Thursday, July 31, 2008

सम्प्रति वार्ताः श्रूयन्ताम - संस्कृत इज डैड

संस्कृत के बारे में अक्सर - विशेषकर भारत में - एक मृत भाषा का ठप्पा लगाने की कोशिश होती रहती है। अक्सर लोगों को कहते सुना है - "संस्कृत इज अ डैड लैंग्वेज।" कुछेक वार्ताओं में मैंने इस बहस को कड़वाहट में बदलते हुए भी देखा है मगर इसमें संस्कृत का दोष नहीं है। उन भागीदारों की तो हर बहस ही कड़वाहट पर ख़त्म होती है।

संस्कृत को मृत घोषित करने में कुछ लोगों का पूर्वाग्रह भी होता है मगर शायद अधिकाँश भोले-भाले लोग सिर्फ़ सुनी-सुनाई बात को ही दोहरा रहे होते हैं। १९९१ की जनगणना में भारत के ४९,७३६ लोगों की मातृभाषा संस्कृत थी जबकि २००१ की जनगणना में यह घटकर १४,००० रह गयी। मगर रूकिये, इस संख्या से भ्रमित न हों। संस्कृत पढने-बोलने वाले भारत के बाहर भी हैं - सिर्फ़ नेपाल या श्रीलंका में ही नहीं वरन पाकिस्तान और अमेरिका में भी। इन विदेशी संस्कृतज्ञों की संख्या कभी भी गिनी नहीं जाती है शायद।

मेरे जीवन की जो सबसे पुरानी यादें मेरे साथ हैं उनमें हिन्दी के कथन नहीं बल्कि संस्कृत के श्लोक जुड़े हैं। हिन्दी मेरी मातृभाषा सही, मैं बचपन से ही संस्कृत पढता, सुनता और बोलता रहा हूँ - भले ही बहुत सीमित रूप से -प्रार्थना आदि के रूप में। और ऐसा करने वाला मैं अकेला नहीं हूँ, विभिन्न भाषायें बोलने वाले मेरे अनेकों मित्र, परिचित और सहकर्मी रोजाना ही शुद्ध संस्कृत से दो-चार होते रहे हैं। अंग्रेज़ी का "अ" (E) भी ठीक से न बोल सकने वाले लोग भी अंग्रेजी को अपनी दूसरी भाषा समझते हैं परन्तु संस्कृत तो रोज़ ही पढने सुनने के बावजूद भी हम उसे मृत ही कहते हैं। ऐसी जनगणना में हमारे-आपके जैसे लोगों का कोई ज़िक्र नहीं है, कोई बात नहीं। संस्कृत पढाने वाले हजारों शिक्षकों का भी कोई ज़िक्र नहीं है क्योंकि उनकी मातृभाषा भी हिन्दी, मलयालम, मराठी या तेलुगु कुछ भी हो सकती है मगर संस्कृत नहीं। और इसी कारण से एक तीसरी (या दूसरी) भाषा के रूप में संस्कृत पढने और अच्छी तरह बोलने वाले लाखों छात्रों का भी कोई ज़िक्र नहीं है।

भारत और उसके बाहर दुनिया भर के मंदिरों में आपको संस्कृत सुनाई दे जायेगी. संगीत बेचने वाली दुकानों पर अगर एक भाषा मुझे सारे भारत में अविवादित रूप से मिली तो वह संस्कृत ही थी। तमिलनाड के गाँव में आपको हिन्दी की किताब या सीडी मुश्किल से मिलेगी। इसी तरह यूपी के कसबे में तामिल मिलना नामुमकिन है। अंग्रेजी न मिले मगर संस्कृत की किताबें व संगीत आपको इन दोनों जगह मिल जायेगा। जम्मू, इम्फाल, चेन्नई, दिल्ली, मुंबई या बंगलूरु ही नहीं वरन छोटे से कसबे शिर्वल में भी मैं संस्कृत भजन खरीद सकता था। क्या यह एक मृतभाषा के लक्षण हैं?

संस्कृत में आज भी किताबें छपती हैं, संगीत बनता है, फिल्में भी बनी हैं, रेडियो-टीवी पर कार्यक्रम और समाचार भी आते हैं। शायद पत्रिकाएं भी आती हैं मगर मुझे उस बारे में ज्यादा जानकारी नहीं है। हाँ इतना याद है कि कि संस्कृत की चंदामामा एक तेलुगुभाषी प्रकाशक द्वारा चेन्नई से प्रकाशित होती थी। वैसे तो संस्कृत में सैकडों वेबसाइट हैं मगर गजेन्द्र जी का एक संस्कृत ब्लॉग भी मैंने हाल ही में देखा है।

एक पिछली पोस्ट "हज़ार साल छोटी बहन" के अंत में मैंने एक सवाल पूछा था: क्या आप बता सकते हैं कि पहला संस्कृत रेडियो प्रसारण किस स्टेशन ने और कब शुरू किया था? जगत- ताऊ श्री रामपुरिया जी के अलावा किसी ने भी सवाल का कोई ज़िक्र अपनी टिप्पणी में नहीं किया है। मुझे लग रहा था कि कुछेक और लोग उत्तर के साथ सामने आयेंगे - खैर जवाब हाज़िर है - पहला नियमित संस्कृत प्रसारण कोलोन (Cologne) नगर से दोएचे वेले (Deutsche Welle = जर्मनी की वाणी) ने १९६६ में शुरू किया था।

19 comments:

  1. मैं इस पोस्ट से प्रभावित हूं और गजेन्द्र जी के ब्लॉग से भी।
    व्यक्तित्व के आयाम विकसित करने के लिये एक संस्कृत-हिन्दी/अंग्रेजी शब्दकोष चाहता था। अब ढूंढूंगा।:)
    मैं आपके विचारों से बहुत सिन्क्रोनिज्म रखता हूं।

    ReplyDelete
  2. मैंने संस्कृत की औपचारिक शिक्षा नही प्राप्त की है मगर मुझे तो लगता है इस भाषा के प्रति मेरी आनुवंशिक -रागात्मक रुझान है .मुझे भी बड़ी तीव्र खीज होती है जब कोई संस्कृत को मृत भाषा कहता है .मैं अपने स्वर्गीय पिता श्री डॉ राजेंद्र मिश्र की एक लम्बी कविता की ही अन्तिम पंक्तियाँ अपनी ही अभिव्यक्ति के रूप में प्रस्तुत करता हूँ [आत्मा वे जायते पुत्रः ] -
    आर्यभट ,चाणक्य ,जैमिनी ,मिहिर और कपिल जैसे ऋषि जिस भाषा पर मोहते
    ऐसी देव भाषा नहीं होगी कभी नामशेष ,विश्व के प्रबुद्ध जिसे बार बार जोहते
    'अहम् ब्रह्मास्मि' गूढ़ दर्शन चरम सत्य ,वसुधैव कुटुम्बकम का भाव जो जगाया है
    सूत्रों और सूक्तियों का कलश लिए ,संस्कृत ने भारती का ध्वज फहराया है .

    ReplyDelete
  3. बहुत सही कहा आपने, एक बात है जब तक आप भारत की सभी भाषाओँ को बचा कर रख सकते हैं तब तक संस्कृत जिन्दा रहेगी, क्योंकि सभी भाषाओँ का मूल तो आखिर वही है

    ReplyDelete
  4. मैं आपसे सहमत हूँ.
    और आपके विचारों का कायल भी हो गया हूँ.
    बहुत सही, सुंदर और तार्किक बिश्लेषण प्रस्तुत किया आपने.

    ReplyDelete
  5. aapke vichar vicharniy aur prasangik hain parntu aaj sab ko roji -roti ki chinta hai jisme sanskrit khari nahi utrati jis din isme rojgar milne lagega nayi pidhi khud-b-khud iski taraf mud jayegi.

    ReplyDelete
  6. बहुत बढिया पोस्ट लिखी है।मुझे संस्कृत का ज्यादा ज्ञान तो नहीं है लेकिन स्कूल में कुछ समय तक संस्कृत की शिक्षा जरूर पाई थी।आप की पोस्ट पढ कर काफी जानकारी मिली।आभार।

    ReplyDelete
  7. पिता जी को सिर्फ़ आपका ब्लॉग खोलकर सेव करके दिखाता हूँ.....वे आपसे काफी प्रभावित है.....सच में ..लिखते रहिये...

    ReplyDelete
  8. कहते हैं संस्कृत सब भाषाओँ की माँ है...और माँ को भूलना शायद आज के युग का फेशन है...बहुत सारगर्भित लेख.
    नीरज

    ReplyDelete
  9. अच्छी जानकारी दी आपने भाई साहब, कल ही सृजनगाथा में आपके संबंध में पढा, मन प्रफुल्लित हुआ ।

    यहां छत्तीसगढ में इससे मिलते जुलते विषय पिछले माह काफी विमर्श हुआ था जिससे हमें काफी जानकारी प्राप्त हुई थी । आपके इस पोस्ट नें हमारे संकुचित सोंच को झकझोरा है ।


    धन्यवाद ।

    ReplyDelete
  10. आपके ब्लाग पर बडी ज्ञान दायक चर्चा इन दिनो
    चल रही है ! और ये बडी शुभ बात है कि हमारी
    चर्चा अब अपनी भाषा एवम संस्कृति तक पहुंचने
    लग गई है ! आप गुणी जनो के ज्ञान का आनंद
    सभी ले रहे है !
    - "संस्कृत इज अ डैड लैंग्वेज।"
    यह कथन किसी भी तरह से सत्य नही
    है ! ये बात सही है कि कुछ लोग सिर्फ
    बहस के लिये बहस करते है ! तो वहाँ
    तो कडुवाहट आना स्वाभाविक है ! पर
    अगर सार्थक बहस हो तो अन्य जो नही
    जानते वे लोग भी आनंद लेते है ! और
    निजी जानकारी भी बढती है !

    आज भी किसी भी हिंदू की कोई सुबह
    नही होती जब वो ऊँ नमै शिवाय्: या अन्य
    समानार्थी संस्क्रत शब्दोँ को ना दोहराता हो !

    क्या कोई ऐसा भी होगा जो त्वमेव माता च्:
    पिता त्वमेव्... की प्रार्थना दिन मे एक बार भी
    ना दोहराता हो ? क्या ये संस्क्रत नही है ?
    और जरा इन लोगो की संख्या भी देख ले !
    मेरे हिसाब से मृत तो वो होता है जिसका
    सब कुछ खत्म हो चुका है ! यहाँ तो मुझे
    एक भी ऐसा नही दिखता दिन भर मे कम से
    कम एक वाक्य संस्कृत मे ना दोहराता हो !
    अब ये अलग बात है और इसके अलग कारण
    हो सकते है कि संस्कृत बोल चाल की भाषा
    के रुप मे वो स्थान शायद कायम नही रख पाई !
    लेकिन इससे इसकी गरिमा और स्वरुप मे कोई
    कमी मुझे नही दिखती !
    एक वाकया आपसे साझा करना चाहुंगा --- अभी
    कुछ समय पहले मेरा अरुणाचल जाना हुवा ! सघन
    जंगल से गुजरते हुये रास्ते मे एक जगह एक मंदिर
    दिखा ! इस जगह मंदिर देख कर आश्चर्य होना तो
    स्वाभाविक हि था ! पर उससे भी बडा आश्चर्य वहाँ
    पहुंच कर हुवा ! मालुम पडा ये मालिनि माता का
    मंदिर है और पांडवो द्वारा बनवाया गया है ! और
    सुखद आश्चर्य कि वहाँ पुजारी जी आरती पूरी
    करके मंत्रोरोच्चार कर रहे थे---- कर्पुर गोरम
    करुनावतारम्.. संसार सारम भुज्..........! अरुणाचल जैसे राज्य मे ये क्या है ? मेरी समझ से संस्कृत को मृत घोषित करने वाले रहेंगे तब तक यह भाषा मृत नही हो सकती ! आम जन जीवन मे आज भी जिंदा है ! हाँ यह युग खत्म होगा तब खत्म हो जाये तो कुछ कह नही सकते !

    मैँ भाई पित्सबर्गिया की इस बात से भी सहमत
    हू कि छोटे से छोटे गान्व कस्बे मे भी संस्कृत
    की सीडी अवश्य मिल जायेगी ! बेटी कितनी भी
    उन्नत हो जाये उससे माँ का महत्व कम नही
    होता बल्कि उसका महत्व बढता ही है !

    सबके अपने अपने विचार हो सकते हैँ ! पर मैँ
    किसी भी तरह ये मानने को तैयार नही हूँ कि
    संस्कृत मृतभाषा है ! हम तो सिधे साधे देहाती
    लोग हैँ पर इतना तो जानते ही हैँ कि हमारा
    कोई भी दिन तव्मेव माता च पिता तव्मेव्...
    की प्रार्थना करे बिना शुरु नही होता ! और
    ये श्लोक भी संस्कृत का ही है !
    और पित्सबर्गिया जी आपने जो रेडियो
    प्रसारण के बारे मे जानकारी दी उसके
    लिये भी धन्यवाद ! अगर संस्कृत इतनी
    ही मृत होती तो जर्मनी वालो को इसकी
    क्या जरुरत थी !

    आप सभी गुणी जनोँ का धन्यवाद !

    ReplyDelete
  11. "इक दिये —सा वजूद है मेरा
    तेरी राहों में जो जला जाए
    नीरज जी,
    लोहे और इस्पात की भट्टियों के बीच में रहते हुए भी आप साहित्य के दिए की ठंडी रौशनी को जगमग किए हुए हैं - इसके लिए बधाई. एक टिप्पणी पहले छोडी थी मगर उसमें शायद अपने उदगार ठीक से व्यक्त न कर सका था. बहुत सुंदर कविता है - एक और हो जाए तो कैसा रहे?"

    आप का मेरी पोस्ट पर दिया ये कमेन्ट मुझे अभिभूत कर गया...आप को रचना पसंद आयी जान कर अपार हर्ष हुआ...जल्द ही एक ग़ज़ल और पोस्ट करूँगा. आप ऐसे ही स्नेह बनाये रखिये.
    नीरज

    ReplyDelete
  12. संस्कृत में इतना जीवन है कि वह कभी शेष नहीं हो सकता। एक भी व्यक्ति बोलने वाला न हो। पढ़ने और समझने वाले हमेशा रहेंगे। हमेशा इसे पढ़ने और समझने की जरूरत रहेगी। ऐसी भाषा को मृत कहना बुद्धि का दिवालियापन है। संस्कृत तो अमर भाषा है।

    ReplyDelete
  13. आपके विचारों से इत्तेफाक रखता हूँ पर सच्चाई ये भी है कि विगत वर्षों में इस भाषा की लोकप्रियता में भी कोई वृद्धि नहीं हुई है। सजीव ने सही कहा कि जब तक हम अपनी भारतीय भाषाओं को सजों कर रखेंगे , संस्कृत हमारे मन में बनी रहेगी।

    ReplyDelete
  14. अनुराग जी मैं आपकी बात से पूरी तरह सहमत हूँ |

    ReplyDelete
  15. बहुत उम्दा जानकारी मिली यहाँ ! क्रपय्या
    इसी तरह लिखते रहिये ! आपका बहुत
    शुक्रिया !

    ReplyDelete
  16. बेटी कितनी भी
    उन्नत हो जाये उससे माँ का महत्व कम नही
    होता बल्कि उसका महत्व बढता ही है !
    kaash sub log yeh baat samajate ,phir koyi bhi ek ma ke,ek biwi ke dil ko nahin dukhata.

    ReplyDelete
  17. बेटी कितनी भी
    उन्नत हो जाये उससे माँ का महत्व कम नही
    होता बल्कि उसका महत्व बढता ही है !

    ReplyDelete
  18. आपकी पोस्ट प्रभावित करती है
    इस पोस्ट से पूर्व छपी कविता भी अच्छी लगी
    बधाई स्वीकारें

    ReplyDelete
  19. गांव में रेडियो पर जब भी संस्कृत में समाचार पढ़ा जाता है अब भी मन से सुनता हूँ :)

    ReplyDelete

मॉडरेशन की छन्नी में केवल बुरा इरादा अटकेगा। बाकी सब जस का तस! अपवाद की स्थिति में प्रकाशन से पहले टिप्पणीकार से मंत्रणा करने का यथासम्भव प्रयास अवश्य किया जाएगा।