दलितों में भी अति-दलित वर्ग के उत्थान के सभी प्रयास असफल होते गये। शिक्षा में सहूलियतें दी गईं तो भी वे निर्धनता के कारण पूरा लाभ न उठा सके। आरक्षण दिया तो उसे बाहुबली ज़मींदारों ने झटक लिया। व्यवसाय के लिये ऋण दिये तो भी कुछ न कुछ ऐसा हुआ कि अत्यधिक दलित वर्ग समाज के सबसे निचले पायदान पर ही रहा क्योंकि अन्य वर्ग उनके व्यवसाय को हीन समझते रहे।
मेरा शिक्षित और सम्पन्न, परंतु असंतुष्ट मित्र फत्तू अति-दलितों की चिंता जताकर हर समय सरकार की निंदा करता था। फिर सरकार बदली। नया प्रशासक बड़े क्रांतिकारी विचारों वाला था।
सामाजिक उत्थान के उद्देश्य से नये प्रशासक ने अति-दलित वर्ग के कर्मियों के साथ जाकर नगर के मार्गों पर झाड़ू लगाई, साफ़-सफ़ाई की।
फ़त्तू बोला, “पब्लिसिटी है, अखबार में फ़ोटो छपाने को किया है। उनके चरण पखारें तब मानूँ ...”
संयोग ही था कि कुछ दिन बाद प्रशासक ने स्थानीय सफ़ाईकर्मियों के पास जाकर उनके चरण भी धो डाले। मैंने कहा, “फ़त्तू, अब तो तेरे मन की हो गई। अब खुश?”
फतू मुँह बिसूरकर बोला, “पैर धोने में क्या है, उनका चरणामृत पीते, तो मानता।”