Tuesday, July 29, 2008
हज़ार साल छोटी बहन
संस्कृत व फारसी की समानता पर लिखी मेरी पोस्ट "पढ़े लिखे को फारसी क्या?" आपने ध्यान से पढी इसका धन्यवाद। सभी टिप्पणीकारों का आभारी हूँ कि उन्होंने मेरे लेखन को किसी लायक समझा। एकाध कमेंट्स पढ़कर ऐसा लगा जैसे भाषाओं की समानता से हटकर हम कौन किसकी जननी या बहन है पर आ गए। दो-एक बातें स्पष्ट कर दूँ - भाषायें कोई जीवित प्राणी नहीं हैं और वे इंसानों जैसे दृढ़ अर्थ में माँ-बेटी या बहनें नहीं हो सकती हैं। बाबा ने शायद काल का हिसाब रखते हुए संस्कृत को माँ कहा था। याद रहे कि उनका कथन महत्वपूर्ण है क्योंकि वे दोनों भाषायें जानते थे। फिर भी, अब जब हमारे एक प्रिय बन्धु ने नया मुद्दा उठा ही दिया है तो इस पर बात करके इसे भी तय कर लिया जाय। जितने संशय मिटते चलें उतना ही अच्छा है। जब तक संशय रहेंगे हम मूल विषय से किनाराकशी ही करते रह जायेंगे।
भाषाविदों के अनुसार संस्कृत और फ़ारसी दोनों ही भारोपीय (इंडो-यूरोपियन) परिवार के भारत-ईरान (इंडो-इरानियन) कुल में आती हैं। संस्कृत इस परिवार की प्राचीनतम भाषाओं में से एक है और सबसे कड़े अनुमानों के अनुसार भी ईसा से १५०० वर्ष पहले अस्तित्व में थी। अधिकाँश लोगों का विश्वास है कि बोली (वाक्) के रूप में इसका अस्तित्व बहुत पहले से है। इसके विपरीत ईरानी भाषा का प्राचीनतम रूप ईसा से लगभग ५०० वर्ष पहले अस्तित्व में आया। स्पष्ट कर दूँ कि यह रूप आज की फारसी नहीं है। आज प्रचलन में रही फारसी भाषा लगभग ८०० ईसवी में पैदा हुई। इन दोनों के बीच के समय में अवेस्ता की भाषा चलती थी. अगर इन तथ्यों को भारतीय सन्दर्भ में देखें तो फारसी का प्राचीनतम रूप भी महात्मा बुद्ध के काल में या उसके बाद अस्तित्व में आया.
भाषाविदों में इस विषय पर कोई विवाद नहीं है कि भारतीय-ईरानी परिवार में संस्कृत से पुरानी कोई भाषा नहीं है। जो संस्कृत हम आज बोलते, सुनते और पढ़ते हैं, उसको पाणिनिकृत व्याकरण द्वारा ४०० ईसा पूर्व में बांधा गया। ध्यान रहे कि यह आधुनिक संस्कृत है और भाषा एवं व्याकरण इससे पहले भी अस्तित्व में था। भाषाविद मानते हैं कि फारसी/पहलवी/अवेस्ता से पहले भी इरान में कोई भाषा बोली जाती थी। क्या अवेस्ता की संस्कृत से निकटता ऐसी किसी भाषा की तरफ़ इशारा करती है?
ज्ञानदत्त जी के गुस्से को मैं समझ सकता हूँ और बहुत हद तक उनकी बात "फारसी को बराबरी पर ठेलने की क्या जरूरत थी" से सहमत भी हूँ। मगर सिर्फ़ इतना ही निवेदन करूंगा कि कई बार निरर्थक प्रश्नों में से भी सार्थक उत्तर निकल आते हैं। चिंता न करें, पुरखों की गाय पर भी चर्चा होगी, कभी न कभी। याद दिलाने का धन्यवाद।
हमारे बड़े भाई अशोक जी ने आर्यों के मध्य एशिया से दुनिया भर में बिखरने का ज़िक्र किया है, आगे कभी मौका मिला तो इस पर भी बात करेंगे। लेकिन तब तक संस्कृत फ़ारसी की बहन है या माँ - इसका फैसला मैं आप पर ही छोड़ता हूँ। हाँ अगर बहन है तो दोनों बहनों में कम-स-कम एक हज़ार साल का अन्तर ज़रूर है। इसके अलावा फारसी में संस्कृत के अनेकों शब्द हैं जबकि इसका उलटा उदाहरण नहीं मिलता है।
चलते चलते एक सवाल: क्या आप बता सकते हैं कि पहला संस्कृत रेडियो प्रसारण किस स्टेशन ने और कब शुरू किया था?
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संतुलित आलेख है आप का। दृष्टिकोण भी वैज्ञानिक। सभी भाषाओं को मनुष्य ने ही जन्म दिया है। इस लिए सभी बहनें हीं हैं। कुछ दूर की कुछ पास की। जो जितनी पुरानी हैं उतनी ही समृद्ध हैं। सभी अभिव्यक्ति का माध्यम हैं। लेकिन पुरातन होने से कोई भी भाषा अभिव्यक्ति के लिए पूरी तरह समर्थ नहीं हो सकती। क्यों कि यह अभिव्यक्ति का संपूर्ण माध्यम नहीं है। इसी कारण बात करते समय लोग मुद्राएँ बनाते हैं, हाथो के संकेतों का प्रयोग करते हैं आदि आदि। अभिव्यक्ति का संपूर्ण माध्यम न होने के कारण। मनुष्य इसे अधिक उपयोगी बनाने के लिए सतत प्रयत्नशील रहता है। नतीजा है कि भाषा निरंतर परिवर्तित होती रहती है और नयी भाषाएँ जन्म लेती रहती हैं।
ReplyDeleteबात सच है कि ये मुद्दा बहुत गहन है। ठोस सबूत शायद बहुत ही कम मिलें आज, अंगरेजों ने बहुत से सबूत बरबाद किये हैं। संग्रहालयों में कुछ मिल जाये शायद? मैं इस विषय पर पकड़ नहीं रखता हूं, इसलिये यहीं पर अपनी बात खत्म करते हुये सिर्फ इतना ही कहूंगा - आज हमें संस्कृत और संस्कृति सीखने की अधिक आवश्यकता है। यदि संस्कृत सीखने से आम जनता और देश का फायदा हो सकता है तो क्या फर्क पड़ता है कि वो फारसी कि मां है या बहन?
ReplyDelete"इसके विपरीत ईरानी भाषा का प्राचीनतम रूप ईसा से लगभग ५०० वर्ष पहले अस्तित्व में आया।"
ReplyDeleteजब बात चली ही है तो अगर आप इसको अवेस्ता वाली ईरानी भाषा न मानें तब ठीक है । अन्यथा इसका मतलब है कि अवेस्ता भी ५०० ईसा पूर्व के समकालीन है जिसे कोई भी इतिहासविद/भाषाविद नहीं मानेगा ।
Conservative estimate से भी अवेस्ता कम से कम ऋगवेद के समकालीन है (अगर ऋगवेद के पुरानी नहीं तो) ।
मुझे इसमें बहस जैसी कोई बात नजर ही नहीं आती, अतः मैं अलग होता हूँ.
ReplyDeleteअच्छा विमर्श चल रहा है .मैं यह देख कर विस्मित रह गया कि ईरानियों के धरम ग्रन्थ अवेस्ता और ऋग्वेद में बहुत साम्य है भाषा ही नही पात्रों में भी -पर सिन्धु अब हिंदू हो गया ,इस पहेली में पुराइतिहास का एक बड़ा अध्याय छुपा हुआ है .
ReplyDeleteno offence, मैं किसी भी भाषा से जुड़ा नहीं हूँ और न ही मेरा कोई पूर्वाग्रह है - आप लोगों की टिप्पणियों से मुझे रोज़ नयी जानकारी मिल रही है
ReplyDeleteनीरज भाई,
१. मैंने आज तक कभी नहीं सुना-पढ़ा कि अवेस्ता वेदों से पुरानी हो सकती हैं - यह मेरे लिए एकदम नयी बात है. एनसाइक्लोपिडिया ब्रिटैनिका के अनुसार अवेस्ता छठी शती ईसा पूर्व से अस्तित्व में आयी थी. हालांकि पहले हमारी बात फारसी की हो रही थी (मगर जब बात आ ही गयी है तो...) . मुझे आपकी बात में संदेह नहीं है. हो सकता है कि अवेस्ता वेदों की तरह श्रुति रूप में पहले से अस्तित्व में रही हों मगर वह भाषा फर्क हो सकती है और भाषांतर (ह->ज; स->ह; व->b आदि) लिप्यांतर के कारण भी हो सकता है. संस्कृत तो चल रही है परन्तु दुर्भाग्य से पहलवी और अवेस्ता दोनों ही प्रचलन से बाहर हैं इसलिए हम और आप सिर्फ़ कयास ही लगा सकते है. एनसाइक्लोपिडिया ब्रिटैनिका के अनुसार:
"Of the ancient Iranian languages, only two are known from texts or inscriptions, Avestan and Old Persian, the oldest parts of which date from the 6th century BC. Avestan was probably spoken in northeastern Iran, and Old Persian is known to have been used in southwestern Iran. Other ancient Iranian languages must have existed,..."
अरविन्द भाई,
वेद और अवेस्ता में साम्यता है मगर एक अजीब सी बात भी है - अवेस्ता के देव अच्छे लोग नहीं हैं - इन्द्र भी दरअसल एक शत्रु है - देवता है अहुर (=असुर :- स->ह नियम के अनुसार) . ऐसा लगता है जैसे यह एक ही सिक्के के दो विपरीत पहलू थे.
अनुराग जी,
ReplyDeleteऐसा मालूम होता है कि मेरे कल की टिप्पणी को आप ने अन्यथा ले लिया! आप को चोट पहुँचाने या आप के बाबा के अनादर करने का मेरा कोई आशय नहीं था। यदि आप को ऐसा लगा तो मैं माफ़ी चाहता हूँ।
पुरानी पारसी (फ़ारसी तो वो अरबों के संसर्ग में आने के बाद कहाई) और संस्कृत को बहने कहने के पीछे मेरा तात्पर्य उनकी समान्तरता पर है। जो आपने स्वयं रेखांकित की है। और अशोक पाण्डेय जी ने भी अपनी टिप्पणी में बताया है। मैं अपनी राय में संस्कृत की बेटियाँ हिन्दी, मराठी, बंगला, पंजाबी मलयालम आदि भाषाओं को कहूँगा। जिनमें बाहु और बाज़ू जैसे समान्तर शब्द नहीं बिलकुल रूप परिवर्तित शब्द मिलते हैं जैसे विरूप का बुरा, कृषक का किसान, कश्यप का कछुआ आदि। ये मेरी राय है। आप हिन्दी और संस्कृत का कोई और भी रिश्ता मानने के लिए स्वतंत्र है।
दूसरी बात मैंने आप की बात को ग़लत नहीं कहा.. बस ये कहा कि प्रामाणिक नहीं है। मैक्समुलर ने वेदों का जो काल निर्णीत किया है वह मात्र एक अनुमान है ऐसा वह स्वयं कहते हैं। पुरानी पारसी का कालखण्ड जो भी हो भाषा में कोई ऐसा विशेष परिवर्तन नहीं हुआ है जिससे उसे दूसरी पीढ़ी का माना जा सके। मुझे स्वयं ये बात तार्किक लगती है कि आर्य (जिन्हे कहा जाता है यानी भारोपीय लोग) भारत से ईरान और योरोप में गए बजाय इसके कि मध्येशिया से फैले मगर इसे अधिकतर लोग नकारते हैं.. इसके पक्ष में मैने एक लेख लिखा था..चाहे तो यहाँ देखें ..
अंत में एक बात और आप जब टिप्पणी आमंत्रित करते हैं तो दूसरों की राय माँगते हैं। मैंने विषय पर अपनी राय ही तो दी थी आप को कोई गाली तो नहीं दी। फिर भी अगर आप को इस तरह की बात आप का व्यक्तिगत अपमान लगता है तो मैं आगे से आप के चिट्ठे पर टिप्पणी करने से बचूँगा।
सादर
अभय भाई,
ReplyDeleteमैं खफा होने वालों में बिल्कुल नहीं हूँ. अपनी तो दुश्मनों से भी दुआ-सलाम है, आप तो मेरे छोटे भाई जैसे हैं. अगर मेरे किसी भी कथन से आपको अपनी मौजूदगी अवांछित लगी तो यह मेरी भाषा की कमी हुई और मैं आइन्दा इसके बारे में और चौकन्ना रहूँगा.
आपने एक राय रखी और मैंने उसका ही एक और पहलू सामने रखा - उद्देश्य सिर्फ़ शंका-निर्मूलन है. आपकी टिप्पणियों और लेखों से भी मैं उतना ही सीख रहा हूँ जितना अपने बुजुर्गों से सीखा है.
आते रहिये, बहसें तो चलती रहेंगी, कभी कभी कटाक्ष भी होते रहेंगे (मजाक करना मेरी आदत में शुमार है), मगर याद रखिये - चुप रहने वाले शिक्षक से बोलने वाला शिक्षक बेहतर है क्योंकि वह समाज को बदलता है. हाँ अगर मेरा प्रमाणिकता वाला मजाक पसंद नहीं आया तो आज से मजाक बंद!
Blessings!
इस विषय पर मेरी जानकारी नही के बराबर है।लेकिन आप का लेख पढ़ कर और साथीयॊ की टिप्पणीयां पढ़ कर अच्छा ज्ञानवर्धन हो रहा है।इसे जारी रखे।आप सभी का धन्यवाद।
ReplyDeleteअति उत्तम आलेख और सार्थक परिचर्चा.
ReplyDeleteलाभान्वित हो रहें हम भी.
और कया कहे की चर्चा जारी रहे.
achcha lekh likha hai
ReplyDelete"चुप रहने वाले शिक्षक से बोलने वाला शिक्षक
ReplyDeleteबेहतर है क्योंकि वह समाज को बदलता है. !
हाँ अगर मेरा प्रमाणिकता वाला मजाक पसंद
नहीं आया तो आज से मजाक बंद!"
मित्र पितस्बर्गिया , आप का विषय और मजाक
दोनों सार वान् होते हैं ! आप शुरू से ही बड़ी
ज्ञान दायक और सुरुची पूर्ण विषय पर लिखते
आ रहे हैं ! शब्दों से यात्रा अपनी संसकृति तक
जाती है ! आपसे निवेदन है की आप अबाध
गति से इसी तरह सारवान विषय पर जानकारी
देते रहें ! आपका बहुत बहुत धन्यवाद !
चलते चलते एक सवाल:- के बारे में मुझे सिर्फ़
इतनी जानकारी है की यह सर्व प्रथम जर्मनी
में शुरू हुआ था ! समय आदि की निश्चित
जानकारी नही है ! पर मुझे ऐसा याद आ रहा
है की OPPENHEIMIR नामक वैज्ञानिक बम आदि घटनाओं से त्रस्त हो कर गीता को पढ़ने के लिए संस्कृत सीखी थी ! शायद उस घटना से सम्बद्ध हो !
पर आपसे निवेदन है की इस विषय पर पुरी
जानकारी अवश्य देवे ! अब दिमाग में नई
खटखट आपने शुरू कर दी है ! कृपया
इसकी जानकारी अवश्य और जल्दी दें !
पुन: आपको धन्यवाद और शुभकामनाए !
अगर बहन भी मान ले तो एक प्राकृतिक रूप से
ReplyDeleteबड़ी होगी ही ! भले ही वो आधा घंटा बड़ी हो !
और यहाँ तो इतिहास आदि साफ़ साफ़ इशारा
करते हैं की असलियत क्या है ? और इसमे
लेखक की ये बात ज्यादा दम रखती है की
अन्तर एक हजार साल का होगा ! और है भी !
बात को कहने ओर उसे समझाने की गहरी पकड़ आपकी लेखनी में है...बाकी सभी लोग इस विषय पर कह चुके है...
ReplyDeleteअनुराग भाई, मेरी टिप्पणी से यदि आप आहत हुए हों तो कृपया क्षमा करेंगे। विदेश में रहकर भी आप हमारी भारतीय संस्कृति की बात करते हैं, आपका आहत महसूस करना हमारे लिये भी उतना ही कष्टदायी है। मेरा उद्देश्य विमर्श को सिर्फ आगे बढ़ाना था, आपकी बात को काटना नहीं। जहां मैं असहमति के लिए स्पेस नहीं देखता, खुद ही टिप्पणी करने से बचता हूं। अभय भाई का उद्देश्य भी शायद बात को आगे बढ़ाना ही था, काटना नहीं। सादर व साभार।
ReplyDeleteमैं यहां यही कहना चाहता हूं कि "इतिहास" का प्रयोग कर कई लोग अपने पूर्वाग्रहों को कन्वोल्यूटेड लॉजिक के माध्यम से इतिहास सम्मत बताते हैं। यह मार्क्सवादी विचार वाले भी करते हैं और हिन्दू फण्डामेण्टलिस्ट भी।
ReplyDeleteएक विचारधारा के परिपोषण में इतिहास का दुष्प्रयोग नहीं होना चाहिये। भारतीय सभ्यता, संस्कृति और उसकी एडॉप्टिबिलिटी की क्षमता सशक्त है। उसका डेलीबरेट डिनिग्रेशन निन्दनीय है। ठीक उसी प्रकार जैसे इस सभ्यता के समक्ष अन्य सब को छोटा समझना गलत है।
संस्कृत के समक्ष फारसी को न्यून समझना मेरा ध्येय नहीं है। बल्कि एक भाषा के समक्ष दूसरी को कमतर आंकना सही नहीं है।
पर संस्कृत की प्राचीनता में किसी कन्वोल्यूटेड तर्क से पानी मिलाना भी ठीक नहीं। यह टिप्पणी कृपया पिछली पोस्ट पर की गयी टिप्पणी के सन्दर्भ में देखने का कष्ट करें।
मैं इस विषय पर पकड़ नहीं रखता हूं, इस लिये आप लोगो की बात ही धयान से पढ रहा हू,
ReplyDeleteधन्यवाद
hajaar ya sastra saal chhoti bahan hi sahi... badi bahan hamesha maan ke samaan hoti hai... ma ho ya bahan, badi to badi hi rahegi na...
ReplyDeleteबड़ी सुरुचिपूर्ण और ज्ञान वर्धक चर्चा यहाँ
ReplyDeleteचल रही है ! मेरे जैसे कुछ लोग जिनको
इस विषय पर समझ नही है वो कुछ भी
कहने से बच रहें हैं ! पर मैं आप सभी
विषय के जानकारों से निवेदन करना
चाहता हूँ की कृपया किसी भी मुद्दे को
व्यक्तिगत तौर पर ना लेकर विषय पर
चर्चा जारी रखें तो हम जैसे लोग भी
इसकी जान कारी प्राप्त कर सकेंगे ! आप
क्रपय्या ये ना समझे की दुसरे चुप बैठे
हैं तो हम क्यों बोले ? दुसरे भी विषय
को समझना चाहते हैं ! और वो आपकी
बात सुनना चाहते हैं !
मैं विशषत: आ. दिनेश राय जी द्विवेदीजी ,
ज्ञान दत्त जी पांडेजी , अशोक पांडे जी
एवं भाई अभय तिवारी जी से अनुरोध
करना चाहूँगा की आप लोगों को इस
विषय का ज्ञान है ! आपके वक्तव्य
बहुत सारवान हैं ! और ये हम सब की
धरोहर रहेंगे ! अत: आप अपने विचार
और व्यक्त करें तो सभी लाभान्वित भी
होंगे और ज्ञान का विस्तार भी होगा !
इसमे सहमत और असहमत होने का
सवाल नही हैं !
आप सभी को और भाई पित्सबर्गिया
को विशेष तौर पर धन्यवाद देना
चाहूँगा की उनके चुने हुए विषय
इस स्तर के होते हैं की हम जो नही
समझ पा रहे हैं वो भी समझने की
कोशीश कर रहे हैं ! और आप गुणी
जनों से संवाद स्थापित करने का
मौका मिल रहा है !
धन्यवाद !
बहुत समय के बाद किसी गम्भीर विषय पर कोई चर्चा देखने को मिली। पढ कर अच्छा लगा।
ReplyDeleteलेख भी पढ़ा और सभी कि टिप्पणियाँ भी.
ReplyDeleteसही बात तो ये है कि भाषाओँ के सम्बन्ध में अपना ज्ञान भी शुन्य है हालाँकि MA हिंदी करते हुए इस बारे में पढा जरूर पर ...........
इस लेख से अच्छी जानकारी मिली . बहस के चक्कर में मैं पड़ना नहीं चाहता
वाद-विवाद से ही संवाद बनता है , आप समय-समय पर विचार का जो छोंक लगते हैं अच्छा लगता है.मैं भी मानता हूँ , संस्क्रत प्राचीन है.और वेद भी. इस विषय पर भी अवश्य विचार करें कि वेद आज घरों से लुप्त क्यों ?
ReplyDeleteआशा है आप ज्ञानवर्धक कैप्सूल लोगों को देते रहेंगे.
यहाँ एक शहर है जहां सिर्फ संस्कृत में ही बातचीत होती है - कन्नडा नहीं बोली जाती |आम बोलचाल की भाषा भी संस्कृत है - छोटे बच्चे से लेकर बड़े लोगों तक ...
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