहे, बीते कल में श्री ज्ञानदत्त पाण्डेय जी और डॉ. कुमार की बारी थी, आज अजित जी, शिल्पा मेहता और मेरी है, कल आपकी भी हो सकती है, शायद होगी ही।

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सम्बंधित कड़ियाँ
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* हौं प्रसिद्ध पातकी
* 'ओढ़नीया ब्लॉगिंग' चालू आहे ...
* सबका कारण एक है!
* अब कुपोस्ट से आगे क्या?
* सत्यमेव जयते - कविता
* नानृतम् - कविता
* सत्य के टुकड़े - कविता
* छोटन को उत्पात
* हमें तुम रोको मत पथ में
* उपेक्षा नहीं, प्रेम और सहानुभूति
* ए ब्यूटिफ़ुल माइन्ड
* टसुए बहाने का हुनर...

36 comments:

  1. ’सजावार समझेगी दुनिया तुझे ही,
    सनम आज इतनी सफ़ाई न दे।’

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  2. आदरणीय अनुराग जी,

    आपसे और गिरिजेश जी से हमेशा कुछ सीखने को मिलता रहा है। आप नायकों के गुण पूछते रहते हैं तो बता दूँ कि एक नायक में ऐसे ही अपनी बात रखने का गुण भी होना चाहिए।

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  3. ऐल्लो जी दूसरी टिप्पणी:

    बड़ा होने की बड़ी कीमत चुकानी पड़ती है।

    कौन कहता है धरती वीरों से खाली हो गई है? जिन्होंने आपकी पोस्ट देखी भी नहीं, और देखने की मनाही भी कर दी - एक गुहार पर बाँहें ललकारते दिखे। अभद्र भाषा का इस्तेमाल कौन कर रहा है, इस पर कितनों ने ध्यान दिया? बाँहें संवारते इन वीरों को क्या इनकी भाषा में जवाब दिया जाये? अपन जरूरी नहीं समझते।

    आपने कुछ नाम गिनवा दिये, कुछ नाम मैं गिनवा देता हूँ - दीपक मशाल, सोमेश सक्सेना के कमेंट्स अभद्र और अशालीन होने के नाम पर दबा दिये गये। लोग सामने रखा नहीं पढ़ते तो जो छपा ही नहीं उस पर कौन मगज खराब करेगा? बस ये आक्षेप लगा देना कि अशालीन और अभद्र टिप्पणियाँ थीं, पर्याप्त है? मैंने ये दो नाम इसलिये लिये क्योंकि इन दोनों से मेरा चैट व्यवहार रह चुका है। अगर ये दो लड़के किसी नारी के साथ पब्लिकली अभद्रता कर सकते हैं, तो मैं मान लेता कि इंसान को पहचानने की मेरे अंदर कोई क्षमता ही नहीं। सच कहने का माद्दा है तो सच सुनने का भी बल होना चाहिये।

    लेकिन एक बात है, आपके लेख में भी ’बदबूदार’ लिखा हुआ पसंद नहीं आया। आपसे भी असहमति प्रकट कर दी है, बैन तो नहीं कर देंगे?

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  4. अनुराग जी!
    अब इसे प्रिमौनिशन कहें या जो कुछ (एक साक्ष्य भी है मेरे पास), अनुमान था कि ऐसी पोस्ट आने वाली है या ऐसा कुछ होने वाला है. मैं भुक्त भोगी हूँ... और शांतिप्रिय भी.. और भी गम हैं ज़माने में ब्लोगिंग के सिवा... कम लिखे को ज़्यादा समझें!!

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  5. कहीं ये blogging stunt तो नहीं !

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  6. संजय भाई कि प्रथम टीप चोरी :


    ’सजावार समझेगी दुनिया तुझे ही,
    सनम आज इतनी सफ़ाई न दे।’



    बस. इतना ही बहुत है..

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  7. संदर्भों को नहीं जानता हूँ पर बिना विचलित हुये जीवन का प्रवाह अक्षुण्ण रखा जाये।

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  8. प्रकरण इसके पहले भी खत्‍म कर देते तो हर्ज न था.

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  9. मेरे ख़याल से पोस्ट जरूरी थी , औपचारिकता के लिए ही सही

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  10. अनुराग जी,

    शारीरिक चोट या व्याधि से यदि किसी बंदे को तकलीफ होती है तो वह खुद ही दर्द से कराहता है, परेशान रहता है लेकिन उसके आस पास वाले लोग दर्द नहीं भोगते, हां चिंतित जरूर रहते हैं।

    लेकिन जो मानसिक रूप से व्याधिग्रस्त हो उसे यह नहीं पता होता कि वह व्याधिग्रस्त है या नहीं, लेकिन उसकी हरकतों से आस पास के लोग जरूर परेशान रहते हैं।

    यही हो रहा है। एक 'अटेंशन सीकर' के उटपटांग बातों के चलते ही कभी डॉ. अमर कुमार परेशान रहे, कभी ज्ञान जी....। अब आप का नंबर लगा। इस मानसिक रूग्णता की ओर पहले ही मैंने इशारा किया था लेकिन तब प्रबुद्धगण उल्टे मुझसे पूछ रहे थे कि - क्या ये पोस्ट आपने लिखी है ?

    आज जब सब कुछ सामने आ रहा है तो वही लोग जो मेरी पोस्ट का औचित्य पूछ रहे थे अब उक्त महिला हेतु सलाहियत पर उतर आये हैं कि उक्त महिला को ऐसा नहीं करना चाहिये था। अब समझ आ रहा है कि लोग यदि इस पोस्ट का मर्म उस वक्त समझ जाते तो ये नौबत नहीं आती।


    खैर, आपने तो अपनी ओर से बात रख दी लेकिन अब भी कुछ लोग आँख-दिमाग पर पट्टी बांध कर बैठे हैं तो क्या किया जाय।

    यह रहा उक्त पोस्ट का लिंक जिसे मैंने फालतू समझ डिलीट कर दिया था

    https://plus.google.com/100149381137396965785/posts/CsJDGQz3VZH#100149381137396965785/posts/CsJDGQz3VZH

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  11. --- ये कमेन्ट ब्लॉग जगत के युवाओं के लिए है ---- [किसी एक घटना से प्रेरित नहीं ]
    काफी सारी पिछली घटनाओं में मैंने देखा कईं सारे विचारकों [उम्र में बड़ों ] से बड़ी ही बुरे ढंग से बात की जाती है , प्रोफाइल नेम को तोड़ना मरोड़ना , उनके बारे में त्वरित फैसले ले लेना
    क्या हम युवाओं को ये शोभा देता है ?, ऐसा मैंने कईं सीनियर्स [उम्र में] के साथ देखा है

    मेरी कोशिश हमेशा यही रहती है की अगर किसी की कोई बात मुझे बुरी लगती है मैं स्पष्ठीकरण मांगना पसंद करता हूँ, या किसी मुद्दे में बोलने से पहले सारे सन्दर्भ लेख और टिप्पणियाँ एक बार तो पढ़ ही लेता हूँ

    मुझे थोडा थोडा याद आ रहा है .....मैंने अपने एक लेख में कभी लिखा था की ......."संस्कारी अक्सर ठगे क्यों जाते हैं" ?

    मेरे ख़याल से वजह है संस्कारों के साथ नोर्मल सूझ बूझ, युक्तियाँ इस्तेमाल ना करने पर आज नहीं तो कल उन्हें हार या ठगी का सामना करना पड़ता है
    ऐसे बहुत से उदाहरण देखें हैं [नाम और लिंक नहीं देना चाहता ]

    धैर्य , बुद्धि , साहस ......सही रेशो से कोम्बिनेशन में बेहतर होते हैं

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  12. अनुराग जी,ब्लॉग-जगत में थोड़ा नया हूँ पर मेरा सौभाग्य है कि मुझे कुछ अच्छे ब्लॉगर भी मिल गए जिनसे मैं लगातार प्रेरित हो रहा हूँ.सबसे बड़ा सौभाग्य रहा कि डॉ.अमर कुमार के अंतिम दिनों में मैं उनसे मिल पाया और उन्हें समझ पाया.उन जैसे व्यक्तित्व को भी इन दुष्प्रवृत्तियों ने (मैं ऐसे लोगों को एक प्रवृत्ति की तरह ही मानता हूँ) चैन से न जीने दिया ,न लिखने दिया.
    ताज़ा घटनाक्रम महज़ एक थोड़े-से तंज़ को लेकर है और देखिये उसी के बलबूते कई बार पोस्टें लिखी गयीं,घटिया टिप्पणियां आमंत्रित की गईं ,स्त्री जाति पर घोर-संकट बताया गया और दो बार टंकी पर चढ़कर फिर उतारकर उसे भी शर्मसार किया गया !पूरी नौटंकी का आयोजन था जिसमें सूची में शामिल 'माई-बाप' तक को गरियाया गया.समीर लाल जी,रूप चन्द्र शास्त्री जी ,अजित गुप्ता जी ,चन्द्र मौलेश्वर प्रसाद जी खरी-खोटी सुनाई गई .डॉ. अरविन्द मिश्र और अमरेन्द्र नाथ त्रिपाठी तो लगातार निशाना बनाया गया और ये सब 'सुगंध' में शुमार था.मेरी भी एक टीप को बैन किया गया और जब मैंने उस पर पोस्ट लिखी तो मेरे नाम से 'कवर-स्टोरी' छापी गई !
    ये घटनाएं बताती हैं कि ब्लॉग-जगत में सत्य से भी खेल खेला जा रहा है.मुझे तो ताज्जुब तब होता है जब हमारे कई वरिष्ठ -ब्लॉगर असाधारण चुप्पी ओढ़ लेते हैं या फिर बिना लाग लपेट के उन निरर्थक-पोस्टों को प्यारी तक कह देते हैं !
    अनुरागजी,जिनसे आपकी शिकायत है वह भी करें तो क्या करें ? साहित्यिक-समझ के अभाव में उन्हें अपना मजमा जमाने के लिए कोई बहाना ,निशाना तो चाहिए ही ! 'एक तो करेला,दूसरे नीम चढ़ा' की तर्ज़ पर हुआ सम्मिलन केवल ब्लॉग-जगत को नकारात्मक चीज़ें ही मिलने वाली हैं,यही आशंका है.
    आप हमेशा की तरह कुंदन बनकर दमकेंगे क्योंकि सत्य को अल्प-काल के लिए छुपाया जा सकता है,मिटाया नहीं !

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  13. आवश्यक थी यह पोस्ट।
    आपने इतना सब होने के बाद ‘तहजीब’ के तहत ही लिखा है, मैं चुप हूँ क्योंकि भाषा की इतनी शालीनता मुझसे निभ भी नहीं पाएगी। और फिर कंटेंट देखे बिना अँखमुदिया स्त्री-सहानुभूति में ( जिसे अब मैं अंतर्निहित फ्रायडियन कुंठा कहता हूँ, जिसे ब्लागर स्वयं झुठलाता है ) कइयों के ब्लोग पर फोड़े होंगे और मवाद बहेगी/बहायी जायेगी! और यह सब शालीन व शिष्टाचार के नाम पर होगा। कहना ही पड़ता है ‘भाड़ में जाय सब’!
    गिरिजेश जी के लेख में मैं खराब कुछ भी नहीं पाता, बहुतों के सर में दर्द उस लेख से भी है।

    एक जेनुइन और जरूरी आलेख के लिये आपको साधुवाद!!

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  14. भारतीय परिवेश में ऐसा भी देखा गया है जब उस ज़िद्दी बच्चे के माँ-बाप-भाई-बहिन-मित्रों ने दूसरे पक्ष को यह कहकर कन्विंस करने का प्रयास किया है कि, "यह तो पागल है, आप ही मान जाओ।"

    शायद ऐसा भारत के अलावा अन्य देशों में भी होता होगा.
    आपके स्वभाव को देखते हुये आपसे यही अपेक्षा थी. आलेख काफ़ी संयत और संतुलित शब्दों में लिखा गया है.

    रामराम.

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  15. Deeply distressed by this unfortunate controversy.
    Humbly suggest that both of you stop writing on this subject and move on.
    No useful purpose will be served and neither of you will be able to convince the other.

    Regards and best wishes
    G Vishwanath

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  16. Dear Anurag ji, it is said that growth in wisdom may be exactly measured by decrease in bitterness. I find you are wise enough.
    Now is the time to move on. Simply.

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  17. किसी को किसी का अपमान करने का कोई अधिकार नहीं है !और अपने से बड़ों का अपमान करने वाले को, समय आने के साथ अपने बच्चों तक से अपमानित होना पड़ेगा !

    ऐसे लोग सामाजिक नहीं होते इन्हें परिवार में रहने तक का अधिकार नहीं होता ! जहाँ ऐसे मूर्ख लोग होते हैं वह परिवार विनाश के कगार पर खड़ा मानिए !
    अति सर्वत्र वर्जयते ...

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  18. एक स्कीजोफ्रेनिक और पैरानायड किस तरह महौल को संदूषित कर सकता है यह सब इसका ज्वलंत उदाहारण है ...
    जिसे पागलखाने में होना चाहिए वह ब्लॉगजगत में उन्मुक्त है ......
    ३० से ऊपर ऐसे लोगों की सूची है जिन्हें वहां अपमानित होना पड़ा है -
    सतही इमोशनल हथकंडों से ब्लागजगत के पिता तुल्यों और भोले भाले युवाओं को
    बरगलाया जा रहा है ....
    अपनी काली करतूतों को नारीवाद के आवरण में रखकर नारीवाद को भी गलत दिशा देने की मुहिम है..
    और इसे हवा देने में ही एक दूसरी सामान धर्मा बढ़ चढ़ कर भागीदारी कर रही हैं ...
    डायलाग यह कि नारी चाहे वह कितनी ही गलत क्यों न हो की दूसरी नारी द्वारा मदद करनी चाहिए ...
    मगर उन्हें भी ढूंढें भी समर्थन नहीं मिल रहा है ..कुछ लोग अपना यह जहाँ ही नहीं दूसरा जहाँ भी बर्बाद कर डालते हैं ....

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  19. सिर्फ जरुरी भर ही नहीं.......... घोरतम रूप से परमावश्यक थी यह पोस्ट ! ................ यह क्या मतलब हुआ की आपकी लल्लो-चप्पो करे तो सुगन्धित नहीं तो थोडा सा भी आपको नहीं पसंद आया तो "बदबूदार" हद है भाई !!!!!! मैंने इन दिनों इनकी लगभग सभी पोस्टें पढ़ी है ज्यादातर में आत्ममुग्धता, रो-पीट, खुद की व्यक्तिगत बातों को महिला जाती के अन्याय में तब्दील करना, और विरोधी के लिए वही घिसे पिटे शब्द ....."बदबूदार, सड़े, सडांध ब्लाँ,ब्लाँ ............. अब इन शब्दों का अधिकायात में प्रयोग देखकर मेरे जैसा नादाँ क्या मतलब निकालें !!!!!
    हद के ऊपर हद की इनकी पोस्ट पर सिर्फ ठुकुर सुहाती ही लिखिए नहीं तो आप तो बदबूदार हो ही आपकी टिपण्णी को भी ये सड़ाने की क्षमता रखतीं है. अपनी एक पोस्ट जिसका लिंक पंचम स्वर में उद्घाटित हुआ है पर सतीश जी को धमकाते सडियाते इनकी यह टिपण्णी देखिये....................... सिर्फ इतना ही नहीं कोई समय का मारा ब्लोगर जो खुद के ब्लॉग पर ही नियमित पोस्ट नहीं लिख पाता, दूसरों के ब्लॉग पर नियमित टिपण्णी कैसे करे ............... अगर कभी इनके ब्लॉग पर टिपण्णी करने की गलती करदे तो इसका मतलब है की आपने कोई नई पोस्ट लिखी है इसलिए प्रति टिपण्णी की चाह में इनके आँगन में आयें है, इसी बात को लेकर ये "विचारशुन्यजी" को हडका बैठी थी .................... अब कितना कुछ वर्णन करें !!!!! पर यह किसी को नहीं दिखेगा.................... दिखेगा तो सिर्फ रोना-पीटना, और इन सब से कोई आजिज आ जाये तो कुछ बोलने से पहले संभाल जाईयेगा इतर-फुलेल में दुबकी जरूर मार लीजिएगा पता नहीं आपमें से कितनी-कितनी बदबू निकलेगी ????? शिल्पा मेहता जी भी ताजा शिकार बन ही चुकी है .................. हे राम !

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  20. क्या इस प्रकरण को हम यहीं बंद नहीं कर सकते???

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  21. "....सत्यनिष्ठा सत्य कहने से ज़्यादा सत्य सुनने, सोचने और करने में निहित है।"


    अनुराग जी ! हमारी सारी समस्याओं की जड़ यही है.
    हमारे पास उपदेशों का खज़ाना है ...
    ...दूसरों को बताने के लिए ...खुद के लिए नहीं ....क्योंकि दूसरों को उपदेश बाँटते-बाँटते खुद की बारी आते-आते खज़ाना खाली हो जाता है.
    यही एक चीज़ है जिसे हम खुद से नहीं दूसरों से बांटना शुरू करते हैं.
    सत्य को कहने( मात्र ) का ठेका ले रखा है हमने. उसे जीवन में लाने का काम दूसरों का है. इसीलिये इतने आदर्शों के बाद भी हमारे मन में द्वंद्व है ...जीवन में कलह है ...समाज में विद्रूप हैं .....और पूरे देश में भ्रष्टाचार है ....

    अब बात आती है दिव्या की, तो सिर्फ इतना कहूंगा कि अभी विश्वनाथ जी ने जो कहा है उस पर गौर किया जाना चाहिए. अतत्वाभिनिवेश से मुक्ति का प्रयास आवश्यक है. इस प्रकरण में शिल्पा जी और ग्लोबल अग्रवाल की स्पष्टवादिता प्रभावित करती है.

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  22. @ "मौडरेशन की छन्नी से सिर्फ बुरा इरादा छ्नेगा - बाकी सब जस का तस"

    याद आया , छन्नी में छानने की जो प्रक्रिया है उसमें सारे कणों को आपस में टकराना पड़ता है....चाहे वे गेहूं के दाने हों या छोटे कंकड़ के टुकड़े. किन्तु इस टकराहट के बाद का परिणाम ही अभीष्ट होता है. इसे और परिमार्जित शब्दों में कहें तो " मंथन " से अमृत और हलाहल की उपलब्धि अवश्यम्भावी है.
    अब तय यह भी करना है कि अमृत कौन पिएगा और हलाहल कौन ?
    .........तय कर लीजिएगा तो बताइयेगा.

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  23. मैंने इस संदर्भ में लिखी गई पिछली पोस्‍ट पर टिप्‍पणी की थी। अपनी उसी बात को आगे बढ़ाते हुए यह जोड़ना चाहता हूं लगभग साल भर उक्‍त ब्‍लाग पर एक पोस्‍ट पर मेरी और कुछ अन्‍य ब्‍लागरों की वे टिप्‍पणियां जो हर दृष्टि से शालीन थीं,लेकिन असहमति की थीं या तो प्रकाशित ही नहीं की गईं थीं या फिर हटा दी गईं थीं। इस बारे में मेरा मेल पर पत्र व्‍यवहार भी हुआ था। लेकिन उसके बाद मैंने उक्‍त ब्‍लाग पर किसी भी तरह की टिप्‍पणी करना बंद कर दिया था। अलग अलग संदर्भों में मेरा नाम भी दो-तीन बार विभिन्‍न पोस्‍टों में लिखा गया। लेकिन मैंने उस पर कोई प्रतिक्रिया व्‍यक्‍त नहीं की। मैंने व्‍यक्तिगत रूप से एक दो ऐसे ब्‍लागरों को जिनका लगातार उक्‍त ब्‍लाग पर आना जाना था,पत्र भी लिखे, कि उन्‍हें कृपया समझाएं। उन्‍होंने शायद कोशिश भी की लेकिन कोई असर नहीं हुआ।
    *
    अब यह देखकर एक बार फिर ताजुब्‍ब हो रहा है कि जब यह प्रकरण खत्‍म हो गया। आपने भी अपने ब्‍लाग पर लगी उस पोस्‍ट पर टिप्‍पणी का आप्‍शन बंद कर दिया था। फिर दुबारा इस तरह आपके नाम से पत्र लिखने का क्‍या औचित्‍य है। जो लोग पहले भी यहां समझाने आए थे और अभी भी आ रहे हैं, वे वहां क्‍यों नहीं समझाने जाते हैं।

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  24. अनुराग जी , आपको सफाई देने की क्या ज़रुरत है ।
    यहाँ सब सबको अच्छी तरह से जानते हैं ।
    कोई किसी के कहने से सुधरने वाला भी नहीं ।
    फिर भी प्रयास यही है कि ब्लॉगजगत में शांति रहे और सार्थक ब्लोगिंग होती रहे ।

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  25. यह प्रकरण आपकी ओर से यही समाप्त मान लिया जाए!

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  26. अनुराग जी, इस किस्‍से को यही समाप्‍त कर दीजिए। वातावरण दूषित हो चला है। ऐसी मेरी प्रार्थना है।

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  27. आपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टी की चर्चा आज के चर्चा मंच पर भी की गई है!
    यदि किसी रचनाधर्मी की पोस्ट या उसके लिंक की चर्चा कहीं पर की जा रही होती है, तो उस पत्रिका के व्यवस्थापक का यह कर्तव्य होता है कि वो उसको इस बारे में सूचित कर दे। आपको यह सूचना केवल इसी उद्देश्य से दी जा रही है! अधिक से अधिक लोग आपके ब्लॉग पर पहुँचेंगे तो चर्चा मंच का भी प्रयास सफल होगा।

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  28. दुखद प्रसंग है ये
    और सबसे दुखद यह है कि....क्रिएटिव लिखनेवालों को ऐसे प्रकरण उलझा कर उनका समय और उर्जा दोनों नष्ट करते हैं.

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  29. अनुराग जी,
    आपके ब्लॉग "अवलोकन" पर आपकी फिल्म समीक्षा का इंतजार रहता है
    जब भी समय मिले, एक पोस्ट लिख कर एक और बढ़िया सी फिल्म के बारे में बताएं

    धन्यवाद !

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  30. Anurag ji

    kuch logo ko charcha main rahane ki aadat hoti hai yeh sab uni mai se ek hai.....inka koie dharam aur imaan nahi hota hai ....

    jai baba banaras...

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  31. कहाँ तो मुझे भी कुछ ऐसा ही था:

    ’सजावार समझेगी दुनिया तुझे ही,
    सनम आज इतनी सफ़ाई न दे।’

    क्योंकि आप कुछ भी लिखें पढ़ने वाले तो उसे वही पढते हैं जो उनके दिमाग में चल रहा होता है. - खासकर ऐसे मामले में.
    नायकों पर आगे लिखिए इस कीचड में पैर डालने पर अनायास ही तनाव बढ़ेगा. आशा करता हूँ कि आप इस मामले से बहुत चिंतित नहीं होंगे. मानसिक तनाव स्वाभाविक है बट आई थिंक अब सब ठीक होगा.

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  32. बहुत उम्दा पोस्ट--क्षमा शोभती उस भुजंग को जिसके पास गरल हो.............

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  33. अपनी बात कहने का अधिकार हर किसी को है पर यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि किसी पर भी निर्मम प्रहार न किया जाय. ऐसी बातों/आरोपों से बचा जाना चाहिए जिनसे दिव्या जी को पीड़ा होती है. मुझे लगता है कि पीड़ादायक टिप्पणियों की निंदा की जानी चाहिए...भले ही वह मैं होऊँ या अनुराग जी या फिर शिल्पा जी !

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मॉडरेशन की छन्नी में केवल बुरा इरादा अटकेगा। बाकी सब जस का तस! अपवाद की स्थिति में प्रकाशन से पहले टिप्पणीकार से मंत्रणा करने का यथासम्भव प्रयास अवश्य किया जाएगा।