कुछ लोगों की महानता छप जाती है, कुछ की छिप जाती है।
28 अगस्त 1963 को मार्टिन लूथर किंग (जू) ने प्रसिद्ध "मेरा स्वप्न" भाषण दिया था |
उडीसा का चक्रवात हो, लातूर का भूकम्प, या हिन्द महासागर की त्सुनामी, लोगों का हृदय व्यथित होता है और वे सहायता करना चाहते हैं। बाढ़ में किसी को बहता देखकर हर कोई चाहता है कि उस व्यक्ति की जान बचे। कुछ लोग तैरना न जानने के कारण खड़े रह जाते हैं और कुछ तैरना जानते हुए भी। कुछ तैरना जानते हैं और पानी में कूद जाते हैं, कुछ तैरना न जानते हुए भी कूद पड़ते हैं।
भारत का इतिहास नायकत्व के उदाहरणों से भरा हुआ है। राम और कृष्ण से लेकर चाफ़ेकर बन्धु और खुदीराम बसु तक नायकों की कोई कमी नहीं है। भयंकर ताप से 60,000 लोगों के जल चुकने के बाद बंगाल का एक व्यक्ति जलधारा लाने के काम पर चलता है। पूरा जीवन चुक जाता है परंतु उसकी महत्वाकान्क्षी परियोजना पूरी नहीं हो पाती है। उसके पुत्र का जीवनकाल भी बीत जाता है। लेकिन उसका पौत्र भागीरथ हिमालय से गंगा के अवतरण का कार्य पूरा करता है। एक साधारण तपस्वी युवा सहस्रबाहु जैसे शक्तिशाली राजा के दमन के विरुद्ध खड़ा होता है और न केवल आततायियों का सफ़ाया करता है बल्कि भारत भर में आततायी शासनों की समाप्ति कर स्वतंत्र ग्रामीण सभ्यता को जन्म देता है, कुल्हाड़ी से जंगल काटकर नई बस्तियाँ बसाता है, समरकलाओं को विकसित करके सामान्यजन को शक्तिशाली बनाता है और ब्रह्मपुत्र जैसे महानद का मार्ग बदल देता है।
भारत के बाहर आकर देखें तो आज भी श्रेष्ठ नायकत्व के अनेक उदाहरण मिल जाते हैं। दक्षिण अफ़्रीका की बर्बर रंगभेद नीति खत्म होने की कोई आशा न होते हुए भी बिशप डेसमंड टुटु उसके विरोध में काम करते रहे और अंततः भेदभाव खत्म हुआ। अमेरिका में मार्टिन लूथर किंग जूनियर ने भी भेदभावरहित विश्व का एक ऐसा ही स्वप्न देखा था। पोलैंड के दमनकारी कम्युनिस्ट शासन द्वारा किये जा रहे गरीब मज़दूरों के शोषण के विरुद्ध एक जननेता लेख वालेसा आवाज़ देता है और कुछ ही समय में जनता आतताइयों का पटरा खींच लेती है। चेन रियेक्शन ऐसी चलती है कि सारे यूरोप से कम्युनिज़्म का सूपड़ा साफ़ हो जाता है।
महाराणा प्रताप हों या वीर शिवाजी, एक नायक एक बड़े साम्राज्य को नाकों चने चबवा देता है, एक अकेला चना कई भाड़ फोड़ देता है। एक तात्या टोपे, एक मंगल पाण्डेय, एक लक्ष्मीबाई, ईस्ट इंडिया कम्पनी का कभी अस्त न होने वाला सूरज सदा के लिये डुबा देते हैं।
हमारे नये आन्दोलन की प्रेरणा गुरु गोविन्द सिंह, शिवाजी, कमाल पाशा, वाशिंगटन, लाफ़ायत, गैरीबाल्डी, रज़ा खाँ और लेनिन हैं।कुछ लोग सत्कर्म न कर पाने का दोष धन के अभाव को देते हैं जबकि कुछ लोग धन के अभाव में (या धन-दान के साथ-साथ) नियमित रक्तदान करते हैं। कुछ लोग बिल गेट्स द्वारा विश्व भर में किये जा रहे जनसेवा कार्यों से प्रेरणा लेते हैं और कुछ लोग उसे पूंजीवाद की गाली देकर अपनी अकर्मण्यता छिपा लेते हैं। स्वतंत्रता सेनानियों को ही देखें तो दुर्गा भाभी, भगत सिंह, चन्द्रशेखर आज़ाद सरीखे लोगों को शायद हर कोई नायक ही कहे लेकिन कुछ नेता ऐसे भी हैं जिनका नाम सुनते ही लोग तुरंत ही दो भागों में बँट जाते हैं।
~ भगत सिंह व बटुकेश्वर दत्त
सहस्रबाहु, हिरण्यकशिपु, हिटलर, माओ, लेनिन, स्टालिन, सद्दाम हुसैन, मुअम्मर ग़द्दाफ़ी जैसे लोगों को भी कुछ लोगों ने कभी नायक बताया था। वे शक्तिशाली थे, उन्होंने बडे नरसंहार किये थे और जगह-जगह पर अपनी मूर्तियाँ लगाई थीं। शहरों के नाम बदलकर उनके नाम पर किये गये थे। लेकिन अंत में हुआ क्या? बड़े बेआबरू होकर तेरे कूचे से हम निकले। उनके पाप का घड़ा भरते ही इनकी मूर्तियाँ खंडित करने में महाबली जनता ने क्षण भर भी न लगाया।
नायकत्व की बात आते ही बहुत से प्रश्न सामने आते हैं। नायकत्व क्या है? क्या एक का नायक दूसरे का खलनायक हो सकता है? और सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न, नायक कैसे बनते हैं? और खलनायक कैसे बनते हैं?खलनायक बनने के बहुत से कारण होते हैं। अहंकार, असहिष्णुता, स्वार्थ, कुंठा, विवेकहीनता, स्वामिभक्ति, ग़लत विचारधारा, अव्यवस्था, कुसंगति, संस्कारहीनता, ... सूची बहुत लम्बी हो जायेगी। आपको भी खलनायकों के कुछ अन्य दुर्गुण याद आयें तो अवश्य बताइये।
बहुत सी बातें ऐसी भी हैं जो खलनायकत्व का कारण तो नहीं हैं पर इस दुर्गुण को हवा अवश्य दे सकती हैं। इनमें से एक है अनोनिमिटी। डाकू अपना चेहरा ढंककर निर्भय महसूस करते हैं और आभासी जगत में कई लोग बेनामी होने की सुविधा का दुरुपयोग करते हैं। कुछ अपना सीमित परिचय देते हुए भी अपनी राजनीतिक विचारधारा को कुटिलता से छिपाकर रखते हैं ताकि उनकी विचारधारा के प्रचार और विज्ञापनों को भी लोग निर्मल समाचार समझकर पढते रहें।
निरंकुश शक्ति भी खलनायकों की दानवता को कई गुणा बढ़ा देती है। सभ्यता के विकास के साथ ही समाज में सत्ता की निरंकुशता के दमन की व्यवस्था करने के प्रयास होते रहे हैं। राजाओं पर अंकुश रखने के लिये मंत्रिमण्डल बनाना हो या श्रम, ज्ञान और पूंजी पर से सत्ता का नियंत्रण हटाना हो, आश्रम व्यवस्था द्वारा प्रत्येक व्यक्ति को सामाजिक ज़िम्मेदारियों से जोड़ना हो या उससे भी आगे बढ़कर राजाविहीन गणराज्यों की प्रणाली बनानी हो, भारतीय परम्परा द्वारा सुझाये और सफलतापूर्वक अपनाये गये ऐसे कई उपाय हैं जिनसे तानाशाही के बीज को अंकुरित होने से पहले ही गला दिया जाता था। आसुरी व्यवस्था में जहाँ शासक सर्वशक्तिमान होता था वहीं सुर/दैवी व्यवस्था में मुख्य शासक की भूमिका केवल एक प्रबन्धक की रह गयी। सभी विभाग स्वतंत्र, सभी जन स्वतंत्र। सबके व्यक्तित्व, गुण और विविधता का पूर्ण सम्मान और निर्बन्ध विकास। असतो मा सद्गमय की बात करते समय सबकी व्यक्तिगत स्वतंत्रता की बात याद रखना बहुत ज़रूरी है। तानाशाही की बात करने वाली विचारधारा में अक्सर व्यक्तिगत विकास, व्यक्तिगत सम्मान, व्यक्तिगत सम्पत्ति, और व्यक्तिगत स्वतंत्रता, सम्बन्ध, और विचारों के दमन की ही बात होती है। मरने के लिये मज़दूर, किसान और नेतागिरी के लिये कलाकार, लेखक, वकील, पत्रकार और बन्दूकची? सत्ता हथियाने के बाद उन्हीं का दमन जिनके विकास के नाम पर सत्ता हथियायी गयी हो? यह सब चिह्न खलनायकत्व की, दानवी और तानाशाही व्यवस्थाओं की पहचान आसान कर देते हैं। आसुरी व्यवस्था की पहचान अपने पराये के भेद और परायों के प्रति घृणा, असहिष्णुता और अमानवीय दमन से भी होती है।
जहाँ खलनायकत्व और तानाशाही को पहचानना आसान है वहीं नायकत्व को परिभाषित करना थोडा कठिन है। दो गुण तो मुझे अभी याद आ रहे हैं। पहला तो है निर्भयता। निर्भय हुए बिना शायद ही कोई नायक बना हो। परशुराम से लेकर बुद्ध तक, चाणक्य से लेकर मिखाइल गोर्वचोफ़ तक, पन्ना धाय से रानी लक्ष्मीबाई तक, जॉर्ज वाशिंगटन से एब्राहम लिंकन तक, बुद्ध से गांधी तक सभी नायक निर्भय रहे हैं। क्या आपको कोई ऐसा नायक याद है जो भयभीत रहता हो?
मेरी नज़र में नायकत्व का दूसरा महत्वपूर्ण और अनिवार्य गुण है, उदारता। उदार हुए बिना कौन जननायक बन सकता है। हिटलर, माओ या स्टालिन जैसे हत्यारे अल्पकाल के लिये कुछ लोगों द्वारा भले ही नायक मान लिये गये हों, आज दुनिया उनके नाम पर थू-थू ही करती है। निर्भयता और उदारता के साथ साहस और त्याग स्वतः ही जुड जाते हैं।
मिलजुलकर नायकत्व के अनिवार्य और अपक्षित गुणों को पहचानने का प्रयास करते हैं अगली कड़ी में। क्या आप इस काम में मेरी सहायता करेंगे?
[क्रमशः]
[मार्टिन लूथर किंग (जूनियर) का चित्र नोबल पुरस्कार समिति के वेबपृष्ठ से साभार]
अति सुन्दर सकारात्मक लेख है आपका.
ReplyDeleteअभय और उदारता नायकत्व के सुन्दर
दो गुण बताये हैं आपने.
श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय १६ में
'अभयं' दैवी सम्पदा का प्रथम लक्षण है.
अनुपम प्रस्तुति के लिए आभार.
समय मिलने पर मेरे ब्लॉग पर भी आईयेगा.
अन्ना हजारे की सफलता पर बधाई.
ReplyDeleteमैं एक बहुत अच्छी और रोचक श्रृंखला को पढ़ने जा रहा हूं, इस बात का पूर्ण विश्वास है.. निर्भय होना और उदार-उदात्त होना तो महान व्यक्तियों के गुण रहे ही हैं, इस कड़ी में आगे आप अन्य चीजों से भी परिचित करायेंगे..
ReplyDeleteसही कह रहे हैं आप नायक में ये गुण होना अनिवार्य है हमने आज तक किसी ऐसे नायक का नाम नहीं सुना जो भयभीत रहता हो ऐसे तो भारतीय फिल्मो के नायक ही हो सकते हैं पर वे भी बहुत बड़ी विपत्ति पड़ने पर साहसी हो जाते हैं .सार्थक पोस्ट सराहनीय आलेख.आभार
ReplyDeleteपहेली संख्या -४२
~~कुछ लोगों की महानता छप जाती है, कुछ की छिप जाती है।~~
ReplyDeleteआपके बताये गुणों के अतिरिक्त मुझे लगता है कि नायक होने के लिये शब्द से ज्यादा कर्म पर विश्वास करना(स्वयं उदाहरण बनना), दूरदर्शी होना, व्यक्तिगत हित से परे वृहत्तर हित को ध्यान में रखना, मानव-स्वभाव का अच्छा जानकार होना, आस्थावान होना, चरित्रबल का भी धनी होना, शरणागतवत्सल होना..मेरी लिस्ट तो बहुत लंबी होती जा रही है:)
ReplyDeleteअभी हाल ही में मेरे आल टाईम फ़ेवरेट हीरो ’सैम बहादुर’ पर एक authentic किताब पढ़कर हटा हूँ। उसमें उन्होंने स्क्रीनिंग करके चार\पांच गुण अति आवश्यक बताये हैं। लेकिन इतना फ़र्क तो सोच में रहेगा ही। उनका विज़न focussed था, अपना scattered.
भारतीय नागरिक से सहमत। और बहुत कुछ सीखने समझने को मिलेगा।
विचारोत्तेजक -चलिए साथ हैं इस विचार यात्रा पर
ReplyDeleteमजा आयेगा इस यात्रा में आपके साथ चलने में !
ReplyDeleteनिर्भय और उदात्त होने के साथ दूसरों के सम्मान की रक्षा भी नायकत्व का प्रमुख गुण है !
ReplyDeleteरोचक आलेख !
राकेश जी,
ReplyDeleteगीता का सन्दर्भ देने का आभार। दैवासुर सम्पदा विभाग पर फिर से एक नज़र डालता हूँ।
@ भारतीय नागरिक, शालिनी कौशिक, दीपक बाबा, अरविन्द मिश्र, आशीष श्रीवास्तव,
ReplyDeleteआप सभी का आभार!
संजय @ मो सम कौन,
ReplyDeleteआभार! कर्मयोग होना और वृहत्तर हित का ध्यान रखना निश्चित ही अनिवार्य विशेषतायें हैं। और उनकी सफलता के लिये दूरदर्शिता, आस्था, सच्चरित्रता, मानव-स्वभाव की जानकारी अवश्य ही सहायक सिद्ध होने वाली है।
सैम बहादुर की पुस्तक की एक सुन्दर समीक्षा अपने ब्लॉग पर रखने के बारे में क्या ख्याल है?
.
वाणी जी,
ReplyDeleteनिस्सन्देह, दूसरों के सम्मान की रक्षा भी नायकत्व का एक प्रमुख गुण है। आभार!
नायक होने की सबसे पहली मांग है -- निस्स्वार्थ हो कर सत्य का साथ देने की मानसिक अवस्था | यदि आप स्वार्थ या असत्य के पथ पर हों, तो बाकी सारे गुण गौण हो जाते हैं | और यदि आप निस्स्वार्थ हो कर सत्य मार्ग पर हैं, तो बाकी गुण पहले कम भी रहे हों तो अब बढ़ आते हैं, जैसे उपयुक्त स्थितियों में पौधा फलता फूलता है |आवश्यक है कि "कर्मण्येवाधिकार ... " की राह पर कर्म हो, नायक होने की आस पर नहीं
ReplyDeleteउदाहरण के लिए , यदि मैं भ्रष्टाचार का विरोध सिर्फ इसलिए कर रही हूँ कि मुझे अपने पुत्र के एडमिशन के लिए डोनेशन ना देना पड़े, तो यह सत्य का साथ तो है - पर निस्स्वार्थ नहीं | तो यह कार्य सम्मान तो देगा, पर नायकत्व नहीं | किन्तु यही कार्य यदि मैं अपने लिए नहीं बल्कि समाज के हित में करूँ, (ज़रूरी सत्य और स्वार्थहीनता की शर्तों के साथ ही ) तो यह मुझे मुझे (शायद) नायकत्व की ओर ले जाए |
हाँ - यदि कोई व्यक्ति "नायक जैसे " काम कर रहा है - क्योंकि वह नायक कहलाना / माना जाना / फेमस होना चाह रहा है - तो भले ही वह नायक के रूप में स्थापित हो भी जाए समाज में, किन्तु सही अर्थों में वह सिर्फ नायक का रोल प्ले करने वाला एक अभिनेता है - सच्चे अर्थों में नायक नहीं है |
ReplyDeleteबिल्कुल, सच्चा नायक अपने उद्देश्य को अपनी छवि से कहीं ऊपर रखेगा बल्कि मैं तो यही कहूंगा कि एक नायक का मूल्यवान समय छविनिर्माण में व्यर्थ करने के लिये नहीं है।
Deleteसमाज में दोनों ही तरह के लोग हैं लेकिन बाक़ी इनके पीछे हो भर लेते हैं. सबके अपने अपने तर्क होते हैं.
ReplyDelete@ पुस्त्क समीक्षा:
ReplyDeleteख्याल तो नेक है और विचाराधीन था भी, अब जरूर होगा। समय लगेगा लेकिन यह काम करना है मुझे।
उत्प्रेरित करने के लिये आपका धन्यवाद।
कहाँ है पुस्तक, कहाँ है समीक्षा?
Deleteबहुत सुन्दर आलेख,नागालेंड की रानी गिदालू ने 13 वर्ष की आयु में विदेशी शासन के खिलाफ विद्रोह किया।1932 में यह युवा रानी पकड़ी गयी और उसे आजीवन कारावास की सजा मिली।रानी की पूरी जवानी असम की जेलों की अँधेरी कोठरियों में गुजर गई और उसे 1947 में स्वतंत्र भारत की सरकार ने मुक्त किया।
ReplyDeleteउसके बारे में जवाहर लाल नेहरु ने 1937 में लिखा था
"एक दिन आएगा जब भारत उसे याद करेगा और उसका सम्मान करेगा।" पर कितने लोग यह सब जानते हैं?
सच कह रहे हैं, सारा इतिहास छप छिप हो गया है।
ReplyDeleteऔर सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न, नायक कैसे बनते हैं? और खलनायक कैसे बनते हैं?
ReplyDeleteमेरे हिसाब से नायक और खलनायक के निर्धारण के लिये उस व्यक्ति की अंतिम परिणीति क्या रही? शायद ये बात ज्यादा कारगर और महत्वपूर्ण होगी.
रामराम.
बेहतरीन शुरुआत करने जा रहे हैं आप,आशा है बहुत कुछ सीखने -जानने का अवसर मिलने वाला है,आभार.
ReplyDeleteरोहित जी,
ReplyDeleteमेरा अनुरोध है कि नागालेंड की रानी गिदालू के बारे में आप कुछ लिखिये। पूर्वोत्तर राज्यों के गौरवमय इतिहास के बारे में हम हिन्दीभाषियों की जानकारी में कुछ इज़ाफ़ा होना ही चाहिये।
रोचक विषय का चुनाव कर बढ़िया आगाज किया है आपने। अंजाम से पहले कुछ और भी अच्छी पोस्ट आयेगी ऐसी उम्मीद हुई है।
ReplyDeleteनायक में गुण ही गुण और खलनायक में अवगुण ही अवगुण होते हैं, ऐसा नहीं है। खलनायक भी गुणों का खान हुआ करता है। भेद बस सोच में है। कौन मानव मात्र के कल्याण के लिए लड़ रहा है कौन सिर्फ अपने..अपनी जाति...अपने धर्म के लिए लड़ रहा है। किसकी लड़ाई कितनी मानवीय है कितनी अमानवीय। इन सब बातों का वृहद अध्ययन कर ही उसे नायक या खलनायक बनाया जा सकता है। जो नायक खल(दुष्ट)हो वही खलनायक कहाता है। रावण भी गुणों का खान था लेकिन खल होने के कारण खलनायक हो गया। याद रहे कि वह हमारे लिए ही खल था राक्षसों के लिए नहीं।
दूसरा.. जो मुझे लगता है कि नायक का चुनाव समय, काल, परिस्थितियाँ स्वयम् करती हैं। गाँधी को महात्मा मोहन दास करम चंद ने नहीं बनाया...समय ने बनाया। निःसंदेह उनके अंदर वे गुण सुप्तावस्था में छुपे थे लेकिन यह भी सत्य है कि वक्त ने उन गुणों की धार अपनी दांती में पैनी की।
हम अपने अंदर गुण विकसित करते रहें...सदाचरण में जीते रहें...वक्त को हमारी आवश्यकता होगी तो हमसे न चाहते हुए भी अपना नायक मांग ही लेगा।
...लगता है रौ में बहुत लिख गया। अब रूकता हूँ। गलत लिख गया हो तो जरूर बताइयेगा।
शिल्पा जी,
ReplyDeleteआपकी बात सही है। निस्वार्थ हुए बिना, अहंकार त्यागे बिना, मैं को हम में विलीन किये बिना नायकत्व की कल्पना करना एक मज़ाक जैसा ही है।
अनुराग जी,
ReplyDeleteआपके द्वारा आलेखित दो गुण निर्भयता और उदारता अपने आप में सम्पूर्ण है। दूसरे सारे गुण इन दो गुणों में समाहित है।
निर्भयता में ही छिपे है, आत्मविश्वास, आत्मश्रद्धा,मनोबल, वीरता, समता समरसता आदि सब। और उदारता में छिपे है, करूणा, क्षमा, अनुकंपा,आदर, दूरदृष्टि, सहनशीलता, लोकहित, निस्वार्थ-सेवा आदि आदि।
पढ़ रहा हूँ, सीख रहा हूँ, बोलने योग्य हुआ तो कहूँगा आगे।
ReplyDeleteअभी तो भारतीय नागरिक जी के शब्द दोहराता हूँ।
आभार
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ReplyDeleteनायक अपने प्रसिद्धि पर ध्यान नहीं देते बल्कि निर्भय हो अपने कर्म को उदारता से सबके सामने रखते है ! नायक के नयाक्तव का सुन्दर वर्णन ! बधाई !
ReplyDeleteटिप्पणी पोस्ट करते हुए नेट में कुछ समस्या दिखाई दी थी शायद वह टिप्पणी व्यर्थ हुई ...
ReplyDeleteअब संक्षिप्त कथन ये कि प्रविष्टि का एक लेबल और बनता है ...कल्याण या फिर लोककल्याण !
देवेन्द्र जी,
ReplyDeleteखलनायकों के गुण और नायकों के पक्ष में समय की बात, यह दोनों बातें सही होते हुए भी नायकत्व में इनसे आगे भी काफ़ी कुछ है। एक बिन्दु तो आपने ही दे दिया (मानवीय या अमानवीय)। इस चर्चा में मेरा प्रयास उन विशिष्ट गुणों की पहचान था जिनके बिना सच्चा नायकत्व कभी भी किसी भी समय आ ही नहीं सकता।
इतिहासकार अपना काम करेगा॥
ReplyDeleteअनुराग जी,
ReplyDeleteतब तो सच्चा नायकत्व वही है जो लोक-पीड़ा से द्रवित हो उठे। और उसे दूर करने के साहसी कदम उठाए।
छ्द्म नायक भी लोक-पीड़ा का विषय ही उठाता है, पर वह अपने स्वार्थहित उस का दोहन करता है।
सद् नायक लोक-पीड़ा का दोहन नहीं करता।
अनुराग जी ,
ReplyDeleteभारत के इतिहास सम्बन्धी पुस्तकों में उत्तरपूर्व के राज्यों का अत्यल्प उल्लेख है।संभवतः इसका कारण इन राज्यों की दुर्गम भौगोलिक स्थिति,संपर्क साधनों का अभाव तथा राजस्व की दृष्टि से उपयोगी न होना(तत्कालीन परिप्रेक्ष्य में)है।भारत के इस खुबसूरत भाग का गौरवमय इतिहास सहज सुलभ होना शेष है,तथापि नवीन,रोचक जानकारी प्राप्त होने पर अवश्य बात होगी।
सीखने को बहुत कुछ मिला, कहने का सामर्थ्य नहीं जुटा पा रहा.. नायक कोई अतिमानव होता हो ऐसा नहीं लगता.. जो आदर्श प्रस्तुत कर सके वही नायक है.. अब गुण चाहे जो भी हों, समाज को स्वीकार्य..
ReplyDeleteअन्ना के अनशन के अंतिम दिन राजू हिरानी ने मंच से कहा कि जब उसने मुन्ना भाई बनायी थी तब लगा था कि ऐसा हो सकता है क्या?? आज यहाँ आकार लगा कि ऐसा हो सकता है.. मुन्नाभाई भी हीरो या नायक हो सकता है जिसमें पारंम्परिक नायक के कोई भी गुण नहीं थे!!!
bahut hi achcha likha hai aapne......
ReplyDeleteअनुराग जी - रानी पर एक पोस्ट अभी पब्लिश की है | समय मिले तो पढियेगा - link दे रही हूँ |
ReplyDeletehttp://ret-ke-mahal-hindi.blogspot.com/2011/08/blog-post_30.html
निसंदेह उदारता के बिना जननायक नहीं बना जा सकता।
ReplyDelete'नायकत्व' और 'खलनायकत्व' जैसे अमूर्त विषय पर ऐसा, सांगोपांग आलेख। आनन्द आ गया।
ReplyDelete" रावण भी गुणों का खान था लेकिन खल होने के कारण खलनायक हो गया। याद रहे कि वह हमारे लिए ही खल था राक्षसों के लिए नहीं।"
ReplyDeleteरावण हर उस इंसान के लिए खलनायक था जिसे सही और गलत की पहचान थी, जैसे की विभीषण | उसके लिए रावण भाई होते हुए भी खलनायक था |
जैसे की युयुत्सु, जो की महाभारत में पांडवो की और से लड़ा | उसके लिए उसका भाई दुर्योधन नायक नहीं था, हाँ बाकि कौरवों के लिए जरूर था |
मेरी नजर में नायक होने का एक ही गुण काफी है, की किसि भी इंसान का किसी अच्छे काम के लिए कदम उठाना, और उस पर हर परिस्थिति में उसके लिए काम करना |
लेकिन यदि उसे पता लगे की उसका काम गलत है, तो तुरंत उसे छोड़ देना |
वैसे traditional sense में नायक में एक गुण जरूर होना चाहिए, अपने आस पास के लोगों में और नायक बनाना, इसकी कमी आजकल सर्वाधिक दिखती है |
जितने ज्यादा नायक आपके आसपास होंगे, काम उतना ही आसान होगा और लम्बे समय तक रहेगा |
जैसे राम के साथ में, हनुमान, अंगद, लक्ष्मण अदि अपने आप में नायक थे
" रावण भी गुणों का खान था लेकिन खल होने के कारण खलनायक हो गया। याद रहे कि वह हमारे लिए ही खल था राक्षसों के लिए नहीं।"
ReplyDeleteरावण हर उस इंसान के लिए खलनायक था जिसे सही और गलत की पहचान थी, जैसे की विभीषण | उसके लिए रावण भाई होते हुए भी खलनायक था |
जैसे की युयुत्सु, जो की महाभारत में पांडवो की और से लड़ा | उसके लिए उसका भाई दुर्योधन नायक नहीं था, हाँ बाकि कौरवों के लिए जरूर था |
मेरी नजर में नायक होने का एक ही गुण काफी है, की किसि भी इंसान का किसी अच्छे काम के लिए कदम उठाना, और उस पर हर परिस्थिति में उसके लिए काम करना |
लेकिन यदि उसे पता लगे की उसका काम गलत है, तो तुरंत उसे छोड़ देना |
वैसे traditional sense में नायक में एक गुण जरूर होना चाहिए, अपने आस पास के लोगों में और नायक बनाना, इसकी कमी आजकल सर्वाधिक दिखती है |
जितने ज्यादा नायक आपके आसपास होंगे, काम उतना ही आसान होगा और लम्बे समय तक रहेगा |
जैसे राम के साथ में, हनुमान, अंगद, लक्ष्मण अदि अपने आप में नायक थे
तरुण जी, आपका प्रश्न दमदार है और उत्तर भी आपने ही सुझाया है - अच्छे कार्य पर बढना और गलत का त्याग। रावण सब राक्षसों के लिये नायक नहीं था। उसकी अपनी पत्नी मन्दोदरी और भाई विभीषण तक उसके कृत्य के समर्थक नहीं थे। उसके दुष्कृत्यों को उसके पिता का आशीर्वाद नहीं था। उसके सौतेले भाई और उनका यक्ष समुदाय उसके साथ नहीं था। जबकि राम ने विभीषण, सुग्रीव आदि का राज्याभिषेक कराया और अयोध्यावासियों के साथ-साथ वानरों व राक्षसों के भी नायक हुए। आज हज़ारों वर्ष बाद भी भारत से लेकर थाइलैंड तक उनका नाम अमर होना ही एक नायक के जनोत्थान में लीन होने के गुण को हाइलाइट करता है।
Deleteअभी तो दम साध कर पढ़ने दीजिए! पूरी शृंखला उल्लेखनीय होने जा रही है ।
ReplyDeleteआभार ।
ज़माने के साथ-साथ नायक और उनके पैमाने बदलते जा रहे हैं.नए ज़माने के नायक अलग किस्म के हैं !
ReplyDeleteवाह! अपनी शारीरिक अस्वस्थता के चलते यह महत्वपूर्ण पोस्ट न पढ़ पाया था!
ReplyDeleteनायक तो राह पर चलता नहीं, राह बनाता है।
वह इसकी फिक्र नहीं करता कि उसे इतिहास नायक दर्ज करेगा या खलनायक! वह अपनी कसौटी (सिद्धांत) पर कसता है कर्म को और करता है!
@ नायक तो राह पर चलता नहीं, राह बनाता है। वह इसकी फिक्र नहीं करता कि उसे इतिहास नायक दर्ज करेगा या खलनायक! वह अपनी कसौटी (सिद्धांत) पर कसता है कर्म को और करता है!
Deleteजी, एकदम सही कहा। आभार!
बहुत सुन्दर आलेख अनुराग जी, बात को विभिन्न पहलुओं से देख कर आप ने अच्छा विवेचन किया है.
ReplyDeleteलेकिन इतिहास लोगों के बारे में क्या कहता है वह क्या हमेशा सच होता है? रोमन बादशाह नीरो का बदचलन और अय्याश कहते हैं, कि रोम जल रहा था और वह मज़े कर रहे थे. लेकिन कुछ इतिहासकार कहते हैं कि यह झूठ है, सच में वह जनता का भला चाहते थे और रोम पर राज करने वाले राजसी परिवारों की शक्ति को कम करना चाहते थे, कि जब रोम में आग लगी तो उन्होंने जनता को राजमहल में जगह दी, इसलिए उन्हें मरवाने के बाद उनके बारे में गलत कहानियाँ लिखायी गयीं. यानि शक्तिवान और पैसेवाले, चाहें तो अपने को नायक बनवा सकते हैं. बाबरनामा या अकबरनामा लिखवाने वाले बादशाह, क्या अपने बारे में बुरी बातों को लिखने देते? शायद अधिकाँश नायक गुमनामी के अधेरे में ही छुपरे रह जाते हें क्यों कि उन्हें अपनी प्रसिद्ध बनवाने के तरीके नहीं आते!
सुनील जी, इस आलेख का विषय इतिहास से निर्लिप्त होकर शुद्ध नायकत्व के गुणों की पड़ताल है। मेरी नज़र में सच्चे वीर नायक अपनी अंतरात्मा की आवाज़ पर उदारमना होकर बहुजन हिताय बहुजन सुखाय कार्य करते हैं। किताबों में कौन उनके विरुद्ध (या उनके प्रति) गोटाला कर रहा हो, इससे पूर्णतया निरपेक्ष होकर। अगली कड़ियों में यह बात भी सामने आयी है कि नायक अपनी छवि, निन्दा-स्तुति से परे होते हैं।
Deleteआपके प्रश्न के लिये आभार।
बहुत अच्छा!! पौराणिक मिथोलोजिकल नायकों से लेकर ऐतिहासिक नायकों का लेखा जोखा!!!
ReplyDelete-Good piece of information.
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