अमेरिका के एक हवाई अड्डे से बाहर आकर जब पार्किंग तक जाने के लिए शटल बस में बैठा तो मेरे साथ कई अन्य लोग भी चढ़े। बूढ़े हों या जवान, सीट लेने से पहले सबने अपनी भारी-भारी अटैचियों को सामान के लिए बनी जगह में करीने से लगाया। चालक भी सबके बैठने तक रुका रहा। अगले टर्मिनल पर फिर वही सब दोहराया गया। इस बार एक व्यक्ति के पास दो भारी सूटकेस सहित चार अदद थे। सामान की जगह खाली थी लेकिन उसकी नज़र सीट पर थीं। पीछे सीट भी खाली थीं मगर वहाँ तक कौन जाये सो वह सबसे आगे विकलांगों व बुज़ुर्गों के लिए छोड़ी सीट पर जम गया। चलने के लिए बनी थोड़ी सी जगह में अपनी अटैचियाँ और थैले भी अपने आस पास जमा लिए। उसके बाद हर टर्मिनल पर लोग उसके सामान से अपने घुटने टकराते हुए निकलते रहे मगर वह तसल्ली से अपने आइफोन पर संगीत सुनता रहा। न किसी अटकते हुए व्यक्ति ने उसे सामान रखने की जगह दिखाई और न ही उसने खुद तकलीफ की।
मुझे याद आया जब डीटीसी की बस में एक कंडक्टर ने किसी को अपनी अटैची पीछे रखने को कहा था और इस बात पर लंबी बहस चली जिसका निष्कर्ष यह निकाला कि सामान साथ न रखने पर उसके चोरी होने की आशंका बनी रहती है। मतलब यह कि जो आदमी दूसरों के लिए जितनी अधिक असुविधा पैदा कर सकता है उसका माल उतना ही सुरक्षित है। समाज जितना अधिक स्वार्थी और जंगली होगा, अपनी सुरक्षा और दूसरों की असुविधा का संबंध उतना ही गहरा होता जाएगा।
आज के भारत का हाल नहीं पता लेकिन हमारे जमाने में एक व्यापक जनधारणा यह थी कि निजी क्षेत्र की क्षमता सरकारी तंत्र से अधिक होते है। दिल्ली में निजी क्षेत्र की रेड/ब्लू लाइन के अत्याचार रोज़ सहने वाले भी बिजली, पानी की बात चलने पर छूटते ही कहते थे, "प्राइवेट कर दो, दो दिन में हालत बदल जाएगी।" सुना है अब सब प्राइवेट हो गया है और झुग्गी-झोंपड़ी वाले भी हजारों रुपये के बिल से त्रस्त हैं। सुनवाई के नाम पर बस एक ही कार्यवाही होती है, कनैक्शन काटने की। कुकुरमुत्ते की तरह उग आए प्राइवेट स्कूलों में बच्चों के लिए शौचालय तक नहीं हैं और जनसेवा के नाम पर करोड़ों की ज़मीन खैरात में पाने वाले फाइव-स्टार अस्पतालों में मुरदों को भी निचोड़ लेने की अफवाहें आती रहती हैं।
बदइंतजामी और भ्रष्टाचार के चलते जब एक निजी बैंक का दिवाला पिट गया तो उसके कर्मचारियों की नौकरी और जमकर्ताओं की पूंजी बचाने के लिए उसका शव एक सक्षम सरकारी बैंक की पीठ पर लाद दिया गया। हमारी शाखाओं का भाषाई संतुलन रातों-रात बदल गया। पाटना वापस पटना हो गया लेकिन बेचारे पद्मनाभन जी कुछ और बन गए। काम न जानने का आधार काम न करने का कारण बना और "सेवा के लिए विकास" की जगह "मैन्नू ते कुछ पता ई नई" बैंक का नया आदर्श वाक्य बनने के सपने देखने लगा। कुल मिलाकर मेरा अवलोकन यही था कि काम करने वालों से काम तो होता है लेकिन कभी-कभार गलती भी हो सकती है। लेकिन जिसने कभी कुछ किया ही नहीं, टोटल-मुफ्तखोरी की, उसकी कलम न कभी कोई कागज़ छूएगी, न कभी उनके हस्ताक्षर पकड़ में आएंगे। हारने दो उनको जो अपनी ज़िंदगी गुज़र देते हैं खून-पसीना बहाने में।
समाज में सब कुछ सही नहीं है, सब कुछ सही शायद कभी न हो। लेकिन इतना तय है कि बेहतरी की ज़िम्मेदारी भी हमारी ही है। जब तक गलत करने वालों को सज़ा और सही उदाहरण रखने वालों को उत्साह नहीं मिलेगा, "ज्योतिर्गमय" की आशा बेमतलब है। बुराई के साथ कोई रियायत नहीं, लेकिन यह सदा याद रहे कि भले लोगों से मतांतर होने पर भी सदुद्देश्य के मार्ग में हमें उनका हमसफर बने रहना है। बल्कि सच कहूं तो मतांतर वाले सज्जनों की सहयात्रा हमारी उन्नति के लिए एक अनिवार्य शर्त है क्योंकि वे हमें सत्य का वह पक्ष दिखते हैं जिसे देखने की हमें आदत नहीं होती। अच्छाई को रियायत दीजिये। मिल-बैठकर चिंतन कीजिये। एक दूसरे के सहयोगी बनिए। आँख मूंदकर चलना मूर्खों की पहचान है। इंसानी शक्ल वाली भेड़ों के लिए तो बहुत से वाद, मजहब और विचारधाराएँ दुनिया में थोक में मौजूद हैं। सभी रेंगने वालों को कौन उठा पाया है? लेकिन पर्वतारोहियों का हित इसी में है कि हिमालय का पतन न हो। एक दूसरे को छूट दीजिये, सहयोग कीजिये लेकिन आपके आसपास "क्या" हो रहा है के साथ "क्यों" हो रहा है पर भी पैनी नज़र रखिए।
दूध देने वाली गाय हो या जहर देने वाला नाग, स्वार्थी लोगों ने दोनों को दुहा है लेकिन हमारी विशालहृदया संस्कृति ने दोनों को ही आदर दिया है। समन्वय हमारी संस्कृति के मूल में है। अतिवाद थोपने वाली, लोगों को दीवारों में बांटने वाली, या भेद के आधार पर हिंसा लादने वाली विचारधाराएँ उत्तरी, पश्चिमी या पूर्वी सीमा से घुसपैठ करने की कितनी भी कोशिश करें, भारतीय संस्कृति कभी नहीं कहला सकतीं।
मुझे याद आया जब डीटीसी की बस में एक कंडक्टर ने किसी को अपनी अटैची पीछे रखने को कहा था और इस बात पर लंबी बहस चली जिसका निष्कर्ष यह निकाला कि सामान साथ न रखने पर उसके चोरी होने की आशंका बनी रहती है। मतलब यह कि जो आदमी दूसरों के लिए जितनी अधिक असुविधा पैदा कर सकता है उसका माल उतना ही सुरक्षित है। समाज जितना अधिक स्वार्थी और जंगली होगा, अपनी सुरक्षा और दूसरों की असुविधा का संबंध उतना ही गहरा होता जाएगा।
आज के भारत का हाल नहीं पता लेकिन हमारे जमाने में एक व्यापक जनधारणा यह थी कि निजी क्षेत्र की क्षमता सरकारी तंत्र से अधिक होते है। दिल्ली में निजी क्षेत्र की रेड/ब्लू लाइन के अत्याचार रोज़ सहने वाले भी बिजली, पानी की बात चलने पर छूटते ही कहते थे, "प्राइवेट कर दो, दो दिन में हालत बदल जाएगी।" सुना है अब सब प्राइवेट हो गया है और झुग्गी-झोंपड़ी वाले भी हजारों रुपये के बिल से त्रस्त हैं। सुनवाई के नाम पर बस एक ही कार्यवाही होती है, कनैक्शन काटने की। कुकुरमुत्ते की तरह उग आए प्राइवेट स्कूलों में बच्चों के लिए शौचालय तक नहीं हैं और जनसेवा के नाम पर करोड़ों की ज़मीन खैरात में पाने वाले फाइव-स्टार अस्पतालों में मुरदों को भी निचोड़ लेने की अफवाहें आती रहती हैं।
बदइंतजामी और भ्रष्टाचार के चलते जब एक निजी बैंक का दिवाला पिट गया तो उसके कर्मचारियों की नौकरी और जमकर्ताओं की पूंजी बचाने के लिए उसका शव एक सक्षम सरकारी बैंक की पीठ पर लाद दिया गया। हमारी शाखाओं का भाषाई संतुलन रातों-रात बदल गया। पाटना वापस पटना हो गया लेकिन बेचारे पद्मनाभन जी कुछ और बन गए। काम न जानने का आधार काम न करने का कारण बना और "सेवा के लिए विकास" की जगह "मैन्नू ते कुछ पता ई नई" बैंक का नया आदर्श वाक्य बनने के सपने देखने लगा। कुल मिलाकर मेरा अवलोकन यही था कि काम करने वालों से काम तो होता है लेकिन कभी-कभार गलती भी हो सकती है। लेकिन जिसने कभी कुछ किया ही नहीं, टोटल-मुफ्तखोरी की, उसकी कलम न कभी कोई कागज़ छूएगी, न कभी उनके हस्ताक्षर पकड़ में आएंगे। हारने दो उनको जो अपनी ज़िंदगी गुज़र देते हैं खून-पसीना बहाने में।
समाज में सब कुछ सही नहीं है, सब कुछ सही शायद कभी न हो। लेकिन इतना तय है कि बेहतरी की ज़िम्मेदारी भी हमारी ही है। जब तक गलत करने वालों को सज़ा और सही उदाहरण रखने वालों को उत्साह नहीं मिलेगा, "ज्योतिर्गमय" की आशा बेमतलब है। बुराई के साथ कोई रियायत नहीं, लेकिन यह सदा याद रहे कि भले लोगों से मतांतर होने पर भी सदुद्देश्य के मार्ग में हमें उनका हमसफर बने रहना है। बल्कि सच कहूं तो मतांतर वाले सज्जनों की सहयात्रा हमारी उन्नति के लिए एक अनिवार्य शर्त है क्योंकि वे हमें सत्य का वह पक्ष दिखते हैं जिसे देखने की हमें आदत नहीं होती। अच्छाई को रियायत दीजिये। मिल-बैठकर चिंतन कीजिये। एक दूसरे के सहयोगी बनिए। आँख मूंदकर चलना मूर्खों की पहचान है। इंसानी शक्ल वाली भेड़ों के लिए तो बहुत से वाद, मजहब और विचारधाराएँ दुनिया में थोक में मौजूद हैं। सभी रेंगने वालों को कौन उठा पाया है? लेकिन पर्वतारोहियों का हित इसी में है कि हिमालय का पतन न हो। एक दूसरे को छूट दीजिये, सहयोग कीजिये लेकिन आपके आसपास "क्या" हो रहा है के साथ "क्यों" हो रहा है पर भी पैनी नज़र रखिए।
दूध देने वाली गाय हो या जहर देने वाला नाग, स्वार्थी लोगों ने दोनों को दुहा है लेकिन हमारी विशालहृदया संस्कृति ने दोनों को ही आदर दिया है। समन्वय हमारी संस्कृति के मूल में है। अतिवाद थोपने वाली, लोगों को दीवारों में बांटने वाली, या भेद के आधार पर हिंसा लादने वाली विचारधाराएँ उत्तरी, पश्चिमी या पूर्वी सीमा से घुसपैठ करने की कितनी भी कोशिश करें, भारतीय संस्कृति कभी नहीं कहला सकतीं।
बस और ट्रेन का सफर हमारे लंबे जीवन की छोटी सी प्रतिकृति है जब हम घंटे दो घंटे की यात्रा के लिए अपने सभी मूल्यों की तिलांजलि देने तैयार हो जाते हैं तो पूरे जीवन में कितने समझौते करते होंगे, इससे अंदाजा लगाया जा सकता है।
जी, अपने कर्मों के फल ही पक-पक कर हमारे सर पर गिरते हैं.
Deleteआज की ब्लॉग बुलेटिन क्यों 'ठीक है' न !? - ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
ReplyDeleteधन्यवाद!
Deleteदूध देने वाली गाय हो या जहर देने वाला नाग, स्वार्थी लोगों ने दोनों को दुहा है लेकिन हमारी विशालहृदया संस्कृति ने दोनों को ही आदर दिया है। समन्वय हमारी संस्कृति के मूल में है। अतिवाद थोपने वाली, लोगों को दीवारों में बांटने वाली, या भेद के आधार पर हिंसा लादने वाली विचारधाराएँ उत्तरी, पश्चिमी या पूर्वी सीमा से घुसपैठ करने की कितनी भी कोशिश करें, भारतीय संस्कृति कभी नहीं कहला सकती।
ReplyDeleteलेकिन कभी कभी लोगो की गलत मानसिकता देखकर मन खिन्न भी होता रहता है , किन्तु शाश्वत सत्य स्थिर रहता है।
"दूध देने वाली गाय हो या जहर देने वाला नाग, स्वार्थी लोगों ने दोनों को दुहा है लेकिन हमारी विशालहृदया संस्कृति ने दोनों को ही आदर दिया है। समन्वय हमारी संस्कृति के मूल में है। अतिवाद थोपने वाली, लोगों को दीवारों में बांटने वाली, या भेद के आधार पर हिंसा लादने वाली विचारधाराएँ उत्तरी, पश्चिमी या पूर्वी सीमा से घुसपैठ करने की कितनी भी कोशिश करें, भारतीय संस्कृति कभी नहीं कहला सकती। "
ReplyDeleteसहमत हूँ आप से !
"लेकिन पर्वतारोहियों का हित इसी में है कि हिमालय का पतन न हो।"
ReplyDeleteसटीक निष्कर्ष!!!!
"अतिवाद थोपने वाली, लोगों को दीवारों में बांटने वाली, या भेद के आधार पर हिंसा लादने वाली विचारधाराएँ उत्तरी, पश्चिमी या पूर्वी सीमा से घुसपैठ करने की कितनी भी कोशिश करें, भारतीय संस्कृति कभी नहीं कहला सकती।"
यही सत्य है, यही अर्थ है बाकि सब अनर्थ!!!!
सब कुछ कह दिया आपने, आपकी इस पोस्ट पर टिप्पणी रूप कुछ भी जोडने में असमर्थ......
काम न जानने का आधार काम न करने का कारण बना..............आपके आलेख का प्रतयेक वाक्य और हरेक पंक्ति समस्याओं को देखने और उनको दूर करने का नया दर्शन प्रकट करते हैं। अत्यन्त विचारणीय आलेख।
ReplyDeleteआज जनसत्ता में हैं आप इस महत्वपूर्ण आलेख के माध्यम से।
Deleteजानकारी का आभार विकेश!
Deleteवाह । बड़े दिनों बाद आपके यहाँ आप जैसा लेख पढ़ा । :)
ReplyDelete(raghuvar kee chhabi samaan raghubar mukh baniyaa - thumak chalat.... yaad aa gayaa yahaan comment recheck karte hue - so roman me ...)
मुझे भी यही लगता - है की "बेहतरी" की जिम्मेदारी भी तो अपनी ही है । हम अपनी बुराइयां देख पाएं यह बेहतरी की पहली सीढ़ी है । लेकिन हम सिर्फ बुराइयां ढूंढते रहे और उन्हें सुधारने के प्रयास ही न करें - तो कैसे बेहतरी होगी ? पहली सीढ़ी पकड़ कर खड़े रह जाने से मंजिल नहीं मिलती - आगे बढना पड़ता है उस पहली सीढ़ी को छोड़कर ।
जब beta छोटा था तो बहुत सी बालमनोविज्ञान की किताबें पढ़ीं । हर किताब कहती कि बच्चे को हिंसक होना / क्रोधी होना सब हम ही सिखाते हैं । हम उसके सामने जैसे बिहेव करें - वे वही सीखते हैं ।
गलती होने पर बच्चे से यह मत कहो "तुम बुरे हो - तुमने यह बुरा किया तुमने वह गलती की" उससे कहो कि "अरे , ऐसा हो गया - कोई बात नहीं - तुम इससे बेहतर अगली बार ऐसे कर सकते हो । उसे कहो कि तुम अच्छे हो , लेकिन अच्छे से भी गलतियाँ हो सकती हैं ।"
बेहतरी हो सकती है - यदि हम कटिबद्ध हों । लेकिन यदि बुराई देखने तक ही सीमित रह जायेंगे - तो बेहतरी की राह बनाएगा कौन ?
हमारे घर में गन्दगी हो - दूध गिर जाए - तो हम इस बात को बार बार "सत्य कहने से नहीं डरते" कह कह कर कहते रहते हैं कि "दूध गिरा है - दूध गिरा है - दूध गिरा है ......" या उसे साफ़ करते हैं ? लेकिन अपने देश में दूध गिरा हुआ है, सड़ रहा है, लेकिन यहाँ हम सिर्फ तमाशाई बन जाते हैं ? क्यों ??? हम कहते हैं की यह देश काहिलों जाहिलों और घूसखोरों का है - लेकिन हम इन सब के सुधार के लिए करते क्या हैं ???
वह व्यक्ति जो सामान रस्ते में रख बैठा था - वह वही कर रहा था जो उसने परिस्थितियों से सीखा । परिस्थितयां ऐसी न होतीं तो वह इतना भयभीत न होता अपने सामन की चोरी के दर से । यह परिस्थितयां कोई बाहर से आकर नहीं बदलने - वाला ये परिस्थितियां हमें ही तो बदलनी होंगी न ?
अनंतनाग, शेषनाग, तिरुवनंतपुर, नागपुर, अनंतचतुर्दशी, नाग पंचमी, ... हमारी परम्परा में सबके लिए जगह है, काम पर ध्यान दिलाने वाले भी, उपाय ढूँढने वाले भी और सुधार करने वाले भी. हाँ, संतुलन रहता तो शायद आज वहां न होते जहां हैं ...
Deleteअरे हाँ। संस्कृति में सभी की जगह रही है। इस तरह से मैंने सोचा ही न था।
Deleteआज पहली श्रेणी में ही ठहरने की प्रवृत्ति अधिक है। कई लोग आपकी बताई दूसरी और तीसरी में भी हैं। किन्तु उन पर भी समस्याकारक ही होने के जनरलाइज्ड आरोप लगाते ही रहना शायद उनके यज्ञ में बाधक होता ही होगा न ?
काश और अधिक काबिल लोग पहली सीढी से दूसरी और तीसरी श्रेणी की और बढें। या कम से कम जो वहाँ हैं और अच्छा काम कर रहे हैं उन पर जनरलाइज्ड आरोप में बिना ठोस आधार के सुनी सुनाई पर उंगलियाँ न उठाते रहें।
आलेख की अंतिंम पंक्तियाँ बहुत अर्थपूर्ण और सार्थक हैं , जैसे सब कुछ समेटे....
ReplyDeleteसहमत भी और गर्वित भी...
बहुत सार्थक चिन्तन -आम आदमी इतना समझने लगे तो रोना ही काहे का?
ReplyDeleteआम तो आम ही है, दिन काट ले वही काफी है. ख़ास काम तो ख़ास वर्ग ही करता है.
Deleteअच्छी बात ये है कि हम (मैं) और आप एक ही पृष्ठ पर हैं।
ReplyDeleteसमस्याओं का होना बड़ी बात नहीं है, समस्याओं को समस्या नहीं मानना गलत है। समस्या तब होती है जब अपनी कमियों को ही नहीं माना जाता है, उनको जस्टिफाई करने के लिए अनाप-शनाप और फ़ालतू के तर्क दिए जाते हैं । सभी देश, समाज जो है उसकी कमियों को स्वीकारें, और उनको ठीक करने की पहल अपने घर से करें, सब ठीक होगा।
बहुत ही अच्छा लिखा है अनुराग जी, धन्यवाद !
जी, मान लिया. अब अगला फेज़ - समस्या के निराकरण की ओर ...
Deleteक्लासिक अनुराग शर्मा(जी) स्टाईल, जिसके हम पंखे/कूलर/एसी हैं :)
ReplyDeleteaji ham bhi hain in vaale anurag sharma ji ke pankhe cooler ac hai badke bhaisahab....
Deleteyah baat aur hai ki vah "vaada" jaisee poetry apne sir ke oopar se guzar jaatee hai :(
आदाब अर्ज़ है!
Deleteहमेशा से गाय पर भारी है नाग..
ReplyDeleteमारा भी वही जाता है बेचारा ...
Deleteअपने फायदे और सहूलियत को देखते हुए समाज का कल्याण के बारे में सोंच ही नहीं सकते.बहुत ही प्रेरक आलेख.
ReplyDeleteनि:संदेह गंभीर और चिंतनशील बाते उठाई हैं आपने , लेकिन क्या कोई इस पर मनन करने और कार्यान्वित करने हेतु भी तत्पर है ? नहीं ! वे
ReplyDeleteतो 21 साल पुराना अयोध्या राग हर रोज अलापते है और उसकी आड़ में इन 2१ सालों में उन्होंने क्या- क्या किया , हमने सब भुला दिया। अगर यही भारतीय संस्कृति है जिसे आप विशाल ह्रदय संस्कृति का नाम दे रहे है , तो मुझे यह संकृति कतई पसंद नहीं !
"अयं निजः परोवेति, गणना लघुचेतसाम् । उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम्" लोग किसी भी रंग के झंडे के नीचे बैठें, झंडा उनका चरित्र नहीं बदलता. एक और इंसान का मन तनया है, समय के साथ बदलता है लेकिन यह भी तथ्य है कि खाली चोला बदलने से इंसान नहीं बदलता, धर्म परिवर्तन करे, नागरिकता परिवर्तन करे या पार्टी परिवर्तन. देश, मज़हब, संस्कृति, वाद आदि तो चोला भर हैं, उसे आत्मा तो इंसान ही प्रदान करते हैं.
Deleteसच या है कि आजकल सेवा से सम्बंधित हर कार्य कमाने का जरिया हो गया है . संस्कृति हमारे आचार विचार और हमारे सामाजिक व्यवहार का भी आईना है .
ReplyDeleteसार्थक विचार !
हमारे पुराने संस्कार हमें लड़ने नहीं देते ,यही वजह है की हम दुनिया में न छा पायें , पर अपने को सदैव बचा लिए | हमारे संस्कार अटल है |
ReplyDeleteविश्लेषण परक जानकारी बढ़िया जानकारी .
ReplyDeleteजी, आभार!
Deleteचिंता न करें भारत ने अभी भी अपना मूलरूप संजो कर रखा हुआ है :)
ReplyDeleteसत्य वचन!
DeleteThe spirit of India can never die!
जैसी प्रजा वैसा राजा इस कहावत में कुछ तो सच्चाई है..हम जितनी बेहतरी चाहते हैं उतने के लिए प्रयत्न भी करते हैं..शेष सब जैसा है वैसा ही रहता है
ReplyDeleteसत्य वचन! प्रशासन का नकारापन भारत की सबसे बड़ी समस्या है.
Deleteजो आदमी दूसरों के लिए जितनी अधिक असुविधा पैदा कर सकता है उसका माल उतना ही सुरक्षित है। समाज जितना अधिक स्वार्थी और जंगली होगा, अपनी सुरक्षा और दूसरों की असुविधा का संबंध उतना ही गहरा होता जाएगा। ....
ReplyDeletejai baba banaras...
अतिवाद थोपने वाली, लोगों को दीवारों में बांटने वाली, या भेद के आधार पर हिंसा लादने वाली विचारधाराएँ उत्तरी, पश्चिमी या पूर्वी सीमा से घुसपैठ करने की कितनी भी कोशिश करें, --- हम अभी तक खुद को संभाले हुए हैं। यही हमारी उपलब्धि है।
ReplyDeleteसुन्दर , सार्थक आलेख।
संस्कार को देखने की दृष्टि बहुत सिमित हो गई है आजकल ... अपने अलावा हम हर किसी में ऐसे संस्कार ढूँढना चाहते हैं ... आपका चिन्तक मनन प्रेरित करता है ...
ReplyDeleteबढ़िया आलेख के लिए आभार !
ReplyDeleteइतना ही सोच ले आदमी तो तमाम समस्यायें हल हो जायें.
ReplyDelete@ दूध देने वाली गाय हो या जहर देने वाला नाग, स्वार्थी लोगों ने दोनों को दुहा है ..............,सिर्फ और सिर्फ नेताओं को कोसने वालों को कभी भी ये कुटिल और स्वार्थी लोग क्यों नजर नहीं आते हैं ?
ReplyDeleteबढ़िया आलेख के लिए आभार !
सर ! हमारी संस्कृति और हमारे संस्कारों की जहाँ पर बात आती है तो मुझे एक बंदरिया की कहानी याद आती है -जिसमें बंदरिया अपने मृत शिशु को महीनो तक सीने से लगाये रखती है शायद उसे इस बात का अहसास ही नहीं होता है की उसका जिगर का टुकड़ा अब नहीं रहा, या फिर उसकी अंधी ममता उसे मृत शिशु से अलग नहीं होने देती ? वरना आज इस समाज में ऐसा कुछ भी नजर नहीं आता है की जिस पर नाज किया जा सके। मेरे लिए सकारात्मक सोच अब सम्भव नहीं हैं, जिसका मुझे खेद है,
ReplyDeleteहमेशा की तरह एक बेहतरीन आलेख हेतु आभार व्यक्त करता हूँ ....................
जब विचार सिकुड़ने लगते हैं तो स्वार्थगत और छोटे ध्येय ही छा जाते हैं। विस्तार इतना हो जिसमें सब समाहित हो जायें।
ReplyDeleteसरकारी व्यवस्था का अपने हाथों से कबाड़ा किया लोगों ने अब प्राइवेट का डंक झेल रहे हैं लोग... अब उन्हें रह रह कर अपने पाप याद आते हैं....
ReplyDeleteसमन्वय हमारी संस्कृति के मूल में है। अतिवाद थोपने वाली, लोगों को दीवारों में बांटने वाली, या भेद के आधार पर हिंसा लादने वाली विचारधाराएँ उत्तरी, पश्चिमी या पूर्वी सीमा से घुसपैठ करने की कितनी भी कोशिश करें, भारतीय संस्कृति कभी नहीं कहला सकतीं।
ReplyDelete....बिल्कुल सच कहा है...बहुत सारगर्भित आलेख...
सार्थक लेख | आभार
ReplyDeleteकभी यहाँ भी पधारें और लेखन भाने पर अनुसरण अथवा टिपण्णी के रूप में स्नेह प्रकट करने की कृपा करें |
Tamasha-E-Zindagi
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