घर दिल्ली की पश्चिमी सीमा पर बहादुरगढ़ के पास और दफ्तर यमुना के पूर्व में उत्तर प्रदेश के अंदर। जीवन की पहली नौकरी, सीखने के लिए रोज़ एक नई बात। सुबह सात बजे घर से निकलने पर भी यह तय नहीं होता था कि दस बजे अपनी सीट पर पहुँचूंगा कि नहीं। मो सम जी वाली किस्मत भी नहीं कि सफर ताश खेलते हुए कट जाये। अव्वल तो किसी भी बस में सीट नहीं मिलती थी। कुछ बसें तो ऐसी भी थीं जिनमें से ज़िंदा बाहर आना भी भाग्य की बात थी। तय किया कि घर से सुबह छः बजे निकल लिया जाये।
दक्षिण भारतीय बैंक था सो कर्मचारी वर्ग उत्तर का और अधिकारी वर्ग दक्षिण का होता था। संस्कृति का अंतर भी स्पष्ट दिखता था। अधिकारी वर्ग के लोग झिझकते हुए हल्की आवाज़ में बात करने वाले, विनम्र, कामकाजी और धार्मिक से लगते थे। कर्मचारी वर्ग के अधिकांश लोग - सब नहीं - वैसे थे जिन्हें हिन्दी में "लाउड" कहा जा सकता है। शाखा के वरिष्ठ प्रबन्धक एक अपवाद थे। दूध सा गोरा रंग, छोटा कद, हल्के बाल, पंजाबी भाषी। पहले दिन ही लंबा-चौड़ा इंटरव्यू कर डाला। छिपे शब्दों में नई नौकरी के खतरों से आगाह भी कर दिया। उसके बाद तो सुबह को रोजाना ही कुछ देर बात करने का नियम सा हो गया क्योंकि हम दो लोग ही सबसे पहले आते थे। पौने दस बजे अपनी घड़ी सामने रखकर हर आने वाले कर्मचारी को देखकर फिर अपनी घड़ी देखने वाले व्यक्ति ने जब मुझे यह सुझाया कि इतना जल्दी आने की ज़रूरत नहीं है तो कइयों को झटका लगा।
तय यह हुआ कि मैं घर से यदि सात बजे निकलूँ तो नोएडा मोड़ पर लगभग उसी समय पहुँचूंगा जब बड़े साहब की कार पहुँचती है। वहाँ से आगे बस और रिक्शे के झंझट से बचने भर से ही मेरी 40-45 मिनट की बचत हो जाएगी। फिर तो यह रोज़ का नियम हो गया। बड़े साहब के साथ छोटे साहब यानी शाखा प्रबन्धक जी भी आते थे। बैंक की अधिकारी परंपरा के वाहक, विनम्र, नफीस, टाल, डार्क, हैंडसम। शाखा में बड़ी इज्ज़त थी उनकी। कर्मचारी ही नहीं, ग्राहक भी सम्मान करते थे।
बड़े साहब से पहचान बढ़ती गई मगर प्रबन्धक जी ने "बेबी ऑफ द ब्रांच" की उपाधि देकर भी पद की गरिमा का सम्मान रखते हुए संवाद सीमित ही रखा। मेरे जॉइन करने के कुछ ही हफ्तों में दो-चार रिलीविंग पार्टियां हो गईं। बड़े साहब ने जहां हिन्दी और पंजाबी गीत सुनाये, प्रबन्धक जी ने मातृभाषा न होते हुए भी नफासत से भरी गज़लें सुनाकर शाखा भर को प्रभावित कर लिया।
उस दिन जब हम तीनों कार में बातें करते आ रहे थे बड़े साहब बिना किसी संदर्भ के बोले, "लोग यह कैसे भूल जाते हैं कि उनके साथ भी यह हो सकता है।" जब तक मैं कुछ समझ पाता, बैंक की सफ़ेद अंबेसडर कार सड़क के बीच डिवाइडर के पास वहाँ खड़ी थी जहां एक स्कूटर पड़ा हुआ था। उसका चालक डिवाइडर पर चित्त बेहोश पड़ा था। सर फटा हुआ था पर खून जम चुका था। सर पर आर्टिफेक्ट की तरह रखा हुआ बिना फीतों का हैलमेट कुछ दूर पड़ा था। कोई बेहया वाहन उसे टक्कर मारकर मरने के लिए छोड़ गया था। दिल्ली-नोएडा मार्ग, थोक में आते जाते वाहन। किसी ने भी उसे न देखा हो, यह सोचना तुच्छ कोटि की मासूमियत होती। मैंने और बड़े साहब ने मिलकर उसका त्वरित निरीक्षण किया और जैसा कि स्वाभाविक था उसे कार की पिछली सीट पर बिठा दिया।
इस सारी प्रक्रिया में ऐसे बहुत से व्यवसायियों की गाडियाँ वहाँ से गुज़रीं जो बैंक में रोजाना आते तो थे ही, हमारी एक नज़र पर अपनी दुनिया कुर्बान कर देने की बात करते थे। फिलहाल वे सभी हमारी नज़र से बचने की पूरी कोशिश में थे। दुर्घटनाग्रस्त व्यक्ति को कार में सुरक्षित करने के बाद जब मैंने इधर-उधर देखा तो पाया कि हमारे रुकते ही सड़क पार करके फुटपाथ पर चले जाने वाले नफीस प्रबन्धक जी शाखा के समय से खुलने की ज़िम्मेदारी के चलते एक पार्टी के वाहन में शाखा की ओर चले गए थे। हमारे वहाँ से चलने से पहले ही एक पुलिस कार आकर उस व्यक्ति को अस्पताल ले गई। एक अन्य पुलिस वाहन ने रुककर हमसे कुछ सवाल-जवाब किए और नाम-पता लेकर वे भी चले गए। भला हो मोटरसाइकिल से गुजरने वाले उस लड़के का जो हमें देखकर पास के बीट-बॉक्स में पुलिस को सूचना देने चला गया था।
हम तो जी उन बड़े साहब के वो मुरीद हुए कि आज तक हैं। रास्ते में बड़े साहब ने यह आशंका भी व्यक्त की कि दुर्घटनाग्रस्त को बचाने में खतरा तभी है जब उसकी जान बच न पाये। तब से अब तक काफी कुछ बदला है। दूसरों को बचाने वालों पर छाया संशय का खतरा टला है। क़ानूनों में ज़रूरी परिवर्तन हुए हैं ताकि लोग सड़क पर मरतों को बचाने में न डरें। फिर भी जयपुर की हाल की घटना यही बता रही है कि इंसान बनने में अभी भी काफी दिक्कतें हैं। एक माँ बेटी की जान सिर्फ इसलिए चली गई कि सड़क से गुजरे अनेक लोगों में से किसी के सीने में भी दिल नहीं धड़का। 27 साल पहले कही उनकी बात आज भी वैसी ही कानों में गूंज रही है, "लोग यह कैसे भूल जाते हैं कि उनके साथ भी यह हो सकता है।"
यह एक घटना खबर में आ गयी मगर जाने ऐसे कितने रोज हैं बड़े शहरों में ,लोग चुपचाप निकल जाते हैं ! कई खट्टे मीठे अनुभवों को याद करते भी इस घटना ने क्षुब्ध किया :(
ReplyDeleteसिर्फ़ अपने काम से मतलब रखने वाले मानवी संवेदनाओं से रहित लोग कभी सोच नहीं पाते कि उनके साथ भी ऐसा ही कुछ हो सकता है.
ReplyDeleteयही तो होता नहीं, यदि लोग स्वयं को उस जगह रखकर सोचने लगें तो कम से कम पिचानवे प्रतिशत दुसवारियाँ खत्म हो जाएँ।
ReplyDeleteदरअसल हमारे सिस्टम में बड़ी खराबियां हैं...कई बार इंसान चाह कर भी मदद नहीं करता....
ReplyDeleteहाँ फिर भी इंसानियत को अपनी जगह बनाये रखनी चाहिए...
सादर
अनु
अपनी अपनी सोच ओर अपने अपने अनुभव रहते हैं हर किसी की ऐसी दुर्घटनाओं को लेकर ..
ReplyDeletevyaktigat rup sae mae jo kar saktii hun hameshaa karti hun aur niswaarth bhav sae nahin balki is liyae karti hun ki kabhie maere kisi apnae ko jarurat ho to uskae liyae bhi koi kar dae
ReplyDeleteलोग भूल ही जाते हैं...कैसे, यह तो वे ही जानें, कुछ वर्ष पहले मेरी एक परिचिता की छोटी बहन दक्षिण भारत के एक बड़े शहर में इसी तरह सड़क पर ही दम तोड़ गयी थी, आपके बड़े साहब को हमारा नमन.
ReplyDeleteसमस्याएं तो है, लेकिन लोगों में साहस विवेक और समझ को निरंतर विकसित करना होगा। विश्वास के योग्य वातावरण का निर्माण आवश्यक है। अच्छे विचारों के प्रसार से मानसिकता में सुधार अब भी सम्भव है। सर्वे भवन्तु सुखिनः……
ReplyDeleteजीवन तो वैसे भी खत्म हो गया है। लोग तो जीने-मरने पर बात करने, इस बाबत लेख लिखने पर सलाह देते हैं कि मस्त रहो बस।
ReplyDeletehaan :(
ReplyDeleteकानून बदला है पर सोच नहीं. :(.
ReplyDeleteजीवन तो सबका मिट ही गया है। हां दुर्घटना में किसी का निधन होना दिल पर चोट पहुंचाता है।
ReplyDeleteधन्यवाद रविकर जी!
ReplyDeleteसंवेदनाएं तो कब की मर चुकीं। संवेदनशीलता अब सिर्फ एक शब्द मात्र है जिसका प्रयोग लेखन तथा वाचन में बहुतायत से किया जाता है। तटस्थता अब एक फैशन है, और संवेदनहीनता युगधर्म।
ReplyDeleteबड़े बड़े शहरों में रहने वाले बेशक निष्ठुर बन चुके हैं, किन्तु छोटे शेहरो और कस्बों में आज भी इंसानियत और सवेंदनशीलता है....
ReplyDeleteइंडिया बनाम भारत?
Deleteबेशक हमारी तत्परता से किसी की जान बचाई जा सकती है। लेकिन सडकों पर तमाशबीन ज्यादा नज़र आते हैं , मेहरबान कम।
ReplyDeleteकानून में बदलाव हुआ है। अब ज़रूरी नहीं कि आप पुलिस को अपना नाम पता बताएं। कोई अस्पताल भी घायल को लेने से मना नहीं कर सकता। फिर भी पब्लिक एपेथी कायम है।
शुक्रिया भाई!
ReplyDeleteबेशक हम लोग सारा विश्व एक परिवार है की बात करें या फिर प्यार प्रेम कर्त्तव्य दया करुन पर वेद ग्रन्थ लिख मारें पर असल में हम लोग भीतर से निहायत ही आत्मकेंद्रित,स्वार्थी और जाने क्या क्या हैं। इस मुद्दे पर लम्बी नहीं फैकुंगा पूरी पोस्ट पढने के बाद जो समझ में आया है वही कहूँगा। अब मुझे पता चल पाया है की अच्छा लेखक होने के लिए बैंक से आपका जुडाव जरुरी है।
ReplyDeleteबेशक हम लोग सारा विश्व एक परिवार है की बात करें या फिर प्यार प्रेम कर्त्तव्य दया करुन पर वेद ग्रन्थ लिख मारें पर असल में हम लोग भीतर से निहायत ही आत्मकेंद्रित,स्वार्थी और जाने क्या क्या हैं। इस मुद्दे पर लम्बी नहीं फैकुंगा पूरी पोस्ट पढने के बाद जो समझ में आया है वही कहूँगा। अब मुझे पता चल पाया है की अच्छा लेखक होने के लिए बैंक से आपका जुडाव जरुरी है।
ReplyDeleteदाँत में बम है,
Deleteआई मीन ...
बात में दम है!
भैया आजकल इंसानी ह्रदय में संवेदनाएं ख़त्म हो गई है | कलयुग है ये कोई जिये या मरे किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता | सब की अपनी ढपली और अपना राग है और सब अपने में मस्त हैं | यहाँ पडोसी को पडोसी का पता नहीं होता और न ही भाई को भाई की फ़िक्र होती है फिर सड़क पर पड़े किसी अनजान की तो आप बात की छोड़ दो |
ReplyDeleteकभी यहाँ भी पधारें और लेखन भाने पर अनुसरण अथवा टिपण्णी के रूप में स्नेह प्रकट करने की कृपा करें |
Tamasha-E-Zindagi
Tamashaezindagi FB Page
स्वप्न मञ्जूषा जी अउर दीपक बाबा की टिप्पणियों से सहमत. हाँ ये बैंक वाले बडे वो होते हैं.
ReplyDeleteस्वप्न मञ्जूषा जी और दीपक बाबा की टिप्पणियों से सहमत. हाँ ये बैंक वाले बडे वो होते हैं.
ReplyDeleteकानून मे बदलाव तो हुये है पर कानूनगो कहाँ बदले ... वो लोग आज भी सब से पहले बचाने वाले की क्लास लगाने की सोच रखते है ... ऐसे मे आम आदमी यही सोच अपनी ज़िम्मेदारी नहीं निबाहता कि बैठे ठाले कौन आफत मोल ले ! पूरे सिस्टम को बदलना होगा तब जा कर इस तरह सड़क पर किसी की जान नहीं जाएगी !
ReplyDeleteइंसान संवेदना रहित तो नहीं है पर स्वार्थी ज़रूर है जब खुद पर पड़ती है तभी बात समझ आती है ।
ReplyDeleteबहुत सारी कानूनी और व्यक्तिगत पेचीदगी के कारण हम ऐसे हालात में बचाकर निकल जाते हैं क्या सही क्या गलत का विचार किये
ReplyDeleteदुखद है ....विपत्ति के समय एक दूजे का साथ देना हम सबकी साझी जिम्मेदारी है .... यकीनन संवेदनाओं का लोप हुआ है ....
ReplyDeleteनिज दुख रज सम गिरि कर माना..
ReplyDeleteदेत लेत मन संक न धरई।
Deleteबल अनुमान सदा हित करई॥
दुख होता है जब ऐसी घटनाओ के वीडियो बनाकर पोस्ट होते है ,, पहले मदद तो हो .... :-(
ReplyDeleteसंवेदनशीलता की बातें करने वालों को अपना दिल टटोलना चाहिए ...
ReplyDeleteलोगों के पास अक्सर समय का अभाव होता है :(
समाज का ख़ास आदमी तो समाज से खुद को अलग समझता ही है जिसे दीं दुनिया से कोई वास्ता नहीं.. आम आदमी बेचारा इस कदर दूध का जला है कि छाछ से भी जलने से डरता है.. समस्या उन आम आदमियों की जो इन दोनों के बीच में हैं और उन्होंने ही आदमीयत को ज़िंदा रखा है.. हाँ इसी में कुछ ऐसे भी हैं जो आम होते हुए भी ख़ास का मुखौटा लगाए घूमते हैं.. शर्म उनको मगर नहीं आती!!
ReplyDeleteअपने बैंक से जुडी कहानी सुनकर दिल खुश गया अनुराग जी!!
खुद पर बीतती है तभी पता चलता है, दूसरों की पीडा तो पीडा ही नहीं लगती. पता नही ये हमको क्या होता जा रहा है?
ReplyDeleteरामराम.
shayad samvedanayen marane lagi hain .....
ReplyDeleteलोग अपनी उलझनों में इतने उलझ गए हैं तो लगता है संवेदनाएं मर गई हैं
ReplyDeleteपर कई बार कोई सहायता करते हुए खुद ऐसा फंसता है तो वो क्या दोबारा हिम्मत करेगा संवेदनशील होने की
तेरे मन में राम [श्री अनूप जलोटा ]
सच कहा आपने, अपने को उस स्थान पर कल्पना कर लेने से संभवतः संवेदना जाग जाये।
ReplyDeleteJo sabka mitra hota hai,darsal vah kisi ka mitra nahi hota
ReplyDelete(arstu)