Saturday, October 29, 2011

मर्द को दर्द नहीं होता -इस्पात नगरी से 49


बर्फ़ नहीं तो वर्षा - आखिर यह पिट्सबर्ग है
कहावतें हैं कहावतों का क्या?
रक्तदान तो नियमित ही है, मगर वार्षिक स्वास्थ्य जांच के लिये खून देना खलता है। ऊपर से दो-दो वैक्सीन का समय हो रहा था। इतने भर से पीछा छूट जाता तो भी ग़नीमत थी। आसमान काली घटाओं से भरा ही रहा। दो सप्ताह से लगातार हो रही बारिश में घास बाँस से टक्कर लेने लगी थी। लॉन पतझड़ के पत्तों से भरा हुआ भी था।  उस पर पैदल चलने का रास्ता  चौड़ा करने की योजना भी टलती जा रही थी। श्रमसाध्य कार्य करने से पहले अपनी बढती आयु को भी ध्यान में रखना पड़ता है। भारत में होते थे तो दीवाली पर वार्षिक सफ़ाई कार्यक्रम चलता था, यहाँ रहते उपरोक्त सारे काम पूरे हुए।

तीन चार दिन लगातार जुटकर सारे काम पूरे करने के शारीरिक श्रम और टीकों से दुखती बाहें लेकर सोने के बाद आज सुबह उठकर वर्ष का पहला हिमपात देखना अलौकिक अनुभव रहा।
क्वांज़न चेरी ब्लॉसम के अन्य रूप तो आपने पहले देखे हैं

हिमपात ने प्रभात के सौन्दर्य को निखार दिया
करुणा, आरोग्य और शाकाहार के उद्देश्य से बनाये गये सामूहिक ब्लॉग निरामिष पर 100 साल के दौड़ाक फौजा सिंह के बारे में पढा तो उनकी दृढता के क़ायल हो गये। चावल, पराँठा और पकौड़े तो नहीं छोड़ सकता हूँ पर फ़ौजा सिंह से प्रेरणा लेकर सोंठ खाना तो शुरू किया ही जा सकता है।

[सभी चित्र अनुराग शर्मा द्वारा :: Snowfall as captured by Anurag Sharma]
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* इस्पात नगरी से - पिछली कड़ियाँ
* कुछ भी असम्भव नहीं है - फौजा सिंह

Saturday, October 22, 2011

हैलोवीन - प्रेतों की रात्रि -इस्पात नगरी से 48


अरे डरने की क्या बात है?
मेरा टेसू यहीं खड़ा, खाने को मांगे दही बड़ा
दही बड़े में पन्नी, धर दो झंई अठन्नी।

छोटे थे तो एक शाम को छोटे-छोटे बच्चे तीन डंडियों पर एक खूबसूरत मुंडी रखकर बनाये गये तलवारधारी टेसू को घर-घर ले जाकर कुछ पैसे-मिठाई आदि मांगते थे। हमारे घर भी आते थे और मैं कौतूहल से उनके गीत सुनता था। हैलोवीन पर भी बच्चे कुछ उसी प्रकार के गीत गाकर, "गिव मी समथिंग गुड टू ईट" करते हैं। टेसू में मांग थी, पर हैलोवीन के "ट्रिक और ट्रीट" में धमकी होती है कि न दोगे तो शरारत करेंगे। वैसे डरने की बात नहीं है क्योंकि बच्चे वैसे शरारती नहीं होते हैं। जो लोग ट्रीट देना पसन्द नहीं करते वे अपने पोर्च की बत्तियाँ बन्द रखते हैं और जो पसन्द करते हैं वे तो अपनी कैंडी, फल आदि के गंगाल लिये दरवाज़े पर या ड्राइववे में बैठे स्वागत कर रहे होते हैं।

बच्चे हैलोवीन में कद्दू पर चेहरे काटकर उसमें मोमबत्ती जलाते हैं
हैलोवीन का इतिहास ईसाइयत पूर्व की परम्पराओं के पीछे दबा हुआ है। आइये आपके साथ चलते हैं ट्रिक और ट्रीट करने इस फ़ोटो फ़ीचर के सहारे। पतझड़ का मौसम है। सूखे पत्तों पर चलने पर अजीब सी आवाज़ें होती हैं। तेज़ हवायें भी साँय-साँय और भाँय-भाँय तो करती ही हैं, सूखे पेड़ों की डंडियाँ भी तोड़कर गिराती रहती हैं। शाम पाँच बजे अधेरा गहराने लगता है और तब आता है हैलोवीन का उत्सव। 31 अक्टूबर को बच्चे और बड़े किस्म-किस्म की वेशभूषा में नज़र आते हैं। और हर ओर दिखती है हाहाकारी भुतहा सजावट मानो भोलेबाबा की बारात आ रही हो। छोटे बच्चे तो प्रचलित कार्टून चरित्रों को भी अपनाते हैं।

कुछ अन्य चित्र:
डरना ज़रूरी है क्या?

प्रेत के बिना कैसा हैलोवीन

ये किसका खून है? लाश कहाँ ग़ायब है?

ट्रिक-ट्रीटिंग पर जाने से पहले कुछ खा लिया जाये

अन्धेरी रातों में सुनसान राहों पर 

भूत राजा, बहार आ जा

कद्दू की टोकरी, कद्दू का लैम्प

बिल्ली प्रेमी के कार्व्ड कद्दू

मैं कोई असली कंकाल थोड़े ही हूँ?
[सभी चित्र अनुराग शर्मा द्वारा :: Halloween as captured by Anurag Sharma]
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* इस्पात नगरी से - पिछली कड़ियाँ

Thursday, October 20, 2011

क्वेकर विवाह के साक्षी - इस्पात नगरी से 47

अमेरिका आने के बाद से बहुत से पाणिग्रहण समारोहों में उपस्थिति का अवसर मिला है जिनमें भारतीय और अमेरिकन दोनों प्रकार के विवाह शामिल हैं। किसी विवाह में वर पक्ष से, किसी में वधू पक्ष से, किसी में दोनों ओर से शामिल हुआ हूँ और एक विवाह में संचालक बनकर कन्या-वर को पति-पत्नी घोषित भी किया है। यह सभी विवाह अपनी तड़क-भड़क, शान-शौकत और सज्जा में एक से बढकर एक थे।

काली घटा छायी, प्रेम रुत आयी
मगर यह वर्णन है एक सादगी भरे विवाह का। जब हमारे दो पारिवारिक मित्रों ने बताया कि वे क्वेकर विधि से विवाह करने वाले हैं और उसमें हमारी उपस्थिति आवश्यक है तो मैंने तीन महीने पहले ही अपनी छुट्टी चिन्हित कर ली। इसके पहले देखे गये भारतीय विवाह तो होटलों में हुए थे परंतु अब तक के मेरे देखे अमरीकी विवाह चर्च में पादरियों की उपस्थिति में पारम्परिक ईसाई विधियों से सम्पन्न हुए थे। यह उत्सव उन सबसे अलग था।

नियत दिन हम लोग पहाड़ियों पर बसे पिट्सबर्ग नगर के सबसे ऊंचे बिन्दु माउंट वाशिंगटन के लिये निकले। पर्वतीय मार्गों को घेरे हुए काली घटाओं का दृश्य अलौकिक था। कुछ ही देर में हम वाशिंगटन पर्वत स्थित एक भोजनालय के सर्वोच्च तल पर थे। समारोह में अतिथियों की संख्या अति सीमित थी। बल्कि यूँ कहें कि केवल परिजन और निकटस्थ सम्बन्धी ही उपस्थित थे तो अतिश्योक्ति न होगी। और उस पर भारतीय तो बस हमारा परिवार ही था। वर वधू दोनों ही अमरीकी उत्साह के साथ अतिथियों का स्वागत करते दिखे। हम उनके परिजनों के साथ-साथ उनके पिछले विवाहों से हुए वर के 18 वर्षीय पुत्र और वधू की 16 वर्षीय पुत्री से भी मिले। अन्य अतिथियों की तरह वे दोनों भी सजे धजे और बहुत उत्साहित थे।

मनोहारी पिट्सबर्ग नगर
समारोह स्थल जलचरीय भोजन के लिये प्रसिद्ध है। लेकिन जब एक शाकाहारी को बुलायेंगे तो फिर अमृत शाकाहार भी कराना पड़ेगा, उस परम्परा का निर्वाह बहुत गरिमामय ढंग से किया जा रहा था। समारोह में कोई पादरी या धार्मिक प्रतिनिधि नहीं था। पूछने पर पता लगा कि क्वेकर परम्परा में पादरी की आवश्यकता नहीं है क्योंकि प्रभु और मित्र ही साक्षी होते हैं। आरम्भ में वर के भाई ने ईश्वर और अतिथियों का धन्यवाद देने के साथ-साथ अपने महान राष्ट्र का धन्यवाद दिया और उसकी गरिमा को बनाये रखने की बात कही। जाम उछाले गये। वर-वधू ने वचनों का आदान-प्रदान किया। वर की माँ ने एक संक्षिप्त भाषण पढकर उन्हें पति-पत्नी घोषित किया। वर ने वधू का चुम्बन लिया और दोनों ने विवाह का केक काटा।

सभी अतिथियों ने एक बड़े कागज़ पर पति-पत्नी द्वारा कलाकृति की तरह लिखे गये अति-सुन्दर किन्तु सादे विवाह घोषणापत्र पर हस्ताक्षर करके अपनी साक्षी दर्ज़ की। पेंसिल्वेनिया राज्य के नियमों के अनुसार क्वेकर विवाह में इस प्रकार का घोषणापत्र हस्ताक्षरित कर देना ही विवाह को कानूनी मान्यता प्रदान करता है। इसके बाद भोजन लग गया और सभी पेटपूजा में जुट गये। मेज़ पर हमारे सामने बैठे वृद्ध दम्पत्ति हमें देखकर ऐसे उल्लसित थे मानो कोई खोया हुआ सम्बन्धी मिल गया हो। पता लगा कि वे लोग मेरे जन्म से पहले ही आइ आइ टी कानपुर के आरम्भिक दिनों में तीन वर्षों तक वहाँ रहे थे। उसके बाद उन्होंने नेपाल में भी निवास किया। उनकी बेटी और पौत्र के नाम संस्कृत में है। बातों में समय कहाँ निकल गया, पता ही न लगा।
चीफ़ गुयासुता व जॉर्ज वाशिंगटन
जब चलने लगे तब एक युवती ने रोककर बात करना आरम्भ किया। पता लगा कि वे एक योग-शिक्षिका हैं और अभी दक्षिण भारत की व्यवसाय सम्बन्धित यात्रा से वापस लौटी थीं। वे बहुत देर तक भारत की अद्वितीय सुन्दरता और सरलता के बारे में बताती रहीं। 25-30 लोगों के समूह में तीन भारत-प्रेमियों से मिलन अच्छा लगा और हम लोग खुश-खुश घर लौटे।

होटल से नगर का दृश्य सुन्दर लग रहा था। हमने कई तस्वीरें कैमरा में क़ैद कीं। नीचे आने पर जॉर्ज वाशिंगटन व सेनेका नेटिव अमेरिकन नेता गुयासुता की 29 दिसम्बर 1790 मे हुई मुलाकात का दृश्य दिखाने वाले स्थापत्य का सुन्दर नज़ारा भी कैमरे में उतार लिया। इस ऐतिहासिक सभा में जॉर्ज वाशिंगटन ने एक ऐसे अमेरिका की बात की थी जिसमें यूरोपीय मूल के अमरीकी, मूल निवासियों के साथ मिलकर भाईचारे के साथ रहने वाले थे। अफ़सोस कि बाद में ऐसा हुआ नहीं। जॉर्ज वाशिंगटन के साथ वार्तारत सरदार गुयासुता की यह मूर्ति 25 अक्टूबर 2006 को लोकार्पित की गयी थी।

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* इस्पात नगरी से - पिछली कड़ियाँ

Wednesday, October 19, 2011

अनुरागी मन - कहानी अंतिम कड़ी (भाग 21)

अनुरागी मन - अब तक - भाग 1भाग 2भाग 3भाग 4भाग 5भाग 6भाग 7भाग 8भाग 9भाग 10भाग 11भाग 12भाग 13भाग 14भाग 15भाग 16भाग 17भाग 18भाग 19भाग 20;
पिछले अंकों में आपने पढा: दादाजी की मृत्यु, एक अप्सरा का छल, पिताजी की कठिनाइयाँ - वीर सिंह पहले ही बहुत उदास थे, फिर पता पता लगा कि उनकी जुड़वाँ बहन जन्मते ही संसार त्याग चुकी थी। ईश्वर पर तो उनका विश्वास डांवाडोल होने लगा ही था, जीवन भी निस्सार लगने लगा था। ऐसा कोई भी नहीं था जिससे अपने हृदय की पीडा कह पाते। तभी अचानक रज्जू भैय्या घर आये और जीवन सम्बन्धी कुछ सूत्र दे गये| ज़रीना खानम के विवाह के अवसर पर झरना के विषय में हुई बड़ी ग़लतफ़हमी सामने आयी जिसने वीर के हृदय को ग्लानि से भर दिया। और उसके बाद निक्की के बारे में भी सब कुछ स्पष्ट हो गया। वीर की नौकरी लगी और ईर, बीर, फ़त्ते साथ में नोएडा रहने लगे। वीर ने अपनी दर्दभरी दास्ताँ दोस्तों को सुनाई और वे तीनों झरना के लिये मन्नत मांगने थानेसर पहुँच गये। फिर एक दिन जब तीनों परिक्रमा रेस्त्राँ में थे तब वीर ने वहाँ झरना को देखा परंतु झरना ने बात करना तो दूर, उन्हें पहचानने से भी इनकार कर दिया। वापस घर आते समय एक ट्रक ने उनकी कार को टक्कर मारी और पुलिस ने अस्पताल पहुँचाया।
अब आगे भाग 21 ...

दिल्ली मेरी दिल्ली
पुलिस ने फ़ोन से तीनों के घर पर सूचना भिजवा दी। ईर और फ़त्ते को तो प्राथमिक चिकित्सा के बाद छोड़ दिया गया। मगर वीर को गहन चिकित्सा कक्ष में ले जाया गया। तब तक सुबह हो चुकी थी। ईर और फ़त्ते उनीन्दे बैठे बाहर इंतज़ार कर रहे थे। बीच में कुछ डॉक्टरों ने इन दोनों को वीर की स्थिति के बारे में ब्रीफ़िंग भी दी। उनके जाने के बाद दोनों विचारमग्न थे कि बाहर का दरवाज़ा खुला और मानो सुबह की रोशनी की किरण जगमगाई हो। सूर्य के प्रकाश के साथ ही एक बदहवास कंचनकाया अन्दर आयी। एक पल ठिठककर झरना ने ईर और फ़त्ते को देखा और फिर घबराकर पूछा, "वीर? ... वीर कहाँ है?"

"ठीक है। अन्दर है।" ईर ने बताया।

"तुम लोग यहाँ हो तो वह अन्दर क्यों है?" झरना की आँखों से स्पष्ट था कि वह रात भर सो नहीं सकी थी।

"उसके कन्धे में लगी है थोड़ी। सीरियस है पर ठीक हो जायेगा।" फ़त्ते ने झरना को दिलासा देते हुए कहा। वह कहना चाहता था कि अगर आज आना ही था तो कल क्यों चली गयी थीं। मगर उसे यह समय ऐसी बात के लिये ठीक नहीं लगा। झरना ने बताया कि वह वीर से अब भी बहुत प्यार करती है और सदा करती रहेगी। दिल्ली आने से पहले वह नई सराय जाकर उसकी दादी और माँ से मिली भी थी और नोएडा का पता भी लेकर आयी थी। लेकिन साथ-साथ वह वीर के पिछले व्यवहार के कारण उससे बहुत गुस्सा भी थी और उसे यह भी समझाना चाहती थी कि बेरुखी कितनी क्रूर होती है। लेकिन परिक्रमा में वीर के प्रति अपने दुर्व्यवहार के बाद वह रात भर सो न सकी। अलस्सुबह फ़त्ते के घर पहुँची और वहाँ से सारी बात पता लगते ही अस्पताल आयी।

झरना ने बताया कि उसके माता-पिता के जाने के बाद बस वीर ही एक ऐसा व्यक्ति है जिसे वह नितांत अपना मानती है और उस पर अपना अधिकार समझती है। शायद इसी कारण उसकी अपेक्षा कुछ अधिक ही बढ गयी थी। उसे लगा कि जब वह परिक्रमा से बाहर जायेगी तो वीर आगे बढकर उसे रोक लेगा, जाने नहीं देगा। फ़त्ते ने बताया कि वीर तो रोकने जा रहा था पर उसे फ़त्ते ने पकड़कर रोका हुआ था। झरना ने अपने हाथों से उन दोनों का एक-एक हाथ पकड़कर एक घेरा बनाया। फिर आंखें बन्द करके वीर के लिये एकसाथ मिलकर प्रार्थना करने को कहा। तीनों ने मन में भगवान का नाम लिया। तीनों की आँख से मानो अनुराग के झरने बह रहे थे।

आँखें खुलीं तो दो डॉक्टर उनके सामने खड़े थे।

एक ने कहना आरम्भ किया, "हमें अफ़सोस है कि ..."

दूसरे ने वाक्य पूर्ण किया, "ही इज़ नो मोर! वी आर एक्स्ट्रीमली सॉरी! ... ... ..." वे बोलते गए पर शब्द मानो अपना अर्थ खो चुके थे।

अपने साथ आने का इशारा करके डॉक्टर उन्हें वहाँ तक ले गये जहाँ वीर ने अंतिम साँस ली थी। फ़फ़क-फ़फ़क कर रोते हुए फ़त्ते ने अपनी जेब से निकालकर कागज़ का एक छोटा सा टुकड़ा सिसकती हुई झरना को दिया जिसे वीर ने दुर्घटना के तुरन्त बाद फ़त्ते की सहायता से लिखा था।
प्रिय झरना,

बाबा रे, मेरी परी को इतना गुस्सा आता है! सब दिखावा है न? मुझे पता है कि तुम मुझे चाहती हो। मैं भी तुम्हें बहुत प्यार करता हूँ। मेरे मरते दम तक तुम मेरे दिल में रहोगी। ईश्वर तुम्हें सकुशल रखे।

केवल तुम्हारा,
अनुरागी मन
[समाप्त (अंततः)]

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सम्बन्धित कड़ियाँ
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* नहीं जाना कुँवर जी - पीनाज़ मसानी - अमीर आदमी गरीब आदमी
* अनुरागी मन - लता मंगेशकर - रजनीगन्धा

अनुरागी मन - कहानी (भाग 20)

अनुरागी मन - अब तक - भाग 1भाग 2भाग 3भाग 4भाग 5भाग 6भाग 7भाग 8भाग 9भाग 10भाग 11भाग 12भाग 13भाग 14भाग 15भाग 16भाग 17भाग 18भाग 19;
पिछले अंकों में आपने पढा: दादाजी की मृत्यु, एक अप्सरा का छल, पिताजी की कठिनाइयाँ - वीर सिंह पहले ही बहुत उदास थे, फिर पता पता लगा कि उनकी जुड़वाँ बहन जन्मते ही संसार त्याग चुकी थी। ईश्वर पर तो उनका विश्वास डाँवाडोल होने लगा ही था, जीवन भी निस्सार लगने लगा था। ऐसा कोई भी नहीं था जिससे अपने हृदय की पीडा कह पाते। तभी अचानक रज्जू भैय्या घर आये और जीवन सम्बन्धी कुछ सूत्र दे गये। ज़रीना खानम के विवाह के अवसर पर झरना के विषय में हुई बड़ी ग़लतफ़हमी सामने आयी जिसने वीर के हृदय को ग्लानि से भर दिया। और उसके बाद निक्की के बारे में भी सब कुछ स्पष्ट हो गया। वीर की नौकरी लगी और ईर, बीर, फ़त्ते साथ में नोएडा रहने लगे। वीर ने अपनी दर्दभरी दास्ताँ दोस्तों को सुनाई और वे तीनों झरना के लिये मन्नत मांगने थानेसर पहुँच गये। फिर एक दिन जब तीनों परिक्रमा रेस्त्राँ में थे तब वीर ने वहाँ झरना को देखा परंतु झरना ने बात करना तो दूर, उन्हें पहचानने से भी इनकार कर दिया।
अब आगे भाग 20 ...
कंसर्ट के समापन तक कार्यक्रम स्थल का माहौल किसी उत्सव जैसा हो गया था। मगर वीर के दिल में मुर्दनी छाई थी। वे मानो नई सराय की उसी रात को उसी नहर के किनारे के श्मशानघाट में खड़े थे जहाँ दादाजी की चिता जल रही थी। लपटें उनके बदन को छू रही थीं, वे झुलस रहे थे। उनको बार-बार अपने जीवन पर धिक्कार हो रहा था। कैसे व्यक्ति हैं वे? अनजाने में ही सही, पर पहले किसी को इतना सताया और अब समय आने पर ढंग से क्षमा तक नहीं मांग पाये।

बाहर आकर कार में बैठने तक दोनों साथी वीर का एक-एक हाथ पकड़े हुए उनके दायें-बायें चलते रहे। ईर ने प्रस्ताव रखा कि आज गाड़ी वह चलायेगा और फ़त्ते वीर के साथ पीछे बैठेगा।

"मैं उससे मिलने जाऊँगा। वासिफ़ के अब्बा से मिलकर उसे खोजूंगा। उनसे ज़रूर मिली होगी वह।"

"मिल तो लिया तू एक बार। अब क्यों जायेगा फिर से?" अरविन्द झ्ंझलाया। वह आज की घटना से बहुत अप्रसन्न था।

"माफ़ी मांगने, और क्यों?" वीर ने स्पष्ट किया।

"आज मांग तो ली तूने माफ़ी" फत्ते ने दृढ स्वर में कहा, "तू नहीं जाता, अब वह आयेगी तुझसे मिलने, माफ़ी मांगने ..." फ़त्ते रुका नहीं "हम कोई गिरे पड़े नहीं है। लाइन लगी है लड़कियों की। वह समझती क्या है अपने आप को। "

"लेकिन ... उसकी ग़लती नहीं है" वीर ने सफ़ाई सी दी।

"बहुत खूबसूरत है वो? हूर की परी? मेरा भाई भी लाखों में एक है। जो लड़की तेरे जैसे को नहीं पहचानी, वो बेकार है, एकदम बेकार! शराफ़त की भी एक हद होती है।"

"और मैंने जो दुःख दिया है उसे, उसका क्या?"

"अरे तू गया तो था माफ़ी मांगने। हम सब सुन रहे थे पीछे खड़े हुए। ओ वीर, दुनिया देखी है मैंने। ये लड़की तेरे लायक नहीं है" फ़त्ते पहले तो गुस्सा हुआ और फिर अपने को शांत करते हुए बोला, "लेकिन सब्र कर, अगर तेरी मर्ज़ी यही है तो वो तुझे मिलेगी ज़रूर, वो खुद आयेगी। लेकिन ये होगा तभी जब तू अपनी तरफ़ से उससे बिल्कुल भी न मिले।"

"कैसे आयेगी अपने आप? क्या पता आज की ही वापसी फ़्लाइट हो उसकी?" वीर सम्भावनायें तलाश रहे थे।

"तो अगली फ़्लाइट में मिलना" गाड़ी चलाता हुआ ईर भी बातचीत में शामिल था।

"ओये तू मुर्गे की तरह गर्दन पाछे क्यों कर रहा है। सामने देख के चला। छोरे को घर पहुँचाने की ज़िम्मेदारी अब तेरे ही ऊपर है।

"और तुम्हारा क्या?" ईर हँसा।

"हम तो अब इसके लिये एक स्वर्ग की परी ढूँढकर लायेंगे ... अब हँस भी दे मेरे भाई। कह दिया न वो आयेगी। कैसे आयेगी ये हमारे भरोसे पर छोड़ दे।"

चींSSS ...। जब तक ईर देख पाता चौराहे पर बती लाल हो चुकी थी। उसने एकदम से ब्रेक लगाये। नई गाड़ी, नये टायर होते हुए भी सड़क पर पड़ी नन्ही रोड़ी व धूल के कारण पहियों की पकड़ न बन सकी। गाड़ी एक झटके के साथ रुकी लेकिन जब तक तीनों होश पाते, एक झटका और लगा। ईर तो रुक गया था मगर उनके पीछे तेज़ी से आता हुआ ट्रक रुकने के मूड में नहीं था। जब तक संभलते, लोहे की शीट्स से लदा ट्रक इनकी कार का बायाँ भाग छील चुका था। और कार के साथ ही छिले थे वीर सिंह। झटके तीनों को लगे परंतु वीर सिंह का वामस्कन्ध रगड़ा गया, शायद हड्डी टूटी थी। रक्त भी बहने लगा। वे बहुत पीड़ा में थे और दुर्भाग्य यह कि पूरे होशोहवास में थे।

ईर ने गाड़ी से बाहर निकलकर आते जाते वाहनों को रोकने का असफल प्रयास किया जबकि फ़त्ते ने वीर को सम्भाला।

"अगर मैं जीवित नहीं रहूँ तो परी से मेरी तरफ़ से तुम ही माफ़ी मांग लेना।"

"तुझे तो कुछ हुआ ही नहीं। ऐसे मत बोल। मरहम पट्टी करके ठीक कर देंगे तुझे।"

"एक काम कर दो मेरा ..." वीर ने हाथ बढ़ाया। फ़त्ते ने वीर को इतना हताश पहले कभी भी नहीं देखा था।

किस्मत अच्छी थी। कुछ ही देर में, दिल्ली पुलिस की एक पीसीआर जिप्सी वहाँ थी, पीछे-पीछे दूसरी। कुछ ही देर में तीनों सफ़दरजंग अस्पताल में थे। वीर पहले उधर से कई बार निकल चुके थे। एमर्जेंसी के बाहर कतार से सीधे खड़े शाल्मली के लाल फूलों से आच्छादित ऊँचे विशाल वृक्ष उन्हें बहुत पसन्द थे मगर आज यहाँ होते हुए भी वे उन्हें देख नहीं सके थे।

[क्रमशः]

Tuesday, October 18, 2011

अनुरागी मन - कहानी (भाग 19)

नोट: आज यह पोस्ट लिखते समय कठिनाई हुई, फिर ईमेल में सस्पिशस ऐक्टिविटी की चेतावनी मिली। सुरक्षा सम्बन्धी समुचित कदम उठाने के बाद अब पोस्ट लिख पा रहा हूँ। यदि वर्तनी या व्याकरण आदि की कुछ ग़लतियाँ होंगी तो बाद में ठीक कर दूंगा। पहले भी कई बार कुछ पोस्ट्स ब्लैंक हो चुकी हैं परंतु अधिकांश बाद में रिकवर की जा सकी थीं। फ़िकर नास्त, अल्लाह मेहरबान अस्त!

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पिछले अंकों में आपने पढा: दादाजी की मृत्यु, एक अप्सरा का छल, पिताजी की कठिनाइयाँ - वीर सिंह पहले ही बहुत उदास थे, फिर पता पता लगा कि उनकी जुड़वाँ बहन जन्मते ही संसार त्याग चुकी थी। ईश्वर पर तो उनका विश्वास डाँवाडोल होने लगा ही था, जीवन भी निस्सार लगने लगा था। ऐसा कोई भी नहीं था जिससे अपने हृदय की पीड़ा कह पाते। तभी अचानक रज्जू भैय्या घर आये और जीवन सम्बन्धी कुछ सूत्र दे गये। ज़रीना खानम के विवाह के अवसर पर झरना के विषय में हुई बड़ी ग़लतफ़हमी सामने आयी जिसने वीर के हृदय को ग्लानि से भर दिया। और उसके बाद निक्की के बारे में भी सब कुछ स्पष्ट हो गया। वीर की नौकरी लगी और ईर, बीर, फ़त्ते साथ में नोएडा रहने लगे। वीर ने अपनी दर्दभरी दास्ताँ दोस्तों को सुनाई और वे तीनों झरना के लिये मन्नत मांगने थानेसर पहुँच गये। फिर एक दिन जब तीनों परिक्रमा रेस्त्राँ में थे तब वीर ने वहाँ किसी को देखा।
अब आगे भाग 19 ...

"बीर को भी पसन्द आ गये शायद। देख, ठंडाई भी न पी इसने तो।" फ़तहसिंह खुश था।

"एक मिनट" वीर जो देखना चाह रहे थे, वह रेस्त्राँ की गोलाई के कारण अब तक पक्का नहीं हो पाया था। उन्हें अनजान लोगों को घूरना पसन्द नहीं था इसलिये उस समय सच उनसे कुछ हद तक ओझल सा था। और तभी उसने मेनू किनारे रखते हुए चेहरा ऊपर उठाया। दोनों की आँखें चार हुईं। फिर उसने सिर झुका लिया। वीर को अपने भाग्य पर विश्वास न हुआ। उनका दिल बल्लियों उछलने लगा। एक-एक क्षणांश भी मानो कई युगों के बराबर हो गया।

सब कुछ भूलकर वे उठे और सीधे उस मेज़ पर जाकर रुके।

"हाय, कैसी हो?" उनकी प्रसन्नता आवाज़ से छलकी पड़ रही थी, "यक़ीन नहीं करोगी कि इतने दिन बाद आज तुम्हें अचानक सामने पाकर मैं कितना खुश हूँ।"

अपनी अप्सरा के सामीप्य ने मानो उन्हें ज़मीन से उठाकर आसमान में पहुँचा दिया था।

झरना ने नज़रें उठाकर उन्हें भरपूर देखा, "हू आर यू? व्हाट डू यू वांट?"

उसके साथ बैठे चारों लोगों ने वीर को प्रश्नवाचक नज़र से देखा।

"परी ... अप्सरा ... झरना ..." इस अप्रत्याशित मोड़ को देखकर वीर भौंचक्के से रह गये। मानो किसी ने उनकी गर्दन मरोड़ दी हो। उनका शरीर बेजान सा हो गया, गला सूखने लगा। फिर भी साहस करके बोले, "नई सराय, बरेली, वासिफ़ खाँ, ज़रीना खानम ..."

"कहा न, मैं आपको नहीं जानती" उसने नज़रें नीची कर लीं और साथ रखा हुआ मेनू उठाकर उसे पढने का उपक्रम किया।

"वीर ... याद करो ... वीर हूँ मैं, नाराज़ हो मुझसे?"

"कौन वीर? मैं किसी वीर को नहीं जानती।"

"एए मिस्टर ..." साथ के लड़के ने वीर की कलाई पकड़ी।
ईर और फ़त्ते भी कुछ गड़बड़ी भाँपकर वहाँ आ गये थे। फ़त्ते को देखकर उस लड़के ने वीर का हाथ छोड़ दिया

"मैं वीरसिंह हूँ, तुम्हारा अपना वीर। लिसन झरना, आयम सॉरी ..." वीर रूँआसे हो उठे, "मैं तुम्हारा दोषी हूँ, जो सज़ा चाहे दे दो। उफ़ नहीं करूँगा!"

"लैट्स गो गाईज़" उनकी बात का जवाब दिये बिना वह उठी।

"तुम्हें क्या हो गया है झरना?" कहकर वीर उसके सामने आ गये लेकिन फ़त्ते ने दृढता से उन्हें पकड़कर झरना को जाने का रास्ता दिया। वीर देखते ही रह गये और झरना बाहर निकल गयी। झरना के साथी भी उसके पीछे-पीछे चले गये।

वे देखते रहे, उन कदमों को जो सदा उनकी ओर बढ़ा करते थे, आज कितनी बेदर्दी से उनसे दूर चले गये। सब कुछ जैसे बिखर गया हो। क्या चाहते थे वे? क्षमायाचना? या उससे अलग कुछ और। वे अपने नसीब से लड़ते क्यों रहे। जब झरना पास आना चाहती थी तब वे दूर भागते रहे और आज जब वे अपनी ग़लती का प्रायश्चित करना चाहते हैं तब यह सब क्या हो रहा है? यदि फ़त्ते उन्हें कसकर पकड़े न होता तो वे किसी की परवाह किये बिना पीछे-पीछे दौड़ गये होते।

"वही है। अच्छी तरह से पहचानती है मुझे। नाराज़ है बस।" अंतिम वाक्य बड़ी कठिनाई से उनके मुँह से बाहर निकल सका। जिस सपने के लिये वे अब तक ज़िन्दा थे आज मानो टूट सा गया था। पल भर में उनका सब कुछ बिखर चुका था। सम्बन्ध तो शायद बनने से पहले ही टूट चुका था परंतु आज उसे फिर से जोड़ने के प्रयास में वे स्वयं भी टूट चुके थे।

"जानता हूँ भाई, सब जानता हूँ। फिकर मत ना कर। जल्दी ही सब ठीक होगा। तू रुक तो सही, बस दो चार दिन" फ़त्ते ने दिलासा दी, "हम मिलायेंगे तुम दोनों को। वो तेरी है, तेरी ही रहेगी। भरोसा रख इस देहाती पर।"

वेटर ने पास आकर याद दिलाया कि ऑर्डर सर्व हो गया था। पर वहाँ भूख किसको थी। फ़त्ते ने ज़बर्दस्ती सी करके वीर को खिलाया। सदा शांत रहने वाला अरविन्द भी बेचैन सा लग रहा था। जितना सम्भव हुआ उतना खाकर प्लेटें हटवाकर भी वे काफ़ी देर वहाँ बैठे रहे। वीर लगातार झरना के बारे में कोई न कोई बात याद करके बोलते रहे और बाकी दोनों चुपचाप सुनते रहे।

कार्यक्रम का समय होने पर तीनों वहाँ पहुँचे। सबसे आगे तो नहीं, पर उनकी सीट स्टेज के इतना पास थी कि वे जगजीत सिंह के हाव-भाव स्पष्ट देख सकते थे। ईर व फ़तह उनके आजू-बाज़ू बैठे। पहले तो वे अपने ही ख्यालों में खोये अपने को यह विश्वास दिलाते रहे कि कुछ देर पहले जो हुआ वह सपना नहीं सच था। कार्यक्रम आरम्भ हुआ, अब हर ग़ज़ल उन्हें अपनी और झरना की कहानी लग रही थी।

[क्रमशः]

Monday, October 17, 2011

अनुरागी मन - कहानी (भाग 18)

अनुरागी मन - अब तक - भाग 1भाग 2भाग 3भाग 4भाग 5भाग 6भाग 7भाग 8भाग 9भाग 10भाग 11भाग 12भाग 13भाग 14भाग 15भाग 16भाग 17;
पिछले अंकों में आपने पढा: दादाजी की मृत्यु, एक अप्सरा का छल, पिताजी की कठिनाइयाँ - वीर सिंह पहले ही बहुत उदास थे, फिर पता पता लगा कि उनकी जुड़वाँ बहन जन्मते ही संसार त्याग चुकी थी। ईश्वर पर तो उनका विश्वास डाँवाडोल होने लगा ही था, जीवन भी निस्सार लगने लगा था। ऐसा कोई भी नहीं था जिससे अपने हृदय की पीड़ा कह पाते। तभी अचानक रज्जू भैय्या घर आये और जीवन सम्बन्धी कुछ सूत्र दे गये। ज़रीना खानम के विवाह के अवसर पर झरना के विषय में हुई बड़ी ग़लतफ़हमी सामने आयी जिसने वीर के हृदय को ग्लानि से भर दिया। और उसके बाद निक्की के बारे में भी सब कुछ स्पष्ट हो गया। वीर की नौकरी लगी और ईर, बीर, फ़त्ते साथ में नोएडा रहने लगे। वीर ने अपनी दर्दभरी दास्ताँ दोस्तों को सुनाई और वे तीनों झरना के लिये मन्नत मांगने थानेसर पहुँच गये।
अब आगे भाग 18 ...

"अबे कब तक सोते रहोगे तुम लोग?" यह लट्ठमार स्वर घर के मालिक फ़तहसिंह का था।

"उठ जा बच्चे, ईर तो तैयार भी हो लिया, तूई बचा रै गया इब तक।"

वीर ने आँखें खोलीं तो फ़त्ते को सजा-धजा, एकदम तैयार अपने कमरे में पाया। सुबह सुबह, छुट्टी के दिन!

"आज इतनी जल्दी कैसे उठ गये?" वीर ने अंगड़ाई लेते हुए पूछा।

"सुबह? 12 बज लिये हैं और तेरे चेहरे पे इबी 12 बज रहे हैं, उठ जा इब वरना ..." फ़त्ते ने शरारत से हाथ के टिकट हवा में हिलाते हुए कहा, " ... वरना जगजीत सिंह को देख नहीं पायेगा।

चादर झटक कर वीर बिस्तर से बाहर कूदे और फ़त्ते के हाथ से छीनकर टिकट देखे। वाकई जगजीत सिंह के कंसर्ट के तीन टिकट थे। यह तो उन्हें पता था कि दिल्ली में कंसर्ट था, उनकी इच्छा भी थी मगर टिकट महंगा होने, स्थल दूर होने और उस पर दोनों साथियों की संगीत में कोई खास रुचि न होने के कारण उन्होंने अधिक प्रयास नहीं किया था। पता लगा कि फ़त्ते ने खास उनके लिये अपने "कनेक्शंस" का प्रयोग करके बिल्कुल आगे के ये वीआइपी टिकट मंगवाये थे।

"हम तुझे खुस देखना चाहते हैं हीरो। इब नहा धो कै राजा बेटा बन जा फ़टाफ़ट, फेर निकलते हैं।"

"लेकिन इतनी जल्दी? क्या वहाँ गेट पर टिकट हमने ही चैक करने हैं?"

"देर मती न कर भाई, खाना दिल्ली में ही खायेंगे।"

कुछ ही देर में तीनों दोस्त फ़त्ते की गाड़ी में दिल्ली के लिये निकल पड़े। पहले तो परिक्रमा पहुँचे। फ़त्ते अपनी पार्टियों के साथ वहाँ आता रहता था परंतु वीर के लिये रिवॉल्विंग रेस्त्राँ में बैठकर घूमती दिल्ली देखने का अनुभव अद्भुत था। दल का अलिखित नियम था कि जब फ़त्ते खुद कहकर अपनी पसन्द की जगह लेकर जाता तो ट्रिप का स्पॉंसर वही होता था। सो आज का बिल भी उसी के नाम था।

ऐपेटाइज़र्स आ गये थे। खाते जा रहे थे, दिल्ली की परिक्रमा भी चल रही थी और मज़ाक भी। झरना का नाम लेकर दोनों वीर की शादी की वेन्यू तय करने के लिये झगड़ रहे थे। एक को फ़ाइव स्टार चाहिये था और दूसरे को फ़ार्म हाउस। वीर भी उनके उल्लास से उत्साहित थे।

तभी फ़त्ते ने ईर को कोहनी मारते हुए कहा, "ठाँ ठाँ, सामने।" और दोनों चुप होकर सामने देखने लगे। वीर उनका इशारा समझकर मन ही मन बोले, "कभी नहीं सुधरेंगे ये" फिर बोलकर फ़त्ते से कहा, "अरविन्द को भी बिगाड़ देना अपने साथ।"

"यो!" फत्ते ने हँसी से लोटपोट सा होते हुए कहा, "उल्टा इस चालू ने मुझे बिगाड़ा है।"

"पलटकर देख तो सही, तू भी बिगड़ जायेगा, झरना, ज़रीना सब भूल के" इस बार चुटकी लेने वाला ईर था।

तब तक जिनकी बात हो रही थी वे लोग अन्दर आकर इन लोगों के विपरीत टेबल पर बैठने लगे थे। वीर ने कनखियों से देखा और देखता ही रह गया।

"काँड़ी आँख से मत देख, घुमा ले गर्दन अपनी, आ सीट बदल ले मेरे से छोरे।" फ़त्ते ने अपने स्थान से उठकर वीर के पास आकर उनको आग्रहपूर्वक उठाकर अपनी सीट पर भेज दिया। यहाँ से सामने का दृश्य एकदम स्पष्ट था। वे पाँच लोग थे, दो लड़के और तीन लडकियाँ। उसे अपनी किस्मत पर विश्वास नहीं हो रहा था। ऐसे भी होता है क्या? एक हफ्ते मन्नत मांगो और दूसरे हफ्ते सच? वही है? नहीं है? वही है? अभी-अभी क्या चमत्कार हो गया था इसका वीर के साथियों को बिल्कुल भी अन्दाज़ नहीं था।

[क्रमशः]

Sunday, October 16, 2011

अनुरागी मन - कहानी (भाग 17)

अनुरागी मन - अब तक - भाग 1भाग 2भाग 3भाग 4भाग 5भाग 6भाग 7भाग 8भाग 9भाग 10भाग 11भाग 12भाग 13भाग 14भाग 15भाग 16;
पिछले अंकों में आपने पढा: दादाजी की मृत्यु, एक अप्सरा का छल, पिताजी की कठिनाइयाँ - वीर सिंह पहले ही बहुत उदास थे, फिर पता पता लगा कि उनकी जुड़वाँ बहन जन्मते ही संसार त्याग चुकी थी। ईश्वर पर तो उनका विश्वास डांवाडोल होने लगा ही था, जीवन भी निस्सार लगने लगा था। ऐसा कोई भी नहीं था जिससे अपने हृदय की पीडा कह पाते। तभी अचानक रज्जू भैय्या घर आये और जीवन सम्बन्धी कुछ सूत्र दे गये| ज़रीना खानम के विवाह के अवसर पर झरना के विषय में हुई बड़ी ग़लतफ़हमी सामने आयी जिसने वीर के हृदय को ग्लानि से भर दिया। और उसके बाद निक्की के बारे में भी सब कुछ स्पष्ट हो गया।
अब आगे भाग 17 ...
अब वीर झरना के अपराधी थे और हरदम प्रायश्चित की अग्नि में जल रहे थे। पाप धोने का कोई साधन उनके पास नहीं था। झरना का केन्या का कोई सम्पर्क वासिफ़ के पास नहीं था। उसके माता-पिता के अवसान के कारण यह भी तय नहीं था कि उसकी अगली भारत यात्रा कब होगी, होगी भी या नहीं। मुलाकात का कोई और रास्ता सूझता नहीं था। पिछले झटकों से हाल ही में उबरे वीर के लिये यह चोट काफ़ी गहरी थी। अपने किसी खास का दिल दुखाने का बोझ उनके दिल पर बैठ गया था। पढाई में सदा अव्वल रहने वाले वीर पिछड़ने लगे। सगे सम्बन्धियों ने घोषणा सी कर दी कि अब वे आगे पढ नहीं पायेंगे। आस-पड़ोस की महिलायें भी माँ को उनसे कोई नौकरी करवाने की सलाह देने लगीं। वीर को स्वयं भी यह समझ नहीं आता था कि वे अब तक अपने माता-पिता पर बोझ क्यों बने हुए हैं। क्या से क्या हो गया और वे कुछ कर भी नहीं पाये। काश वे पल भर के लिये अपनी समस्याओं के खोल से बाहर आ पाते और झरना के हृदय के भावों को पहचानने का प्रयास करते!

समय बीतता गया। विद्यालय में उल्टे सीधे अंकों से वीर आगे तो बढे परंतु कक्षा बढने के साथ-साथ उनका वैराग्य भी अधिक बढता गया। अब वे अपने नगर और सभी परिचितों से बुरी तरह उकता चुके थे। उन्होंने कुछ सरकारी नौकरियों की तलाश आरम्भ की। बीए पास होते-होते वे इक्कीस वर्ष के हो गये और जल्दी ही उन्होंने अपने आपको एक प्रतिष्ठित बैंक में काम करते हुए पाया। माँ दादी के पास रहने चली गयीं और वे अरविन्द के साथ फ़त्ते के घर नोइडा में किराये पर रहने लगे।

नई नौकरी और नये मित्रों का साथ मिलने से वीरसिंह का दर्द कम हुआ था। तीनों अपनी मर्ज़ी के मालिक थे। दिन में डटकर काम करते और शाम को मस्ती। सप्ताहांत में दिल्ली या आसपास के किसी पर्यटन स्थल चले जाते। जंतर मंतर और कुतुब मीनार से आरम्भ हुई साप्ताहिक यात्रायें बडकल और सूरजकुण्ड होते हुए अब मसूरी, हरिद्वार तक पहुँच चुकी थीं। सब कुछ ठीक-ठाक होते हुए भी हँसते-खेलते वीर को अचानक अपने घेरे में ले लेने वाली उदासी का कारण जानने के लिये पिछले कई दिनों से अरविन्द और फ़तह उनके पीछे पड़े हुए थे। अब झरना-वीर की कहानी पूरी होते तक सभी होनी के खेल से दुखी थे। ईर व फ़त्ते ने वीर को ढाढस बन्धाया कि झरना उसे जल्दी ही मिलेगी। फत्ते तो अगले रविवार को ही उसे हरयाणा में थानेसर स्थित शेख चिल्ली की मज़ार ले जाने वाला था। उसकी मान्यता है कि वहाँ मन्नत मांगने से बिछड़े हुए प्रेमी अवश्य मिलते हैं। वह ऐसे कई लोगों को जानता भी है जिनका काम वहाँ जाने से हुआ।

वीर तो शेख चिल्ली की बात को मज़ाक ही समझ रहे थे मगर जब ईर ने बताया कि दारा शिकोह के गुरु सूफ़ी संत रज़्ज़ाक अब्दुल रहीम अब्दुल करीम ही चालीस दिन तक थानेसर में ईश्वर की उपासना "चिल्ला" करते रहने के कारण शेख चिल्ली कहलाते थे तो बात वीर की समझ में धंस गयी। अगले रविवार को वे तीनों थानेसर पहुँच गये। लाल पत्थर और संगे-मरमर का बना हुआ शेख चिल्ली का मकबरा एक सुन्दर भवन था। यह भवन दारा शिकोह ने अपने गुरु के लिये बनवाया था और वह महीनों तक यहाँ अपने गुरु के चरणों में अध्ययन-मनन करता था। शेख चिल्ली की मृत्यु के बाद इसी इमारत को उनका मकबरा बना दिया गया। भवन और उसका उद्यान मनभावन थे। पुराना तालाब, सूखी नहर, मुग़ल बाग़ की हरियाली, पत्थर मस्जिद आदि भी वीर को बहुत सुन्दर लगा।

तीनों ने झरना की वापसी की दुआ मांगी
पता नहीं यह साथियों का सहारा था या दिल की गिरह खुल जाने की बात थी या सचमुच शेख चिल्ली की इनायत, थानेसर जाने के बाद से वीर अब प्रसन्न रहने लगे थे। उनके पास अपनी खोयी हुई ज़िन्दगी का सुराग़ लगाने का कोई निश्चित तरीका तो नहीं था पर फिर भी अब उन्हें कहीं न कहीं यह लगने लगा था कि उनका और झरना का मिलन जल्दी ही होने वाला है। क्या पता वह नई सराय आये और फिर माँ और दादी से मिलकर उनका पता मांगकर यहाँ आये। या फिर वहाँ पहुँचकर वासिफ़ द्वारा उन्हें बुलवा भेजे। कौन जाने कैसे हो, मगर यह मिलन जल्दी ही होना है, उनका ऐसा विश्वास बनने लगा था। क्या आशा की यह किरण सच्ची थी?


[क्रमशः]

Saturday, October 15, 2011

करवाचौथ की शुभकामनायें!

चन्द्रमा के कुछ रूप, मेरे सेलफ़ोन व कैमरों से 
शरद पूर्णिमा

शरद पूर्णिमा

पेड़ पर टँगा सायंकालीन चन्द्रमा

बर्फ़ीली रात का चान्द

स्वर्णिम चन्द्रमा

दूज का चान्द (चित्र: श्री रवि दत्त द्वारा)

भोर का हिमाच्छादित चान्द

सूर्य से प्रकाशित

ठंड में ठिठुरते चन्दामामा

Thursday, October 13, 2011

क्या आपको कुछ पता है?

छः जून की उनके ब्लॉग की पोस्ट में उंगलियों में दर्द की चिंता व्यक्त की गयी थी। उन्हें यद्यपि ज्योतिष के सहारे का विश्वास भी था। फिर भी, जिन्हें विश्वास हो उनके लिये भी ज्योतिष चिकित्सा का स्थान तो नहीं ले सकता है। उन्होंने लिखा था:
उनके आश्वासन से मै फिर से डाक्तर के पास जाने से रुक गयी और एक देसी इलाज शुरू किया, डरी इस लिये भी थी कि पहले एक अंगूठे मे इसी प्राब्लम के चलते उसका टेंडर कटवाना पडा था।उस देसी दवा से ही ठीक हुयी हूँ लेकिन कुछ दिन स्प्लिन्ट जरूर बान्धना पडा। बेशक ज्योतिश आपकी समस्या हल नही कर देता लेकिन कई बार ऐसे आश्वासन से आशा सी बन जाती है और आशा ही जीवन है। इतने दिनो पढा सब को लेकिन कुछ कह नही पाई लिख नही पाई। अब भी अधिक देर लिखने से अँगुली दुखने लगती है लेकिन ये भी ठीक हो जायेगी कुछ दिन मे ।
निर्मला कपिला जी
इसके बाद उनकी दो प्रविष्टियाँ और आयीं और अब दो मास से अधिक बीत जाने पर भी कोई अपडेट नहीं है। जी हाँ, मैं बात कर रहा हूँ, खुशमिजाज़ ब्लॉगर, कवयित्री, कथाकार श्रीमती निर्मला कपिला की| आशा है कि वे ठीक होंगी, फिर भी चिंता है।

जिस प्रकार निर्मला जी के बारे में चिंतित हूँ, लगभग उसी प्रकार भावों से भरपूर कविता रचने वाली सन्ध्या गुप्ता जी की पिछली (दो महीने पुरानी) पोस्ट में भी उनकी गम्भीर बीमारी के बारे में चिंतातुर करने वाला निम्न सन्देश था:

मित्रों, एकाएक मेरा विलगाव आपलोगों को नागवार लग रहा है, किन्तु शायद आपको यह पता नहीं है की मैं पिछले कई महीनो से जीवन के लिए मृत्यु से जूझ रही हूँ । अचानक जीभ में गंभीर संक्रमण हो जाने के कारन यह स्थिति उत्पन्न हो गयी है। जीवन का चिराग जलता रहा तो फिर खिलने - मिलने का क्रम जारी रहेगा। बहरहाल, सबकी खुशियों के लिए प्रार्थना।
डॉ. सन्ध्या गुप्ता
मैं जानता हूँ कि हम भारतीय लोग बहुत भावुक होते हैं और वसुधैव कुटुम्बकम की भावना निभाते हुए तुरंत हिल मिल जाते हैं। रेल का सफ़र हो या बस का, मंज़िल आने तक सम्पर्क सूत्रों का आदान-प्रदान हो ही जाता है। हिन्दी ब्लॉग जगत में भी भाई बहन से लेकर सास-ननद तक बहुत से रिश्ते जोड़े गये हैं, बहुत अच्छी बात है। आभासी रिश्ते जोड़ें न जोड़ें, परंतु यदि हम एक दूसरे की हारी-बीमारी में हाल पता कर सकें और आवश्यकता पड़ने पर किसी काम आ सकें तो मेहरबानी होगी। मेरे पास इन दोनों ही का सम्पर्क नम्बर नहीं है, बस ईमेल पता है सो किया मगर उसका कोई उत्तर नहीं मिला। यदि आप में से किसी को इन दोनों की खैरियत के बारे में जानकारी हो तो कृपया अवश्य दें। यदि आपके पास उनका या किसी परिवारजन का फ़ोन नम्बर हो तो बात करने का प्रयास कीजिये, यदि कोई निकट रहता हो तो मिल ही लीजिये। बस यही मेरा निवेदन है।

धन्यवाद व शुभकामनायें!

[दोनों चित्र रिस्पेक्टिव ब्लॉग प्रोफ़ाइल्स से]
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सम्बन्धित कड़ियाँ
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* वीरबहूटी - निर्मला जी का ब्लॉग
* फिर मिलेंगे - सन्ध्या जी की पोस्ट
* श्रद्धांजलि - नहीं रही डॉ.संध्या गुप्ता
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Monday, October 10, 2011

एक नये संसार की खोज - इस्पात नगरी से 46


स्थानीय पत्र में कोलम्बस पर विमर्श
एक ज़माना था जब हर समुद्री मार्ग भारत तक पहुँचता था। विश्व का लगभग हर देश सोने की चिड़िया कहे जाने वाले भारत के साथ आध्यात्मिक, व्यापारिक, और सामरिक सम्बन्ध रखने को आतुर था। विशेषकर यूरोप के राष्ट्रों में भारत आने का  छोटा और सुरक्षित मार्ग ढूंढने के लिये गलाकाट प्रतियोगिता चल रही थी। पाँच शताब्दी पहले यूरोप से भारत की ओर चले एक बेड़े के भौगोलिक अज्ञान के कारण एक ऐसे नये संसार की खोज हुई जो अब तक यूरोप से अपरिचित था। भारत की जगह आकस्मिक रूप से कोलम्बस और उसके साथी उस अज्ञात स्थल पर पहुँचे थे जो आने वाले समय में भारत की जगह विश्व की विचारधारा और कृतित्व का केन्द्र बनने वाला था।

12 अक्टूबर 1492 को क्रिस्टोफ़र कोलम्बस और उसके साथियों ने धरती के गोलाकार होने की नई वैज्ञानिक जानकारी का प्रयोग करते हुए पश्चिम दिशा से भारत का नया मार्ग ढूंढने का प्रयास किया। बेचारों को नहीं पता था कि यूरोप के पश्चिम में उत्तर से दक्षिण तक एक लम्बी दीवार के रूप में एक अति विशाल भूखण्ड भारत पहुँचने में बाधक बनने वाला है।

कोलम्बस का तैलचित्र
1451 में जेनोआ इटली में डोमेनिको कोलम्बो नामक बुनकर के घर जन्मा कोलम्बस 22 वर्ष की आयु में एक समुद्री कप्तान बनने का स्वप्न लेकर अपने घर से निकला। उसने तत्कालीन यूरोप के सर्वोत्तम समुद्री अन्वेषक राष्ट्र माने जाने वाले पुर्तगाल की भाषा सीखी, मार्को पोलो की यात्राओं का अध्ययन किया और नक्शानवीसी भी सीखी। पृथ्वी के गोलाकार रूप के बारे में जानने के बाद उसे भारत का पश्चिमी मार्ग ढूंढने का विचार आया।

अपने अभियान के लिये पुर्तगाल राज्य द्वारा सहायता नकारे जाने के बाद उसने स्पेन से वही अनुरोध किया और स्वीकृति मिलने पर नीना, पिंटा और सैंटा मारिया नामक तीन जलपोतों का दस्ता लेकर पैलोस बन्दरगाह से स्पेनी झंडे के साथ 3 अगस्त 1492 को पश्चिम दिशा में चल पड़ा।

कोलम्बस के अभियान के साथ ही आरम्भ हुआ अमेरिका के मूल स्थानीय नागरिकों और उनकी संस्कृति के विनाश की उस अंतहीन गाथा का जिसके कारण कुछ लोग आज कोलम्बस को एक खोजकर्ता कम और विनाशक अधिक मानते हैं। वैसे भी अमेरिगो वेस्पूशी जैसे नाविक पहले ही अमेरिका आ चुके थे और जिस महाद्वीप पर लोग पहले से ही रहते हों, उसकी "खोज" ही अपने आप में एक विवादित विषय है।

फिर भी संयुक्त राज्य अमेरिका में अक्टूबर मास का दूसरा सोमवार प्रतिवर्ष कोलम्बस डे के रूप में मनाया जाता है और एक राष्ट्रीय अवकाश है। क्षेत्र के अन्य कई राष्ट्र भी किसी न किसी रूप में इसे मान्यता देते हैं। वैसे अमेरिका की उपभोगवादी परम्परा में किसी भी पर्व का अर्थ अक्सर शॉपिंग, सेल, छूट, प्रमोशन आदि ही होता है। अमेरिका में बैठे एक भारतीय के लिये यह देखना रोचक है कि समय के साथ किस प्रकार विश्व के केन्द्र में रहने वाले राष्ट्र स्थानापन्न होते रहते हैं।

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सम्बन्धित कड़ियाँ
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* इस्पात नगरी से - पिछली कड़ियाँ
* कोलम्बस, कोलम्बस! छुट्टी है आयी

Saturday, October 8, 2011

अनुरागी मन - कहानी (भाग 16)

अनुरागी मन - अब तक - भाग 1; भाग 2; भाग 3; भाग 4; भाग 5; भाग 6भाग 7; भाग 8; भाग 9; भाग 10; भाग 11; भाग 12; भाग 13; भाग 14; भाग 15;
पिछले अंकों में आपने पढा:
दादाजी की मृत्यु, एक अप्सरा का छल, पिताजी की कठिनाइयाँ - वीर सिंह पहले ही बहुत उदास थे, फिर पता पता लगा कि उनकी जुड़वाँ बहन जन्मते ही संसार त्याग चुकी थी। ईश्वर पर तो उनका विश्वास डाँवाडोल होने लगा ही था, जीवन भी निस्सार लगने लगा था। ऐसा कोई भी नहीं था जिससे अपने हृदय की पीड़ा कह पाते। तभी अचानक रज्जू भैय्या घर आये और जीवन सम्बन्धी कुछ सूत्र दे गये| ज़रीना खानम के विवाह के अवसर पर झरना के विषय में हुई बड़ी ग़लतफ़हमी सामने आयी जिसने वीर के हृदय को ग्लानि से भर दिया।
अब आगे भाग 16 ...
ज़रीना की शादी के बाद दो दिन तक वीर अपने घर से बाहर नहीं निकले। तीसरे दिन वासिफ़ उनसे मिलने आया। बहुत दिन बाद दो जिगरी दोस्त एक साथ शाम की सैर पर गये। झरना के बारे में बहुत बात हुई। कहानी काफ़ी लम्बी थी। वह सब ईर और फ़त्ते को सुनाकर वीर उन्हें बोर नहीं करना चाहते थे। लेकिन उन्होंने इतना बताया कि झरना का वासिफ़ से कोई रक्त-सम्बन्ध नहीं था। वासिफ़ के दादा झरना फर्शस्ती के पारसी दादा की नई सराय स्थित सम्पत्ति के प्रबन्धक थे। अंग्रेज़ों के समय से ही कई नगरों में उसके परिवार की स्थाई सम्पत्ति थी। नई सराय का पहला पेट्रोल पम्प, बरेली की पहली कत्था फ़ैक्ट्री और अमरोहा के कुछ बाग़ान के अलावा दिल्ली और कानपुर में भी उनका व्यवसाय था। झरना का जन्म केन्या में हुआ था। काफ़ी पहले एक सड़क दुर्घटना में उसके पिता गुज़र चुके थे। अपने पुराने कारकुनों के विश्वास पर व्यवसाय का सारा काम माँ-बेटी ही देखती थीं। झरना और उसकी माँ उसी सिलसिले में हर साल गर्मियों में भारत आते थे। माँ की तबियत बिगड़ने के कारण इस बार वह अकेले ही आयी थी और इसी बीच उनकी मृत्यु के कारण उसे अचानक वापस जाना पड़ा था।

जब वीर घर वापस आये तो माँ पिता के लिये पत्र लिख रही थीं। वीर ने भी महीनों बाद अपने पिता के लिये एक अच्छा सा पत्र लिखकर उसे माँ के पत्र के साथ ही लिफ़ाफे में बन्द किया और नुक्कड़ पर लगी डाकपेटी में डालकर आ गये। माँ खाना लगाने लगीं। वीर ने अपनी ममतामयी माँ को बड़े ध्यान से देखा।

कई मायनों में माँ इस परिवार की क्रांतिकारी बहू थीं। उन्होंने कभी घूंघट नहीं किया न ही पति का नाम लेने में झिझकीं। माँ ने कभी करवाचौथ का व्रत भी नहीं रखा था। वे उसे ज़रूरी नहीं मानती थीं परंतु उन्हें यह अहसास था कि हर साल निर्जला उपवास रखने वाली दादी इस बार अपने उपवास के देवता के बिना अकेली थीं। इसलिये करवाचौथ पर माँ वीर को साथ लेकर दादी से मिलने नई सराय आयीं। शाम का खाना खाकर सास बहू बातें करने लगीं। दादी थोड़ी भाव-विह्वल हो गयीं कि सदा उपवास करने के बाद भी वे विधवा हो गयीं। भरे गले से उन्होंने माँ के विवेक और उनके अन्धविश्वास से बचे रहने की प्रशंसा की।

माँ और दादी अभी भी बातें कर रहे थे परंतु बातों का रुख आस-पड़ोस के ताज़ा समाचार की ओर मुड़ चुका था। वीर उठकर छत पर आये और फिर छज्जे पर खड़े होकर बाहर का नज़ारा करने लगे। लजाती-शर्माती नववधू से लेकर वयोवृद्ध महिलायें तक आज नखशिख तक गहनों में सजी दिख रही थीं। प्रदेश के अन्य क्षेत्रों के विपरीत नई सराय और आसपास के क्षेत्रों में अविवाहितायें भी करवा चौथ का व्रत रखती थीं। मान्यता यह थी कि उनका पति तो उनसे पहले ही कहीं जन्म ले चुका है सो उपवास होना ही चाहिये। वीर को ख्याल आया कि उनकी बहन यदि जीवित होती तो माँ की तरह वह भी शायद ऐसा उपवास नहीं करती। अनदेखी बहन की याद आने पर भी आज वे उदास नहीं थे, अपने अन्दर आये इस परिवर्तन का श्रेय वे अपने डायरी लेखन को दे सकते थे।

ये तूने क्या किया वीर?
आजकल वे उदास कम ही होते थे लेकिन झरना के प्रति अपने दुर्व्यवहार के कारण एक ग्लानि सी उन्हें घेरे रहती थी। बिना माँ-बाप की एक निश्छल बेटी। न जाने कब मिलेगी और कब वे अपने कृत्यों की क्षमा मांग सकेंगे। सोचते-सोचते कब अन्धेरा घिर आया, और कब चांद खिला, उन्हें पता ही न लगा। वे हटकर अन्दर जाने को हुए ही थे कि देखा सामने मैदान में एकत्रित महिलाओं से अलग हटकर खड़ी एक लड़की चन्द्रमा को अर्ध्य देने के बाद उनकी ओर मुड़कर उन्हें झुककर प्रणाम कर रही थी।

ध्यान से देखने पर पता लगा कि वह पड़ोस की शरारती निक्की ही थी। वीर जी शर्मा गये और झटके से मुड़कर अन्दर आ गये। तीनों जन ने साथ बैठकर खाना खाया। माँ और दादी को रसोई में छोड़कर वीरसिंह सोने चले। सोने से पहले उन्होंने डायरी में आज की घटनाओं को विस्तार से लिखा। वे समझ नहीं पाये कि निक्की को उनके बारे में भ्रम कैसे पैदा हुआ। उन्होंने तो सदा उसे अपनी बहन जैसा ही माना था और वैसा ही व्यवहार किया था।

सुबह जब किसी ने माथे पर हाथ रखा तो उनकी आँख खुली। चाय लेकर अपने सिरहाने खड़ी निक्की को देखकर उनके माथे पर बल पड़ गये। अपने शब्दों को संवारते हुए उन्होंने धीरे से कहा, "तुम्हें तकलीफ़ करने की क्या ज़रूरत थी? माँ और दादी कहाँ हैं?"

"क्यों? यह भी तो मेरा ही घर है? अपने घर के काम में तकलीफ़ कैसी? वैसे काम में लगी हैं दोनों? पूरे घर की धुलाई हो रही है।"

प्याला हाथ में थमाकर निक्की सामने ही कुर्सी पर बैठ गयी।

"कल रात क्या कर रही थी?" वीर ने अपनी आवाज़ को यथासंभव संयत रखते हुए पूछा।

"आपने देख लिया था?" निक्की ने लजाते हुए पूछा।

"हम नई सराय के कुँवर जी हैं, यहाँ हमसे कुछ भी छिप नहीं सकता है।"

"तब तो आपको पता होना चाहिये कि हमने अपना वर चुन लिया है" निक्की ने अपने बिन्दास अन्दाज़ में कहा।

"ज़रा सी तो हो, अभी पढने-लिखने की उम्र है तुम्हारी।"

"आपसे बस छह मास छोटी हूँ, 17 की हो चुकी हूँ मैं, कोई बच्ची नहीं हूँ।"

"अच्छा!" वीर का मुँह आश्चर्य से खुला रह गया, न जाने क्यों वे निक्की को 10-12 साल का ही समझते थे।

" तो सुना दो अपने वरदान का राज़ ..." वीर आगत का सामना करने की तैयारी कर रहे थे।

"मेरा चन्द्रमा तो कल चन्द्रमा निकलने के साथ ही आपके दरवाज़े के साथ आकर खड़ा हो गया था।"

"अरे वाह! कौन है वह?" वीर की वाणी का उल्लास छिपाये न छिपा।

"मंगल ... मिश्र अंकल का बेटा। बहुत अच्छा लड़का है। पढाकू है। और आपकी तो बहुत इज़्ज़त करता है। ... मतलब, आपकी इज़्ज़त तो सभी करते हैं, ... मैं भी करती हूँ।"

"अच्छा! तो यह बात है।" वीर प्रसन्न थे फिर भी एक उलझन थी, " ... अब यह बताओ कि वह पत्र क्यों लिखा था मुझे?"

"कौन सा?" निक्की सोच में पड़ गयी।

"वही जो पिछली बार मेरे बरेली जाते हुए दिया था तुमने।"

"अच्छा वो! धत्! मैं आपको क्यों लिखने लगी वैसा पत्र?" वह चुन्नी दांत से काटने लगी, "वह तो झरना जी ने आपको दिया था जब वे यहाँ आयी थीं, दादाजी की ग़मी में।"

"उसने दिया था? तुम सच बोल रही हो?" वीर को अपने कानों पर विश्वास नहीं हुआ।

"हाँ भैया, उन्होंने तो आपको ही दिया था लेकिन तब आप होश में कहाँ थे। नीचे गिरा दिया था। मैंने ही उठाया और अपने पास रख लिया था ताकि किसी के हाथ न पड़े।"

"हे राम!"

"झरना जी बहुत अच्छी हैं भैया, लाखों में एक। आप दोनों की जोड़ी बहुत सुन्दर है। वे आपकी दीवानी हैं, उन्हें निराश मत कीजियेगा।"

वीर का दिल फिर बैठ गया। उनकी आँखों के सामने क्या-क्या होता रहा और वे कुछ भी देख नहीं पाये!

[क्रमशः]

Friday, October 7, 2011

अनुरागी मन - कहानी (भाग 15)

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अनुरागी मन - अब तक - भाग 1; भाग 2; भाग 3; भाग 4; भाग 5; भाग 6;
भाग 7; भाग 8; भाग 9; भाग 10; भाग 11; भाग 12; भाग 13; भाग 14;
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पिछले अंकों में आपने पढा:
दादाजी की मृत्यु, एक अप्सरा का छल, पिताजी की कठिनाइयाँ - वीर सिंह पहले ही बहुत उदास थे ... और अब यह नई बात पता पता लगी कि उनकी जुड़वाँ बहन जन्मते ही संसार त्याग चुकी थी। ईश्वर पर तो उनका विश्वास डाँवाडोल होने लगा ही था, जीवन भी निस्सार लगने लगा था। ऐसा कोई भी नहीं था जिससे अपने हृदय की पीड़ा कह पाते। तभी अचानक रज्जू भैय्या घर आये और जीवन सम्बन्धी कुछ सूत्र दे गये
अब आगे भाग 15 ...
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डायरी लिखने की सलाह जम गयी। रज्जू भैया की सलाह द्वारा वीर ने अनजाने ही अपने जीवन का अवलोकन आरम्भ कर दिया था। डायरी के पन्नों में वे अपने जीवन को साक्षीभाव से देखने लगे थे। वीर ने अपने मन के सभी भाव कागज़ पर उकेर दिये। कुछ घाव भरने लगे थे, कुछ बिल्कुल सूख गये थे। दादाजी का जाना, पिताजी का कठिन जीवन, दादी का अकेलापन, बहन की मृत्यु, सारे ग़म मानो डायरी के पन्नों में आते ही सिकुड़ गये। टीसते थे परंतु अब खुले ज़ख्मों से रक्त नहीं बह रहा था सिवाय एक जगह के। झरना की याद, उसका प्रेममय व्यवहार, और उसकी बातें अब भी उनका हृदय छलनी कर जाती थीं। लाख सोचने पर भी वे समझ नहीं पाते थे कि उनके जीवन से इतना बड़ा खिलवाड़ कैसे हो गया। एक वाग्दत्ता उनकी भावनाओं के साथ क्यों खेलती रही? उनकी पीड़ा उनकी कविताओं में निखरकर आ रही थी जो कि अब स्थानीय पत्र में छपने भी लगी थीं। दिल दुखता तो था मगर अब तक वे इतना सम्भल चुके थे कि यदि झरना सामने पड़ जाती तो अपने दिल की हलचल को सबसे छिपाकर ऊपर से सामान्य व्यवहार कर सकते थे।

दुल्हन आ चुकी थी
दो महीने कब बीत गये पता ही न चला। माँ ने वीर को याद दिलाया कि आज ज़रीना की शादी का दिन था। दोनों तैयार होकर वासिफ़ के घर पहुँच गये। सब लोग अच्छी प्रकार से मिले। माँ महिलाओं के बीच ग़ुम हो गयीं जबकि वीर को वासिफ़ अपने साथ ले गया। ऊपर से संयत दिखने का प्रयास करते हुए वीर को यह डर नहीं था कि क्या वे सचमुच अपनी अप्सरा को किसी और का होते हुए देख पायेंगे। उन्हें अपने ऊपर इतना भरोसा तो था ही। लेकिन वे यह अवश्य देखना चाहते थे कि अपने विवाह के समय उन्हें उपस्थित पाकर झरना कितना सामान्य रह पाती है। वीर को अब तक पता नहीं था कि अलग-अलग सम्प्रदायों में विवाह के रिवाज़ कितने अलग होते हैं। घरातियों के साथ मिलकर वीर ने भी गुलाब की पंखुड़ियाँ बिछाकर बारात का स्वागत किया। दूल्हे और बरातियों को हार पहनाये गये और सेहरे पढे गये। कुछ लोगों ने दूल्हे को घेरकर उसके ऊपर चादर से एक छत्र सा बनाया और उसके आसन तक ले आये। दुल्हन भी सामने आ चुकी थी परंतु अभी उसका चेहरा फूलों के सेहरे के पीछे छिपा हुआ था। जल्दी ही सब अतिथियों ने भी अपने आसन ग्रहण कर लिये। निकाह पढा जाने से पहले वासिफ़ की अम्मी ने दुल्हन का सेहरा किनारे करते हुए उसका गाल चूमा तो वीर को मानो झटका सा लगा। वह झरना नहीं थी। उन्हें झरना के साथ पहले दिन हुआ अपना सम्वाद याद आया।

“वासिफ की छोटी बहन हैं आप?”

“नहीं”

“तो बड़ी हैं क्या?”

“नहीं”

हे राम! वे इतनी स्पष्ट बात का अर्थ भी नहीं समझ सके थे। इसका मतलब यह कि झरना वासिफ़ की बहन नहीं है। भगवान भी उनके साथ कैसा मज़ाक करता रहा और वे पहचान भी न सके। वीर, यह क्या कर दिया तूने? किसी के अनुरागी मन को अपवित्र समझा और आक्षेप लगाये। झरना और ज़रीना अलग-अलग हैं यह विचार मन में आते ही उन्होंने लड़कियों की दिशा में खोजना शुरू किया मगर झरना यदि वहाँ होती तो उस भीड़ में भी सबसे अलग दमक रही होती। शायद उन्हें देखकर स्वयं ही उनके पास चली आई होती।

विवाह की रस्म चल ही रही थीं कि वासिफ़ उनके पास आकर कान में कुछ फुसफुसाया। उन्होंने उसकी बात को अनसुना करके पूछा, "झरना कहाँ है?"

"झरना? वह तो कब की चली गयी। जाने से पहले तुम्हारे घर गयी तो थी मिलने। बताया नहीं क्या?"

"क्या? वह मेरे घर बताने आयी थी? यह सब क्या हो गया?"

"हाँ, मैं साथ आ रहा था पर वह अकेले ही जाना चाहती थी। चल क्या रहा है तुम लोगों के बीच?"

वे कुछ कह पाते इसके पहले कोई वासिफ़ को पकड़कर उसे अपने साथ ले गया।

ज़रीना का विवाह भली प्रकार सम्पन्न हुआ। उस दिन वासिफ़ से फिर उनकी मुलाक़ात नहीं हो सकी। माँ के साथ वे अपने घर पहुँचे। वीर रात भर अपनी डायरी में बहुत कुछ लिखते रहे। लिखने से कहीं अधिक पढ़ा भी डायरी के पिछले पन्नों से। जितना पढ़ते जाते उनका दिल उतना ही पिघलता जाता। कितना दोष दिया उन्होंने झरना को ... उन अपराधों के लिये जो उसने कभी किये ही नहीं। सच है कि पिछले दिनों वे बहुत कठिनाइयों से गुज़रे थे लेकिन उसमें झरना का कोई दोष नहीं था। झरना पर अविश्वास करके न केवल उन्होंने अपनी कठिनाइयाँ बढाईं बल्कि अपनी अप्सरा का दिल ... अप्सरा का दिल कैसे तोड़ते रहे वे? वीर का हृदय ग्लानि से भर गया। कमरे की हर बत्ती जल रही थी मगर उनके दिल में घना अन्धेरा था। रोशनी कैसे आये? अपनी ग़लतियों का प्रायश्चित कैसे हो? झरना है कहाँ? कब मिलेगी? कैसे मिलेगी?

[क्रमशः]

Wednesday, October 5, 2011

श्रद्धेय वीरांगना दुर्गा भाभी के जन्मदिन पर

आप सभी को दशहरा के अवसर पर हार्दिक मंगलकामनायें!
एक शताब्दी से थोडा पहले जब 7 अक्टूबर 1907 को इलाहाबाद कलक्ट्रेट के नाज़िर पण्डित बांके बिहारी नागर के शहजादपुर ग्राम ज़िला कौशाम्बी स्थित घर में एक सुकुमार कन्या का जन्म हुआ तब किसी ने शायद ही सोचा होगा कि वह बडी होकर भारत में ब्रिटिश राज की ईंट से ईंट बजाने का साहस करेगी और क्रांतिकारियों के बीच आयरन लेडी के नाम से पहचान बनायेगी। बच्ची का नाम दुर्गावती रखा गया। नन्ही दुर्गावती के नाना पं. महेश प्रसाद भट्ट जालौन में थानेदार और दादा पं. शिवशंकर शहजादपुर के जमींदार थे। दस महीने में ही उनकी माँ की असमय मृत्यु हो जाने के बाद वैराग्‍योन्‍मुख पिता ने उन्हें आगरा में उनके चाचा-चाची को सौंपकर सन्यास की राह ली।

1918 में आगरा निवासी श्री शिवचरण नागर वोहरा के पुत्र श्री भगवती चरण वोहरा के साथ परिणय के समय 11 वर्षीया दुर्गा पाँचवीं कक्षा उत्तीर्ण कर चुकी थीं। समस्त वोहरा परिवार स्वतंत्र भारत के सपने में पूर्णतया सराबोर था। जन-जागृति और शिक्षा के महत्व को समझने वाली दुर्गा ने खादी अपनाते हुए अपनी पढाई जारी रखी और समय आने पर प्रभाकर की परीक्षा उत्तीर्ण की। 1925 में उन्हें एक पुत्ररत्न की प्राप्ति हुई जिसका नाम शचीन्द्रनाथ रखा गया।

(7 अक्टूबर सन् 1907 -15 अक्टूबर सन् 1999) 
चौरी-चौरा काण्ड के बाद असहयोग आन्दोलन की वापसी हुई और देशभक्तों के एक वर्ग ने 1857 के स्वाधीनता संग्राम के साथ-साथ फ़्रांस, अमेरिका और रूस की क्रांति से प्रेरणा लेकर सशस्त्र क्रांति का स्वप्न देखा। उन दिनों विदेश में रहकर हिन्दुस्तान को स्वतन्त्र कराने की रणनीति बनाने में जुटे सुप्रसिद्ध क्रान्तिकारी लाला हरदयाल ने क्रांतिकारी पण्डित राम प्रसाद बिस्मिल को पत्र लिखकर शचीन्द्र नाथ सान्याल व यदु गोपाल मुखर्जी से मिलकर नयी पार्टी तैयार करने की सलाह दी। पण्डित रामप्रसाद बिस्मिल ने इलाहाबाद में शचीन्द्र नाथ सान्याल के घर पर पार्टी का प्रारूप बनाया और इस प्रकार मिलकर आइरिश रिपब्लिकन आर्मी की तर्ज़ पर हिन्दुस्तान रिपब्लिकन आर्मी (एचआरए) का गठन हुया जिसकी प्रथम कार्यकारिणी सभा 3 अक्तूबर 1924 को कानपुर में हुई जिसमें "बिस्मिल" के नेतृत्व में शचीन्द्र नाथ सान्याल, योगेन्द्र शुक्ल, योगेश चन्द्र चटर्जी, ठाकुर रोशन सिंह तथा राजेन्द्र सिंह लाहिड़ी आदि कई प्रमुख सदस्य शामिल हुए। कुछ ही समय में अशफ़ाक़ उल्लाह खाँ, चन्द्रशेखर आज़ाद, मन्मथनाथ गुप्त जैसे नामचीन एचआरए से जुड गये। काकोरी काण्ड के बाद एच.आर.ए. के अनेक प्रमुख कार्यकर्ताओं के पकडे जाने के बाद चन्द्रशेखर आज़ाद के नेतृत्व में एच.आर.ए. अपने नये नाम एच.ऐस.आर.ए. (हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन ऐसोसिएशन/आर्मी) से पुनरुज्जीवित हुई। दुर्गाभाभी, सुशीला दीदी, भगतसिंह, राजगुरू, सुखदेव, भगवतीचरण वोहरा का सम्बन्ध भी इस संस्था से रहा।

माता-पिता के साथ शचीन्द्रनाथ
मेरठ षडयंत्र काण्ड में भगवतीचरण वोहरा के नाम वारंट निकलने पर वे पत्नी दुर्गादेवी के साथ लाहौर चले गये जहाँ वे दोनों ही भारत नौजवान सभा में सम्मिलित रहे। यहीं पर भारत नौजवान सभा ने तत्वावधान में भगवतीचरण वोहरा की बहन सुशीला देवी "दीदी" तथा अब तक "भाभी" नाम से प्रसिद्ध दुर्गादेवी ने करतार सिंह के शहीदी दिवस पर अपने खून से एक चित्र बनाया था।

सॉंडर्स की हत्या के अगले दिन 18 दिसम्बर 1928 को वे ही लाहौर स्टेशन पर उपस्थित 500 पुलिसकर्मियों को चकमा देकर हैट पहने भगत सिंह को अपने साथ रेलमार्ग से सुरक्षित कलकत्ता लेकर गयीं। राजगुरू ने उनके नौकर का वेश धरा और कोई मुसीबत आने पर रक्षा हेतु चन्द्रशेखर आज़ाद तृतीय श्रेणी के डब्बे में साधु बनकर भजन गाते चले। लखनऊ स्टेशन से राजगुरू ने वोहरा जी को उनके आगमन का तार भेजा जो कि सुशीला दीदी के साथ कलकत्ता में स्टेशन पर आ गये। वहाँ भगतसिंह अपने नये वेश में कॉंग्रेस के अधिवेशन में गये और गांधी, नेहरू और बोस जैसे नेताओं को निकट से देखा। भगतसिंह का सबसे प्रसिद्ध (हैट वाला) चित्र उन्हीं दिनों कलकत्ता में लिया गया।

भगतसिंह की गिरफ़्तारी के बाद आज़ाद के पास उस स्तर का कोई साथी नहीं रहा गया था जो उनकी कमी को पूरा कर सके। यह अभाव आज़ाद को हर कदम पर खल रहा था। अब आज़ाद और भगवतीचरण एक दूसरे के पूरक बन गए। ~शिव वर्मा
महान क्रांतिकारी दुर्गाभाभी
वोहरा दम्पत्ति लाहौर में क्रांतिकारियों के संरक्षक जैसे थे। जहाँ भगवतीचरण एक पिता की तरह उनके खर्च और दिशानिर्देश का ख्याल रखते थे वहीं दुर्गा भाभी एक नेत्री और माँ की तरह उनका निर्देशन करतीं और अनिर्णय की स्थिति में उनके लिये राह चुनतीं।

भगवतीचरण वोहरा की सहायता से चन्द्रशेखर आज़ाद ने पब्लिक सेफ्टी और ट्रेड डिस्प्यूट बिल के विरोध में हुए सेंट्रल असेम्बली बम काण्ड में क़ैद क्रांतिकारियों को छुडाने के लिये जेल को बम से उडाने की योजना पर काम आरम्भ किया। इसी बम की तैयारी और परीक्षण के समय रावी नदी के तट पर सुखदेवराज और विश्वनाथ वैशम्पायन की आंखों के सामने 28 मई 1930 को वोहरा जी की अकालमृत्यु हो गयी। उस आसन्न मृत्यु के समय मुस्कुराते हुए उन्होंने विश्वनाथ से कहा कि अगर मेरी जगह तुम दोनों को कुछ हो जाता तो मैं भैया (आज़ाद) को क्या मुँह दिखाता?

शहीदत्रयी की फ़ांसी की घोषणा के विरोधस्वरूप दुर्गा भाभी ने स्वामीराम, सुखदेवराज और एक अन्य साथी के साथ मिलकर एक कार में मुम्बई के लेमिंगटन रोड थाने पर हमला करके कई गोरे पुलिस अधिकारियों को ढेर कर दिया। पुलिस को यह कल्पना भी न थी कि ऐसे आक्रमण में एक महिला भी शामिल थी। उनके धोखे में मुम्बई पुलिस ने बडे बाल वाले बहुत से युवकों को पूछताछ के लिये बन्दी बनाया था। बाद में मुम्बई गोलीकांड में उनको तीन वर्ष की सजा भी हुई थी।

भगवती चरण (नागर) वोहरा
4 जुलाई 1904 - 28 मई 1930
अडयार (तमिलनाडु) में मॉंटेसरी पद्धति का प्रशिक्षण लेने के बाद से ही वे भारत में इस पद्धति के प्रवर्तकों में से एक थीं। सन 1940 से ही उन्होंने उत्तर भारत के पहले मॉंटेसरी स्कूल की स्थापना के प्रयास आरम्भ किये और लखनऊ छावनी स्थित एक घर में पाँच छात्रों के साथ इसका श्रीगणेश किया। उनके इस विनम्र प्रयास की परिणति के रूप में आजादी के बाद 7 फ़रवरी 1957 को पण्डित नेहरू ने लखनऊ मॉंटेसरी सोसाइटी के अपने भवन की नीँव रखी। संस्था की प्रबन्ध समिति में कुछ राजनीतिकों के साथ आचार्य नरेन्द्र देव, यशपाल, और शिव वर्मा भी थे। 1983 तक दुर्गा भाभी इस संस्था की मुख्य प्रबन्धक रहीं। तत्पश्चात वे मृत्युपर्यंत अपने पुत्र शचीन्द्रनाथ के साथ गाजियाबाद में रहीं और शिक्षणकार्य करती रहीं। त्याग की परम्परा की संरक्षक दुर्गा भाभी ने लखनऊ छोडते समय अपना निवास-स्थल भी संस्थान को दान कर दिया।

स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद कुछ राजनीतिज्ञों द्वारा राजनीति में आने के अनुरोध को उन्होंने विनम्रता से अस्वीकार कर दिया। पंजाब सरकार द्वारा 51 हजार रुपए भेंट किए जाने पर भाभी ने उन्हें अस्वीकार करते हुए अनुरोध किया कि उस पैसे से शहीदों का एक बड़ा स्मारक बनाया जाए जिससे भारत की स्वतंत्रता के क्रांतिकारी आंदोलन के इतिहास का अध्ययन और अध्यापन हो सके क्योंकि नई पीढ़ी को अपने गौरवशाली इतिहास से परिचय की आवश्यकता है।

92 वर्ष की आयु में 15 अक्टूबर सन् 1999 को गाजियाबाद में में रहते हुए उनका देहावसान हुआ। वोहरा दम्पत्ति जैसे क्रांतिकारियों ने अपना सर्वस्व हमारे राष्ट्र पर, हम पर न्योछावर करते हुए एक क्षण को भी कुछ विचारा नहीं। आज जब उनके पुत्र शचीन्द्रनाथ वोहरा भी हमारे बीच नहीं हैं, हमें यह अवश्य सोचना चाहिये कि हमने उन देशभक्तों के लिये, उनके सपनों के लिये, और अपने देश के लिये अब तक क्या किया है और आगे क्या करने की योजना है ।

सात अक्टूबर को दुर्गा भाभी के जन्मदिन पर उन्हें शत-शत नमन!

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सम्बन्धित कड़ियाँ
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* आजादी का अनोखा सपना बुना था दुर्गा भाभी ने
* Durga bhabhi: A forgotten revolutionary
* अमर क्रांतिकारी भगवतीचरण वोहरा
* हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोशिएशन का घोषणा पत्र
शहीदों को तो बख्श दो
* महान क्रांतिकारी थे भगवती चरण वोहरा
जेल में गीता मांगी थी भगतसिंह ने
महान क्रांतिकारी चन्द्रशेखर "आज़ाद"
जिन्होंने समाजवादी गणतंत्र का स्वप्न देखा
काकोरी काण्ड
* Lucknow Montessori Inter College
Revolutionary movement for Indian independence