.
पिछली प्रविष्टि और आपकी टिप्पणियों में हमने नायकत्व की नीँव के कुछ रत्नों का अवलोकन किया। देवेन्द्र जी ने स्पष्ट किया कि सर्वगुण सम्पन्न होते हुए भी यदि व्यक्ति मैं और मेरे में ही सिमटा हुआ है तो उसके नायक हो पाने की सम्भावना नहीं है। शिल्पा जी ने भी यही बात एक उदाहरण के साथ प्रस्तुत की और अली जी ने भी कल्याण या फिर लोक कल्याण कहकर इसी बिन्दु को उभारा। "बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय" की भावना के बिना बड़ा बनना वाकई कठिन है।
साहस, निर्भयता, उदारता और त्याग पर कुछ बात हुई। निस्वार्थ प्रवृत्ति, दूसरों के सम्मान की रक्षा, कर्मयोग आदि जैसे सद्गुणों का ज़िक्र आया। आगे बढने से पहले आइये उदारता, त्याग और निस्वार्थ भावना के अंतर पर एक नज़र डालते हैं।
निस्वार्थ होने का अर्थ है स्वार्थरहित होकर काम करना। अच्छी भावना है। हम सब ही सत्कार्य के लिये अपना समय, श्रम ज्ञान और धन देना चाहते हैं। कोई नियमित रक्तदान करता है और किसी ने नेत्रदान या अंगदान का प्रण लिया है। विनोबा ने एक इंच भूमि का स्वामित्व रखे बिना ही विश्व के महानतम भूदान यज्ञ का कार्य सम्पन्न कराया। भारत में लोग गर्मियों में प्याऊ लगाते हैं और पिट्सबर्ग में मेरे पडोसी पक्षियों के लिये विशेषरूप से बने बर्डफ़ीडर में खरीदकर दाना रखते हैं। हृदय में उदारता हो तो निस्वार्थ भाव से कर्म करना नैसर्गिक हो जाता है। उदारता और त्याग का सम्बन्ध भी गहन है। दिल बड़ा हो तो त्याग आसान हो जाता है। याद रहे कि सत्कार्य के लिये भी चन्दा मांगना उदारता नहीं हैं, आगे बढकर दान देना अवश्य उदारता हुई। चन्दा इकट्ठा करना, चन्दा देना या उसका सदुपयोग करना, यह सभी निस्वार्थ हो सकते हैं। त्याग अनेक प्रकार के हो सकते हैं। स्वतंत्रता सेनानियों ने अपने सुखी भविष्य के साथ अपने तन, मन, धन सबका त्याग राष्ट्रहित में कर दिया। विनोबा जेल में थे तब भी उस समय का सदुपयोग उन्होंने अपराधी कैदियों के लिये गीता के नियमित प्रवचन करने में किया।
माता-पिता अक्सर अपनी संतति के लिये छोटे-बडे त्याग करते हैं। लोग अपने सहकर्मियों, पडोसियों, अधिकारियों के लिये भी छोटे-मोटे त्याग कर देते हैं लेकिन उसमें अक्सर स्वार्थ छिपा होता है। मंत्री जी ने चुनाव से ठीक पहले सारे प्रदेश के इंजीनियर बुलाकर अपने शहर में बडे निर्माणकार्य कराये। सरकारी पैसा, सरकारी कर्मचारी, सरकारी समय का दुरुपयोग हुआ और अन्य नगरों के साथ अन्याय भी हुआ। लेकिन यदि मंत्री जी कहें कि उन्होंने अपने व्यक्तिगत समय का त्याग तो किया तो उसके पीछे चुनाव जीतने का स्वार्थ था। कुछ लोग सदा प्रबन्धन की कमियाँ गिनाते रहते हैं, उन्हें हर शिक्षित, धनी या सम्पन्न व्यक्ति शोषक लगता है। वे हर समिति की निगरानी चाहते हैं। वे कहते हैं कि उनका उद्देश्य जनता को जागरूक करना है। लेकिन यदि ये लोग जनता के असंतोष को भड़काकर अपनी कुंठा निकालते हों या हिंसा फ़ैलाकर अपनी स्वार्थसिद्धि करें तो उसमें स्वार्थ भी है और उदारता व त्याग का अभाव भी। ऐसे खलनायकों के मुखौटे लम्बे समय तक टिकते नहीं। क्योंकि निस्वार्थ कर्म के बिना सच्चा नायक बना ही नहीं जा सकता।
भारत में जातिगत, धर्मगत दंगे तो होते ही हैं, कई बार हिंसा के पीछे क्षेत्र, भाषा और आर्थिक कारण भी होते हैं। हिन्दुओं को मुस्लिम बस्ती से गुज़रते हुए भय लगता है। कानपुर के दंगों में जब हिन्दू-मुसलमान एक दूसरे से डरकर भाग रहे थे, गणेश शंकर विद्यार्थी दंगे की आग में कूदकर निर्दोष नागरिकों की जान बचा रहे थे। 25 मार्च 1931 को धर्मान्ध दंगाइयों ने उनकी जान ले ली परंतु उनकी उदार भावना को न मिटा सके। जब आम लोग डरकर छिप रहे थे तब विद्यार्थी जी अपना आत्म-त्याग करने सामने आये क्योंकि उनके पास नायकों का एक अन्य स्वाभाविक गुण निर्भयता भी था। उदारता का पौधा निर्भयता की खाद पर पलता है। माओवाद से सताये जा रहे इलाकों में रात में ट्रेनें तक नहीं निकलतीं। वर्तमान नेता अपने लाव-लश्कर के साथ भी ऐसे स्थानों की यात्रा की कल्पना नहीं कर सकते। 18 अप्रैल 1951 को नलगोंडा (आन्ध्रप्रदेश) में भूदान आन्दोलन की नींव रखने से पहले और बाद में विनोबा ने निर्भयता से न केवल कम्युनिस्ट आतंकवाद से प्रभावित क्षेत्रों की पदयात्रायें कीं और जनता से मिले बल्कि ज़मीन्दारों को भी अपनी पैतृक भूमि को भूमिहीनों को बांटने के लिये मनाया। विनोबा को न भूपतियों के आगे हाथ फैलाने में झिझक थी और न ही आतंकियों की बन्दूकों का डर। अपनी जान की सलामती रहने तक कोई भी जन-नायक होने का भ्रम उत्पन्न कर सकता है, लेकिन भय और नायकत्व का 36 का आंकड़ा है।
बटुकेश्वर दत्त और भगत सिंह ब्रिटिश सरकार की निर्दयता को अच्छी प्रकार पहचानते हुए भी आत्मसमर्पण करते हैं। शांतिकाल में भर्ती हुआ कोई सैनिक युद्धकाल में शांति की चाह कर सकता है परंतु उन लाखों भारतीयों के बारे में सोचिये जो द्वितीय विश्व युद्ध में भारत की प्रत्यक्ष भागीदारी या ज़िम्मेदारी न होने पर भी भारत की आज़ादी की शर्त पर जान हथेली पर रखकर एशिया और यूरोप के मोर्चों पर निकल पडे। उनमें से न जाने कितने कभी वापस नहीं आये। वे सभी वीर हमारे नायक हैं।
कभी परम्परा की आड में, कभी धर्म के बहाने से, कभी वैचारिक प्रतिबद्धता के नाम पर और कभी राजनीतिक सम्बन्ध की ओट में कापुरुष अपने खलनायकत्व का औचित्य सिद्ध करने का प्रयास करते हैं। द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति पर पकडे गये बहुत से जर्मन युद्धापराधियों ने अपने क्रूरकर्म को स्वामिभक्ति कहकर सही ठहराने का प्रयास किया था। स्वामिभक्ति का यह बहाना भी कायरता का एक नमूना है। क्या स्वामिभक्ति सत्यनिष्ठा के आडे आ सकती है या यह भय और कायरता को छिपाने का बहाना मात्र है?
दो विश्व युद्धों में 1070 जीवन न्योछावर करने वाली गढवाल रेजिमेंट के पेशावर में तैनात सत्यनिष्ठ सिपाहियों ने अप्रैल 1930 में खान अब्दुल गफ़्फ़ार खाँ की गिरफ़्तारी का विरोध कर रहे निहत्थे पठान सत्याग्रहियों पर गोली चलाने के आदेश को मानने से इनकार कर दिया था। इस काण्ड में चन्द्र सिंह गढवाली के नेतृत्व में 67 भारतीय सिपाहियों का कोर्टमार्शल हुआ था जिनमें से कई को आजीवन कारावास की सज़ा हुई थी। और इससे पहले 1857 की क्रांति में भी वीर भारतीय सैनिकों ने सत्यनिष्ठा को स्वामिभक्ति से कहीं ऊपर रखा।
क्या आप सहमत हैं कि साहस, निर्भयता, उदारता और त्याग वीरों के अनिवार्य गुण हैं? क्या वीर नायक सदैव ही सत्यनिष्ठा को अन्ध स्वामिभक्ति से ऊपर रखते हैं? एक नायक में और क्या ढूंढते हैं आप? परोपकार, समभाव, करुणा, प्रेम, दृढता, ज्ञान? एक अन्य भारतीय कथन है, "क्षमा वीरस्य भूषणं", क्या आपको लगता है कि क्षमा भी नायकों का गुण हो सकता है?
[क्रमशः]
अन्ना बनना है तो शब्द और कृति को एक करो ... शुद्ध आचार, निष्कलंक जीवन, त्याग करना सीखो, कोई कुछ कहे तो अपमान सहना सीखो ~अन्ना हज़ारे (27 अगस्त 2011, रामलीला मैदान)
पिछली प्रविष्टि और आपकी टिप्पणियों में हमने नायकत्व की नीँव के कुछ रत्नों का अवलोकन किया। देवेन्द्र जी ने स्पष्ट किया कि सर्वगुण सम्पन्न होते हुए भी यदि व्यक्ति मैं और मेरे में ही सिमटा हुआ है तो उसके नायक हो पाने की सम्भावना नहीं है। शिल्पा जी ने भी यही बात एक उदाहरण के साथ प्रस्तुत की और अली जी ने भी कल्याण या फिर लोक कल्याण कहकर इसी बिन्दु को उभारा। "बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय" की भावना के बिना बड़ा बनना वाकई कठिन है।
साहस, निर्भयता, उदारता और त्याग पर कुछ बात हुई। निस्वार्थ प्रवृत्ति, दूसरों के सम्मान की रक्षा, कर्मयोग आदि जैसे सद्गुणों का ज़िक्र आया। आगे बढने से पहले आइये उदारता, त्याग और निस्वार्थ भावना के अंतर पर एक नज़र डालते हैं।
निस्वार्थ होने का अर्थ है स्वार्थरहित होकर काम करना। अच्छी भावना है। हम सब ही सत्कार्य के लिये अपना समय, श्रम ज्ञान और धन देना चाहते हैं। कोई नियमित रक्तदान करता है और किसी ने नेत्रदान या अंगदान का प्रण लिया है। विनोबा ने एक इंच भूमि का स्वामित्व रखे बिना ही विश्व के महानतम भूदान यज्ञ का कार्य सम्पन्न कराया। भारत में लोग गर्मियों में प्याऊ लगाते हैं और पिट्सबर्ग में मेरे पडोसी पक्षियों के लिये विशेषरूप से बने बर्डफ़ीडर में खरीदकर दाना रखते हैं। हृदय में उदारता हो तो निस्वार्थ भाव से कर्म करना नैसर्गिक हो जाता है। उदारता और त्याग का सम्बन्ध भी गहन है। दिल बड़ा हो तो त्याग आसान हो जाता है। याद रहे कि सत्कार्य के लिये भी चन्दा मांगना उदारता नहीं हैं, आगे बढकर दान देना अवश्य उदारता हुई। चन्दा इकट्ठा करना, चन्दा देना या उसका सदुपयोग करना, यह सभी निस्वार्थ हो सकते हैं। त्याग अनेक प्रकार के हो सकते हैं। स्वतंत्रता सेनानियों ने अपने सुखी भविष्य के साथ अपने तन, मन, धन सबका त्याग राष्ट्रहित में कर दिया। विनोबा जेल में थे तब भी उस समय का सदुपयोग उन्होंने अपराधी कैदियों के लिये गीता के नियमित प्रवचन करने में किया।
माता-पिता अक्सर अपनी संतति के लिये छोटे-बडे त्याग करते हैं। लोग अपने सहकर्मियों, पडोसियों, अधिकारियों के लिये भी छोटे-मोटे त्याग कर देते हैं लेकिन उसमें अक्सर स्वार्थ छिपा होता है। मंत्री जी ने चुनाव से ठीक पहले सारे प्रदेश के इंजीनियर बुलाकर अपने शहर में बडे निर्माणकार्य कराये। सरकारी पैसा, सरकारी कर्मचारी, सरकारी समय का दुरुपयोग हुआ और अन्य नगरों के साथ अन्याय भी हुआ। लेकिन यदि मंत्री जी कहें कि उन्होंने अपने व्यक्तिगत समय का त्याग तो किया तो उसके पीछे चुनाव जीतने का स्वार्थ था। कुछ लोग सदा प्रबन्धन की कमियाँ गिनाते रहते हैं, उन्हें हर शिक्षित, धनी या सम्पन्न व्यक्ति शोषक लगता है। वे हर समिति की निगरानी चाहते हैं। वे कहते हैं कि उनका उद्देश्य जनता को जागरूक करना है। लेकिन यदि ये लोग जनता के असंतोष को भड़काकर अपनी कुंठा निकालते हों या हिंसा फ़ैलाकर अपनी स्वार्थसिद्धि करें तो उसमें स्वार्थ भी है और उदारता व त्याग का अभाव भी। ऐसे खलनायकों के मुखौटे लम्बे समय तक टिकते नहीं। क्योंकि निस्वार्थ कर्म के बिना सच्चा नायक बना ही नहीं जा सकता।
आचार्य विनोबा भावे (11 सितम्बर, 1895 - 15 नवंबर, 1982) |
बटुकेश्वर दत्त और भगत सिंह ब्रिटिश सरकार की निर्दयता को अच्छी प्रकार पहचानते हुए भी आत्मसमर्पण करते हैं। शांतिकाल में भर्ती हुआ कोई सैनिक युद्धकाल में शांति की चाह कर सकता है परंतु उन लाखों भारतीयों के बारे में सोचिये जो द्वितीय विश्व युद्ध में भारत की प्रत्यक्ष भागीदारी या ज़िम्मेदारी न होने पर भी भारत की आज़ादी की शर्त पर जान हथेली पर रखकर एशिया और यूरोप के मोर्चों पर निकल पडे। उनमें से न जाने कितने कभी वापस नहीं आये। वे सभी वीर हमारे नायक हैं।
दो महानायक: नेताजी और बादशाह खान |
मदर टेरेसा 26 अगस्त 1910 - 5 सितम्बर 1997 |
क्या आप सहमत हैं कि साहस, निर्भयता, उदारता और त्याग वीरों के अनिवार्य गुण हैं? क्या वीर नायक सदैव ही सत्यनिष्ठा को अन्ध स्वामिभक्ति से ऊपर रखते हैं? एक नायक में और क्या ढूंढते हैं आप? परोपकार, समभाव, करुणा, प्रेम, दृढता, ज्ञान? एक अन्य भारतीय कथन है, "क्षमा वीरस्य भूषणं", क्या आपको लगता है कि क्षमा भी नायकों का गुण हो सकता है?
[क्रमशः]
नायक तो नायक होता है और उसका चरित्र गढ़ा जाता है, जिसमें उसके गुणों की तुलना में बखान करने वाले का भाषा सामर्थ्य अधिक जरूरी होता है.
ReplyDelete@ राहुल जी,
ReplyDeleteतो क्या यह समझा जाये कि वास्तविक जीवन में नायक होते नहीं, उनका नायकत्व सदा गढा ही जाता है?
नायक ना तो बनाए जाते हैं और ना ही स्वयं बनते हैं बस बन जाते हैं। किसी का एक गुण जो सर्वजन हिताय हो, बस वही गुण उस व्यक्ति को नायक बना देता है। नायक बन जाने के बाद हम उसमें गुण दोष ढूंढते हैं। गुण और दोष प्रत्येक व्यक्ति में होते हैं और नायक में भी। लेकिन बस एक गुण के कारण ही वह नायक बन जाता है। जैसे सेना में युद्ध के समय कौन वीरता दिखा बैठता है उस सैनिक को भी नहीं पता होता है लेकिन वह रातोंरात नायक बन जाता है। किस हीरो या हीरोइन की फिल्म सफल होगी वह स्वयं नहीं जानता। इसलिए नायक किस मिट्टी से बने हैं यह कहना कठिन होता है। नायक पहले बनता है और उसके बाद उसका आकलन होता है।
ReplyDeleteअजित जी, यह आलेख इसी भ्रम को तोड़ने का प्रयास है कि नायक बस रातोंरात बन जाते हैं।
Deleteयहाँ मैं अजितजी से सहमत हूँ , नायक बनने की कोशिश करने से ही नायक नहीं बना जा सकता है . किसी भी व्यक्ति का वह गुण जो सर्वजन हिताय हो , उसे नायक बना देता है ...पूरी जिंदगी खून खराबा करने वाले कभी- कभी एक पल में ही नायक बन जाते हैं और नायक की वर्दी पहने खलनायक!
ReplyDeleteआपकी विवेचना से पूर्णतया सहमत हैं, सामान्य जीवन तो सब ही जी लेते हैं।
ReplyDeleteउम्दा लेख,अजित जी की टिप्पणी से सहमत।राष्ट्र पिता महात्मा गाँधी ने अपने तमाम दोषों को
ReplyDeleteनिर्भीकता से स्वीकार किया,लेकिन उनकी सत्यनिष्ठा और नेतिकता ने उन्हें महानायक बना दिया।
मेरे हिसाब से नायक में नायकत्व के गुण पैदायशी होते है, पर स्थितियों को देखते हुये कुछ भी लग सकता है. नायक नायक ही होता है जैसे गधा गधा होता है और घोडा घोडा होता है.
ReplyDeleteरामराम.
अपने गुणों और कर्मों से नायक बनने वाले भी यूँ तो मनुष्य ही होते हैं गुण और अवगुण सभी होते होंगें उनमे भी...पर जो कमियों से ऊपर उठ अच्छे गुणों से जनकल्याण की सोचे वही नायक.....
ReplyDeleteमेरा मत है की नायक में क्षमा का गुण होता है यदि क्षमा नहीं कर सकता तो वो वीर या नायक नहीं हो सकता क्योकि क्षमा करने के लिए बहुत बड़ा दिल चाहिए
ReplyDeleteसहमत आपके निष्कर्षों से, स्वामीभक्ति से अधिक सत्यनिष्ठा ही नायक पद प्रदान करने में समर्थ है।
ReplyDeleteअपेक्षा से यह सत्य है कि नायक का उद्भव स्वतः असम्भावित हो जाता है। भले उसके गुणों का आकलन बाद में हो पर गुण उसमें होते ही है। वे गुण सुप्तावस्था में रहते है,और परिस्थिति उत्पन्न होने पर प्रकट होते है। जैसे निर्भयता सामान्य हालातों में व्यक्ति विशेष में दृष्टिगोचर नहीं होती, पर अवसर उपस्थित होने पर साहस व शौर्य प्रकट होता है। हम उन्ही गुणों के प्रकटीकरण के आधार पर ही तो उन्हें नायक स्वीकार करते है। अतः निसंदेह नायक में उत्कृष्ट गुण विद्यमान होते है। गुणों का विश्लेषण,गुणानुवाद नायकत्व के लिए प्रेरित करता है। अतः नायकोत्तर चरित्र को अतिरिक्त कांतियुक्त प्रदर्शित करना सामान्य है। पर सर्वथा गुणहीन चरित्र, नायक रूप में गढ़ा नहीं जा सकता।
क्षमा वीरस्य भूषणं...
ReplyDeleteसही कहा है। वीर के पास यह भूषण तो होना ही चाहिए कि वह युध्य में पराजित अपने शत्रु को भी क्षमा कर सके। इतिहास में ऐसे उदाहरण मिले हैं कि एक वीर राजा ने पराजित शत्रु को उसकी वीरता के कारण क्षमा कर सबका दिल जीत लिया और सही मायने में नायक बन प्रतिष्ठित हुआ। लेकिन क्षमा करते वक्त हमेशा यह ध्यान देना चाहिए कि हम किसको क्षमा कर रहे हैं ? वीर को या उस पापी को जिसकी सर तत्काल काट लिया जाना चाहिए था..! ऐसा तो नहीं कि एक आतंकवादी को भी क्षमा करके हम यह कहें कि क्षमा वीरस्य भूषणं...!! यह तो मूर्खता पूर्ण कार्य होगा। राम ने रावण को क्षमा नहीं किया। उसे उसके पापों का उचित दंड देकर ही वे नायक बने।
......रोचक व ज्ञानवर्धक श्रृंखला। पोस्ट ही नहीं विद्वान टिप्पणीकारों की टीप पढ़ने में भी आनंद आ रहा है।
@ क्या वीर नायक सदैव ही सत्यनिष्ठा को अन्ध स्वामिभक्ति से ऊपर रखते हैं?
ReplyDeleteयह यथार्थ है। सत्यनिष्ठा ही मूलमंत्र होती है। यहां तक कि स्वामिभक्ति ही नहीं लोकहित और सार्थक देशभक्ति भी सत्यनिष्ठा के अधीन अव्यक्त रहती है। और सफल होने के बाद ही उसकी सार्थकता समझ आती है। नायक सत्यनिष्ठा में गर्भित लोकहित देखता है। इसप्रकार लोकहित ही उसकी सही मायनों में देशभक्ति होती है।
@ एक अन्य भारतीय कथन है, "क्षमा वीरस्य भूषणं", क्या आपको लगता है कि क्षमा भी नायकों का गुण हो सकता है?
ReplyDeleteनिसंदेह, क्षमा ही वीर-नायक का विशिष्ठ गुण है। भले आज का सुविधाभोगी मानस इसे कायरता में खपाता हो पर, क्षमा वीर और निर्भय व्यक्ति ही धारण कर सकता है। यह क्षमा तथ्य से अज्ञानी व्यक्ति की नहीं होती। वीर मुश्किल परिस्थितियों से बचने के लिए क्षमा नहीं करता। वह सब तथ्य जान समझ कर क्षमा करता है। क्षमाभाव को स्थाई रखना सर्वाधिक कठिन कार्य है। इसीलिए यह नायक के पास सुरक्षित है।
नायक, नायक बन ही नहीं पाए यदि उसमें क्षमाभाव नहीं हो। नायक समूह का नेतृत्व करता है, समूह में सभी प्रकार के दृष्टिकोण होते है। विरोधी संशय, प्रतिघात और परिक्षण भी। क्षमायुक्त समाधान ही उसे नायक पद प्रदान करने में समर्थ है।
महानता की आभा का क्षमा ही प्रकाशस्रोत है।
बहुत सुन्दर प्रस्तुति ||
ReplyDeleteसादर --
बधाई |
कानपुर के दंगों में जब हिन्दू-मुसलमान एक दूसरे से डरकर भाग रहे थे, गणेश शंकर विद्यार्थी दंगे की आग में कूदकर निर्दोष नागरिकों की जान बचा रहे थे। 25 मार्च 1931 को धर्मान्ध दंगाइयों ने उनकी जान ले ली परंतु उनकी उदार भावना को न मिटा सके ||
ReplyDeleteउद्यम: साहसं धैर्यं बुद्धि: शक्ति: पराक्रम: । षडेतै यत्र वर्तन्ते तत्र देव सहायकृत्
ReplyDeleteबहुत अच्छी श्रृंखला चल रही है
आभार आपका
अजित जी की बात से भी सहमत
वैसे'मीडिया मैनेजमेंट'और 'स्टिंग ऑपरेशन' के इस दौर में नायक की छवि को गढना,और तार-तार करना चुटकियों का खेल है।यह आस्था के खंडन और अंधविश्वासों के महिमा मंडन का समय है,जहाँ संतुलित निर्णय क्षमता बनाये रखते हुए सही प्रतीकों,नायकों की खोज वाकई दुष्कर कार्य है।
ReplyDeleteक्षमा वीरता का भूषण होता लेकिन प्रथ्वी राज चौहान को यह भारी पड गया था गौरी को १८ बार क्षमा करके
ReplyDeleteनायक जन्मजात होते हैं, उन्हें गढ़ा या बनाया नहीं जाता।
ReplyDeleteसाहस, निर्भयता, त्याग, उदारता, क्षमा आदि वीरों के स्वाभाविक गुण हैं।
अच्छा विश्लेषण।
बहुत मौलिक आलेख,सहमत हूँ.
ReplyDeleteसुन्दर विश्लेषण.
ReplyDeleteगंभीर चिंतन मनन से उद्भूत विचार ....क्षमा के बारे में कहा ही गया है कि उसे ही सुशोभित करती है जो शक्तिसंपन्न हो -निरीह के क्षमा का अर्थ ही क्या है ?
ReplyDeleteबाकी तो कुछ समाज जैविकीय प्रवृत्तियाँ होती हैं जैसे परहित में आत्मोत्सर्ग तक की प्रवृत्ति -यह मनुष्य में भी वंश/जाति/क्षेत्र-देश की रक्षा के लिए जैवीय विकास के फलस्वरूप सर्वोच्च है -मगर हाँ आश्चर्य है कि यह ज्यादातर लोगों में उतनी गहन नहीं है जितनी आपके इंगित नायकों में है और यह बहुत कुछ जन्मजात/संस्कारगत ही है -शिक्षा दीक्षा ,पारिवारिक पृष्ठभूमि ,लालन पालन ,परिवेश इसको पल्लवित करते होगें!
"सर जी
ReplyDeleteबादशाह जी के साथ सुभाष जी को आप ने दिखाया है,तस्वीर में,पर दोनों दो अलग विचारधारा तथा ग्रुप के थे.नेहरु नेताजी से तुलनात्मक तौर पर कम संघर्षी थे .इतिहास में उन्हें अधिक जगह मिली है.सर्वपल्ली गोपाल ,बिपन चंद्र .बल राज नंदा,एम् जे अकबर आदि ने उनको मढ़ा ही तो है,गढा भले नहीं.
नेहरु के जीवन के अंकन में अतिरंजना है जो लेखकों की भाषा के पीछे छिप जाती है."
पहली टिप्पणी के बदले इसे पोस्ट करने की कृपा करेंगे
नायक किस मिटटी से........
ReplyDeleteमित्र एक कहावत है ," डूबते जहाज का कप्तान ,सबसे आखिर में जहाज छोड़ता है ...."
---- नायक देश ,काल, परिस्थतियाँ के वसीभूत होता है , फिर भी , "सरबत दा भला" मांगते हुए, आत्मोत्सर्ग करता है , नायक है / और यह ,वही कर सकता है .जिसके संस्कार में नैतिकता व प्रायश्चित का भाव होता है ... बहुत अछे ऐतिहासिक संस्मरण अपने दिए हैं , काश!
हम इतिहास को सर्वजनकी नजर से देखपाते,और लिख पाते ,शहीद और गद्दार में फर्क कर पाते ,सहस और दुस्साहस को विवेचित कर पाते ...../ शुक्रिया जीओज -मयी पोस्ट के लिए /
बडी मुश्किल से होता है चमन में दीदवर पैदा॥
ReplyDeleteनि:संदेह साहस, निर्भयता, उदारता और त्याग वीरों के अनिवार्य गुणों में शामिल हैं। सिखों के दशम गुरू ने कहा था "भय काहू को देत ना, न भय मानत आन।" मेरा खुद का अनुभव ये है कि जो जितना डरता है, उतना ही दूसरे को डराने की कोशिश करता है और जो निर्भय है, वो दूसरों को भी अभय देता है। याद कीजिये कश्मीरी पंडितों का तत्कालीन सिख गुरू साहेबान श्री गुरू तेग बहादुर के पास बादशाह की ज्यादतियों की फ़रियाद लेकर जाना और उस पर उनकी यह टिप्पणी कि किसी महान आत्मा को बलिदान देना होगा। यह सुनकर पास ही खड़े उनके दस बारह साल के पुत्र ने कहा, "पिताजी, आज के समय में आपसे महान कौन है?" होता कोई लाभ-हानि, जमा-घटा देखने वाला हम जैसा जीव तो उस बालक की बात को किलोल समझकर रह जाता लेकिन श्री गुरू तेग बहादुर ने उसी समय खुद को बलिदान के लिये प्रस्तुत कर दिया। बिना साहस, निर्भयता, त्याग और उदारता के यह संभव है?
ReplyDeleteसत्यनिष्ठा और स्वामिभक्ति वाले मामले पर मैं खुद स्पष्ट नहीं:)शायद दोनों तरह के उदाहरण मिल जायेंगे।
क्षमा यकीनन नायकों का एक गुण है। धीरू सिंह जी ने जो उदाहरण दिया है, उस परिपेक्ष्य में भी वीर तो पृथ्वीराज चौहान को ही माना जायेगा न कि गौरी को। वीर होने में और बर्बर होने में अंतर है।
पोस्ट और उस पर आई टिप्पणियाँ अमूल्य हैं।
नायको के गुण नहीं होते , नायक ही "नायको के गुण" को पारिभाषित करते है!
ReplyDelete@दो महानायक: नेताजी और बादशाह खान
ReplyDeleteदुर्लभ चित्र के लिए आभार..
हर वह व्यक्ति जो अपने ज्ञान और विश्वास के अनुसार सत्य के पथ पर या पर सेवा के पथ पर चले , निस्वार्थ हो कर, वह किन्ही मायनों में नायक अवश्य है | वीरता, साहस, निर्भयता त्याग - ये सभी गुण डिजायरेबल तो हैं एक नायक में, परन्तु अनिवार्य नहीं हैं |
ReplyDeleteनहीं - यह तो माना कि ****अधिकाधिक नायक**** वीरता का प्रदर्शन करते हैं, अपने प्राण प्रतिष्ठा, सुख समृद्धि, मन सम्मान को खतरे में डाल कर लोक सेवा करते हैं - परन्तु ये कहना कुछ वन साइडेड होगा कि " साहस, निर्भयता, उदारता और त्याग वीरों के "अनिवार्य गुण" हैं; और वीर नायक सदैव ही सत्यनिष्ठा को अन्ध स्वामिभक्ति से ऊपर रखते हैं; " जैसा आप ने कहा कि कि "क्षमा वीरस्य भूषणं",तो क्षमा भी नायकों का गुण एक अतिरिक्त आभूषण के रूप में तो हो सकता है, परन्तु यह कोई अनिवार्य शर्त नहीं है नायकत्व के लिए |
मदर टेरेसा को आप नायक कहेंगे ?
उस डॉक्टर को जिसने इन्फर्टिलिटी का इलाज ढूँढा ? कोढ़ का इलाज़ ढूँढा ? टि.बि. का या कैंसर का इलाज़? क्या वह वीर साहसी था ? नहीं - वह सेवक था |
उस लेखक क आप नायक कहेंगे जिसने अपने जीवनदीप की बत्ती को दोनों ओर से जलाए रखा और लोगों के लिए ज्ञानार्जन के लिए अनेकानेक रचनाएँ लिखीं ?
उस गायक को नायक कहेंगे जिसके गीतों ने कई उदास दिलों को सुकून दिया?
क्या बुद्ध को नायक कहेंगे जो अपनी पत्नी और पुत्र को छोड़ शान्ति की तलाश में भटके, और फिर उनके खोजे रास्ते से अनेकानेक दुखी जनों को शान्ति मिली ?
उस एक्टर (उदाहरण महमूद) को आप नायक कहेंगे जिसने अपने आप को एक जोक बना कर कई लोगों को हंसी का तोहफा दिया ?
सर्कस का एक जोकर - जो सब देखने वालों को कुछ पलों के लिए अपने गहनतम दुःख से भी छुडवा कर दो पल की हंसी देता है?
नायकत्व के लिए यह अनिवार्य है कि व्यक्ति अपने आस पास हंसी और सुख बिखेर सके , फिर वह साहसी हो या नहीं - यह उसके नायकत्व को कम नहीं करता | हाँ, वीरता नायकत्व के लिए पौधे की खाद सा ज़रूर काम करती है |
क्षमा, दया, ताप, त्याग, मनोबल,
ReplyDeleteसबका लिया सहारा,
पर नरव्याघ्र सुयोधन तुमसे
कहो कहाँ कब हारा!
जब देशप्रेम की सोंधी मिट्टी में इन गुणों को मिलाकर इंसान गढे जाते हैं, तभी नायक जन्मते हैं!!
@ क्या वह वीर साहसी था? नहीं - वह सेवक था|
ReplyDeleteशिल्पा जी,
जो जो कहै ठाकुर पै सेवक, तत्काल ह्वे जावे
जह जह काज किरत सेवक की, तहाँ-तहाँ उठ धावै
@नायक ही "नायको के गुण" को पारिभाषित करते है!
ReplyDeleteआशीष जी,
यह विमर्श बस उन्हीं गुणों को पहचानने का एक प्रयास भर है।
डॉ. ब्रजकिशोर जी,
ReplyDeleteपंडित नेहरु से हज़ार मुद्दों पर असहमति होते हुए भी मुझे ऐसा लगता है कि उनका करिश्मा/सम्मोहन/व्यक्तित्व एम जे अकबर आदि के मढने से कहीं पहले और कहीं विस्तृत था। ठीक वैसे ही जैसे गांधी को रिचर्ड ऐटनबरो ने प्रसिद्ध नहीं किया बल्कि इसके उलट उसे उनकी प्रसिद्धि का लाभ मिला।
संजय, देवेन्द्र, उदयवीर जी, और सुज्ञ जी
ReplyDelete,
आप चारों की ही बात से सहमत हूँ।
---
"जो जितना डरता है, उतना ही दूसरे को डराने की कोशिश करता है और जो निर्भय है, वो दूसरों को भी अभय देता है।"
ज्ञानमयी निर्भयता न केवल नायकों का एक अनिवार्य गुण है, यह हमारे समाज की बहुत सी अन्य समस्याओं का हल भी प्रस्तुत कर सकता है।
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"राम ने रावण को क्षमा नहीं किया। उसे उसके पापों का उचित दंड देकर ही वे नायक बने।"
सागर और परशुराम के प्रति राम का व्यवहार भिन्न था। संजय ने पिछली पोस्ट में जनरल मानेक्शा का ज़िक्र करते हुए मिलते-जुलते गुण की बात की थी।
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"नायक देश ,काल, परिस्थतियाँ के वसीभूत होता है , फिर भी , "सरबत दा भला" मांगते हुए, आत्मोत्सर्ग करता है , नायक है / और यह ,वही कर सकता है .जिसके संस्कार में नैतिकता व प्रायश्चित का भाव होता है"
सहमत हूँ। और अगली पीढी के संस्कार हम वयस्कों को ही बनाने हैं।
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"नायकोत्तर चरित्र को अतिरिक्त कांतियुक्त प्रदर्शित करना सामान्य है। पर सर्वथा गुणहीन चरित्र, नायक रूप में गढ़ा नहीं जा सकता।"
महत्वपूर्ण बिन्दु है। नकली नायकत्व की पोल भी ऐसे अवसरों पर खुल जाती है। चुनौती का सामना जीत-हार से कहीं आगे की बात है।
क्या आप सहमत हैं कि साहस, निर्भयता, उदारता और त्याग वीरों के अनिवार्य गुण हैं?
ReplyDeleteबिलकुल सहमत हैं जी ... बहुत सुन्दर विश्लेषण !
दोनों कड़ियाँ आज पढ़ा. छपने और छिपने वाली बात सटीक लगी. उसके अलावा तीसरी कटेगरी भी है जिसमें कुछ लोगों की महानता छाप दी जाती है. बनावटी महिमामंडन कर दिया जाता है. उनमें से कुछ समय की छलनी में छन कर साफ़ हो जाता है बाकी नहीं भी हो पाता !
ReplyDeleteबाकी सब गुणों के अलावा सबसे बड़ी बात मुझे ये लगती है कि नायक लकीर से हट कर सोचते हैं. जिसे दूरदर्शिता कहा जा सकता है. वो कुछ इसलिए नहीं करते क्योंकि 'कोई कह गया है' या 'ऐसा ही होता है' बल्कि इसलिए क्योंकि उन्हें लगता है कि ये सही है और ऐसा होना चाहिए.
@ क्षमा, दया, तप, त्याग, मनोबल ...
ReplyDelete@ उद्यम: साहसं धैर्यं बुद्धि: शक्ति: पराक्रम: ...
अनुज गौरव, सलिल जी,
इस प्रविष्टि के मूल्यवर्धन के लिये आभार।
@नायक लकीर से हट कर सोचते हैं. जिसे दूरदर्शिता कहा जा सकता है. वो कुछ इसलिए नहीं करते क्योंकि 'कोई कह गया है' या 'ऐसा ही होता है' बल्कि इसलिए क्योंकि उन्हें लगता है कि ये सही है और ऐसा होना चाहिए.
ReplyDeleteशुक्रिया अभिषेक!
आपके प्रश्न के उत्तर में बस अपनी टिप्पणी का पहला हिस्सा दुहराना पर्याप्त होगा- 'नायक तो नायक होता है.
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